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Thursday, March 27, 2014

उत्तराखंड में अनूठी है भाई-बहन के प्रेम की 'भिटौली' परंपरा

  • चैत्र माह में निभाई जाती है यह परंपरा, भाई देते हैं बहनों को सौगात
अनेक अनूठी परंपराओं के लिए पहचाने जाने वाले उत्तराखण्ड राज्य में भाई-बहन के प्रेम की एक अनूठी ‘भिटौली’ देने की प्राचीन परंपरा है। पहाड़ में सभी विवाहिता बहनों को जहां हर वर्ष चैत्र मास का इंतजार रहता है, वहीं भाई भी इस माह को याद रखते हैं और अपनी बहनों को ‘भिटौली’ देते हैं। 
घुघुती
'भिटौली' का शाब्दिक अर्थ भेंट देने से हैं। प्राचीन काल से चली आ रही यह परंपरा उस दौर में काफी महत्व रखती थी। इसके जरिए भाई-बहन का मिलन तो होता ही था, इसके जरिए उस संचार के साधन विहीन दौर में अधिकांशतया बहुत दूर होने वाले मायकों की विवाहिताओं की कुशल-क्षेम मिल जाती थी। भाई अपनी बहनों के लिए घर से हलवा-पूड़ी सहित अनेक परंपरागत व्यंजन तथा बहन के लिए वस्त्र एवं उपलब्ध होने पर आभूषण आदि भी लेकर जाता था। बाद के दौर में व्यंजनों के साथ ही गुड़, मिश्री व मिठाई जैसी वस्तुएं भी भिटौली के रूप में दी जाने लगीं। व्यंजनों को विवाहिता द्वारा अपने ससुराल के पूरे गांव में बांटा जाता था। भिटौली का विवाहिताओं को बेसब्री से इंतजार रहता था। भिटौली जल्दी आना बहुत अच्छा माना जाता था, जबकि भिटौली देर से मिली तो भी बहनों की खुशी का पारा-वार न होता था। आज के बदलते दौर में भिटौली की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में तो कमोबेश पुराने स्वरूप में ही जारी है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में भाइयों द्वारा ले जाए जाने वाले व्यंजनों का स्थान बाजार की मिठाइयों ने ले लिया है। भाई कई बार साथ में बहनों के लिए कपड़े ले जाते हैं, और कई बार इनके स्थान पर कुछ धनराशि देकर भी परंपरा का निर्वहन कर लिया जाता है।

लोकगीतों-दंतकथाओं में भी है भिटौली

भिटौली प्रदेश की लोक संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। इसके साथ कई दंतकथाएं और लोक गीत भी जुड़े हुए हैं। पहाड़ में चैत्र माह में यह लोकगीत काफी प्रचलित है- 
ओहो, रितु ऐगे हेरिफेरि रितु रणमणी, हेरि ऐछ फेरि रितु पलटी ऐछ।
ऊंचा डाना-कानान में कफुवा बासलो, गैला-मैला पातलों मे नेवलि बासलि।।
ओ, तु बासै कफुवा, म्यार मैति का देसा, इजु की नराई लागिया चेली, वासा।
छाजा बैठि धना आंसु वे ढबकाली, नालि-नालि नेतर ढावि आंचल भिजाली।
इजू, दयोराणि-जेठानी का भै आला भिटोई, मैं निरोलि को इजू को आलो भिटोई।।
इस लोकगीत का कहीं-कहीं यह रूप भी प्रचलित है-
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।
डाली में कफुवा वासो, खेत फुली दैणा।
कावा जो कणाण, आजि रते वयांण।
खुट को तल मेरी आज जो खजांण।
इजु मेरी भाई भेजली भिटौली दीणा।
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।
वीको बाटो मैं चैंरुलो।
दिन भरी देली मे भै रुंलो।
वैली रात देखछ मै लै स्वीणा।
आगन बटी कुनै ऊँनौछीयो -
कां हुनेली हो मेरी वैणा ?
रितु रैणा, ऐ गे रितु रैणा।
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।।
भावार्थ :-
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।
डाल पर 'कफुवा' पक्षी कूजने लगा, खेतों मे सरसों फूलने लगी।
आज तडके ही जब कौआ घर के आगे बोलने लगा।
जब मेरे तलवे खुजलाने लगे, तो मैं समझ गई कि -
माँ अब भाई को मेरे पास भिटौली देने के लिए भेजेगी।
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।
मैं अपने भाई की राह देखती रहूंगी।
दिन भर दरवाजे मे बैठी उसकी प्रतीक्षा करुँगी।
कल रात मैंने स्वप्न देखा था।
मेरा भाई आंगन से ही यह कहता आ रहा था -
कहाँ होगी मेरी बहिन ?
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।।

वहीं ‘भै भुखो-मैं सिती’ नाम की दंतकथा भी काफी प्रचलित है। कहा जाता है कि एक बहन अपने भाई के भिटौली लेकर आने के इंतजार में पहले बिना सोए उसका इंतजार करती रही। लेकिन जब देर से भाई पहुंचा, तब तक उसे नींद आ गई और वह गहरी नींद में सो गई। भाई को लगा कि बहन काम के बोझ से थक कर सोई है, उसे जगाकर नींद में खलल न डाला जाए। उसने भिटौली की सामग्री बहन के पास रखी। अगले दिन शनिवार होने की वजह से वह परंपरा के अनुसार बहन के घर रुक नहीं सकता था, और आज की तरह के अन्य आवासीय प्रबंध नहीं थे, उसे रात्रि से पहले अपने गांव भी पहुंचना था, इसलिए उसने बहन को प्रणाम किया और घर लौट आया। बाद में जागने पर बहन को जब पता चला कि भाई भिटौली लेकर आया था। इतनी दूर से आने की वजह से वह भूखा भी होगा। मैं सोई रही और मैंने भाई को भूखे ही लौटा दिया। यह सोच-सोच कर वह इतनी दुखी हुई कि ‘भै भूखो-मैं सिती’ यानी भाई भूखा रहा, और मैं सोती रही, कहते हुए उसने प्राण ही त्याग दिए। कहते हैं कि वह बहन अगले जन्म में वह ‘घुघुती’ नाम की पक्षी बनी और हर वर्ष चैत्र माह में ‘भै भूखो-मैं सिती’ की टोर लगाती सुनाई पड़ती है। पहाड़ में घुघुती पक्षी को विवाहिताओं के लिए मायके की याद दिलाने वाला पक्षी भी माना जाता है। ‘घुर-घुर न घुर घुघुती चैत में, मकें याद उं आपणै मैत की’ जैसे गीत भी काफी लोकप्रिय हैं।

