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Tuesday, February 5, 2013

प्रयागराज में आस्था का महासमागम


भारत को आस्था, आध्यात्म और पवित्रता की भूमि कहा जाता है। सर्वधर्म सम्भाव की इस पावन भूमि के कण-कण में देवों का वास बताया जाता है। दुनिया के सबसे प्राचीन हिंदू सनातन धर्म के इस देश में ऐसी अनेकों परंपराएं हैं जो सदियों पूर्व से अनवरत चली आ रही हैं, और दुनिया के साथ भारत के भी विकास पथ पर कहीं आगे निकल जाने के बावजूद इनका कोई जवाब नहीं है। प्रयागराज में इन दिनों चल रहा आस्था का महासमागम यानी कुम्भ मेला आज भी देश हीं नहीं दुनिया के 10 करोड़ से अधिक लोगों को आकर्षित कर रहा है तो इसमें कु्म्भ मेले से जुड़ी अनेकों विशिष्टताएं हैं। इतनी भारी संख्या में एक धार्मिक भावना ‘आस्था’ के साथ लोगों का एक स्थान पर समागम दुनिया में कहीं और देखने को नहीं मिलता। कुम्भ भारतीयों के मस्तिष्क और आत्मा में रचा-बसा हुआ पर्व है, जिसमें पुरुष, महिलाएं, अमीर, गरीब सभी लोग भाग लेते हैं। अपने विशाल स्वरूप में यह पर्व भारतीय जनमानस की पर्व चेतना की विराटता का द्योतक भी है। इससे भारत की सांस्कृतिक चेतना और एकता को जाग्रत व सुदृढ़ करने की दृष्टि मिलती है, साथ ही आस्थावान देश वासियों का संत समागम के साथ आपस में जुड़ाव भी मजबूत होता है। आर्थिक दृष्टिकोण से भी प्रयागराज में इस वर्ष आयोजित 55 दिन का कुंभ अत्यधिक लाभप्रद होने जा रहा है। इस महाआयोजन में 10 से 15 करोड़ श्रद्धालुओं के पहुंचने की संभावना जताई जा रही है, जिसके साथ ही इस दौरान 12,000 करोड़ रुपए का आर्थिक कारोबार होने और करीब छह लाख लोगों को सीमित समय के लिए ही सही रोजगार मिलने की बात भी कही जा रही है। 
कुम्भ पर्व हिंदू धर्म का तो यह सबसे बड़ा और पवित्र आयोजन है ही जिसमें अमृत स्नान और अमृत पान तक की कल्पना की गई है, साथ ही यह निर्विवाद तौर पर विश्व का सबसे विशालतम मेला और महाआयोजन भी कहा जाता है, जिसमें अनेकों जाति, धर्म, क्षेत्र के करोड़ों लोग भाग लेते हैं, और पवित्र गंगा नदी में डुबकी लगाते हैं। दुनिया भर के वैज्ञानिक भी गंगा के सर्वाधिक लंबे समय तक खराब न होने एवं त्वचा व अन्य रोगों में लाभकारी होना स्वीकार कर चुके हैं। गंगा वैसे भी पापनाशनी, पतित पावनी कही जाती है। इसे एक नदी से कहीं अधिक देवी और माता का दर्जा दिया गया है। यह हिंदुओं के जीवन और मृत्यु दोनों से जुड़ी हुई है और इसके बिना हिंदू संस्कार अधूरे हैं, वहीं यह देश के विशालतम भूभाग को सींचते हुए उर्वरा शक्ति भी बढ़ाती है। गंगाजल का अमृत समान माना जाता है। कहा जाता है कुम्भ पर्व के दौरान गंगा नदी में ऐसे अनूठे संयोग बनते हैं कि इसकी पावन धारा में अमृत का सतत प्रवाह होने लगता है, जिसमें स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप दूर हो जाते हैं और मनुष्य जीवन मरण के बंधनों से मुक्त हो मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। इसलिए इलाहाबाद के कुम्भ में गंगा स्नान, पूजन