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Thursday, May 15, 2014

बाखलीः पहाड़ की परंपरागत हाउसिंग कालोनी


एक बाखली में 100 परिवार तक रहते हैं, भीतर-भीतर ही रेल के डिब्बों की तरह एक से दूसरे घर में जाने का प्रबंध भी रहता है। 
नवीन जोशी, नैनीताल। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और वह समाज में एक साथ मिलकर रना पसंद करता है। आज के एकाकी व एकल परिवार के दौर में भी मनुष्य समाज के साथ एक तरह की सुविधाओं युक्त कालोनियों में रहना पसंद करता है। बीते दौर में भी मानव की यही प्रवृत्ति रही थी। खासकर उत्तराखंड के गांवों में घरों की लंबी श्रृंखला होती थी, जिसे बाखली (बाखई) कहा जाता है। पहाड़ में अनेक गांवों में ऐसी बाखली हैं, जिनमें सैकड़ों परिवार एक साथ रहा करते थे। आज के बदलते दौर में भी कई गांवों में ऐसी बाखली मौजूद हैं, जो सामाजिकता का संदेश देती हैं। इन्हें पहाड़ की परंपरागत हाउसिंग कालोनियां भी कहा जा सकता है।
नैनीताल जनपद के मौना क्षेत्र में शिमायल के पास कुमाटी नाम का एक गांव है, जहां स्थित बाखली में करीब 80 मवासे (परिवार) एक साथ रहते हैं। बाखली पहाड़ के घरों की एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें पहाड़ के परंपरागत पत्थर व मिट्टी के गारे से बने तथा चपटे पत्थरों (पाथरों) से छाये गए दर्जनों घर आपस में रेल के डिब्बों की तर बाहर ही नहीं भीतर से भी जुड़े रहते हैं, और इनमें घरों के बाहर आए बिना भी रेल के डिब्बों की तरह भीतर-भीतर ही एक से दूसरे घर में जाया जा सकता है। सामान्यतया घरों में बनने वाले व्यंजनों का आदान-प्रदान, एक-दूसरे के घरों में दुःख-तकलीफ तथा कामकाज में सहयोग और खासकर गांवों में रात्रि में बाघ आदि जंगली जानवरों के आने की स्थिति में घरों के भीतर-भीतर ही आने-जाने की यह व्यवस्था खासी कारगर साबित होती रही है। इससे गांव के लोगों में आपसी संबंध भी काफी मधुर रहते हैं, क्योंकि लोग एक-
दूसरे से अधिक गहराई तक जुड़े रहते हैं। इन घरों में जहां दरवाजे व खिड़कियों (द्वार-म्वाव) पर लकड़ी की नक्काशी पहाड़ की समृद्ध काष्ठ कला के दर्शन कराती है, वहीं निचली मंजिल में पशुओं के लिए गोठ, ऊपरी मंजिल में बाहरी कमरा-चाख (जहां चाख यानी अनाज पीसने के लिए हाथ से चलाई जाने वाली चक्की भी होती है), पीछे की ओर रसोई, बाहर की ओर पंछियों के लिए घोंसले, छत में पाथरों के बीच से धुंवे के बाहर निकलने और रोशनी के भीतर आने के प्रबंध तथा आंगन (पटांगण) में बैठने के लिए चौकोर पत्थरों (पटाल) के बीच धान कूटने की ओखली (ऊखल) आदि के प्रबंध भी होते थे। लाल मिट्टी व गोबर से लीपे इन घरों में पहाड़ की समृद्ध परंपरागत चित्रकारी-ऐपण भी देखने लायक होती हैं। बदलते दौर में जहां 1970 के दशक में आए वनाधिकारों के बाद गांवों में पत्थर, लकड़ी आदि वन सामग्री न मिलने की वजह से सीमेंट-कंक्रीट से घर बनने लगे, और पुराने घर भी उनमें रहने वाले लोगों के पलायन की वजह से खाली छूटने के कारण खंडहर में तब्दील होने लगे हैं। इसके बावजूद कुमाटी जैसे अनेक गांव हैं, जहां के ग्रामीणों ने आज भी अपनी विरासत को सहेज कर रखा हुआ है।

Thursday, March 13, 2014

होली छाई ऐसी झकझोर कुमूं में....

कुमाऊं में है अनूठी बैठकी, खड़ी, धूम व महिला होलियों की परंपरा
देवभूमि उत्तराखंड प्रदेश के कुमाऊं अंचल में रामलीलाओं की तरह राग व फाग का त्योहार होली भी अलग वैशिष्ट्य के साथ मनाई जाती हैं। यूं कुमाऊं में होली के दो प्रमुख रूप मिलते हैं, बैठकी व खड़ी होली, परन्तु अब दोनों के मिश्रण के रूप में तीसरा रूप भी उभर कर आ रहा है। इसे धूम की होली कहा जाता है। इसके साथ ही महिला होलियां भी अपना अलग स्वरूप बनाऐ हुऐ हैं।
कुमाऊं में बैठकी होली की शुरुआत होली के पूर्वाभ्यास के रूप में पौष माह के पहले रविवार से विष्णुपदी होली गीतों से होती है। माना जाता है कि प्राचीनकाल में यहां के राजदरबारों में बाहर के गायकों के आने से यह होली गीत यहां आऐ हैं। इनमें शाष्त्रीयता का अधिक महत्व होने के कारण इन्हें शाष्त्रीय होली भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रहरों में अलग अलग शाष्त्रीय रागों पर आधारित होलियां गाई जाती हैं। शुरुआत बहुधा धमार राग से होती है, और फिर सर्वाधिक काफी व पीलू राग में तथा जंगला काफी, सहाना, बिहाग, जैजैवन्ती, जोगिया, झिंझोटी, भीमपलासी, खमाज व बागेश्वरी सहित अनेक रागों में भी बैठकी होलियां विभिन्न पारंपरिक वाद्य यंत्रो के साथ गाई जाती हैं। 
होली की शुरुआत बसन्त के स्वागत के गीतों से होती है, जिसमें प्रथम पूज्य गणेश, राम, कृष्ण व शिव सहित कई देवी देवताओं की स्तुतियां व उन पर आधारित होली गीत गाऐ जाते हैं। बसन्त पंचमी के आते आते होली गायकी में क्षृंगारिकता बढ़ने लगती है तथा 
`आयो नवल बसन्त सखी ऋतुराज कहायो, पुष्प कली सब फूलन लागी, फूल ही फूल सुहायो´ 
के अलावा जंगला काफी राग में
`राधे नन्द कुंवर समझाय रही, होरी खेलो फागुन ऋतु आइ रही´ 
व झिंझोटी राग में 
`आहो मोहन क्षृंगार करूं में तेरा, मोतियन मांग भरूं´
तथा राग बागेश्वरी में
`अजरा पकड़ लीन्हो नन्द के छैयलवा अबके होरिन में...´
आदि होलियां गाई जाती हैं। इसके साथ ही महाशिवरात्रि पर्व तक के लिए होली बैठकों का आयोजन शुरू हो जाता है। शिवरात्रि के अवसर पर शिव के भजन जैसे
`जय जय जय शिव शंकर योगी´ 
आदि होली के रूप में गाऐ जाते हैं। इसके पश्चात कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों में होलिका एकादशी से लेकर पूर्णमासी तक खड़ी होली गीत जैसे 
`शिव के मन मांहि बसे काशी´, `जल कैसे भरूं जमुना गहरी´`सिद्धि ´को दाता विघ्न विनाशन, होरी खेलें गिरिजापति नन्दन´ आदि होलियां गाई जाती हैं। सामान्यतया खड़ी होलियां कुमाऊं की लोक परंपरा के अधिक निकट मानी जाती हैं और यहां की पारंपरिक होलियां कही जाती हैं। यह होलियां ढोल व मंजीरों के साथ बैठकर व विशिष्ट तरीके से पद संचालन करते हुऐ खड़े होकर गाई जाती हैं। इन दिनों होली में राधा-कृष्ण की छेड़छाड़ के साथ क्षृंगार की प्रधानता हो जाती है, यह होलियां प्राय: पीलू राग में गाई जाती हैं। 
इधर कुमाउनीं होली में बैठकी व खड़ी होली के मिश्रण के रूप में तीसरा रूप भी उभर रहा है, इसे धूम की होली कहा जाता है। यह `छलड़ी´ के आस पास गाई जाती है। इसमें कई जगह कुछ वर्जनाऐं भी टूट जाती हैं, तथा स्वांग का प्रयोग भी किया जाता है। महिलाओं में भी होली का यह रूप प्रचलित है। 

होलियों के दौरान युवक, युवतियों और वृद्ध सभी को होली के गीतों में सराबोर देखा जा सकता है। खासकर ग्रामीण अंचलों में तबले, मंजीरे और हारमोनियम के सुर में होलियां गाई जाती हैं, इस दौरान ऐसा लगता है मानो हर होल्यार शास्त्रीय गायक हो गया हो। नैनीताल, अल्मोड़ा और चंपावत की होलियां खास मानी जाती हैं, जबकि बागेश्वर, गंगोलीहाट, लोहाघाट व पिथौरागढ़ में तबले की थाप, मंजीरे की छन-छन और हारमोनियम के मधुर सुरों पर जब ‘ऐसे चटक रंग डारो कन्हैया’ जैसी होलियां गाते हैं। बैठकी होली पौष माह के पहले रविवार से ही शुरू हो जाती हैं, और फाल्गुन तक गाई जाती है। पौष से बसंत पंचमी तक अध्यात्मिक, बसंत पंचमी से शिवरात्रि तक अर्ध श्रृंगारिक और उसके बाद श्रृंगार रस में डूबी होलियाँ गाई जाती हैं. इनमें भक्ति, वैराग्य, विरह, कृष्ण-गोपियों की हंसी-ठिठोली, प्रेमी प्रेमिका की अनबन, देवर-भाभी की छेड़छाड़ के साथ ही वात्सल्य, श्रृंगार, भक्ति जैसे सभी रस मिलते हैं। बैठकी होली अपने समृद्ध लोक संगीत की वजह से यहाँ की संस्कृति में रच बस गई है, खास बात यह भी है कि कुछ को छोड़कर अधिकांश होलियों की भाषा कुमाऊंनी न होकर ब्रज है। सभी बंदिशें राग-रागनियों में गाई जाती है, और यह काफी हद तक शास्त्रीय गायन है। इनमें एकल और समूह गायन का भी निराला अंदाज दिखाई देता है। लेकिन यह न तो सामूहिक गायन है न ही शास्त्रीय होली की तरह एकल गायन। महफिल में मौजूद कोई भी व्यक्ति बंदिश का मुखड़ा गा सकता है, जिसे स्थानीय भाषा में भाग लगाना कहते हैं। खड़ी होली होली में होल्यार दिन में ढोल-मंजीरों के साथ गोल घेरे में पग संचालन और भाव प्रदर्शन के साथ गाते हैं, और रात में यही होली बैठकर गाई जाती है। शिवरात्रि से होलिकाअष्टमी तक बिना रंग के ही होली गाई जाती है। होलिका अष्टमी को मंदिरों में आंवला एकादशी को गाँव मोहल्ले के निर्धारित स्थान पर चीर बंधन होता है और रंग डाला जाता है। 

इधर शहरी क्षेत्रों में हर त्योहार की तरह होली में भी कमी आने लगी है। लोग केवल छलड़ी के दि नही रंग लेकर निकलते हैं, और एक-दूसरे को रंग लगाते हुए गुजिया खिलाते हैं। गांवों में भांग का प्रचलन भी है। 
 कुमाउनीं होली में चीर व निशान की विशिष्ट परम्परायें 
कुमाऊं में चीर व निशान बंधन की भी अलग विशिष्ट परंपरायें  हैं। इनका कुमाउनीं होली में विशेश महत्व माना जाता है। होलिकाष्टमी के दिन ही कुमाऊं में कहीं कहीं मन्दिरों में `चीन बंधन´ का प्रचलन है। पर अधिकांशतया गांवों, शहरों में सार्वजनिक स्थानों में एकादशी को मुहूर्त देखकर चीर बंधन किया जाता है। इसके लिए गांव के प्रत्येक घर से एक एक नऐ कपड़े के रंग बिरंगे टुकड़े `चीर´ के रूप में लंबे लटठे पर बांधे जाते हैं। इस अवसर पर `कैलै बांधी चीर हो रघुनन्दन राजा...सिद्धि को दाता गणपति बांधी चीर हो...´ जैसी होलियां गाई जाती हैं। इस होली में गणपति के साथ सभी देवताओं के नाम लिऐ जाते हैं। कुमाऊं में `चीर हरण´ का भी प्रचलन है। गांव में चीर को दूसरे गांव वालों की पहुंच से बचाने के लिए दिन रात पहरा दिया जाता है। चीर चोरी चले जाने पर अगली होली से गांव की चीर बांधने की परंपरा समाप्त हो जाती है। कुछ गांवों में चीर की जगह लाल रंग के झण्डे `निशान´ का भी प्रचलन है, जो यहां की शादियों में प्रयोग होने वाले लाल सफेद `निशानों´ की तरह कुमाऊं में प्राचीन समय में रही राजशाही की निशानी माना जाता है। बताते हैं कि कुछ गांवों को तत्कालीन राजाओं से यह `निशान´ मिले हैं, वह ही परंपरागत रूप से होलियों में `निशान´ का प्रयोग करते हैं। सभी घरों में होली गायन के पश्चात घर के सबसे सयाने सदस्य से  शुरू कर सबसे छोटे पुरुष  सदस्य का नाम लेकर `जीवें लाख बरीस...हो हो होलक रे...´ कह आशीष देने की भी यहां अनूठी परंपरा है।

Sunday, March 17, 2013

इस साल समय पर खिला राज्य वृक्ष बुरांश, क्या ख़त्म हुआ 'ग्लोबलवार्मिंग' का असर ?