पिथौरागढ में भिटौली पर 'चैतोल' की परंपरा

कुमाऊं के पिथौरागढ़ जनपद क्षेत्र में चैत्र मास में भिटौली के साथ ही चैतोल पर्व मनाए जाने की एक अन्य परंपरा भी है। चैत्र मास के अन्तिम सप्ताह में मनाये जाने वाले इस त्योहार में पिथौरागढ के समीपवर्ती गांव चहर-चौसर से डोला यानी शोभायात्रा भी निकाली जाती है, जो कि निकट के 22 गांवों में घूमती है। चैतोल के डोले को भगवान शिव के देवलसमेत अवतार का प्रतीक बताया जाता है, डोला पैदल ही 22 गांवों में स्थित भगवती देवी के थानों यानी मंदिरों में भिटौली के अवसर पर पहुंचता है। मंदिरों में देवता किसी व्यक्ति के शरीर में अवतरित होकर उपस्थित लोगों व भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।

कुमाऊं के एक अन्य लोक पर्व 'फूलदेई' पर बच्चों 'द्वारा  पूजा' के दौरान गाया जाने वाला लोकगीत- 

" फूलदेई, छम्मा देई.…
जतुकै देला, उतुकै सही ।
देंणी द्वार, भर भकार,
सास ब्वारी, एक लकार,
यो देलि सौ नमस्कार ।
फूलदेई, छम्मा देई.…
जतुकै देला, उतुकै सही । "
प्रस्तुति: नवीन जोशी।

Thursday, March 13, 2014

होली छाई ऐसी झकझोर कुमूं में....

कुमाऊं में है अनूठी बैठकी, खड़ी, धूम व महिला होलियों की परंपरा
देवभूमि उत्तराखंड प्रदेश के कुमाऊं अंचल में रामलीलाओं की तरह राग व फाग का त्योहार होली भी अलग वैशिष्ट्य के साथ मनाई जाती हैं। यूं कुमाऊं में होली के दो प्रमुख रूप मिलते हैं, बैठकी व खड़ी होली, परन्तु अब दोनों के मिश्रण के रूप में तीसरा रूप भी उभर कर आ रहा है। इसे धूम की होली कहा जाता है। इसके साथ ही महिला होलियां भी अपना अलग स्वरूप बनाऐ हुऐ हैं।
कुमाऊं में बैठकी होली की शुरुआत होली के पूर्वाभ्यास के रूप में पौष माह के पहले रविवार से विष्णुपदी होली गीतों से होती है। माना जाता है कि प्राचीनकाल में यहां के राजदरबारों में बाहर के गायकों के आने से यह होली गीत यहां आऐ हैं। इनमें शाष्त्रीयता का अधिक महत्व होने के कारण इन्हें शाष्त्रीय होली भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रहरों में अलग अलग शाष्त्रीय रागों पर आधारित होलियां गाई जाती हैं। शुरुआत बहुधा धमार राग से होती है, और फिर सर्वाधिक काफी व पीलू राग में तथा जंगला काफी, सहाना, बिहाग, जैजैवन्ती, जोगिया, झिंझोटी, भीमपलासी, खमाज व बागेश्वरी सहित अनेक रागों में भी बैठकी होलियां विभिन्न पारंपरिक वाद्य यंत्रो के साथ गाई जाती हैं। 
होली की शुरुआत बसन्त के स्वागत के गीतों से होती है, जिसमें प्रथम पूज्य गणेश, राम, कृष्ण व शिव सहित कई देवी देवताओं की स्तुतियां व उन पर आधारित होली गीत गाऐ जाते हैं। बसन्त पंचमी के आते आते होली गायकी में क्षृंगारिकता बढ़ने लगती है तथा 
`आयो नवल बसन्त सखी ऋतुराज कहायो, पुष्प कली सब फूलन लागी, फूल ही फूल सुहायो´ 
के अलावा जंगला काफी राग में
`राधे नन्द कुंवर समझाय रही, होरी खेलो फागुन ऋतु आइ रही´ 
व झिंझोटी राग में 
`आहो मोहन क्षृंगार करूं में तेरा, मोतियन मांग भरूं´
तथा राग बागेश्वरी में
`अजरा पकड़ लीन्हो नन्द के छैयलवा अबके होरिन में...´
आदि होलियां गाई जाती हैं। इसके साथ ही महाशिवरात्रि पर्व तक के लिए होली बैठकों का आयोजन शुरू हो जाता है। शिवरात्रि के अवसर पर शिव के भजन जैसे
`जय जय जय शिव शंकर योगी´ 
आदि होली के रूप में गाऐ जाते हैं। इसके पश्चात कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों में होलिका एकादशी से लेकर पूर्णमासी तक खड़ी होली गीत जैसे 
`शिव के मन मांहि बसे काशी´, `जल कैसे भरूं जमुना गहरी´`सिद्धि ´को दाता विघ्न विनाशन, होरी खेलें गिरिजापति नन्दन´ आदि होलियां गाई जाती हैं। सामान्यतया खड़ी होलियां कुमाऊं की लोक परंपरा के अधिक निकट मानी जाती हैं और यहां की पारंपरिक होलियां कही जाती हैं। यह होलियां ढोल व मंजीरों के साथ बैठकर व विशिष्ट तरीके से पद संचालन करते हुऐ खड़े होकर गाई जाती हैं। इन दिनों होली में राधा-कृष्ण की छेड़छाड़ के साथ क्षृंगार की प्रधानता हो जाती है, यह होलियां प्राय: पीलू राग में गाई जाती हैं। 
इधर कुमाउनीं होली में बैठकी व खड़ी होली के मिश्रण के रूप में तीसरा रूप भी उभर रहा है, इसे धूम की होली कहा जाता है। यह `छलड़ी´ के आस पास गाई जाती है। इसमें कई जगह कुछ वर्जनाऐं भी टूट जाती हैं, तथा स्वांग का प्रयोग भी किया जाता है। महिलाओं में भी होली का यह रूप प्रचलित है। 