का अलग ही महत्व है। अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा संबंध है मकर संक्राति, कुम्भ और गंगा दशहरा के समय गंगा में स्नान, पूजन, दान एवं दर्शन करना महत्वपूर्ण माना जाता है। मान्यता है कि गंगा पूजन से मांगलिक दोष से ग्रसित जातकों को विशेष लाभ प्राप्त होता है, और गंगा स्नान करने से अशुभ ग्रहों का प्रभाव समाप्त हो जाता है, साथ ही सात्विकता और पुण्य लाभ भी प्राप्त होता है। अमावस्या के दिन गंगा स्नान और पितरों के निमित तर्पण व पिंडदान करने से सद्गति प्राप्त होती है। 
कुम्भ पर्व की महिमा का वर्णन पुराणों से शुरू होता है। साथ ही कई धार्मिक, ज्योतिषीय और पौराणिक आधार इस महापर्व को विशिष्ट बनाते हैं। पुराणों में वर्णित संदर्भों के अनुसार यह पर्व समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत घट के लिए हुए देवासुर संग्राम से जुड़ा है। इसी दौरान भगवान विष्णु का कूर्म अवतार भी हुआ था। मान्यता है कि समुद्र मंथन से 14 रत्नों की प्राप्ति हुई, जिनमें प्रथम विष था तो अन्त में अमृत घट लेकर धन्वन्तरि प्रकट हुए। कहते हैं अमृत पाने की होड़ ने एक युद्ध का रूप ले लिया। ऐसे समय असुरों से अमृत की रक्षा के उद्देश्य से विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अमृत देवताओं को सोंप दिया। एक मान्यता के अनुसार देवताओं के राजा इन्द्र के पुत्र जयंत और दूसरी मान्यता के अनुसार विष्णु के वाहन गरुड़ उस अमृत कलश (कुम्भ) को लेकर वहाँ से पलायन कर गये। इस दौरान सूर्य, चंद्रमा, गुरु एवं शनि ने अमृत कलश की रक्षा में सहयोग दिया। अमृत कलश को स्वर्ग लोक तक ले जाने में 12 दिन लगे। देवों का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है, लिहाजा इन बारह वर्षों में बारह स्थानों पर अमृत कलश रखने से वहाँ अमृत की कुछ बूंदे छलक गईं। इनमें आठ स्थान देवलोक स्वर्ग में तथा चार स्थान पृथ्वी पर बताए जाते हैं। कहते हैं उन्हीं स्थानों पर, ग्रहों के उन्हीं संयोगों पर कुम्भ पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि कुम्भ और महाकुम्भ में वही अमृत की बूंदे वापस इन नदियों के पानी में छलक उठती हैं। जो भी इस दौरान इन पवित्र नदियों में स्नान करता है वह जीवन-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाता है। पृथ्वी के इन चारों स्थानों पर तीन वर्षों के अन्तराल पर प्रत्येक बारह वर्ष में कुम्भ का आयोजन होता है। कुम्भ पर्वों को तारों के क्रम के अनुसार हर 12वें वर्ष विभिन्न तीर्थ स्थानों पर आयोजित करने की बात भी कही जाती है। नारदीय पुराण (2/66/44), शिव पुराण (1/12/22/23), वराह पुराण (1/71/47/48) और ब्रह्मा पुराण आदि पौराणिक ग्रंथों में भी कुम्भ एवं अर्द्ध कुम्भ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण मिलते हैं, इनके अनुसार कुम्भ पर्व हर तीन साल के अंतराल पर देवभूमि उत्तराखंड की धरती पर स्थित तीर्थ नगरी हरिद्वार से शुरू होता है। यहां गंगा नदी के तट पर आयोजित होने वाला कुम्भ को