नवीन जोशी, नैनीताल। राज्य वृक्ष बुरांश का छायावाद के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत ने अपनी मातृभाषा कुमाऊंनी में लिखी एकमात्र कविता में कुछ इस तरह वर्णन किया है 
‘सार जंगल में त्वि ज क्वे नहां रे क्वे नहां
फुलन छे के बुरूंश जंगल जस जलि जां।
सल्ल छ, दयार छ, पईं छ अयांर छ, 
पै त्वि में दिलैकि आग, 
त्वि में छ ज्वानिक फाग।
(बुरांश तुझ सा सारे जंगल में कोई नहीं है। जब तू फूलता है, सारा जंगल मानो जल उठता है। जंगल में और भी कई तरह के वृक्ष हैं पर एकमात्र तुझमें ही दिल की आग और यौवन का फाग भी मौजूद है।) 
कवि की कल्पना से बाहर निकलें, तो भी बुरांश में राज्य की आर्थिकी, स्वास्थ्य और पर्यावरण सहित अनेक आयाम समाहित हैं। अच्छी बात है कि इस वर्ष बुरांश अपने निश्चित समय यानी चैत्र माह के करीब खिला है, इससे इस वृक्ष पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव पड़ने की चिंताओं पर भी कुछ हद तक विराम लगा है। प्रदेश में 1,200 से 4,800 मीटर तक की ऊंचाई वाले करीब एक लाख हैक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में सामान्यतया लाल के साथ ही गुलाबी, बैंगनी और सफेद रंगों में मिलने वाला और चैत्र (मार्च-अप्रैल) में खिलने वाला बुरांश बीते वर्षों में पौष-माघ (जनवरी-फरवरी) में भी खिलने लगा था। इस आधार पर इस पर ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का सर्वाधिक असर पड़ने को लेकर चिंता जताई जाने लगी थी। हालांकि कोई वृहद एवं विषय केंद्रित शोध न होने के कारण इस पर दावे के साथ कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती, लेकिन डीएफओ डा. पराग मधुकर धकाते कहते हैं कि हर फूल को खिलने के लिए एक विशेष ‘फोटो पीरियड’ यानी एक खास रोशनी और तापमान की जरूरत पड़ती है। यदि किसी पुष्प वृक्ष को कृत्रिम रूप से भी यह जरूरी रोशनी व तापमान दिया जाए तो वह समय से पूर्व खिल सकता है। 

बहुगुणी है बुरांश: बुरांश राज्य के मध्य एवं उच्च मिालयी क्षेत्रों में ग्रामीणों के लिए जलौनी लकड़ी व पालतू पशुओं को सर्दी से बचाने के लिए बिछौने व चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है, वहीं मानव स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इसके फूलों का रस शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी को दूर करने वाला, लौह तत्व की वृद्धि करने वाला तथा हृदय रोगों एवं उच्च रक्तचाप में लाभदायक होता है। इस प्रकार इसके जूस का भी अच्छा-खासा कारोबार होता है। अकेले नैनीताल के फल प्रसंस्कण केंद्र में प्रति वर्ष करीब 1,500 लीटर जबकि प्रदेश में करीब 2 हजार लीटर तक जूस निकाला जाता है। हालिया वर्षों में सड़कों के विस्तार व गैस के मूल्यों में वृद्धि के साथ ग्रामीणों की जलौनी लकड़ी पर बड़ी निर्भरता के साथ इसके बहुमूल्य वृक्षों के अवैध कटान की खबरें भी आम हैं।

यह भी पढ़ें : `जंगल की ज्वाला´ संग मुस्काया पहाड़..
कफुवा , प्योंली संग मुस्काया शरद, बसंत शंशय में

Wednesday, January 23, 2013

देवभूमि के कण-कण में देवत्व

स्वामी विवेकानंद का 'बोध गया' : काकड़ीघाट
Somvaaree Baba Ashram Kaakadeeghat, Nainital
काकड़ीघाट धाम, नैनीताल जिले में अल्मोड़ा रोड पर स्थित वह स्थान है, जहाँ से ही स्वामी विवेकानंद का कुमाऊं आगमन प्रारंभ हुआ। यहीं उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। स्वयं उन्होंने इस स्थान के बारे में लिखा है कि यहाँ आकर उन्हें लगा कि उनके भीतर की समस्त समस्याओं का समाधान हो गया, और उन्हें पूरे ब्रह्माण्ड के एक अणु में दर्शन हुए। महान तत्वदर्शी सोमवारी बाबा ने भी यहाँ लम्बे समय तक तपस्या की।
भारत को दुनिया में आध्यात्मिक गुरु के रूप में प्रस्तुत करने वाले व युवाओं को सृष्टि के कल्याण के लिए 'जागो, उठो और कर्म करो' का मूल मंत्र देने वाले युगदृष्टा स्वामी विवेकानंद को आध्यात्मिक ज्ञान नैनीताल जनपद के काकड़ीघाट में प्राप्त हुआ था। विवेकानंद की देवभूमि यात्रा यहीं से प्रारंभ हुई थी। यहां स्वामी जी के अवचेतन शरीर में सिहरन हुई। वह पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान लगा कर बैठ गए। बाद में उन्होंने इसका जिक्र करते हुए कहा था कि उनको काकड़ीघाट में पूरे ब्रह्माण्ड के एक अणु में दर्शन हुए। यही वह ज्ञान था जिसे उन्होंने 11 सितंबर 1893 को शिकागो में पूरी दुनिया के समक्ष रखकर देश का मान बढ़ाया। स्वामी विवेकानंद और देवभूमि का गहरा संबंध रहा है। वह तीन बार देवभूमि आए। 

कहा जाता है की स्वामी जी ने बेलूर मठ से हिमालय की कठिन यात्रा के लिए निकलते समय मठ के साथियों से कहा था की वह स्पर्श मात्र से लोगों को रुपान्तरित कर देने की क्षमता प्राप्त किए बिना वापस नहीं लौटेंगे। उन्होंने कहा था, 'इस बार जब यहां लौटूंगा तब मैं समाज के उपर एक बम की तरह फट पड़ूगा और समाज स्वान की तरह मेरे पीछे चलेगा।'  वह अपनी पहली आध्यात्मिक यात्रा  पर1890 में साधु नरेंद्र के रूप में गुरु भाई अखंडानंद के साथ नैनीताल पहुंचे। यहाँ वह तत्कालीन खेत्री के महाराज प्रसन्न भट्टाचार्य के आतिथ्य में उनके घर पर छह दिन रहे थे। यहाँ से उन्होंने पैदल ही अल्मोड़ा के लिए यात्रा प्रारंभ की. तीसरे दिन दोनो लोग रात्रि विश्राम के लिए काकड़ीघाट पहुंचे। 
काकड़ीघाट में वह एक झरने के किनारे पानी की चक्की (पन चक्की-पहाड़ी घट) के समीप ठहरे। यहाँ कोसी (कौशिकी) और सरोता नदी की संगम-स्थली पर उभरे एक त्रिभुजाकार भूखण्ड के बीच में खड़े विशाल पीपल के वृक्ष के साथ समस्त वातावरण दिव्य आनन्द से भरा हुआ था। स्वामीजी वहाँ रुककर खड़े हो गये, और स्वामी अखंडानन्द से कहा- ” भाई, देखते हो यह स्थान तो ध्यान करने के लिये अत्यन्त उपयुक्त है ! “सुबह स्नान के उपरांत वह निकट ही स्थित विशाल पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान करने बैठ गये। ध्यान में एक घन्टा बीत जाने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने अपने साथी अखण्डानंद से कहा 'देखो गंगाधर (अखण्डानंद) इस वृक्ष के नीचे एक अत्यंत शुभ मुहुर्त बीत गया है। आज एक बड़ी समस्या का समाधान हो गया। मैने जान लिया कि समष्टि और व्यष्टि (विश्व ब्रह्माण्ड व अणु ब्रह्माण्ड) दोनो एक ही नियम से परिचालित होते हैं।’ स्वामी अखण्डानंद के पास रखी हुई एक नोट बुक में स्वामीजी ने उस दिन की अनुभूति की बात बांग्ला भाषा में लिख लीं-” आमार जीवनेर एकटा मस्त समस्या आमि महाधामे फेले दिये गेलुम ! ”   

स्वामीजी का उपरोक्त उद्गार का वर्णन हिन्दी में ‘ अल्मोड़ा का आकर्षण ‘- नामक महामण्डल पुस्तिका के पृष्ठ संख्या 5 पर इस प्रकार दिया हुआ है”-आज मेरे जीवन की एक बहुत गूढ़ समस्या का समाधान इस महा धाम में प्राप्त हो गया है ! “। उन्होंने लिखा, 'जिस प्रकार व्यष्टि जीवात्मा एक चेतन शरीर द्वारा आवृत्त है, उसी प्रकार विश्वात्मा भी चेतनामयी प्रकृति या दृश्य जगत में स्थित है। शिवा (काली) शिव का आलिंगन कर रही है। यह कोई कल्पना नही है। इसी एक (प्रकृति) के द्वारा दूसरे (आत्मा) का आलिंगन मानो शब्द और अर्थ के सम्बंध की भांति है। वे दोनों अभिन्न हैं और केवल मानसिक विश्लेषण के द्वारा ही उन्हें पृथक किया जा सकता है। शब्द के बिना विचार करना असम्भव है। अतः सृष्टि के आदि में शब्द-ब्रह्म था।’ उन्होने आगे कहा, 'विश्वात्मा का यह युगल रूप अनादि है। अतः हम लोग जो कुछ देखते हैं या अनुभव करते हैं। सभी की संरचना साकार और निराकार के सम्मिलन से हुई है’।
इसी अद्वैत दर्शन के आधार पर उन्होंने  लोगों को बताया कि सूक्ष्म ब्रह्मांड व वृहद ब्रह्मांड ठीक उसी प्रकार एक ही पटल पर स्थित हैं जैसे आत्मा शरीर के अंदर निवास करती है। 

काकड़ीघाट से वह अल्मोड़ा की ओर बढ़े। अल्मोड़ा से पूर्व वर्तमान मुस्लिम कब्रिस्तान करबला के पास चढ़ाई चढ़ने और भूख-प्यास के कारण उन्हें मूर्छा आ गई। वहां एक मुस्लिम फकीर जुल्फिकार अली ने उन्हें ककड़ी (पहाड़ी खीरा) खिलाकर ठीक किया। उन्होंने कसार देवी के समीप स्थित एक गुफा में भी कुछ समय तक साधना की। इसका जिक्र स्वामी जी ने 1898 में दूसरी बार अल्मोड़ा आने पर किया। अल्मोड़ा में वह लाला बद्री शाह के आतिथ्य में रहे। यह स्वामी विवेकानंद का नया अवतार था। इस मौके पर हिंदी के छायावादी सुकुमार कवि सुमित्रानंदन ने कविता लिखी थी- 