होलियों के दौरान युवक, युवतियों और वृद्ध सभी को होली के गीतों में सराबोर देखा जा सकता है। खासकर ग्रामीण अंचलों में तबले, मंजीरे और हारमोनियम के सुर में होलियां गाई जाती हैं, इस दौरान ऐसा लगता है मानो हर होल्यार शास्त्रीय गायक हो गया हो। नैनीताल, अल्मोड़ा और चंपावत की होलियां खास मानी जाती हैं, जबकि बागेश्वर, गंगोलीहाट, लोहाघाट व पिथौरागढ़ में तबले की थाप, मंजीरे की छन-छन और हारमोनियम के मधुर सुरों पर जब ‘ऐसे चटक रंग डारो कन्हैया’ जैसी होलियां गाते हैं। बैठकी होली पौष माह के पहले रविवार से ही शुरू हो जाती हैं, और फाल्गुन तक गाई जाती है। पौष से बसंत पंचमी तक अध्यात्मिक, बसंत पंचमी से शिवरात्रि तक अर्ध श्रृंगारिक और उसके बाद श्रृंगार रस में डूबी होलियाँ गाई जाती हैं. इनमें भक्ति, वैराग्य, विरह, कृष्ण-गोपियों की हंसी-ठिठोली, प्रेमी प्रेमिका की अनबन, देवर-भाभी की छेड़छाड़ के साथ ही वात्सल्य, श्रृंगार, भक्ति जैसे सभी रस मिलते हैं। बैठकी होली अपने समृद्ध लोक संगीत की वजह से यहाँ की संस्कृति में रच बस गई है, खास बात यह भी है कि कुछ को छोड़कर अधिकांश होलियों की भाषा कुमाऊंनी न होकर ब्रज है। सभी बंदिशें राग-रागनियों में गाई जाती है, और यह काफी हद तक शास्त्रीय गायन है। इनमें एकल और समूह गायन का भी निराला अंदाज दिखाई देता है। लेकिन यह न तो सामूहिक गायन है न ही शास्त्रीय होली की तरह एकल गायन। महफिल में मौजूद कोई भी व्यक्ति बंदिश का मुखड़ा गा सकता है, जिसे स्थानीय भाषा में भाग लगाना कहते हैं। खड़ी होली होली में होल्यार दिन में ढोल-मंजीरों के साथ गोल घेरे में पग संचालन और भाव प्रदर्शन के साथ गाते हैं, और रात में यही होली बैठकर गाई जाती है। शिवरात्रि से होलिकाअष्टमी तक बिना रंग के ही होली गाई जाती है। होलिका अष्टमी को मंदिरों में आंवला एकादशी को गाँव मोहल्ले के निर्धारित स्थान पर चीर बंधन होता है और रंग डाला जाता है। 

इधर शहरी क्षेत्रों में हर त्योहार की तरह होली में भी कमी आने लगी है। लोग केवल छलड़ी के दि नही रंग लेकर निकलते हैं, और एक-दूसरे को रंग लगाते हुए गुजिया खिलाते हैं। गांवों में भांग का प्रचलन भी है। 
 कुमाउनीं होली में चीर व निशान की विशिष्ट परम्परायें 
कुमाऊं में चीर व निशान बंधन की भी अलग विशिष्ट परंपरायें  हैं। इनका कुमाउनीं होली में विशेश महत्व माना जाता है। होलिकाष्टमी के दिन ही कुमाऊं में कहीं कहीं मन्दिरों में `चीन बंधन´ का प्रचलन है। पर अधिकांशतया गांवों, शहरों में सार्वजनिक स्थानों में एकादशी को मुहूर्त देखकर चीर बंधन किया जाता है। इसके लिए गांव के प्रत्येक घर से एक एक नऐ कपड़े के रंग बिरंगे टुकड़े `चीर´ के रूप में लंबे लटठे पर बांधे जाते हैं। इस अवसर पर `कैलै बांधी चीर हो रघुनन्दन राजा...सिद्धि को दाता गणपति बांधी चीर हो...´ जैसी होलियां गाई जाती हैं। इस होली में गणपति के साथ सभी देवताओं के नाम लिऐ जाते हैं। कुमाऊं में `चीर हरण´ का भी प्रचलन है। गांव में चीर को दूसरे गांव वालों की पहुंच से बचाने के लिए दिन रात पहरा दिया जाता है। चीर चोरी चले जाने पर अगली होली से गांव की चीर बांधने की परंपरा समाप्त हो जाती है। कुछ गांवों में चीर की जगह लाल रंग के झण्डे `निशान´ का भी प्रचलन है, जो यहां की शादियों में प्रयोग होने वाले लाल सफेद `निशानों´ की तरह कुमाऊं में प्राचीन समय में रही राजशाही की निशानी माना जाता है। बताते हैं कि कुछ गांवों को तत्कालीन राजाओं से यह `निशान´ मिले हैं, वह ही परंपरागत रूप से होलियों में `निशान´ का प्रयोग करते हैं। सभी घरों में होली गायन के पश्चात घर के सबसे सयाने सदस्य से  शुरू कर सबसे छोटे पुरुष  सदस्य का नाम लेकर `जीवें लाख बरीस...हो हो होलक रे...´ कह आशीष देने की भी यहां अनूठी परंपरा है।