महाकुम्भ कहा जाता है, जिसकी अपार महिमा है। यहां के बाद तीन-तीन वर्ष के अंतराल में कुम्भ का आयोजन होता है। प्रयाग में गंगा, यमुना व अदृश्य मानी जाने वाली सरस्वती के संगम-त्रिवेणी पर आयोजित होने वाली कुंभ की ऐसी धार्मिक महत्ता है कि इस स्थान को "तीर्थराज" प्रयागराज कहा जाता है। कहते हैं कि यहां इस दौरान त्रिवेणी में स्नान करना सहस्रों अश्वमेध यज्ञों, सैकड़ों वाजपेय यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से भी अधिक पुण्य प्रदान करता है। मनुष्य जन्म-जन्मांतरों के फेर से बाहर निकलकर मोक्ष को प्राप्त करता है। इस अवसर पर तीर्थ यात्रियों को गंगा स्नान के साथ ही सन्त समागम का लाभ भी मिलता है। इसके अलावा नासिक-पंचवटी में गोदावरी और अवन्तिका-उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर भी तीन-तीन वर्षों के अंतराल में कुंभ का आयोजन किया जाता है। 
हजारों वर्षों से चली आ रही यह परम्परा केवल रूढ़िवाद या अंधश्रद्धा नहीं है, वरन यह महापर्व सौर मंडल के धार्मिक मान्यता के अनुसार कुम्भ की रक्षा करने के प्रसंग से जुड़े चार ग्रहों सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति एवं शनि के विशिष्ट स्थितियों में आने से बने खगोलीय संयोग पर आयोजित होते हैं, इस तरह इस पर्व का वैज्ञानिक आधार भी है। यही विशिष्ट बात इस सनातन लोकपर्व के प्रति भारतीय जनमानस की आस्था का दृढ़तम आधार है। तभी तो सदियों से चला आ रहा यह पर्व आज संसार के विशालतम धार्मिक मेले का रूप ले चुका है। अंतरराष्ट्रीय ख्याति के इस आयोजन का जिक्र प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन सांग की डायरी में भी मिलता है। उनकी डायरी में हिन्दू महीने माघ (जनवरी - फरवरी) में 75 दिनों के उत्सव का उल्लेख है, जिसमें लाखों साधु, आम आदमी, अमीर और राजा शामिल होते थे। 
कुम्भ के दौरान शाही स्नान कर अमृत पान करने के लिए निकलने वाले भव्य जुलूस में अखाड़ों के प्रमुख महंतों की सवारी सजे-धजे हाथी, पालकी और भव्य रथों पर निकलती हैं। उनके आगे पीछे सुसज्जित ऊँट, घोड़े, हाथी और बैंड़ भी होते हैं। इनके बीच विशेषकर शरीर पर वस्त्रों के बजाय राख मलकर निकलने वाले नागा साधुओं का समूह श्रद्धालुओं के लिए कौतूहल का विषय रहता है। विभिन्न अखाड़ों के लिए शाही स्नान का क्रम निश्चित होता है। उसी क्रम में साधु समाज स्नान करते हैं। साधुओं की बड़ी-बड़ी जटाएं और अनोखी मुद्राएं भी आकर्षण का केंद्र रहती हैं। सामान्यतया घने वनों, जंगलों, गुफाओं में शीत, गर्मी व बरसात जैसी हर तरह की मौसमी विभीषिकाओं की परवाह किए बिना नग्न शरीर पर केवल भस्म रमा कर रहने वाले साधुओं के कुम्भ में सहज दर्शन हो पाते हैं। कुम्भ मेले का एक और बड़ा वैशिष्ट्य यह भी है कि यहाँ शैव, वैष्णव और उदासीन सम्प्रदायों के साधु अनेक अखाड़ों और मठों व विभिन्न साधु सम्प्रदायों के अखाड़ों की उपस्थिति रहती है। प्रत्येक अखाड़े के अपने प्रतीक चिह्न और ध्वज-पताका होती है, जिसके साथ ही अखाड़े मेले में