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Monday, March 3, 2014

मुरली मनोहर जोशी और एनडी तिवारी बदल सकते हैं नैनीताल के चुनावी समीकरण !

-मोदी के लिए बनारस छो़ड़ नैनीताल आने का है मुरली मनोहर जोशी पर दबाव
-रोहित को पुत्र स्वीकारने के बाद राजनीतिक विरासत भी सोंप सकते हैं एनडी तिवारी
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां, अब तक कांग्रेस के राजकुमार केसी सिंह ‘बाबा’ के कब्जे वाली नैनीताल-ऊधमसिंहनगर संसदीय सीट एक बार फिर प्रदेश की सबसे बड़ी वीवीआईपी व हॉट सीट हो सकती है। अभी भले यहां कांग्रेस से बाबा या राहुल गांधी के खास प्रकाश जोशी तथा भाजपा से पूर्व सीएम भगत सिंह कोश्यारी, बची सिंह रावत और बलराज पासी में से किसी के लोक सभा चुनाव लड़ने के भी चर्चे हों, लेकिन बेहद ताजा राजनीतिक घटनाक्रमों को देखा जाए तो इस सीट से भाजपा अपने त्रिमूर्तियों में शुमार मुरली मनोहर जोशी को चुनाव मैदान में उतार सकती है। जोशी को इस हेतु मनाया जा रहा है। वहीं पूर्व सीएम एनडी तिवारी अपने जैविक पुत्र रोहित शेखर को स्वीकारने के बाद यहां से अपनी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं। उनके जल्द ही संसदीय क्षेत्र का तीन दिवसीय कार्यक्रम भी तय बताया जा रहा है।
देश के बदले राजनीतिक हालातों में यूपी भाजपा के मिशन-272 प्लस की मुख्य धुरी माना जा रहा है। भाजपा मान रही है कि ‘मुजफ्फरनगर’ के हालिया हालातों और कल्याण सिंह व उनकी पार्टी के औपचारिक तौर पर पार्टी में आने के बाद पश्चिमी यूपी में भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण होना तय हो गया है। मध्य यूपी में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व उपाध्यक्ष राहुल गांधी का प्रभाव क्षेत्र मानते हुए भाजपा जबरन बहुत जोर लगाने के पक्ष में नहीं है, ऐसे में पूवी यूपी को साधने के लिए भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के लिए मुरली मनोहर जोशी की बनारस सीट खाली कराने का न केवल पार्टी वरन संघ की ओर से भी भारी दबाव अब खुलकर सामने आ गया है। दूसरी ओर जोशी लोस चुनाव लड़ने पर अढ़े हुए हैं। ऐसे में उन्हें काफी समय से नैनीताल सीट के लिए मनाये जाने की चर्चाएं अब सतह पर आने लगी हैं। गौरतलब है कि जोशी मूलतः उत्तराखंड के ही अल्मोड़ा के निवासी हैं, और 1977 में भारतीय लोकदल से अल्मोड़ा के सांसद रह चुके हैं। उनके नैनीताल आने की सूरत में माना जा रहा है कि पार्टी के यहां से तीन प्रबल दावेदार भगत सिंह कोश्यारी, बची सिंह रावत व बलराज पासी के होने की वजह से उठ रही भितरघात की संभावनाएं क्षींण हो जाएंगी। वह नैनीताल से भली प्रकार वाकिफ भी हैं, और संसदीय क्षेत्र में ब्राह्मण मतों का ध्रुवीकरण भी कर सकते हैं, लिहाजा वह नैनीताल के लिए मान भी सकते हैं। भाजपा के लिए नैनीताल का संसदीय इतिहास भी बेहतर नहीं रहा है। यहां भाजपा के केवल बलराज पासी 1991 की रामलहर ओर  इला पंत 1998 में जीते भी तो जीत का अंतर करीब महज नौ और 12 हजार मतों का ही रहा, और आगे बाबा इस अंतर को कांग्रेस के पक्ष में बढ़ाते हुए 2004 में 40 हजार और 2009 में 88 हजार कर चुके हैं। ऐसे में यह सीट भाजपा के लिए कठिन है और इसे पार्टी का कोई हैवीवेट प्रत्याशी ही पाट सकता है।
दूसरी ओर एनडी तिवारी के लिए यह सीट 1980 से अपनी सी रही है। तिवारी ने यहां से 1980 में जीत हासिल की, 84 में उनके खास सत्येंद्र चंद्र गु़िड़या जीते और आगे 1996 में तिवारी ने अपनी तिवारी कांग्रेस के टिकट पर तथा 99 में पुनः कांग्रेस से जीत हासिल की। उल्लेखनीय है कि तिवारी हाल में कांग्रेस पार्टी में रहते हुए भी सपा से नजदीकी बढ़ा चुके हैं, और ताजा घटनाक्रम में उन्होंने रोहित शेखर को एक दशक लंबी चली कानूनी लड़ाई के बाद अपना पुत्र मान लिया है। उनका तीन दिवसीय नैनीताल दौरा तीन जनवरी से तय भी हो गया था। ऐसे में आने वाले कुछ दिन इस संसदीय सीट पर नए गुल भी खिला सकते हैं।