Tuesday, January 14, 2014

कुमाऊं का ऋतु पर्व ही नहीं ऐतिहासिक व लोक सांस्कृतिक पर्व भी है उत्तरायणी


-1921 में इसी त्योहार के दौरान बागेश्वर में हुई रक्तहीन क्रांति, कुली बेगार प्रथा से मिली थी निजात
-घुघुतिया के नाम से है पहचान, काले कौआ कह कर न्यौते जाते हैं कौए और परोसे जाते हैं पकवान

नवीन जोशी, नैनीताल। दुनिया को रोशनी के साथ ऊष्मा और ऊर्जा के रूप में जीवन देने के कारण साक्षात देवता कहे जाने वाले सूर्यदेव के धनु से मकर राशि में यानी दक्षिणी से उत्तरी गोलार्ध में आने का पर्व पूरे देश में अलग-अलग प्रकार से मनाया जाता है। पूर्वी भारत में यह बीहू, पश्चिमी भारत (पंजाब) में लोहणी और दक्षिणी भारत (कर्नाटक, तमिलनाडु आदि) में पोंगल तथा उत्तर भारत में मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाने वाला  यह पर्व देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में उत्तरायणी के रूप में मनाया जाता है।उत्तरायणी पर्व कुमाऊं का न केवल मौसम परिवर्तन के लिहाज से एक ऋतु पर्व वरन बड़ा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पर्व भी है। 

घुघुते 
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में मकर संक्रांति यानी उत्तरायणी को लोक सांस्कृतिक पर्व घुघुतिया के रूप में मनाए जाने की विशिष्ट परंपरा रही है। यहाँ 14 जनवरी 1921 को इसी त्योहार के दिन हुए एक बड़े घटनाक्रम को कुमाऊं की ‘रक्तहीन क्रांति’ की संज्ञा दी जाती है, इस दिन कुमाऊं परिषद के अगुवा कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे के नेतृत्व में सैकड़ों क्रांतिकारियों ने कुमाऊं की काशी कहे जाने वाले बागेश्वर के सरयू बगड़ में सरयू नदी का जल हाथों में लेकर बेहद दमनकारी गोर्खा और अंग्रेजी राज के सदियों पुराने 'कुली बेगार' नाम के काले कानून संबंधी दस्तावेजों को नदी में बहाकर हमेशा के लिए तोड़ डाला था। यह परंपरा बागेश्वर में राजनीतिक दलों के सरयू बगड़ में पंडाल लगने और राजनीतिक हुंकार भरने के रूप में अब भी कायम है। इस त्योहार से कुमाऊं के लोकप्रिय कत्यूरी शासकों की एक अन्य परंपरा भी जुड़ी हुई है, जिसके तहत आज भी कत्यूरी राजाओं के वंशज नैनीताल जिले के रानीबाग में गार्गी (गौला) नदी के तट पर उत्तरायणी के दिन रानी जिया का जागर लगाते व परंपरागत पूजा-अर्चना करते हैं। वहीं एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार कुमाऊं के अन्य लोकप्रिय चंदवंशीय राजवंश के राजा कल्याण चंद को बागेश्वर में भगवान बागनाथ की तपस्या के उपरांत राज्य का इकलौता वारिस निर्भय चंद प्राप्त हुआ, जिसे रानी प्यार से घुघुती कहती थी। राजा का मंत्री राज्य प्राप्त करने की नीयत से एक बार घुघुतिया को शड्यंत्र रच कर चुपचाप उठा ले गया। इस दौरान एक कौए ने घुघुतिया के गले में पड़ी मोतियों की माला ले ली, और उसे राजमल में छोड़ आया, इससे रानी को पुत्र की कुशल मिली। उसने कौए को तरह-तरह के पकवान खाने को दिए और अपने पुत्र का पता जाना। तभी से कुमाऊं में घुघुतिया के दिन आटे में गुड़ मिलाकर पक्षी की तरह के घुघुती कहे जाने वाले और पूड़ी नुमा ढाल, तलवार, डमरू, अनार आदि के आकार के स्वादिष्ट पकवानों से घुघुतिया माला तैयार करने और कौओं को पुकारने की प्रथा प्रचलित है। बच्चे उत्तरायणी के दिन गले में घुघुतों की माला डालकर कौओं को ‘काले कौआ काले घुघुति माला खाले, 
ले कौआ पूरी, मकै दे सुनकि छुरी, ले कौआ ढाल, मकैं दे सुनक थाल, ले कौआ बड़, मकैं दे सुनल घड़...’ पुकार कर कोओं को आकर्षित करते हैं, और प्रसाद स्वरूप स्वयं भी घुघुते ग्रहण करते हैं। कौओं को इस तरह बुलाने और पकवान खिलाने की परंपरा त्रेता युग में भगवान श्रीराम की पत्नी सीता से भी जोड़ी जाती है। कहते हैं कि देवताओं के राजा इंद्र का पुत्र जयेंद्र सीता के रूप-सौंदर्य पर मोहित होकर कौए के वेश में उनके करीब जाता है। राम कुश के एक तिनके से जयेंद्र की दांयी आंख पर प्रहार कर डालते हैं, जिससे कौओं की एक आंख हमेशा के लिए खराब हो जाती है। बाद में राम ने ही कौओं को प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के दिन पवित्र नदियों में स्नान कर पश्चाताप करने का उपाय सुझाया था।
इसके साथ ही कुमाऊं में उत्तरायणी के दिन सरयू, रामगंगा, काली, गोरी व गार्गी (गौला) आदि नदियों में कड़ाके की सर्दी के बावजूद सुबह स्नान-ध्यान कर सूर्य का अर्घ्य च़ाकर सूर्य आराधना की जाती है, जो इस त्योहार के कुमाऊं में भी देश भर की तरह सूर्य उपासना से जु़ड़े होने का प्रमाण है। तात्कालीन राज व्यवस्था के कारण कुमाऊं में इस पर्व को सरयू नदी के पार और वार अलग- अलग दिनों में मनाने की परंपरा है। सरयू पार के लोग पौष मासांत के दिन घुघुते तैयार करते हैं, और अगले दिन कौओं को चढ़ाते हैं। जबकि वार के लोग माघ मास की सक्रांति यानि एक दिन बाद पकवान तैयार करते हैं, और अगले दिन कौओं को न्यौतते हुए यह पर्व मनाते हैं।