उपस्थित होते हैं, वहाँ उनकी अपनी छावनी होती है, जिसके बीचों-बीच बहुत ऊँचे स्तम्भ पर उनका ध्वज फहराता है। इन अखाड़ों के साधु शस्त्रधारी होते हैं। उनकी रचना एकदम सैनिक पद्धति पर होती है। उनमें शस्त्र और शास्त्र का अद्भुत संगम होता है। ये साधु सांसारिक जीवन से विरक्त और अविवाहित होते हैं। उनकी दिनचर्या बहुत कठोर होती है। शस्त्रधारी होते हुए भी, और विश्व का सबसे बड़ा ऐश्वर्य प्रदर्शन करने के बावजूद वह फक्कड़ तपस्वी होते हैं। 
कहा जाता है कि मुगल बादशाह बाबर के पूर्वज तैमूर की आत्मकथा के अनुसार तैमूर ने सन 1394 में हरिद्वार के कुम्भ में कई सहस्र तीर्थयात्रियों की अकारण ही निर्मम हत्या कर दी थी। उन दिनों हिन्दुओं की तीर्थ यात्रा भी सुरक्षित नहीं बची थी। ऐसे में निहत्थे हिन्दू समाज की रक्षा के लिए साधु-संतों को मोक्ष-साधना के साथ-साथ शस्त्र धारण भी करना पड़ा। विदेशी शासकों के अत्याचारों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करने और हिन्दू समाज को अपनी धार्मिक आस्थाओं का निर्विघ्न पालन करने हेतु संरक्षण देने का बीड़ा साधु समाज ने उठाया। शस्त्र धारण करने की दिशा में पहले नागा साधु आगे बढ़े। कुम्भ मेलों की सुरक्षा का दायित्व वे ही संभालते थे। बहुत बाद में रामानंदी सम्प्रदाय के वैष्णव वैरागियों ने भी सन् 1713 में जयपुर के समीप ‘गाल्ता’ नामक स्थान पर महन्त रामानन्द के मठ में शस्त्र धारण करने का निर्णय लिया। जयपुर नरेश सवाई जयसिंह का नाम भी इस घटना के साथ जोड़ा जाता है। उन्हें मुगल शासनकाल में हिन्दू तीर्थ स्थानों पर ‘जयसिंहपुरा’ नामक केन्द्र स्थापित करने और उनमें रामानंदी सम्प्रदाय के निर्मोही अखाड़ो को प्रवेश देने, मराठे, बुन्देले और बंदा बैरागी जैसी अनेक हिन्दू शक्तियों को यथाशक्ति सहायता देने और पेशवा बाजीराव प्रथम को मालवा पर विजय और अधिकार दिलाने में निर्णायक भूमिका निभाने का श्रेय भी दिया जाता है।
कुम्भ की तरह ही प्रयाग भी हजारों वर्षों तक देश को ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, कला, धर्म और संस्कृति की अमूल्य शिक्षा देने के बावजूद वर्तमान में मुगल शासक अकबर द्वारा 1583 में दिए गए इलाहाबाद नाम से जाना जाता है। इलाहाबाद एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ होता है अल्लाह द्वारा बसाया गया शहर। यानी अकबर भी इस पुरातन हिंदू शहर के स्वरूप से भलीभांति परिचित था। बताते हैं कि मुगल काल में इस स्थान के अनेकों ऐतिहासिक मंदिरों को तोड़कर उनका अस्तित्व मिटा दिया गया। बावजूद, प्रयाग में हिंदुओं के बहुत सारे प्राचीन मंदिर और तीर्थ है। संगम तट पर जहां कुम्भ मेले का आयोजन होता है, वहीं भारद्वाज ऋषि का प्राचीन आश्रम है। प्रयाग को विष्णु की नगरी भी कहा जाता है और यहीं पर भगवान ब्रह्मा के द्वारा प्रथम बार यज्ञ करने का वृतांत भी मिलता है। माना जाता है पवित्र गंगा और यमुना के मिलन स्थल के पास आर्यों ने प्रयाग तीर्थ की स्थापना की थी। 