‘मां अल्मोड़े में आए थे जब राजर्षि  विवेकानंद, तब मग में मखमल बिछवाया था, दीपावली थी अति उमंग’
स्वामी जी अल्मोड़ा से आगे चंपावत जिले के मायावती अद्वैत आश्रम भी गए, और तपस्या कर आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित किया।  उनके अनुयायी कैप्टन जेम्स हेनरी सीवर व सार लौट एलिजाबेथ सीवर ने  1899 में वर्तमान में मायावती स्थित इस आश्रम की स्थापना की थी। वहां आज भी उनका प्रचुर साहित्य संग्रहित है। 1898 में उन्होंने कुमाऊं की तीसरी यात्रा की। वह अल्मोड़ा के थामसन हाउस में रहे। 18 जनवरी 1901 को उन्होंने कुमाऊं की अंतिम यात्रा की। वह मायावती आश्रम की देखरेख करने वाले कैप्टन सीवर्स की मौत के बाद वहां पहुंचे थे। अल्मोड़ा में भी स्वामी जी के गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम से मठ और कुटी आज भी मौजूद है। काकड़ीघाट में भी स्वामी जी के आगमन की यादें और उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने वाला वह "बोधि वृक्ष" पीपल का पेड़ आज भी मौजूद हैं।


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पाषाण देवी शक्तिपीठ: जहां घी, दूध का भोग करती हैं सिंदूर सजीं मां वैष्णवी
उत्तराखंड को देवभूमि इसीलिए कहा जाता है, कि यहां के कण-कण में देवों कावास है। बदरी, केदार सहित चार धामों और गंगा, यमुना की इसी धरती में शिवके धाम कैलाश का द्वार है, और यहीं शिवा यानी माता पार्वती का मायका हिमालय भी है। यहां के हर पुराने शहर और गांव देवी देवताऑ  के प्रसंगों से जुड़े हैं और वहां आज भी श्रद्धालु साक्षात दर्शन कर दिव्य अनुभूतियां प्राप्त करते हैं। प्रदेश के कुमाऊं मंडल के मुख्यालय मां नयना की नगरी का शास्त्रों में त्रिऋषि  सरोवर के रूप में वृतांत मिलता है। यहीं नगर का प्राचीनतम बताया जाने वाला मां पाषाण देवी के एक विशाल शिला खंड पर नवदुर्गा स्वरूप में दर्शन होते हैं, जबकि मां के चरण नैनी झील में बताये जाते हैं। कई बारमां का वाहन शेर यहां दिन में भी घूमता मिल जाता है, और बिना किसी को नुकसान पहुंचाये अचानक आंखों से ओझल भी हो जाता है। यहां मां का क्षृंगार महाबली हनुमान की तरह सिंदूर से होता है, और उन्हें वैष्णवी स्वरूप में दुग्ध उत्पादों व फल फूलों का भोग लगाया जाता है।  माना जाता है कि पिता दक्ष प्रजापति द्वारा पति का अनादर करने पर माता पार्वती अग्रि में कूदकर सती हो गई थीं। उनके दग्ध शरीर को देवाधिदेव महादेव आकाश मार्ग से कैलाश की ओर लेकर चले। इस बीच माता के दग्ध अंग जहां जहां गिरे वहां शक्तिपीठ स्थापित हो गये। मां के नयनों के गिरने के कारण और सरोवर यानी ताल होने से यह स्थान नयना ताल तथा कालांतर में अपभ्रंस होता हुआ नैनीताल कहलाया। एक अन्य मान्यता के अनुसार मां के नयनों के नीर से नैनी सरोवर बना और दक्षिण पूर्वी अयारपाटा पहाड़ी पर हृदय सहित अन्य शरीर यानी ‘पाषाण’ गिरा, तथा मां पाषाण देवी के प्राकृतिक मंदिर की स्थापना अनादि काल में ही हो गई थी। बताते हैं कि 1841 में नगर की स्थापना से पूर्व से ही इस स्थान पर नजदीकी गांवों के लोग गायों और पशुओं के चारण के लिए आते थे, और धार्मिक मान्यता के कारण शाम होने से पहले वापस भी लौट जाते थे। पहाड़ों में खासकर गायों के नई संतति देने पर नये दूध से देवों का अभिषेक करने की परंपरा है। ऐसे देवता ‘बौधांण देवता’ कहे जाते हैं। लेकिन नैनीताल संभवतया अकेला ऐसा स्थान होगा जहां नया दूध एवं घी, दही, मक्खन व छांस जैसे दुग्ध उत्पाद बौधांण देवता के बजाय बौधांण देवी के रूप में पाषाण देवी को चढ़ाये जाते थे, और आज भी ग्रामीण पाषाण देवी की इसी रूप में पूजा करते हैं। मान्यता है कि मां का चेहरा धुले पानी से समस्त त्वचा रोगों के साथ ही अतृप्त व बुरी आत्माऑ के प्रकोप भी समाप्त हो जाते हैं। बताते हैं कि नगर की स्थापना के बाद एक अंग्रेज अफसर इस स्थान से होता हुआ घोड़े पर निकला था, किंतु उसका घोड़ा यहां से लाख प्रयासों के बावजूद आगे नहीं बढ़ पाया। इस पर नाराज हो उसने मां की मूर्ति पर कालिख पोत दी थी। हालांकि बाद में उसे गलती का अहसास हुआ और स्थानीय महिलाऑ ने कालिख के स्थान पर मां का सिंदूर से क्षृंगार किया। इस प्रकार यहां देवी का सिंदूर से क्षृंगार किये जाने की अनूठी मान्यता है। इस स्थान पर पाषाण देवी नवदुर्गा के रूप में पत्थर की शिला पर प्राकृतिक रूप से विराजमान हैं, जो स्पष्ट दिखाई देती हैं। मां के नवदुर्गा स्वरूप चेहरे के नीचे गले वाला भाग हालांकि अब ढक दिया गया है, लेकिन अभी हाल तक इसके नीचे गुफा बताई जाती है, जिसमें पानी चढ़ाने पर इस तरह ‘घट घट’ की आवाज आती थी, मानो मां पानी पी रही हों। कई बार झील का पानी मंदिर तक चढ़ आता था। इसके नीचे गुफा अब भी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका अन्य द्वार हरिद्वार में खुलता है। मंदिर की जिम्मेदारी शुरू से स्थानीय भट्ट परिवार के जिम्मे है। सर्वप्रथम चंद्रमणि भट्ट मंदिर के पुजारी थे, बाद में उनके पुत्र भैरव दत्त भट्ट और वर्तमान में उनके पौत्र जगदीश चंद्र भट्ट मंदिर के पुजारी हैं। इस मंदिर के सदस्य बारी बारी से मंदिर की सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाते हैं। नीचे की गुफा में केवल हरीश चंद्र भट्ट ही जा पाते हैं। गुफा में नागों की उपस्थिति बताई जाती है, जो कई बार श्रद्धालुऑ द्वारा अशुद्धता बरतने पर बाहर निकल आते हैं। मां को दुग्ध उत्पाद व फल फूल ही चढ़ते हैं, इस प्रकार यहां मां नवदुर्गा वैष्णवीस्वरूप में पूजी जाती हैं। नगर को सर्वप्रथम खोजने वाले कुमाऊं के पहले कमिश्नर जीडब्ल्यू ट्रेल द्वारा वर्णित और नगर को 1941 में बसाने वाले अंग्रेज व्यापारी पीटर बैरन की बहुचर्चित पुस्तक ‘वंडरिंग इन हिमालया’ में वर्णित नगर का प्राचीनतम मंदिर भी इसी प्राकृतिक मंदिर को बताया जाता है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी सहित न जाने कितने श्रद्धालु होंगे जो अपने प्रत्येक कार्य के लिए आशीर्वाद लेने यहां निरंतर आते रहते हैं।
कुमाऊँ में है महर्षि मार्कंडेय का आश्रम


जी हाँ, युग-युग के अधिष्ठाता कहे जाने वाले भगवान महर्षि मार्कंडेय का आश्रम उत्तराखंड प्रदेश के कुमाऊँ अंचल में अवस्थित है. कुमाऊँ में काठगोदाम से नैनीताल के राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या ८७ पर स्थित करीब ६ किमी दूर भुजियाघाट नामक स्थान से एक पैदल पगडंडीनुमा मार्ग मोरा गाँव के लिए निकलता है. इस मार्ग पर आगे जाकर करीब ढाई घंटे के बेहद कठिन चढ़ाई युक्त मार्ग से बलौनधूरा नाम के चीड़ के घने जंगल में लोक आस्था के अनुसार महर्षि मार्कंडेय का यह आश्रम स्थित है. स्थानीय लोगों की मान्यता है कि महर्षि मार्कंडेय ने यहाँ लम्बे समय तक तपस्या की थी. आश्रम ऐसे निर्जन स्थान पर है कि यह कहीं से भी दृश्यमान नहीं है. आश्रम तक कोई सीधा भी नहीं है. यहाँ पर जंगल के बीच एक बड़े पत्थर के नींचे छोटा सा अनपेक्षित जल कुंड है. पास में ही कुछ झंडे लगे हुए हैं, जिनसे घने जंगल में इस महान स्थान की पहचान बमुश्किल हो पाती है. पास में गधेरे के ऊपर एक पत्थरनुमा पुल भी ध्यानाकर्षित करता है.  कहा जाता है कि पूर्व में यहाँ पर कुछ साधू-सन्यासी धूनी रमने के लिए पहुंचे थे, लेकिन अब यहाँ कोई नहीं रहता. संभवतया आज के सुविधानुरागी साधु-सन्यासियों के लिए भी यहाँ रहना आसान न हो. बलौनधूरा मोरा गाँव का ही एक तोक है. इसके पास ही पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी का नैनिहाल 'बल्यूटी' गाँव स्थित है, महर्षि मार्कंडेय के बारे में कहा जाता है कि उन्हें श्रृष्टि के सृजनकर्ता ब्रह्मा जी की तरह ही अनंत आयु प्राप्त थे. वह त्रिकालदर्शी और अन्तर्यामी भी कहे जाते हैं.
आदि गुरु शंकराचार्य का उत्तराखंड में प्रथम पड़ाव: कालीचौड़ मंदिर
देवभूमि के कण-कण में देवत्व होने की बात यूँ ही नहीं कही जाती। अब इन दो स्थानों को ही लीजिये, यह नैनीताल जिले में हल्द्वानी के निकट खेड़ा गौलापार से अन्दर सुरम्य बेहद घने वन में स्थित कालीचौड़ मंदिर है। यहाँ महिषासुर मर्दिनी मां काली की आदमकद मूर्ति सहित दर्जनों मूर्तियाँ मंदिर के स्थान से ही धरती से निकलीं। तराई-भाबर के गजेटियर के अनुसार लगभग आठवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य अपने देवभूमि उत्तराखंड आगमन के दौरान सर्वप्रथम इस स्थान पर आये थे। उन्हें  यहाँ आध्यात्मिक ओजस्व प्राप्त हुआ, जिसके बाद उन्होंने यहाँ काफी समय तक आध्यात्मिक चिंतन किया, और यहां से जागेश्वर और गंगोलीहाट गए थे। बाद में कोलकाता के एक महंत की प्रेरणा पर गौलापार के जमींदार-मेहरा थोकदार ने यहाँ मंदिर बनवाया था। 