Tuesday, February 5, 2013

प्रयागराज में आस्था का महासमागम


भारत को आस्था, आध्यात्म और पवित्रता की भूमि कहा जाता है। सर्वधर्म सम्भाव की इस पावन भूमि के कण-कण में देवों का वास बताया जाता है। दुनिया के सबसे प्राचीन हिंदू सनातन धर्म के इस देश में ऐसी अनेकों परंपराएं हैं जो सदियों पूर्व से अनवरत चली आ रही हैं, और दुनिया के साथ भारत के भी विकास पथ पर कहीं आगे निकल जाने के बावजूद इनका कोई जवाब नहीं है। प्रयागराज में इन दिनों चल रहा आस्था का महासमागम यानी कुम्भ मेला आज भी देश हीं नहीं दुनिया के 10 करोड़ से अधिक लोगों को आकर्षित कर रहा है तो इसमें कु्म्भ मेले से जुड़ी अनेकों विशिष्टताएं हैं। इतनी भारी संख्या में एक धार्मिक भावना ‘आस्था’ के साथ लोगों का एक स्थान पर समागम दुनिया में कहीं और देखने को नहीं मिलता। कुम्भ भारतीयों के मस्तिष्क और आत्मा में रचा-बसा हुआ पर्व है, जिसमें पुरुष, महिलाएं, अमीर, गरीब सभी लोग भाग लेते हैं। अपने विशाल स्वरूप में यह पर्व भारतीय जनमानस की पर्व चेतना की विराटता का द्योतक भी है। इससे भारत की सांस्कृतिक चेतना और एकता को जाग्रत व सुदृढ़ करने की दृष्टि मिलती है, साथ ही आस्थावान देश वासियों का संत समागम के साथ आपस में जुड़ाव भी मजबूत होता है। आर्थिक दृष्टिकोण से भी प्रयागराज में इस वर्ष आयोजित 55 दिन का कुंभ अत्यधिक लाभप्रद होने जा रहा है। इस महाआयोजन में 10 से 15 करोड़ श्रद्धालुओं के पहुंचने की संभावना जताई जा रही है, जिसके साथ ही इस दौरान 12,000 करोड़ रुपए का आर्थिक कारोबार होने और करीब छह लाख लोगों को सीमित समय के लिए ही सही रोजगार मिलने की बात भी कही जा रही है। 
कुम्भ पर्व हिंदू धर्म का तो यह सबसे बड़ा और पवित्र आयोजन है ही जिसमें अमृत स्नान और अमृत पान तक की कल्पना की गई है, साथ ही यह निर्विवाद तौर पर विश्व का सबसे विशालतम मेला और महाआयोजन भी कहा जाता है, जिसमें अनेकों जाति, धर्म, क्षेत्र के करोड़ों लोग भाग लेते हैं, और पवित्र गंगा नदी में डुबकी लगाते हैं। दुनिया भर के वैज्ञानिक भी गंगा के सर्वाधिक लंबे समय तक खराब न होने एवं त्वचा व अन्य रोगों में लाभकारी होना स्वीकार कर चुके हैं। गंगा वैसे भी पापनाशनी, पतित पावनी कही जाती है। इसे एक नदी से कहीं अधिक देवी और माता का दर्जा दिया गया है। यह हिंदुओं के जीवन और मृत्यु दोनों से जुड़ी हुई है और इसके बिना हिंदू संस्कार अधूरे हैं, वहीं यह देश के विशालतम भूभाग को सींचते हुए उर्वरा शक्ति भी बढ़ाती है। गंगाजल का अमृत समान माना जाता है। कहा जाता है कुम्भ पर्व के दौरान गंगा नदी में ऐसे अनूठे संयोग बनते हैं कि इसकी पावन धारा में अमृत का सतत प्रवाह होने लगता है, जिसमें स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप दूर हो जाते हैं और मनुष्य जीवन मरण के बंधनों से मुक्त हो मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। इसलिए इलाहाबाद के कुम्भ में गंगा स्नान, पूजन का अलग ही महत्व है। अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा संबंध है मकर संक्राति, कुम्भ और गंगा दशहरा के समय गंगा में स्नान, पूजन, दान एवं दर्शन करना महत्वपूर्ण माना जाता है। मान्यता है कि गंगा पूजन से मांगलिक दोष से ग्रसित जातकों को विशेष लाभ प्राप्त होता है, और गंगा स्नान करने से अशुभ ग्रहों का प्रभाव समाप्त हो जाता है, साथ ही सात्विकता और पुण्य लाभ भी प्राप्त होता है। अमावस्या के दिन गंगा स्नान और पितरों के निमित तर्पण व पिंडदान करने से सद्गति प्राप्त होती है। 
कुम्भ पर्व की महिमा का वर्णन पुराणों से शुरू होता है। साथ ही कई धार्मिक, ज्योतिषीय और पौराणिक आधार इस महापर्व को विशिष्ट बनाते हैं। पुराणों में वर्णित संदर्भों के अनुसार यह पर्व समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत घट के लिए हुए देवासुर संग्राम से जुड़ा है। इसी दौरान भगवान विष्णु का कूर्म अवतार भी हुआ था। मान्यता है कि समुद्र मंथन से 14 रत्नों की प्राप्ति हुई, जिनमें प्रथम विष था तो अन्त में अमृत घट लेकर धन्वन्तरि प्रकट हुए। कहते हैं अमृत पाने की होड़ ने एक युद्ध का रूप ले लिया। ऐसे समय असुरों से अमृत की रक्षा के उद्देश्य से विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अमृत देवताओं को सोंप