वहीं कुम्भ मेले के इतिहास के शोधार्थियों का प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के अध्ययन के आधार पर मानना है कि प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में कुम्भ मेलों का सूत्रपात किसी एक केन्द्रीय निर्णय के अन्तर्गत, किसी एक समय पर, एक साथ नहीं किया गया होगा, वरन एक के बाद एक अपने-अपने कारणों से पवित्र तीर्थस्थलों पर आयोजित किए गए होंगे, और आगे चलकर एक पौराणिक कथा के माध्यम से इन्हें एक श्रृंखला में पिरो दिया गया होगा। आदि गुरु शंकराचार्य को कुंभ पर्व को वर्तमान मेले का स्वरूप देने का श्रेय दिया जाता है, जिन्होंने ही भारत के चार कोनों पर चार धामों की स्थापना की थी, जिसके कारण चार धाम की तीर्थयात्रा का प्रचलन हुआ। बारहवीं शताब्दी से कुम्भ मनाए जाने के लिखित प्रमाण मिलते हैं। 

कुम्भ पर्व (मेला)-2013 के मुख्य स्नान-पर्वों की तिथियांः 
1 मकर संक्रानित 14.1.2013 (शाही स्नान)
2 पौष पूर्णिमा 27.1.2013 
3 मौनी अमावस्या 10.2.2013 (शाही स्नान)
4 वसन्त पंचमी 15.2.2013 (शाही स्नान)
5 माघी पूर्णिमा 25.2.2013 
6 महाशिवरात्रि 10.3.2013

Thursday, July 15, 2010

हरेला: लाग हरिया्व, लाग दसैं, लाग बग्वाल, जी रये, जागि रये....

नवीन जोशी, नैनीताल। `लाग हरिया्व, लाग दसैं, लाग बग्वाल, जी रये, जागि रये, यो दिन यो मास भेटनैं रये, तिष्टिये, पनपिये, हिमाल में ह्यूं छन तक, गंग ज्यू में पांणि छन तक, अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये, स्याव कस बुद्धि हो, स्यों जस तराण हो, दुब जस पंगुरिये, सिल पिसी भात खाये, जाँठ टेकी झाड़ जाए...´ यानी 10वें दिन कटने वाला हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे,  बग्वाल तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीते रहो, जाग्रत रहो, यह शुभ दिन, माह तुम्हारी जिन्दगी में आते रहें, समृद्ध बनो, विकसित होवो, हिमालय में जब तक बर्फ है, गंगा में जब तक पानी है, आकाश की तरह ऊँचे हो जाओ, धरती की तरह चौड़े हो जाओ, सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, दूब घास की तरह फैलो, (इतनी अधिक उम्र जियो कि) भात भी पीस कर खावो..... यह वह आशीषें  हैं जो कुमाऊं अंचल में एक ऋतु व प्रकृति पर्व हरेला के अवसर पर घर के बड़े सदस्य सात अनाजों की पीली पत्तियों (हरेले के तिनड़ों) को बच्चों, युवाओं के सिर में रखते हुऐ देते हैं। इन ठेठ कुमाउनी आशीषों में त्रेता युग में देवर्षि विश्वामित्र द्वारा भगवान श्रीराम को दी गईं "आकाश की तरह ऊँचे होने और धरती की तरह चौड़े होने" की आशीषों का भाव भी है प्रियजन घर की बजाय दूर प्रवास पर सात समुद्र पार भी हों तो उन्हें हरेले के पीले तिनके चिटि्ठयों के जरिऐ भेजे जाते हैं, जिनका उन्हें भी वर्ष भर इन्तजार रहता है।