श्री रामदत्त जोशी पंचांगकार के पिता पंडित हरि दत्त जोशी ने यहां मूर्तियों की स्थापना की थी, और श्री राम दत्त ने यहां सर्वप्रथम श्रीमद् देवी भागवत कथा का पाठ कराया था। इसके आगे की कथा भी कम रोचक नहीं है, हल्द्वानी के एक चूड़ी कारोबारी राम कुमार को इस स्थान से ऐसा अध्यात्मिक लगाव हुआ कि उन्होंने वर्ष 2000 तक मंदिर की व्यवस्थाएं संभालीं। इधर किच्छा के एक सिख (अशोक बावा के) परिवार ने अपने मृत बच्चे को यहाँ मां के दरबार में यह कहकर समर्पित कर दिया कि मां चाहे जो करे, अब वह मां का है। इस पर वह बच्चा फिर से जी उठा, आज करीब 30 वर्षीय वही बालक और उसका परिवार मंदिर में पिछले कई वर्षों से भंडार चलाये हुए है।
उत्तराखंड में देवालयों की लम्बी श्रृंखला के क्रम में जगतजननी जगदम्बा के कालीचौड स्थित काली मंदिर की महिमा का यहां विशेष महत्व है।
’’काली-काली महाकाली कालिके परमेश्वरी,
सर्वानन्द करो देवी नारायणी नमोअस्तुते।।‘‘
काली का यह पावन मंत्र वियावन वन के मध्य कालीचौड में काली भक्तों के मुखारबिंद से अक्सर गुंजायमान रहता है। आध्यात्मिक शांति को समेटे कालीचौड का काली मंदिर माता जगदम्बा की ओर से भक्तों के लिए अनुपम भेंट है। पावन भूमि उत्तराखण्ड में कुमाऊं क्षेत्र के अन्तर्गत काठगोदाम के पास वियावान वन में स्थित काली का यह मंदिर प्राचीन काल से ऋृषि-मुनियों की आराधना और तपस्या का केन्द्र रहा है। हिमालयी भू-भाग में काली के जितने भी प्राचीन शक्तिपीठ व मंदिर है। वे सभी परम आस्थाओं के केन्द्र हैं। लौकिक व अलौकिक आस्थाओं की सिद्ध का केन्द्र कालीचौड के प्रति भी भक्तों में अपार व अटूट विश्वास है। यह एक ऐसा स्थान है जहां पंहुचते ही सांसारिक मायाजाल में भटका मानव अनायास ही कालिका के चरणों में निराली शांति का अनुभव करता है। यह देवी दरबार प्राचीन काल से ही पूजनीय रहा है। कथाओं के अनुसार सतयुग में सप्त ऋृषियों ने इस स्थान पर भगवती की आराधना, तपस्या करके मनोवांछित लौकिक व अलौकिक सिद्धयां प्राप्त की इन्हीं सिद्धियों के प्रताप से उन्होंने सप्तऋृषि लोक की प्राप्ति की। श्री मार्कण्डेय ऋृषि ने भी यहां तपस्या करके काली की कृपा को प्राप्त किया। यूं तो उत्तराखण्ड की धरती पर अनेकों स्थानों में सप्तऋृषियों ने तपस्या की जिनमें झाकर के सैम दरबार के आसपास वनों में लोहाघाट के ऋृषेश्वर क्षेत्र में इनकी तपस्या का वर्णन पुराणों के आधार पर मिलता है पर कहते हैं काली की कृपा के पश्चात ही सप्तऋृषियों ने हिमालय को अपनी तपस्या का केन्द्र बनाया। मार्कण्डेय ऋृषि ने इस दरबार में अपने आराधना के श्रद्धा पुष्प काली के चरणों में इतनी अगाध भक्ति व श्रद्धा से अर्पित किए कि काली कृपा ने उन्हें समस्त चराचर जगत की नश्वरता का ज्ञान दे डाला। अखण्ड ज्ञान को प्राप्त करके ही उन्होंने संसार को ज्ञान का अलौकिक प्रकाश दिया। शक्ति की कृपा के फलस्वरूप ही इन्होंने श्री महाकाली दरबार के निकट ही पाताल भुवनेश्वर में पुराणों की रचना की और पूज्यनीय बने भुवनेश्वर महात्म्य में आया भी है।
’’समार्चाति विद्यानेन श्रियं प्राप्तनोति मानवः
कपिलाद्या महात्मानों मार्कण्डेयादयों नृप (३४०)
मानसखण्ड भुवनेश्वर महात्म्य
अर्थात मार्कण्डेय ऋृषि भुवनेश की पूजा में यहां विराजमान होकर भक्तों द्वारा पूजित हैं।
ऐसा माना जाता है कि जब बाबा गुरु गोरखनाथ जी ने इस वसुंधरा में कदम रखा तो सर्वप्रथम इसी क्षेत्र को अपनी आराधना व तपस्या का केन्द्र बनाया क्योंकि कुमाऊं का प्रवेश द्वार क्षेत्र होने से भी यह क्षेत्र यहां पधारने वाले संतो, ऋृषि-मुनियों का प्रथम पडाव रहा है। इसी कारण से माना जाता है जब गुरु गोरखनाथ जी यहां की धरती पर आये तो सर्वप्रथम इस क्षेत्र में अपना पडाव डालकर उन्होंने यहां धूनी रमाकर कालिका की कठोर आराधना की और बाद में काली कृपा से उन्हें यहां के महान प्रतापी देवता हरू, सैम, गोल्ज्यू समेत अनेक देवताओं के गुरू होने का गौरव प्राप्त हुआ। चम्पावत में जल रही गुरू गोरखनाथ जी की अखण्ड धूनी ’’काली की गोरख‘‘ पर हुई कृपा का ही प्रताप मानी जाती है। महायोगी महेन्द्र नाथ, सोमवारी बाबा की तो यह अद्भुत साधना स्थली कही जाती है। इतना ही नहीं नानतिन बाबा, टाटम्बरी बाबा, हैडाखान बाबा सहित अनेकों संतों ने इस स्थान पर साधना करके कालिका माता से निर्मल ज्ञान की प्राप्ति की यहां की प्राचीन सिद्ध शक्ति पीठ में सिद्धबली हनुमान, काल भैरव व भगवान शिव की मूर्तियां विराजमान हैं। पौराणिक काल से अनेक कथाओं को समेटे यह स्थल ऋृषि-मुनियों की आराधना के पश्चात काफी समय तक गोपनीय रहा आधुनिक समय में यह स्थान लगभग सात दशक पूर्व प्रकाश में आया कहा जाता है कि वर्ष १९४२ से पूर्व कलकत्ता में एक बंगाली भक्त को माता कालिका ने स्वप्न में दर्शन देकर कृतार्थ किया व इस स्थान पर अपनी अलौकिक शक्ति होने का भान कराया। दिव्य प्रेरणा से अभिभूत उस काली भक्त ने इस स्थान की खोज की व बाद में हल्द्वानी निवासी रामकुमार जी ने इस स्थान को बंगाली बाबा के साथ मिलकर माँ की कृपा से मंदिर रूप में स्थापित किया। मंदिर के समीप ही एक तामपत्र निकला इसमें पाली भाषा में महाकाली मंदिर महात्म्य का उल्लेख किया गया है।
सनातन धर्म की महान ध्वजावाहक आदि जगतगुरु शंकराचार्य महामाया भगवती के अनन्य भक्त थे। देवाधिदेव महादेव की असीम कृपा तथा अपने अंतरमन की प्रेरणा के फलस्वरूप उनके मन में भगवती काली के विविध स्वरूपों तथा शक्तिपीठों के दर्शन की इच्छा जागृत हुई और इस हेतु उन्होंने सम्पूर्ण भारतभूमि के भ्रमण का निश्चय किया। जहां-जहां भी माँ जिस रूप में स्थित थी वहां-वहां उन्हें माँ के उस स्वरूप के दर्शन हुये।
भारत भ्रमण करते हुये जगदगुरु शंकराचार्य ने जब हिमालय के अंचल में अवस्थित देवभूमि उत्तराखण्ड में पदापर्ण किया तो उनके आनंद का कोई पारावार नहीं था। कूर्मांचल की तराई में आगमन पर सर्वप्रथम जगद्गुरु ने गार्गी गंगा के दर्शन तथा इस पवित्र नदी में स्नान की इच्छा अपने भक्तों के बीच व्यक्त की। कुछ स्थानीय भक्तों ने उनकी इस इच्छा को पूर्ण करने में अपना योगदान दिया।
इसी क्रम में जगद्गुरु एकाएक कह उठे कि ’’यहां तो भगवती काली की अद्भुद आभा सर्वत्र बिखरी है।‘‘ अवश्य ही कही आस-पास में वह आदिशक्ति विद्यमान है। यह सुनकर स्थानीय भक्तों ने जगद्गुरु को गार्गी नदी के उस एक प्राचीन मंदिर स्थित होने की जानकारी दी। फिर क्या था शंकराचार्य समस्त भक्त मण्डली के साथ तत्क्षीण माँ काली के उस दरबार की ओर प्रस्थान कर गये और वहां पहुंचकर वीरान वन में स्थित पवित्र दरबार के दर्शन कर धन्य हो गये।
कहा जाता है कि कूर्मांचल के पर्वतीय भू-भाग में चरण रखने से पूर्व आदिगुरु कई दिनों तक इस दिव्य स्थल में साधनारत रहे। इस बीच उनके अनुयायों की संख्या निरन्तर बढती रही पुराने बुर्जग बताते हैं कि यह मंदिर घनी झाडयों के बीच स्थित का जहां बढने योग्य स्थान का अभाव था। आदिगुरु के आदेश पर तब भक्त मण्डली द्वारा मंदिर के चारों ओर की झाडी व उबड-खाबड, भू-भाग को काट कर चौरस किया गया और यही से लोग इसे कालीचौड कहने लगे। इसके अलावा नाम को लेकर और भी अनेक किवदंतियां हैं किन्तु इतना अवश्य है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने इस दिव्य स्थल के दर्शन के पश्चात ही पर्वतों की ओर अपनी यात्रा का शुभारम्भ किया। पवित्र धाम काली चौड में तभी से माँ काली के वैष्ण स्वरूप की पूजा की प्राचीन परम्परा लोक संस्कृति का अभिन्न अंग बन गई जो आज भी जीवंत है।
पुराणों के अनुसार इस भू-भाग में सटे तमाम पर्वतीय क्षेत्र महान् आस्थाओं के सिद्ध क्षेत्र हैं। इन्हीं क्षेत्र में लंकापति रावण के पितामह पुलस्त्य ऋृषि ने काली की कठोर तपस्या करके उनके दर्शन किए स्कंद पुराण के इकतालीसवें अध्याय के उपरोक्त श्लोक -
अत्रिः पुलस्त्यः पुलहः ऋषयो गर्ग पर्वतम्।
से यह संकेत मिलता है कि महर्षि पुलस्त्य के साथ यहां ब्रह्म पुत्र अत्रि पुलह ने भी इन वन क्षेत्रों में घोर तपस्या की है। गर्ग ऋृषि की तपस्थली भी इस क्षेत्र की परिधि के पवित्र पर्वत ही रहे हैं। इसी पर्वत माला में गर्गांचल पर्वत का जिक्र भी महर्षि व्यास जी ने मानस खण्ड में ’’शेषस्य दक्षिणे भागे पुण्यो गर्गगिरिः स्मृत।‘‘ के नाम से इन तमाम क्षेत्रों की महिमा स्कंद पुराण में गाई है। कालीचौड मंदिर के एक ओर गर्गांचल व समीपस्थ ही भद्रवट क्षेत्र भी स्थित है। भद्रवट का स्मरण ही करोडों पापों को दूर भगा देता है। व्यास जी का यह कथन मानस खण्ड के ४२वें अध्याय के तीसरे श्लोक से स्पष्ट है।
’’क्षेत्र भद्रवट नाम सर्वपापप्राणशनम’’ अर्थात् इस क्षेत्र की उपमा व्यास जी ने तीर्थराज के रूप में की है।
कालीचौड के आसपास पवित्र पहाडों में तीर्थों की भरमार है। ये किसी न किसी ऋृषि-मुनियों की तपस्याओं के महान केन्द्र रहे हैं। कालीचौड क्षेत्र के बारे में श्रीमद्भागवत में भी कथा आती है कि इस क्षेत्रों में शिव व शक्ति की आराधना करते हुए एक बार ऋृषि मार्कण्डेय ने स्वर्ग में भी हलचल पैदाकर दी उनके कठोर तप को भंग करने के लिए देवराज इन्द्र ने प्रकृति के देवता यम, वरूण, अग्नि सहित अनेक अप्सराएं भेजी जब इन्द्र सहित सभी देव असफल हो गये तब भगवान के रूप में नर और नारायण ऋृषि से वरदान मांगने को कहा। दर्शन से प्रसन्न मार्कण्डेय जी ने प्रभु से प्रभु की कृपा को मांगा इस दौरान धन्य मार्कण्डेयऋृषि को नश्वर माया का ज्ञान प्राप्त हुआ। ये चिरजीवी ऋृषि के रूप में संसार में प्रसिद्ध हुए। श्री महाकाली की कृपा के प्रताप से ही मार्कण्डेय ऋृषि की पूजा लोग चिरजीविता के लिए करते हैं। माता महाकाली के शक्ति स्थल उत्तराखण्ड में अनेकों स्थानों पर मौजूद हैं। कालीचौड की कालिका की कथा, महिमा, अनन्त है। इसे शब्दों में समेट पाना किसी भी प्राणी के लिए सहज व संभव नहीं है। इस स्थान पर काली कब से और किस कारण पूजित है। इस बारे में कोई स्पष्ट मत नहीं है। पुष्पभद्रा तीर्थ-महात्म्य के ४०वें अध्याय में ’’वाम तत्र महादेवी चण्डिका परमेश्वरी‘‘ के नाम से इस देवी की विराट महिमा की ओर इशारा किया गया है। जनपद पिथौरागढ के गंगोलीहाट क्षेत्र में स्थित श्री महाकाली का शक्ति पीठ भी सदियों से पूजनीय है। इस मंदिर की ख्याति देश-विदेशों तक है। जगतगुरु शंकराचार्य जी ने अपने तपोबल से इस स्थान पर काली माँ के दर्शन किए।