दिया। एक मान्यता के अनुसार देवताओं के राजा इन्द्र के पुत्र जयंत और दूसरी मान्यता के अनुसार विष्णु के वाहन गरुड़ उस अमृत कलश (कुम्भ) को लेकर वहाँ से पलायन कर गये। इस दौरान सूर्य, चंद्रमा, गुरु एवं शनि ने अमृत कलश की रक्षा में सहयोग दिया। अमृत कलश को स्वर्ग लोक तक ले जाने में 12 दिन लगे। देवों का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है, लिहाजा इन बारह वर्षों में बारह स्थानों पर अमृत कलश रखने से वहाँ अमृत की कुछ बूंदे छलक गईं। इनमें आठ स्थान देवलोक स्वर्ग में तथा चार स्थान पृथ्वी पर बताए जाते हैं। कहते हैं उन्हीं स्थानों पर, ग्रहों के उन्हीं संयोगों पर कुम्भ पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि कुम्भ और महाकुम्भ में वही अमृत की बूंदे वापस इन नदियों के पानी में छलक उठती हैं। जो भी इस दौरान इन पवित्र नदियों में स्नान करता है वह जीवन-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाता है। पृथ्वी के इन चारों स्थानों पर तीन वर्षों के अन्तराल पर प्रत्येक बारह वर्ष में कुम्भ का आयोजन होता है। कुम्भ पर्वों को तारों के क्रम के अनुसार हर 12वें वर्ष विभिन्न तीर्थ स्थानों पर आयोजित करने की बात भी कही जाती है। नारदीय पुराण (2/66/44), शिव पुराण (1/12/22/23), वराह पुराण (1/71/47/48) और ब्रह्मा पुराण आदि पौराणिक ग्रंथों में भी कुम्भ एवं अर्द्ध कुम्भ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण मिलते हैं, इनके अनुसार कुम्भ पर्व हर तीन साल के अंतराल पर देवभूमि उत्तराखंड की धरती पर स्थित तीर्थ नगरी हरिद्वार से शुरू होता है। यहां गंगा नदी के तट पर आयोजित होने वाला कुम्भ को महाकुम्भ कहा जाता है, जिसकी अपार महिमा है। यहां के बाद तीन-तीन वर्ष के अंतराल में कुम्भ का आयोजन होता है। प्रयाग में गंगा, यमुना व अदृश्य मानी जाने वाली सरस्वती के संगम-त्रिवेणी पर आयोजित होने वाली कुंभ की ऐसी धार्मिक महत्ता है कि इस स्थान को "तीर्थराज" प्रयागराज कहा जाता है। कहते हैं कि यहां इस दौरान त्रिवेणी में स्नान करना सहस्रों अश्वमेध यज्ञों, सैकड़ों वाजपेय यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से भी अधिक पुण्य प्रदान करता है। मनुष्य जन्म-जन्मांतरों के फेर से बाहर निकलकर मोक्ष को प्राप्त करता है। इस अवसर पर तीर्थ यात्रियों को गंगा स्नान के साथ ही सन्त समागम का लाभ भी मिलता है। इसके अलावा नासिक-पंचवटी में गोदावरी और अवन्तिका-उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर भी तीन-तीन वर्षों के अंतराल में कुंभ का आयोजन किया जाता है। 
हजारों वर्षों से चली आ रही यह परम्परा केवल रूढ़िवाद या अंधश्रद्धा नहीं है, वरन यह महापर्व सौर मंडल के धार्मिक मान्यता के अनुसार कुम्भ की रक्षा करने के प्रसंग से जुड़े चार ग्रहों सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति एवं शनि के विशिष्ट स्थितियों में आने से बने खगोलीय संयोग पर आयोजित होते हैं, इस तरह इस पर्व का वैज्ञानिक आधार भी है। यही विशिष्ट बात इस सनातन लोकपर्व के प्रति भारतीय जनमानस की आस्था का दृढ़तम आधार है। तभी तो सदियों से चला आ रहा यह पर्व आज संसार के विशालतम धार्मिक मेले का रूप ले चुका है। अंतरराष्ट्रीय ख्याति के इस आयोजन का जिक्र प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन सांग की डायरी में भी मिलता है। उनकी डायरी में हिन्दू महीने माघ (जनवरी - फरवरी) में 75 दिनों के उत्सव का उल्लेख है, जिसमें लाखों साधु, आम आदमी, अमीर और राजा शामिल होते थे। 
कुम्भ के दौरान शाही स्नान कर अमृत पान करने के लिए निकलने वाले भव्य जुलूस में अखाड़ों के प्रमुख महंतों की सवारी सजे-धजे हाथी, पालकी और भव्य रथों पर निकलती हैं। उनके आगे पीछे सुसज्जित ऊँट, घोड़े, हाथी और बैंड़ भी होते हैं। इनके बीच विशेषकर शरीर पर वस्त्रों के बजाय राख मलकर निकलने वाले नागा साधुओं का समूह श्रद्धालुओं के लिए कौतूहल का विषय रहता है। विभिन्न अखाड़ों के लिए शाही स्नान का क्रम निश्चित होता है। उसी क्रम में साधु समाज स्नान करते हैं। साधुओं की बड़ी-बड़ी जटाएं और अनोखी मुद्राएं भी आकर्षण का केंद्र रहती हैं। सामान्यतया घने वनों, जंगलों, गुफाओं में शीत, गर्मी व बरसात जैसी हर तरह की मौसमी विभीषिकाओं