हरेला कुमाऊं में वर्ष में तीन बार, चैत्र माह के प्रथम दिन, श्रावण माह लगने से नौ दिन पूर्व आषाड़ माह में और आश्विन नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है, और इसी प्रकार नौ दिन बाद चैत्र माह की नवमी, श्रावण माह के प्रथम दिन और दशहरे के दिन काटा जाता है। श्रावण मॉस में मनाया जाने वाला हरेला बरसात के दिनों में पवित्र व शिव के माने जाने वाले श्रावण मास की संक्रांति को मनाया जाता है, इसी दिन सूर्यदेव दक्षिणायन तथा कर्क से मकर रेखा में प्रवेश करते हैं हरेले के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौं, मक्का, उड़द, सरसों, गहत, कौंड़ी, मादिरा, धान और भट्ट आदि के बीज घर के भीतर रिंगाल की टोकरियों अथवा लकड़ी के बक्सों में एक विशिष्ट पद्धति से पांच अथवा सात परतों में मिट्टी के साथ बोये जाते हैं, और प्रतिदिन नियमानुसार सुबह-शाम पूजा के बाद पानी दिया जाता है। धूप की रोशनी न मिलने के कारण यह पौधे पीले तिनकों के रूप में दिखते हैं। 10वें दिन यानी संक्रान्ति को इन्हें घर के बुजुर्ग अथवा महिलाऐं काटकर आशीषों के साथ पहले घर के मन्दिरों, फिर गांव के मन्दिरों, घर के द्वारों तथा बाद में बच्चों, युवाओं व बड़ों को एक विशेष  पद्धति से पांवों से शुरू करते हुऐ शिर में आशीषों  के साथ चढ़ाते हैं। माना जाता है कि जिस घर में हरेले के पौधे जितने बड़े होते हैं, उसके खेतों में उस वर्ष उतनी ही अच्छी फसल होती है। इस प्रकार इस पर्व से बिना सूर्य की रोशनी के दुरूह परिस्थितियों में पौधों को अधिक तेजी से उगाने की प्रेरणा भी मिलती है। इस त्योहार को उत्तम कृषि उपज, हरियाली, धनधान्य, सुख संपन्नता आदि से भी जोड़ा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शिव पत्नी सती को अपना कृष्ण वर्ण नहीं भाता था, इसलिऐ वह अनाज के पौधों, हरेले के रूप में गौरा रूप में अवतरित हुईं। इस पर्व को शिव विवाह से भी जोड़ा जाता है। इस दिन शिव पार्वती की पूजा का प्राविधान है।
डिकारों का भी है प्राविधान
हरेले की पूर्व संध्या को डिकारे बनाने का प्राविधान है। सामान्यतया लाल चिकनी मिट्टी से बिना किसी सांचे के शिव, गौरा एवं गणेश जी की मूर्तियां बनाई जाती हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। कई बार डिकारे केले के तने, भृंगराज आदि से भी बनाऐ जाते हैं। इनमें पहले चावल के आटे से श्वेत तथा फिर किलमोड़े, अखरोट, पांगर के छिलकों, कोयले तथा विभिन्न वनस्पतियों के प्राकृतिक रंगों से रंग कर चेहरे की आकृतियां बनाई जाती हैं। शिव सामान्यता नीले तथा गौरा सफेद बनाई जाती हैं। 
देश में अन्य जगह भी मनाऐ जाते हैं ऐसे ही ऋतु पर्व
 हरेला जैसे ही ऋतु पर्व देश के अन्य हिस्सों में कमोबेश समान एवं अलग तरीकों से मनाऐ जाते हैं। यहाँ उत्तराखंड के के गढ़वाल अंचल में हरियाला पर्व मनाया जाता है। इसके साथ ही झारखण्ड में बालिकाओं द्वारा अंकुरित बीजों के चारों ओर सामूहिक गायन के साथ इसी तरह का त्यौहार मनाया जाता है, राजस्थान में जौ के बीजों के साथ गणगौर पर्व, हिमाचल प्रदेश के लाहुल में शीत ऋतु में अंधेरे में जौं के पीले अंकुरों (यौरा) उगाने के रूप में, हरियाणा और पशिम बंगाल में दशहरे के दौरान तथा अरुणांचल  प्रदेश में भी ऐसे ही त्यौहार मनाऐ जाते हैं।