सूर्या देवी की विराट महिमा


marg surya mata-बृक्ष की गोद में स्थित है,सूर्या देवी
राजेन्द्रपन्त’रमाकान्त‘
क्षीर वृक्ष स्वरुपिणी दयनीये दयाधिके जय करुणारुपे सूर्या देवी
मंगला, वैश्णवी, माया, कालरात्रि, महामाया, मंतगी, काली कमलवासिनी, शिवा, सर्वमंगलरुपिणी सहित अनन्त नामों से भक्तों के हदय में वास करने वाली महेश्वरी महादेवी की पूजा अर्चना से व आराधना करने पर भगवती दुर्गा कश्टप्रद नरक रुपी दुर्ग से उद्वारकर परम पद प्रदान करती है, देवभूमि उतराखण्ड में ्रशक्तिपीठों की भरमार है,स्थान स्थान पर स्थित देवी के ्रशक्ति स्थल परम पूजनीय है, लालकआ विधानसभा अन्तर्गत गौला पार से लगभग १७ किमी आगे सेलजाम नदी के तट पर सूर्या देवी का पावन स्थान सदियों से भक्तों को असीम व अलौकिक ्रशान्ति प्रदान करता आ रहा है, इस स्थान पर पहुचनें पर सासारिक मायाजाल में भटके मानव की समस्त ब्याधियाँ ्रशान्ति को प्राप्त हो जाती है।
सूर्या देवी की महंता स्थानीय जनमानस में काफी लोकप्रिय है, दूर-दराज क्षेत्रों से भी भक्तों का आवगमन लगा रहता है, नवरात्रि, शिवरात्रि को भक्तों की खासी भीड यहां पर लगी रहती है, समय समय पर आयोजित धार्मिक समारोह में लोग काफी संख्या अपनी अपनी भागीदारी अदा करते है, सूर्या देवी मंदिर क्षेत्र पाण्डव कालीन गाथाओं को भी अपने आप में समेटे हुए है, माना जाता है, कि बनवास काल के दौरान पाण्डवों ने अपना काफी समय सूर्या देवी की ्रशरण में ब्यतीत किया, सूर्या देवी ्रशक्ति क्षेत्र की सबसे बडी विशेशता यह है, कि यह देवी ्रशेलजाम नदी के तट पर एक वट-वृक्ष के मध्य में है, भक्तजनों को देवी की पूजा अर्चना के लिए सीढयों के सहारे वृक्ष के मध्य तक जाना पडता है, सदियों से स्थित यह वृक्ष सूर्या देवी की विराट महिमा का बखान करता प्रतीत होता है, वट वृक्षों में विराजित ्रशक्ति के बारे में देवी भागवत में आता है।
’’अश्वत्थवट निम्बाम्रकपित्थ बदरीगते।
पनसार्ककरीरादिक्षीर वृक्षस्वरुपिणी।।
दुग्ध वल्लीनिवासार्हे दयनीये दयाधिके।
दाक्षिण्यकरुणारुपे जय सर्वज्ञवल्ल्भे।।
अर्थात् पीपल, वट, नीम, आम, कैथ, बेर में निवास करने वाली आप कटहल, मदार, करील, जामुन आदि क्षीर वृक्षस्वरुपिणी है, दुग्धवल्ली में निवास करने वाली दयनीय महान दयालु कृपालुता एंव करुणा की साक्षात् मूर्तिस्वरुपा एंव सर्वज्ञजनों की प्रिय स्वरुपिणी आपकी जय हों।
इस प्रकार वट-वक्षों के मध्य निवास करने वाली ्रशक्तियाँ साक्षात् शिवा का ही स्वरुप मानी जाती है, जगदम्बा माता की महाविराट शक्ति के रुप में ही लोग यहाँ माता सूर्या देवी की वंदना करते है, हिमालय भूमि में पूज्यनीय तमाम ्रशक्तिपीठों की भांति ही माता सूर्या देवी पूज्यनीयां व वदनीया है, इस स्थान पर ्रशक्ति का अवतरण कब व किस प्रकार हुआ इसका कोई स्पश्ट उल्लेख नही है, सदियों से लोग यहाँ देवी की पूजा अर्चना बडी श्रद्वा व भक्ति के साथ करते आ रहे है, जानकार लोगों बताते है सूर्या देवी की आराधना श्रावण मास में दही से भाद्रपद मास में ्रशर्करा अश्विन मास में खीर तथा कार्तिक मास में दूध, मार्गशीर्श महीने में फेनी एवं पौश माह में दूधि कूर्चिका माघ में महीने में गाय के द्यी का फाल्गुन के महीने में नारियल चैत्र में भावनाओं के निर्मल मोती, वैशाख, मास में गुडमिश्रित प्रसाद, ज्येश्ठ में ्रशहद, आशाढ में नवनीत व महुए के रस का नवैध माँ सूर्या देवी को अर्पित करना चाहिए।
महामंगल मूर्तिस्वरुपा महेश्वरी महादेवी परमेश्वरी सूर्या देवी को इनके भक्तजन सिद्वीकारिणी व कश्ट निवारिणी देवी के रुप में पूजते है, आस्थावान भक्तजन बताते है, इस दरबार में आकर जिसने सच्चे मन से सूर्या देवी का स्मरण कर लिया वह सदैव वैभवशाली रहता है, कोटि सूर्यो की आभाधारण करने वाली सभी प्रकार की सिद्वियां प्रदान करने वाली देवी सूर्या की महिमा अपरम्पार बतायी जाती है, देवी के उपासक इन्हें सर्वशक्तिस्वरुपा महेश्वर की ्रशाश्वत ्रशक्ति साधकों को सिद्वि देने वाली सिद्विरुपा, सिद्वश्वेरी, ईश्वरी आदि तमाम नामों से पुकारते है। कहा जाता है,अनेकों साधकों ने यहाँ साधन करके अलौकिक सिद्वियां प्राप्त की, इस क्षेत्र की गगनचुम्बी पर्वतमालाएं कल कल करती नदियां पूरे क्षेत्र को नवजीवन प्रदान करती है, लगभग पाँच भक्त एक साथ पेड पर ्रशक्ति स्वरुपा माता सूर्या देवी की पूजा अर्चना कर सकते है, यूं तो असंख्य धनाढय लोग माँ के भक्त है कोई भी यहां पर मंदिर का निर्माण करवा सकता है परन्तु मान्यता है, कि इस स्थान पर माता मन्दिर में नही बल्कि प्रकृति के खुले वातावरण में रहना चाहती है, कहा जाता है कि एक बार किसी भक्त ने यहा पर भव्य मंदिर के निर्माण की बात सोची तो उसी रात्रि स्वप्न में प्रकट होकर माता ने ऐसा करने से कदाचित माना किया कहा तो यहां तक जाता है कि यहां पर भव्य मंदिर के निर्माण की योजना एक बार महायोगी हैडाखान बाबा ने संकल्प पूवर्क बनायी तो माता सूर्या देवी ने बाबा हैडाखान जी को भी इस कार्य को करने से रोक दिया था, सेलजाम के पवित्र नदी के तट पर पर्वत की तटहटी पर स्थित आदि काल से पेड की गोद में विराजमान इस वट वृक्ष का नदी का तेज बहाव भी कुछ नही बिगाड पायी है, लालकुआंॅ विधानसभा क्षेत्र के अन्तर्गत गौलापार नामक गाँव से पूर्व दिशा में लगभग सत्रह किलों मीटर की यात्रा के साथ इस मंदिर तक आसानी से पहुंचा जा सकता है, इसी के समीप काल भैरव जी का मंदिर स्थित है।

देवीधूरा की बग्वाल: जहाँ लोक हित में पत्थरों से अपना लहू बहाते हैं लोग
कहा जाता है कि जब पृथ्वी पर मानव सभ्यता की शुरुआत हुई तो तत्कालीन आदि मानव के हाथ में एकमात्र वास्तु 'पाषाण' यानी पत्थर था, तभी उस युग को पाषाण युग कहा गया। पत्थर से ही आदि मानव ने घिसकर नुकीले औजार बनाये, उदर की आग को बुझाने के लिए जानवर मारे और पत्थरों को ही घिसकर आग जलाई और पका हुआ भोजन खाया, बाद में पत्थर से ही गोल पहिये बनाए और जानवरों पर सवारी गांठकर खुद को ब्रह्मा की बनाई दुनियां का सबसे बुद्धिमान शाहकार साबित किया। आज जहाँ एक ओर अपनी तरक्की से हमेशा असंतुष्ट रहने वाला मानव पृथ्वी से भी ऊँचा उठकर चाँद  व मंगल तक पहुँच गया है, वहीँ दूसरी ओर वही मानव आज भी मानो उसी पाषाण युग में पत्थरों को थामे हुए भी जी रहा है। जातीय व धार्मिक दंगो से कहीं दूर देवत्व की धरती देवभूमि उत्तराखंड के देवीधूरा नामक स्थान पर, वह अपने ही भाइयों पर पत्थर मारता है, पर खुशी उसे उनका लहू बहाने से अधिक उनके पत्थरों से अपना लहू बहने पर होती है। वर्ष में कुछ मिनटों के लिए यहाँ होने वाले पत्थर युद्ध में लोक-लाभ की भावना से लोग अपने थोड़े-थोड़े रक्त का योगदान देते हुए पूरे एक मनुष्य के बराबर रक्त बहाते हैं। लेकिन वर्षों से चली आ रही इस परंपरा ने आज तक किसी की जान नहीं ली है, वरन किसी की जान ही बचाई है। यह मौका है जब सवाल-जबाबों से परे होने वाली आस्था के बिना भी अपनी जड़ों और अतीत को समझने का प्रयास किया जा सकता है।