की परवाह किए बिना नग्न शरीर पर केवल भस्म रमा कर रहने वाले साधुओं के कुम्भ में सहज दर्शन हो पाते हैं। कुम्भ मेले का एक और बड़ा वैशिष्ट्य यह भी है कि यहाँ शैव, वैष्णव और उदासीन सम्प्रदायों के साधु अनेक अखाड़ों और मठों व विभिन्न साधु सम्प्रदायों के अखाड़ों की उपस्थिति रहती है। प्रत्येक अखाड़े के अपने प्रतीक चिह्न और ध्वज-पताका होती है, जिसके साथ ही अखाड़े मेले में उपस्थित होते हैं, वहाँ उनकी अपनी छावनी होती है, जिसके बीचों-बीच बहुत ऊँचे स्तम्भ पर उनका ध्वज फहराता है। इन अखाड़ों के साधु शस्त्रधारी होते हैं। उनकी रचना एकदम सैनिक पद्धति पर होती है। उनमें शस्त्र और शास्त्र का अद्भुत संगम होता है। ये साधु सांसारिक जीवन से विरक्त और अविवाहित होते हैं। उनकी दिनचर्या बहुत कठोर होती है। शस्त्रधारी होते हुए भी, और विश्व का सबसे बड़ा ऐश्वर्य प्रदर्शन करने के बावजूद वह फक्कड़ तपस्वी होते हैं। 
कहा जाता है कि मुगल बादशाह बाबर के पूर्वज तैमूर की आत्मकथा के अनुसार तैमूर ने सन 1394 में हरिद्वार के कुम्भ में कई सहस्र तीर्थयात्रियों की अकारण ही निर्मम हत्या कर दी थी। उन दिनों हिन्दुओं की तीर्थ यात्रा भी सुरक्षित नहीं बची थी। ऐसे में निहत्थे हिन्दू समाज की रक्षा के लिए साधु-संतों को मोक्ष-साधना के साथ-साथ शस्त्र धारण भी करना पड़ा। विदेशी शासकों के अत्याचारों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करने और हिन्दू समाज को अपनी धार्मिक आस्थाओं का निर्विघ्न पालन करने हेतु संरक्षण देने का बीड़ा साधु समाज ने उठाया। शस्त्र धारण करने की दिशा में पहले नागा साधु आगे बढ़े। कुम्भ मेलों की सुरक्षा का दायित्व वे ही संभालते थे। बहुत बाद में रामानंदी सम्प्रदाय के वैष्णव वैरागियों ने भी सन् 1713 में जयपुर के समीप ‘गाल्ता’ नामक स्थान पर महन्त रामानन्द के मठ में शस्त्र धारण करने का निर्णय लिया। जयपुर नरेश सवाई जयसिंह का नाम भी इस घटना के साथ जोड़ा जाता है। उन्हें मुगल शासनकाल में हिन्दू तीर्थ स्थानों पर ‘जयसिंहपुरा’ नामक केन्द्र स्थापित करने और उनमें रामानंदी सम्प्रदाय के निर्मोही अखाड़ो को प्रवेश देने, मराठे, बुन्देले और बंदा बैरागी जैसी अनेक हिन्दू शक्तियों को यथाशक्ति सहायता देने और पेशवा बाजीराव प्रथम को मालवा पर विजय और अधिकार दिलाने में निर्णायक भूमिका निभाने का श्रेय भी दिया जाता है।
कुम्भ की तरह ही प्रयाग भी हजारों वर्षों तक देश को ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, कला, धर्म और संस्कृति की अमूल्य शिक्षा देने के बावजूद वर्तमान में मुगल शासक अकबर द्वारा 1583 में दिए गए इलाहाबाद नाम से जाना जाता है। इलाहाबाद एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ होता है अल्लाह द्वारा बसाया गया शहर। यानी अकबर भी इस पुरातन हिंदू शहर के स्वरूप से भलीभांति परिचित था। बताते हैं कि मुगल काल में इस स्थान के अनेकों ऐतिहासिक मंदिरों को तोड़कर उनका अस्तित्व मिटा दिया गया। बावजूद, प्रयाग में हिंदुओं के बहुत सारे प्राचीन मंदिर और तीर्थ है। संगम तट पर जहां कुम्भ मेले का आयोजन होता है, वहीं भारद्वाज ऋषि का प्राचीन आश्रम है। प्रयाग को विष्णु की नगरी भी कहा जाता है और यहीं पर भगवान ब्रह्मा के द्वारा प्रथम बार यज्ञ करने का वृतांत भी मिलता है। माना जाता है पवित्र गंगा और यमुना के मिलन स्थल के पास आर्यों ने प्रयाग तीर्थ की स्थापना की थी। 
वहीं कुम्भ मेले के इतिहास के शोधार्थियों का प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के अध्ययन के आधार पर मानना है कि प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में कुम्भ मेलों का सूत्रपात किसी एक केन्द्रीय निर्णय के अन्तर्गत, किसी एक समय पर, एक साथ नहीं किया गया होगा, वरन एक के बाद एक अपने-अपने कारणों से पवित्र तीर्थस्थलों पर आयोजित किए गए होंगे, और आगे चलकर एक पौराणिक कथा के माध्यम से इन्हें एक श्रृंखला में पिरो दिया गया होगा। आदि गुरु शंकराचार्य को कुंभ पर्व को वर्तमान मेले का स्वरूप देने का श्रेय दिया जाता है, जिन्होंने ही भारत के चार कोनों पर चार धामों की स्थापना की थी, जिसके कारण चार धाम की तीर्थयात्रा का प्रचलन हुआ। बारहवीं शताब्दी से कुम्भ मनाए जाने के लिखित प्रमाण मिलते हैं। 