यूँ उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है, "नौ नौर्त, दस दशैं, बिस बग्वाल, ये कुमू फुलि भंग्वाल, हिट कुमय्या माल..।" अर्थात शारदीय नवरात्रि व विजयादशमी के बाद भैया दूज को बीस स्थानों पर बग्वाल खेलकर कुमाऊंवासी माल प्रवास में चले जाते थे। लेकिन अब केवल देवीधूरा में ही बग्वाल खेली जाती है। देवीधुरा यानी "देवी के वन" नाम का छोटा सा कश्बा उत्तराखंड के चंपावत ज़िले में कुमाऊं मंडल के तीन जिलों अल्मोडा, नैनीताल और चंपावत की सीमा पर समद्रतल से लगभग 2,400 मीटर (लगभग 6,500 फिट) की ऊंचाई पर लोहाघाट से 45 किमी तथा चम्पावत से 61 किमी की दूरी पर स्थित है । यहाँ ऐतिहासिक, आध्यात्मिक और नैसर्गिक सौंदर्य की त्रिवेणी के रूप में मां बाराही देवी का मंदिर स्थित है, जिसे शक्तिपीठ की मान्यता प्राप्त है। कहा जाता है कि चंद राजाओं ने अपने शासन काल में इस सिद्ध पीठ में चम्पा देवी और महाकाली की स्थापना की थी। महाकाली को महर और फर्त्याल जाति के लोगों द्वारा बारी-बारी से प्रतिवर्ष नियमित रुप से नरबलि दी जाती थी। बताया जाता है कि रुहेलों के आक्रमण के दौरान कत्यूरी राजाओं द्वारा मां बाराही की मूर्ति को घने जंगल के मध्य एक भवन में स्थापित कर दिया गया था। धीरे-धीरे इसके चारों ओर गांव स्थापित हो गये और यह मंदिर लोगों की आस्था का केन्द्र बन गया। इस स्थान का महाभारतकालीन इतिहास भी बताया जाता है, कहते हैं कि यहाँ पहाड़ी के छोर पर खेल-खेल में भीम ने शिलायें फेंकी थी। ग्रेनाइट की इन विशाल शिलाओं में से दो आज भी मन्दिर के निकट मौजूद हैं। इनमें से एक को राम शिला कहा जाता है। जन श्रुति है कि यहां पर पाण्डवों ने जुआ खेला था, दूसरी शिला पर हाथों के भी निशान हैं। निकट ही स्थित भीमताल और हिडिम्बा मंदिर भी इस मान्यता की पुष्टि करते हैं। वैसे अन्य इतिहासकर इस परंपरा को आठवीं-नवीं सदी का तथा कुछ खस जाति से भी सम्बिन्धित मानते हैं । दूसरी ओर पौराणिक कथाओं के अनुसार जब राक्षक्षराज हिरणाक्ष व अधर्मराज पृथ्वी को अपहरण कर पाताल लोक ले गए, तब पृथ्वी की करुण पुकार सुनकर भगवान विष्णु ने बाराह यानी सूकर का रूप धारण कर पृथ्वी को बचाया, और उसे अपनी बांयी ओर धारण किया। तभी से पृथ्वी वैष्णवी बाराही कहलायी गईं ।कहा जाता हैं कि तभी से मां वैष्णवी बाराही आदिकाल से गुफा गह्वरों में भक्तों की मनोकामना पूर्ण करती आ रही हैं। इन्हीं मां बाराही की पवित्र भूमि पर उल्लास, वैभव एवं उमंग से भरपूर सावन के महीने में जब हरीतिमा की सादी ओढ़ प्रकृति स्वयं पर इठलाने लगती हैं, आकाश में मेघ गरजते हैं, दामिनी दमकती है और धरती पर नदियां एवं झरने नव जीवन के संगीत की स्वर लहरियां गुंजा देते हैं, बरसात की फुहारें प्राणिमात्र में नव स्पंदन भर देती हैं तथा खेत और वनों में हरियाली लहलहा उठती है। ऐसे परिवेश में देवीधूरा में प्राचीनकाल से भाई-बहन के पवित्र प्रेम के पर्व रक्षाबंधन से कृष्ण जन्माटष्मी तक आषाड़ी कौतिक (मेला) मनाया जाता है, वर्तमान में इसे बग्वाल मेले के नाम से अधिक प्रसिद्धि प्राप्त है। कौतिक के दौरान श्रावणी पूर्णिमा को ‘पाषाण युद्ध’ का उत्सव मनाया जाता है। एक-दूसरे पर पत्थर बरसाती वीरों की टोलियां,  वीरों की जयकार और वीर रस के गीतों से गूंजता वातावरण, हवा में तैरते पत्थर ही पत्थर और उनकी मार से बचने के लिये हाथों में बांस के फर्रे लिये युद्ध करते वीर। सब चाहते हैं कि उनकी टोली जीते, लेकिन साथ ही जिसका जितना खून बहता है वो उतना ही ख़ुशक़िस्मत भी समझा जाता है. इसका मतलब होता है कि देवी ने उनकी पूजा स्वीकार कर ली। आस-पास के पेड़ों, पहाड़ों औऱ घर की छतों से हजारों लोग सांस रोके पाषाण युद्ध के इस रोमांचकारी दृश्य को देखते हैं। कभी कोई पत्थर की चोट से घायल हो जाता है तो तुरंत उसे पास ही बने स्वास्थ्य शिविर में ले जाया जाता है। युद्धभूमि में खून बहने लगता है, लेकिन यह सिलसिला थमता नहीं। साल-दर-साल चलता रहता है, हर साल हजारों लोग दूर-दूर से इस उत्सव में शामिल होने आते हैं। आस-पास के गांवों में हफ़्तों पहले से इसमें भाग लेने के लिये वीरों और उनके मुखिया का चुनाव शुरू हो जाता है. अपने-अपने पत्थर और बांस की ढालें तैयार कर लोग इसकी बाट जोहने लगते हैं। 
बग्वाल यानी पाषाण युद्ध की यह परंपरा हजारों साल से देवीधूरा में चली आ रही है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह स्थान गुह्य काली की उपासना का केन्द्र था, सघन व्न में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों का आतंक था, उन्हें प्रसन्न करने के लिये नरबलि की प्रथा थी। देवीधूरा के आस-पास वालिक, लमगड़िया, चम्याल और गहड़वाल खामों (ग्रामवासियों का समूह, जिनमें महर और फर्त्याल जाति के लोग ही अधिक होते हैं) के लोग रहते थे, इन्हीं खामों में से प्रत्येक वर्ष एक व्यक्ति की बारी-बारी से बलि दी जाती थी। एक बार चम्याल खाम की एक ऐसी वृद्धा के पौत्र की बारी आई, जो अपने वंश में इकलौता था। अपने कुल के इकलौते वंशज को बचाने के लिये वृद्धा ने देवी की आराधना की तो देवी ने वृद्धा से अपने गणों को खुश करने के लिये कहा। वृद्धा को इस संकट से उबारने के लिये चारों खामों के लोगों ने इकट्ठे होकर युक्ति निकाली कि एक मनुष्य की जान देने से बेहतर है कि आपस में पाषाण युद्ध “बग्वाल” लड़ (खेल) कर एक मानव के बराबर रक्त देवी व उसके गणों को चड़ा दिया जाए। इस तरह नर बलि की कुप्रथा भी बंद हो गयी। तभी से बग्वाल का एक निश्चित विधान के साथ लड़ी नहीं वरन खेली जाती है । मेले के पूजन अर्चन के कार्यक्रम यद्यपि आषाड़ी कौतिक के रुप में लगभग एक माह तक चलते हैं लेकिन विशेष रुप से श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद कृष्ण पक्ष की द्वितीया तक परम्परागत पूजन होता है । श्रावण शुक्ल एकादशी के दिन चारों खामो के लोगों द्वारा सामूहिक पूजा-अर्चना, मंगलाचरण, स्वस्तिवान, सिंहासन-डोला पूजन और सांगी पूजन विशिष्ट प्रक्रिया के साथ किये जाते हैं। इस बीच अठ्वार का पूजन भी होता है, जिसमें सात बकरों और एक भैंसे का बलिदान दिया जाता है।  पूर्णमासी के दिन चारों खामों व सात तोकों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वन्द्विता व शौर्य के साथ बाराही देवी के मंदिर में एकत्र होते हैं, जहां पुजारी सामूहिक पूजा करवाते हैं । बग्वाल खेलने वाले बीरों (स्थानीय भाषा में द्योंकों) को घरों से महिलाएँ आरती उतार, आशीर्वचन और तिलक-चंदन लगाकर व हाथ में पत्थर देकर ढोल-नगाड़ों के साथ बग्वाल के लिए भेजती हैं। द्योंके युद्ध से पहले एक महीने तक संयम तथा सदाचार का पालन करते हैं, और सात्विक भोजन करते हैं।पूजा के बाद पाषाण युद्ध में भाग लेने वाले चारों खामों के योद्धाओं की टोलियाँ अपने घरों से परम्परागत वेश-भूषा में सुसज्जित होकर ढोल, नगाड़ो के साथ सिर पर कपड़ा बाँध, हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजे व रिंगाल की बनी हुई छन्तोली कही जाने वाली छतरियों (फर्रों) के साथ धोती-कुर्ता या पायजामा पहन व कपड़े से मुंह ढंक कर अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण दुर्वाचौड़ मैदान में पहुँचती  हैं, और दो टीमों के रुप में मैदान में बंट जाती हैं। सर्वप्रथम मंदिर की परिक्रमा की जाती है। इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं । सबका मार्ग पहले से ही निर्धारित होता है । मैदान में पहुचने का स्थान व दिशा हर खाम की अलग होती है । उत्तर की ओर से लमगड़िया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहड़वाल खोलीखाण दूर्वाचौड़ मैदान में आते हैं । दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण-पश्चिम द्वार से बाहर निकलते हैं, और देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले दूर्वाचौड़ मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैं । दोपहर में जब मैदान के चारों ओर आस्था का सैलाब उमड़ पड़ता है, तब एक निश्चित समय पर मंदिर के पुजारी बग्वाल प्रारम्भ होने की घोषणा करते हैं। इसके साथ ही खामों के प्रमुखों की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से प्रारम्भ हो जाती है। ढोल का स्वर ऊँचा होता चला जाता है, छन्तोली से रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंके जाते हैं। धीरे-धीरे बग्वाली एक दूसरे पर प्रहार करते हुए मैदान के बीचों बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुँचने का प्रयास करते हैं। फर्रों की मजबूत रक्षा दीवार बनायी जाती है। जिसकी आड़ से वे प्रतिद्वन्दी दल पर पत्थरों की वर्षा करते हैं। पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक मानव के रक्त के बराबर खून बह गया होगा तब वह ताँबें के छत्र और चँवर के साथ मैदान में आकर बग्वाल सम्पन्न होने की घोषणा शंखनाद से करते हैं। तब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता प्रदर्शित कर आपस में गले मिल, अपने क्षेत्र की समृद्धि की कामना करते हुए द्योंके धीरे-धीरे मैदान से बिदा होते हैं। श्रद्धालुओं में प्रसाद वितरण किया जाता है। इसके बाद भी मंदिर में पूजार्चन चलता रहता है। देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का होता है। फुलारा कोट के फुलारा जानी के लोग मंदिर में पुष्पों की व्यवस्था करते हैं । मनटांडे और ढोलीगाँव के ब्राह्मण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों पर पूजन करवा सकते हैं । भैंसिरगाँव के गहढ़वाल राजपूत बलि के भैंसों पर पहला प्रहार करते हैं। लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फर्त्याल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी। कहा जाता है कि पहले जो बग्वाल आयोजित होती थी उसमें फर्रों का प्रयोग नहीं किया जाता था, परन्तु सन् 1945 के बाद से फर्रे प्रयोग किये जाने लगे। बगवाल में आज भी निशाना बनाकर पत्थर मारना निषेध है । रात्रि में मंदिर में देवी जागरण होता है।
खोलीखांड-दूर्वाचौड़ मैदान के सामने बने मंदिर की ऊपरी मंजिल में तांबे की पेटी में मां बाराही, मां सरस्वती और मां महाकाली की मूर्तियां हैं। ऐसा माना जाता है कि खुली आंखों से इन मूर्तियों को आज तक किसी ने नहीं देखा है। मां बाराही की मूर्ति कैसी और किस धातु की है यह आज भी रहस्य है। कहा जाता है कि मूर्तियों को खुली आंखों से देखने नेत्र की ज्योति चली जाती है। इसलिए मूर्तियों को स्नान कराते समय पुजारी भी आंखों पर काली पट्टी बांधे रहते हैं। इन मूर्तियों की रक्षा का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता है, जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाने में अपूर्व वीरता दिखाई थी। गहढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है। श्रावणी पूर्णिमा के दूसरे दिन बक्से में रखे देवी विग्रह की डोले के रुप में शोभा यात्रा भी सम्पन्न होती है। भक्तजनों की जय-जयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है। चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते हैं। कई लोग देवी को बकरे के अतिरिक्त अठ्वार-सात बकरे तथा एक भैंस की बलि भी अर्पित करते हैं।
बाबा नीब करौरी का कैंची धाम: जहाँ बाबा करते हैं भक्तों से बातें 
हिमालय की गोद में रचा-बसा देवभूमि उत्तराखण्ड वास्तव में दिव्य देव लोक की अनुभूति कराता है। यहां के कण-कण में देवताओ का वास और पग-पग पर देवालयों की भरमार है, इस कारण एक बार यहां आने वाले सैलानी लौटते हैं तो देवों से दुबारा बुलाने की कामना करते हैं। यहां की शान्त वादियों में घूमने मात्र से सांसारिक मायाजाल में घिरे मानव की सारी कठिनाइयों का निदान हो जाता है। यही कारण है कि पर्यटन प्रदेश कहे जाने वाले उत्तराखण्ड के पर्यटन में बड़ा हिस्सा यहां के तीर्थाटन की दृष्टि से मनोहारी देवालयों में आने वाले सैलानियों की दिनों-दिन बढ़ती संख्या का है। यह राज्य की आर्थिकी को भी बढ़ाने में सबल हैं, यह अलग बात है कि सरकारी उपेक्षा के चलते राज्य में अभी कई सुन्दर स्थान ऐसे है जो सरकार की आंखों से ओझल है, जिस कारण कई पर्यटक स्थलों का अपेक्षित लाभ हासिल नही हो पा रहा है।
देवभूमि के ऐसे ही रमणीय स्थानों में 20वीं सदी के महानतम संतों व दिव्य पुरुषों में शुमार बाबा नीब करौरी महाराज का कैंची धाम है, जहां अकेले हर वर्ष इसके स्थापना दिवस 15 जून को ही लाखों सैलानी जुटते हैं। बाबा की हनुमान जी के प्रति अगाध आस्था थी, और उनके भक्त उनमें भी हनुमान जी की ही छवि देखते हैं, और उन्हें हनुमान का अवतार मानते हैं। बाबा के भक्तों का मानना है कि बाबा उनकी रक्षा करते हैं, और साक्षात दर्शन देकर मनोकामनाऐं पूरी करते हैं । यहां सच्चे दिल से आने वाला भक्त कभी खाली नहीं लौटता। यहां बाबा की मूर्ति देखकर ऐसे लगता है जैसे वह भक्तों से साक्षात बातें कर रहे हों।
कैंची धाम उत्तराखण्ण्ड के विश्व प्रसिद्ध पर्वतीय पर्यटक स्थल नैनीताल से मात्र 18 किमी की दूरी पर अल्मोड़ा-रानीखेत मार्ग पर देश-दुनिया में विरले ही मिलने वाली उत्तरवाहिनी क्षिप्रा नदी के तट पर तकरीबन कैंची के आकार के दोहरे `हेयर पिन बैण्ड´ पर स्थित है। बाबा के कैंची आने की कथा भी बड़ी रोचक है । मंदिर के करीब रहने वाले  पूर्णानंद  तिवाड़ी के अनुसार 1942 में एक रात्रि  ख़ुफ़िया डांठ नाम के निर्जन स्थान पर एक कंबल ओढ़े व्यक्ति ने कथित भूत के डर से भय मुक्त कराया, और 20 वर्ष बाद लौटने की बात कही। वादे के अनुसार 1962 में वह रानीखेत से नैनीताल लौटते समय कैंची में रुके और सड़क किनारे के पैराफिट पर बैठ गए और पूर्णानंद को बुलाया । कहा जाता है कि इससे पूर्व सोमवारी बाबा इस स्थान पर भी धूनी रमाते थे, जबकि उनका मूल स्थान पास ही स्थित काकड़ीघाट में कोसी नदी किनारे था। सोमवारी बाबा के बारे में प्रशिद्ध था कि  एक बार भण्डारे में प्रशाद बनाने के लिए घी खत्म हो गया। इस पर बाबा ने भक्तों से निकटवर्ती  नदी से एक कनस्तर जल मंगवा लिया, जो कढ़ाई में डालते ही घी हो गया। तब तक निकटवर्ती भवाले से घी का कनस्तर आ गया। बाबा ने उसे वापस नदी में उड़ेल दिया। लेकिन यह क्या, वह घी पानी बन नदी में समाहित हो गया। इधर जब नीब करौरी बाबा कैंची से गुजरे तो उन्हें कुछ देवी सिंहरन सी हुई, इस पर उन्होंने 1962 में यहाँ आश्रम की स्थापना की। बाद में 15 जून 1973 को यहां विंध्यवासिनी और ठीक एक साल बाद मां वैष्णों देवी की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की गई। 1964 से मन्दिर का स्थापना दिवस समारोह अनवरत 15 जून को मनाया जा रहा है। 
बाबा का जन्म आगरा के निकट फिरोजाबाद जिले के अकबरपुर में जमींदार घराने में मार्गशीर्ष माह की अष्टमी तिथि को हुआ था। उनका वास्तविक नाम लक्ष्मणदास  शर्मा था। इस नाम से उत्तर प्रदेश के जिला फर्रुखाबाद में एक रेलवे स्टेशन है। कहते हैं कि एक बार छापामार दस्ते ने बाबा को टिकट न होने के कारण इस स्थान पर ट्रेन से उतार दिया। लेकिन यह क्या, बाबा के उतरने के बाद ट्रेन लाख प्रयत्नों के बावजूद यहां से चल नहीं सकी। बाद में रेलकर्मियों ने बाबा की महिमा जान उन्हें आदर सहित वापस ट्रेन में बैठाया, जिसके बाद बाबा के `चल´ कहने पर ही ट्रेन चल पड़ी। तभी से इस स्थान पर रेलवे का छोटा स्टेशन बना और इस स्टेशन का नाम लक्ष्मणदास पुरी पड़ा। कहते हैं कि फर्रुखाबाद जिले के नीब करोरी गाँव में ही वह सर्वप्रथम साधू के रूप में दिखाई दिए थे, इसलिए उन्हें नीब करोरी बाबा कहा गया, हालांकि उनके नाम का अपभ्रंश "नीम करोली" नाम भी प्रसिद्द हुआ। बाबा ने ऐसे कई चमत्कार किये, मसलन उनके कैंची धाम में आज भी मौजूद एक उत्तीस के हरे-भरे पेड़ के लिए कहा जाता है कि वह बाबा के जीवन काल में ही सूख गया था, और बाबा के भक्त उस सूखे ठूँठ को  काटना चाहते थे, बाबा ने कहा "इस पर जल चढ़ाव, आरती करा, यह हरा-भरा हो जाएगा", सचमुच ऐसा ही हुआ. एक अन्य किंवदंती के अनुसार नैनीताल के निकट अंजनी मंदिर में बहुत पहले कोई सिद्ध पुरुष आये थे, और उन्होंने कहा था कि एक दिन यहाँ अंजनी का पुत्र आएगा,  1944-45 में बाबा के चरण-पद यहाँ पड़े तो लागों ने सिद्ध पुरुष के बचनों को सत्य माना। इस स्थान को तभी से हनुमानगढ़ी कहा गया, बाद में बाबा ने ही यहाँ अपना पहला आश्रम बनाया,  इसके बाद निकटवर्ती भूमियाधार सहित वृन्दावन, लखनऊ, कानपुर, दिल्ली, बद्रीनाथ, हनुमानचट्टी आदि स्थानों में कुल 22 आश्रम स्थापित किये। कहते हैं कि बाबा जी 9 सितम्बर 1973 को कैंची से आगरा के लिए लौटे थे, जिसके दो दिन बाद ही समय बाद इसी वर्ष अनन्त चतुर्दशी के दिन 11 सितम्बर को वृन्दावन में उन्होंने महाप्रयाण किया ।
सन्त परंपरा की अनूठी मिसाल है कैंची धाम
यूं कैंची के निकटवर्ती मुक्तेश्वर क्षेत्र का पाण्डवकालीन इतिहास रहा है, बाद के दौर में यह स्थान सप्त ऋषियों तिगड़ी बाबा, नान्तिन बाबा, लाहिड़ी बाबा, पायलट बाबा, हैड़ाखान बाबा, सोमवारी गिरि बाबा व नीब करौरी बाबा आदि की तपस्थली रहा। कहते हैं कि कैंचीधाम में पहले सोमवारी बाबा साधना में लीन रहे। कहते हैं कि सोमबारी बाबा के भक्त नींब करौरी बाबा रानीखेत जाते समय यहां ठहरे थी, इसी दौरान प्रेरणा होने पर उन्होंने यहां रात्रि विश्राम की इच्छा जताई, और 1962 में यहां आश्रम की स्थापना की गई। गत दिनों यह मन्दिर अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दिनों में बराक ओबामा का हनुमान प्रेम उजागर होने के बाद बाबा के भक्तों द्वारा ओबामा की विजय के लिए यहाँ किऐ गऐ अनुष्ठान के कारण भी चर्चा में आया था। 
बाबा ने फिर किया चमत्कार: जूलिया रॉबर्ट्स को हिंदू बना दिया 
Julia Roberts, with Swami Dharmdev at Hari Mandir Ashram in Pataudi on the outskirts of New Delhi, India,where she is shooting her upcoming film "Eat, Pray, Love"जी हाँ, बाबा नीब करौरी महाराज ने फिर कमोबेश एक चमत्कार कर डाला है । गत दिवस हिन्दू धर्म अपनाने के लिए चर्चा में आयी हालीवुड की हॉट अभिनेत्री, हॉलीवुड की सुपर स्‍टार, प्रोड्यूसर और फैशन मॉडल  जूलिया राबर्ट्स ने खुद एक पत्रिका को दिए दिए ताजा इंटरव्‍यू में बताया है कि वह आजकल हिंदू धर्म का पालन कर रही हैं। जूलिया ने इस इंटरव्यू में कहा, ‘नीम करोली बाबा की एक तस्‍वीर देख कर मैं उस शख्‍स के प्रति एकदम मोहित हो गई। मैं कह नहीं सकती कि उनकी कौन सी बात मुझे इतनी अच्‍छी लगी कि मैं उनके सम्‍मोहन में फंस गई।’ 42 साल की जूलिया ने कहा कि हिंदू धर्म में कुछ ऐसा तो है जो मैं इसकी मुरीद हो गई और आजकल इसका पालन भी कर रही हूं। कैथलिक मां और बैप्टिस्‍ट पिता की संतान जूलिया ने दोहराया कि वह पूरे परिवार के साथ मंदिर जाती हैं, मंत्र पढ़ती हैं और प्रार्थना करती हैं। मालूम हो कि बाबा के भक्तो में देश के बड़े राजनयिकों प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, हिमांचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल स्व. राजा भद्री, केन्द्रीय मंत्री जितिन प्रसाद, उत्तराखंड सरकार में सचिव मंजुल कुमार जोशी  से लेकर गुरु रामदास के नाम से प्रसिद्ध हुए हारवर्ड विश्व विद्यालय बोस्टन के डा. रिचार्ड एलपर्ट  (‘बी हियर नाउ’ के लेखक) सहित योगी भगवान दास, संगीतकार जय उत्‍तल, कृष्‍णा दास, लामा सूर्य दास, मानवाधिकारवादी डॉ. लैरी ब्रिलिएंट आदि भी नीब करोली बाबा के परम भक्‍तों में शुमार हैं। एप्‍पल कंपनी के सीईओ स्‍टीव जॉब्‍स भी उनके मुरीद हैं। हालांकि एक ऐसा वृत्तांत भी मिलता है जब बाबा ने एक मृत बालक को बहुत प्रार्थना के बाद भी जिलाने से इनकार कर दिया था। बाबा का तर्क था कि ब्रह्मा की बनाई सृष्टि के बनाए नियमों में बदलाव का हक़ किसी को नहीं है।
पढ़िए स्टीव जोब्स की आत्मकथा के ansh: http://www.jankipul.com/2011/11/blog-post_14.html
(रविवार 22 अगस्त 2010 को राष्ट्रीय सहारा के "सन्डे उमंग" परिशिष्ट में देश के सभी संस्करणों में प्रकाशित आलेख: )