कुम्भ पर्व (मेला)-2013 के मुख्य स्नान-पर्वों की तिथियांः 
1 मकर संक्रानित 14.1.2013 (शाही स्नान)
2 पौष पूर्णिमा 27.1.2013 
3 मौनी अमावस्या 10.2.2013 (शाही स्नान)
4 वसन्त पंचमी 15.2.2013 (शाही स्नान)
5 माघी पूर्णिमा 25.2.2013 
6 महाशिवरात्रि 10.3.2013

Thursday, July 15, 2010

हरेला: लाग हरिया्व, लाग दसैं, लाग बग्वाल, जी रये, जागि रये....

नवीन जोशी, नैनीताल। `लाग हरिया्व, लाग दसैं, लाग बग्वाल, जी रये, जागि रये, यो दिन यो मास भेटनैं रये, तिष्टिये, पनपिये, हिमाल में ह्यूं छन तक, गंग ज्यू में पांणि छन तक, अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये, स्याव कस बुद्धि हो, स्यों जस तराण हो, दुब जस पंगुरिये, सिल पिसी भात खाये, जाँठ टेकी झाड़ जाए...´ यानी 10वें दिन कटने वाला हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे,  बग्वाल तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीते रहो, जाग्रत रहो, यह शुभ दिन, माह तुम्हारी जिन्दगी में आते रहें, समृद्ध बनो, विकसित होवो, हिमालय में जब तक बर्फ है, गंगा में जब तक पानी है, आकाश की तरह ऊँचे हो जाओ, धरती की तरह चौड़े हो जाओ, सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, दूब घास की तरह फैलो, (इतनी अधिक उम्र जियो कि) भात भी पीस कर खावो..... यह वह आशीषें  हैं जो कुमाऊं अंचल में एक ऋतु व प्रकृति पर्व हरेला के अवसर पर घर के बड़े सदस्य सात अनाजों की पीली पत्तियों (हरेले के तिनड़ों) को बच्चों, युवाओं के सिर में रखते हुऐ देते हैं। इन ठेठ कुमाउनी आशीषों में त्रेता युग में देवर्षि विश्वामित्र द्वारा भगवान श्रीराम को दी गईं "आकाश की तरह ऊँचे होने और धरती की तरह चौड़े होने" की आशीषों का भाव भी है प्रियजन घर की बजाय दूर प्रवास पर सात समुद्र पार भी हों तो उन्हें हरेले के पीले तिनके चिटि्ठयों के जरिऐ भेजे जाते हैं, जिनका उन्हें भी वर्ष भर इन्तजार रहता है।
हरेला कुमाऊं में वर्ष में तीन बार, चैत्र माह के प्रथम दिन, श्रावण माह लगने से नौ दिन पूर्व आषाड़ माह में और आश्विन नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है, और इसी प्रकार नौ दिन बाद चैत्र माह की नवमी, श्रावण माह के प्रथम दिन और दशहरे के दिन काटा जाता है। श्रावण मॉस में मनाया जाने वाला हरेला बरसात के दिनों में पवित्र व शिव के माने जाने वाले श्रावण मास की संक्रांति को मनाया जाता है, इसी दिन सूर्यदेव दक्षिणायन तथा कर्क से मकर रेखा में प्रवेश करते हैं हरेले के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौं, मक्का, उड़द, सरसों, गहत, कौंड़ी, मादिरा, धान और भट्ट आदि के बीज घर के भीतर रिंगाल की टोकरियों अथवा लकड़ी के बक्सों में एक विशिष्ट पद्धति से पांच अथवा सात परतों में मिट्टी के साथ बोये जाते हैं, और प्रतिदिन नियमानुसार सुबह-शाम पूजा के बाद पानी दिया जाता है। धूप की रोशनी न मिलने के कारण यह पौधे पीले तिनकों के रूप में दिखते हैं। 10वें दिन यानी संक्रान्ति को इन्हें घर के बुजुर्ग अथवा महिलाऐं काटकर आशीषों के साथ पहले घर के मन्दिरों, फिर गांव के मन्दिरों, घर के द्वारों तथा बाद में बच्चों, युवाओं व बड़ों को एक विशेष  पद्धति से पांवों से शुरू करते हुऐ शिर में आशीषों  के साथ चढ़ाते हैं। माना जाता है कि जिस घर में हरेले के पौधे जितने बड़े होते हैं, उसके खेतों में उस वर्ष उतनी ही अच्छी फसल होती है। इस प्रकार इस पर्व से बिना सूर्य की रोशनी के दुरूह परिस्थितियों में पौधों को अधिक तेजी से उगाने की प्रेरणा भी मिलती है। इस त्योहार को उत्तम कृषि उपज, हरियाली, धनधान्य, सुख संपन्नता आदि से भी जोड़ा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शिव पत्नी सती को अपना कृष्ण वर्ण नहीं भाता था, इसलिऐ वह अनाज के पौधों, हरेले के रूप में गौरा रूप में अवतरित हुईं। इस पर्व को शिव विवाह से भी जोड़ा जाता है। इस दिन शिव पार्वती की पूजा का प्राविधान है।
डिकारों का भी है प्राविधान
हरेले की पूर्व संध्या को डिकारे बनाने का प्राविधान है। सामान्यतया लाल चिकनी मिट्टी से बिना किसी सांचे के शिव, गौरा एवं गणेश जी की मूर्तियां बनाई जाती हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। कई बार डिकारे केले के तने, भृंगराज आदि से भी बनाऐ जाते हैं। इनमें पहले चावल के आटे से श्वेत तथा फिर किलमोड़े, अखरोट, पांगर के छिलकों, कोयले तथा विभिन्न वनस्पतियों के प्राकृतिक रंगों से रंग कर चेहरे की आकृतियां बनाई जाती हैं। शिव सामान्यता नीले तथा गौरा सफेद बनाई जाती हैं। 
देश में अन्य जगह भी मनाऐ जाते हैं ऐसे ही ऋतु पर्व
 हरेला जैसे ही ऋतु पर्व देश के अन्य हिस्सों में कमोबेश समान एवं अलग तरीकों से मनाऐ जाते हैं। यहाँ उत्तराखंड के के गढ़वाल अंचल में हरियाला पर्व मनाया जाता है। इसके साथ ही झारखण्ड में बालिकाओं द्वारा अंकुरित बीजों के चारों ओर सामूहिक गायन के साथ इसी तरह का त्यौहार मनाया जाता है, राजस्थान में जौ के बीजों के साथ गणगौर पर्व, हिमाचल प्रदेश के लाहुल में शीत ऋतु में अंधेरे में जौं के पीले अंकुरों (यौरा) उगाने के रूप में, हरियाणा और पशिम बंगाल में दशहरे के दौरान तथा अरुणांचल  प्रदेश में भी ऐसे ही त्यौहार मनाऐ जाते हैं।