लोक देवताओं की विधान सभा है ब्यानधूरा मंदिर
देवभूमि में स्थापित लोक देवताओं के मंदिर अपने में अद्भुत हैं और तमाम विशेषताएं समेटे हुए हैं। जनपद नैनीताल व चम्पावत की सीमा पर स्थित ब्यानधूरा का ऐड़ी देवता मंदिर भी इन्हीं मंदिरों में शामिल हैं। सड़क से 35 किमी दूर इस मंदिर में लोहे के धनुष-बाण व अन्य अस्त्र-शस्त्र चढ़ाए जाते हैं। ऐड़ी देवता के इस मंदिर को देवताओं की विधानसभा भी माना जाता है, जबकि ऐड़ी को महाभारत के अर्जुन का स्वरूप भी माना जाता है। ब्यानधूरा में मंदिर कितना पुराना है इसकी पुष्टि नहीं हो पाई। लेकिन मंदिर परिसर में धनुषबाणों के अकूत ढेर से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह पौराणिक मंदिर है। बताया जाता है कि ऐड़ी नाम के राजा ने ब्यानधूरा में तपस्या कर देवत्व प्राप्त किया। कालान्तर में यह लोक देवताओं के राजा के रूप में पूजे जाने लगे। ऐड़ी धनुष युद्ध विद्या में निपुण थे। उन्हें महाभारत के अर्जुन के अवतार के रूप में माना जाने लगा। इसके साथ ही ब्यानधूरा को देवताओं की विधानसभा माना जाता है। यहां ऐड़ी देवता को लोहे के धनुष-बाण चढ़ाए जाते हैं और अन्य देवताओं को अस्त्र-शस्त्र चढ़ाने की परंपरा भी है। बताया जाता है कि यहां के अस्त्रों के ढेर में सौ मन भारी धनुष भी है। मंदिर के ठीक आगे शुरू गोरखनाथ की धुनी थी है जहां लगातार धुनी चलती है। मंदिर प्रांगण में एक अन्य धुनी भी है जिसमें जागर आयोजित होती है। मंदिर के पुजारी दयाकिशन जोशी के मुताबिक यहां तराई से लेकर पूरे कुमाऊं क्षेत्र के लोग पूजा करने आते हैं। कई लोग मंदिर को गाय दान करते हैं। मकर सक्रांति के अलावा चैत्र नवरात्र, माद्यी पूर्णमासी को यहां भव्य मेला लगता है। मंदिर को शिव के 108 ज्योर्तिलिंगों में से एक की मान्यता प्राप्त है। उन्होंने बताया कि मान्यता होने के बाबत यहां आज तक यातायात की कोई व्यवस्था नहीं हो पाई है।


Tuesday, May 10, 2011

बदल रहा है भूगोल: दो साक्षात्कार

हर वर्ष दो सेमी तक ऊपर उठ रहे हैं हम: प्रो. वल्दिया 
एशिया को 54 मिमी प्रति वर्ष उत्तर की ओर धकेल रहा है भारत
नवीन जोशी, नैनीताल। शीर्षक पड़ कर हैरत में न पड़ें । बात हिमालय क्षेत्र के पहाड़ों की हो रही है। शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार प्राप्त प्रख्यात भू वैज्ञानिक पद्मश्री प्रो. केएस वाल्दिया का कहना है कि भारतीय प्रायद्वीप एशिया को 54 मिमी की दर से हर वर्ष उत्तर की आेर धकेल रहा है। इसके प्रभाव में हिमालय के पहाड़ प्रति वर्ष 18 मिमी तक ऊंचे होते जा रहे हैं।  
प्रो. वाल्दिया ने कहना है कि भारतीय प्रायद्वीपीय प्लेट 54 मिमी से चार मिमी कम या अधिक की दर से उत्तर दिशा की ओर सरक रही है, इसका दो तिहाई प्रभाव तो बाकी देश पर पड़ता है, लेकिन सवाधिक एक तिहाई प्रभाव यानी 18 मिमी से दो मिमी कम या अधिक हिमालयी क्षेत्र में पड़ता है। मुन्स्यारी से आगे तिब्बतन—हिमालयन थ्रस्ट पर भारतीय व तिब्बती प्लेटों का टकराव होता है। कहा कि यह बात जीपीएस सिस्टम से भी सिद्ध हो गई है। उत्तराखंड के बाबत उन्होंने कहा कि यहां यह दर 18 से 2 मिमी प्रति वर्ष की है। कहा कि न केवल हिमालय वरन शिवालिक पर्वत श्रृंखला की ऊंचाई भी बढ़ रही है। उन्होंने नेपाल के पहाड़ों के तीन से पांच मिमी तक ऊंचा उठने की बात कही। 
उत्तराखंड के बाबत उन्होंने बताया कि यहां मैदानों व शिवालिक के बीच हिमालयन फ्रंटल थ्रस्ट,  शिवालिक व मध्य हिमालय के बीच मेन बाउंड्री थ्रस्ट (एमबीटी), तथा मध्य हिमालय व उच्च हिमालय के बीच मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी) जैसे बड़े भ्रंस मौजूल हैं। इनके अलावा भी नैनीताल से अल्मोड़ा की ओर बढ़ते हुए रातीघाट के पास रामगढ़ थ्रस्ट, काकड़ीघाट के पास अल्मोड़ा थ्रस्ट सहित मुन्स्यारी के पास सैकड़ों की संख्या में सुप्त एवं जागृत भ्रंस मौजूद हैं। हिमालय की ओर आगे बढ़ते हुए यह भ्रंस संकरे होते चले जाते हैं।
लेकिन भू गर्भ में ऊर्जा आशंकाओं से कम
नैनीताल। प्रो. वाल्दिया का यह खुलासा पहाड़ वासियों के लिये बेहद सुकून पहुंचाने वाला हो सकता है। अब तक के अन्य वैज्ञानिकों के दावों से इतर प्रो. वाल्दिया का मानना है कि छोटे भूकंपों से भी पहाड़ में भूकंप की संभावना कम हो रही है। जबकि अन्य वैज्ञानिकों का दावा है कि 19३0 से हिमालय के पहाड़ों में कोई भूकंप न आने से भूगर्भ में इतनी अधिक मात्रा में ऊ र्जा का तनाव मौजूद है जो आठ से अधिक मैग्नीट्यूड के भूकंप से ही मुक्त हो सकता है। इसके विपरीत प्रो.वाल्दिया का कहना है कि हिमालय में सर्वाधिक भूकंप आते रहते हैं। इनकी तीव्रता भले कम हो, लेकिन इस कारण भूगर्भ से ऊर्जा निकलती जा रही है। इसलिये भूगर्भ में उतना तनाव नहीं है, जितना कहा जा रहा है। साथ ही उन्होंने कहा कि प्रकृति मां की तरह है, वह कभी किसी का नुकसान नहीं करती। भूकंप व भूस्खलन अनादि काल से आ रहे हैं। इधर जो नुकसान हो रहा है वह इसलिये नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं आबादी क्षेत्र में आ रही हैं, वरन मनुष्य ने आपदाओं के स्थान पर आबादी बसा ली हैं। कहा कि वैज्ञानिक व परंपरागत सोच के साथ ही निर्माण करें तो आपदाओं से बच सकते हैं। सड़कों के निर्माण में भू वैज्ञानिकों की रिपोर्ट न लिये जाने पर उन्होंने नाराजगी दिखाई।
अपरदन बढऩे का है खतरा 
नैनीताल। पहाड़ों के ऊंचे उठने के लाभ—हानि के बाबत पूछे जाने पर कुमाऊं विवि के भू विज्ञान विभागाध्यक्ष प्रो. चारु चंद्र पंत का कहना है कि इस कारण पहाड़ों पर अपरदन बढ़ेगा। यानी भू क्षरण व भूस्खलनों में बढ़ोत्तरी हो सकती है। पहाड़ों के ऊंचे उठते जाने से उनके भीतर हरकत होती रहेगी। वह बताते हैं कि इस कारण ही विश्व की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट की ऊंचाई 8,8४८ मीटर से दो मीटर बढ़कर 8,8५0 मीटर हो गई है। यह जलवायु परिवर्तन का भी कारक हो सकता है 

कभी तिब्बत में होंगे हम: प्रो. पन्त 
5५ मिमी प्रति वर्ष की दर से तिब्बती प्लेट में धंस रही है भारतीय प्लेट
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां ! चौंकिए नहीं, ऐसा संभव है कि हम आज से कुछ हजार वर्ष बाद तिब्बत में हों। हालांकि इससे भी अधिक संभावना यह है कि तब तक कमजोर भारतीय प्लेट,मजबूत तिब्बती प्लेट के भीतर समा जाए और जहां आज उत्तराखंड व उत्तर भारत के बड़े-बड़े नगर बसे हुए हैं, तिब्बत इनके ऊपर चढ़ कर बैठ जाए। जीयोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय प्लेट 54 मिमी प्रति वर्ष की दर से तिब्बती प्लेट में समा रही है।
यहां तक तो यह बात रोमांचित करने वाली अथवा हवाई कल्पना सरीखी लग सकती है, लेकिन यह सामान्य प्रक्रिया है। प्रो. पन्त के अनुसार कुछ बिलियन वर्षों में उत्तराखंड सहित उत्तर भारत तिब्बत में समां जाएगा। यह आश्चर्यजनक लगे तो जान लें की जहाँ आज हिमालय है, वहां कभी टेथिस सागर था आज भी उत्तराखंड के पहाड़ों में समुद्री जीवाश्म इस बात की पुष्टि करते हैं। 
भारतीय प्लेट के तिब्बत में घुसाने की प्रक्रिया में उत्तराखंड व देश की राजधानी दिल्ली सहित समूचे उत्तर भारत मई कई बार भूगर्भीय हलचलों का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में सतर्क रहने की आवश्यकता है। कुमाऊं विवि के भू विज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो.चारु चंद्र पंत ने खुलासा किया कि जीएसआई की ताजा रिपोर्टों के आधार पर भारतीय प्लेट कश्मीर से लेकर अरुणांचल प्रदेश तक औसतन 54 मिमी प्रति वर्ष की दर से तिब्बती प्लेट में समा रही है। उन्होंने आशंका जताई 'संभव है कुछ मिलियन वर्षों में ग्वालियर तिब्बत पहुंच जाए। बताया कि पर्वत भूगर्भीय दृष्टिकोण से अपेक्षाकृत हल्के पदार्थों के बने होते हैं। हिमालय युवा पहाड़ कहलाते हैं, यहां अधिकतम 380 मिलियन वर्ष पुरानी चट्टानें पाई गई हैं। इधर मध्य हिमालय का क्षेत्र 56 मिलियन वर्ष पुराना है, जबकि एक अनोखी बात यहां दिखती है कि अपेक्षाकृत पुराने मध्य हिमालय अपने से नये केवल 15 मिलियन वर्ष पुराने शिवालिक पहाड़ों के ऊपर स्थित हैं। ऐसे में कठोर व कमजोर पहाड़ों का एक-दूसरे के अंदर समाना एक सतत प्रक्रिया है। समाने की यह प्रक्रिया धरती के भीतर लीथोस्फेेरिक व एेस्थेनोस्फियर परतों के बीच होती है। इससे भू गर्भ में अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा एकत्र होती है, जो ज्वालामुखी तथा भूकंपों के रूप में बाहर निकलती है। चूंकि भारतीय व तिब्बती प्लेटें उत्तराखंड के करीब से एक-दूसरे में समा रही हैं, इसलिये यहां भूकंपों का खतरा अधिक बढ़ जाता है। इधर यह खतरा इसलिये भी बढ़ता जा रहा है कि बीते 20 वर्षों में वर्ष 19५ के कांगड़ा व 19३४ के 'ग्रेट आसाम अर्थक्वेक' के बाद के 1१५ वर्षों में यहां आठ मैग्नीट्यूड से अधिक के भूकंप नहीं आये हैं, लिहाजा धरती के भीतर बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा बाहर निकलने को प्रयासरत है।
देश में अब पांच नहीं चार ही साइस्मिक जोन
भू वैज्ञानिक प्रो. चारु चंद्र पंत ने बताया कि पूर्व में दक्षिण भारत को भूकंपों के दृष्टिकोण से बेहद सुरक्षित माना जाता था, और इसे जोन एक में रखा गया था। लेकिन बीते वर्षों में कोयना सहित वहां भी भूकंपों के आने के बाद अब जोन एक को जोन दो में समाहित कर लिया गया है। इस प्रकार देश में अब जोन एक में कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार अब देश में केवल दो, तीन, चार व पांच यानी केवल चार भी भूकंपीय जोन हैं। उत्तराखंड जोन चार व पांच में आता है।
प्राकृतिक आपदाओं से 8 फीसद गरीब मरते हैं
प्रो. पंत के अनुसार प्राकृतिक आपदाओं से 8 फीसद गरीब और केवल 2 फीसद ही मध्य व उच्च वर्गीय लोग मारे जाते हैं। वह बताते हैं कि वास्तव में प्राकृतिक आपदायें हमेशा से आती रही हैं, और अब भी इनकी गति नहीं बढ़ रही है, लेकिन मनुष्य के आपदा प्रभावित क्षेत्रों में बस जाने के कारण मानवीय नुकसान अधिक हो रहा है। ऐसे में इनसे बचने के लिये दीर्घकालीन योजनायें  बनाने, भूकंपरोधी घर बनाने, जिलों से भी नीचे की इकाइयों के डाटा बैंक व वहां स्वयं सेवकों की टास्क फोर्स बनाने की जरूरत है, जो आपदा के दौरान बचाव कार्यों में अपना योगदान दे सकें।