रावत, तिवारी, जोशी का भी अलग राजनीतिक त्रिकोण

नैनीताल। हालांकि यह अभी राजनीतिक भविष्य के गर्भ में है, लेकिन अटकलें सही साबित हुईं तो उत्तराखंड में हरीश रावत, एनडी तिवारी और मुरली मनोहर जोशी का अलग राजनीतिक त्रिकोण भी चर्चाओं में रहना तय है। रावत और तिवारी का संघर्ष हमेशा से प्रदेश की राजनीति में दिखता रहा है। 2002 में तिवारी के नेतृत्व वाली तिवारी सरकार के पूरे कार्यकाल में यह संघर्ष खुलकर नजर आया। रावत जिस तरह तिवारी को परेशान किए रहे, ऐसे में रावत की ताजपोशी तिवारी को कितना रास आ रही होगी, समझना आसान है। वहीं रावत एवं जोशी के बीच उनके मूल स्थान अल्मोड़ा में 1980 से जंग शुरू हुई थी, जब युवा रावत ने तब के सिटिंग सांसद जोशी को 80 और 84 के लगातार दो चुनावों में हराकर अल्मोड़ा छोड़ने पर ही मजबूर कर दिया था।
यह भी पढ़ें: तिवारी के बहाने 

Saturday, February 1, 2014

क्या अपना बोया काटने से बच पाएंगे हरीश रावत ?

त्तराखंड राज्य के आठवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करने वाले हरीश रावत की धनै के पीडीएफ से इस्तीफे, महाराज के आशीर्वाद बिना और झन्नाटेदार थप्पड़ जैसे एक्शन-ड्रामा के साथ हुई ताजपोशी के बाद यही सबसे बड़ा सवाल उठ रहा है कि क्या रावत अपना बोया काटने से बच पाएंगे। इस बाबत आशंकाएं गैरवाजिब भी नहीं हैं। रावत के तीन से चार दशक लंबे राजनीतिक जीवन में उपलब्धियों के नाम पर वादों और विरोध के अलावा कुछ नहीं दिखता। 
चाहे राज्य की पिछली बहुगुणा सरकार हो या 2002 में प्रदेश में बनी पं. नारायण दत्त तिवारी की सरकार, रावत ने कभी अपनी सरकारों और मुख्यमंत्रियों के विरोध के लिए विपक्ष को मौका ही नहीं दिया। इधर केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहते चाहे श्रम राज्य मंत्री का कार्यकाल हो, उन्होंने बेरोजगारी व पलायन से पीड़ित अपने राज्य के लिए एक भी कार्य उपलब्धि बताने लायक नहीं किया। वह कृषि मंत्री बने तब भी उन्होंने लगातार किसानी छोड़कर पलायन करने को मजबूर अपने राज्य के किसानों के लिए कुछ नहीं किया। जल संसाधन मंत्री बने, तब भी अपने राज्य की जवानी की तरह ही बह रहे पानी को रोकने या उसके सदुपयोग के लिए एक भी उल्लेखनीय पहल नहीं की। कुल मिलाकर तीन-चार दशक लंबे राजनीतिक करियर के बावजूद रावत के पास अपनी उपलब्धियां बताते के लिए कुछ है तो उत्पाती प्रकृति के समर्थक, जिनकी झलक रावत ने अपनी ताजपोशी से पहले खुद भी अपनी ही पार्टी के एक कार्यकर्ता को झन्नाटेदार थप्पड़ जड़कर दिखा दी है।

इधर, बहुगुणा की सरकार बनने के दौरान एक हफ्ते तक दिल्ली में पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर चले राजनीतिक ड्रामे की यादें अभी बहुत पुरानी नहीं पड़ी हैं, जिसकी हल्की झलक शनिवार को उनकी ताजपोशी के दिन सतपाल महाराज ने दिखा दी है। शपथ ग्रहण समारोह में उनके साथ शपथ लेते मंत्रियों के बुझे चेहरे भी बहुत कुछ कहानी कह रहे थे। बहुगुणा जाते-जाते अपने अनेक समर्थकों को ‘बैक डेट’ से दायित्व देकर उनके लिए परेशानी के सबब पहले ही खड़े कर चुके हैं, जिन्हें उगलना और निगलना दोनों रावत के लिए आसान न होगा। उनके रहते रावत अपने समर्थकों को माल-मलाई देकर कैसे सहलाएंगे, यह बड़ा सवाल है। व्यक्तिगत रूप से वह, उनके समर्थकों का चाल-चरित्र कैसा रहने वाला है, इसकी झलक खुद तो दिखा ही चुके हैं, उनके आज 'कंधों पर झूलते' उनके बड़े समर्थकों के 'दिन-दहाड़े' के चर्चे भी आम हैं। इसलिए बहुत आश्चर्य नहीं उनके कार्यकाल के लिए आज चैनलों में प्रयुक्त किए जा रहे "राव'त' राज" का केवल एक अक्षर बदल कर आगे काम चलाया जाए। 

वह गूल में पानी ना आने पर प्रधानमंत्री को पत्र लिखने की अदा...

अपने शुरुआती राजनीतिक दौर में अपनी समस्याएं बताने वाले लोगों को तत्काल पत्र लिखकर समाधान कराने का वादा करना तब हरीश चंद्र सिंह रावत के नाम से पहचाने जाने वाले रावत का लोगों को अपना मुरीद बनाने का मूलमंत्र रहा। अपने खेत में पानी की गूल से पानी न आने की शिकायत करने वाले ग्रामीण को उनका तीसरे दिन ही पोस्टकार्ड से जवाब आ जाता कि उन्हें लगा है कि गूल में पानी आपके नहीं मेरी गूल में नहीं आ रहा है। उन्होंने शिकायत को सिंचाई विभाग के जेई, एई, ईई, एसई से लेकर राज्य के सिंचाई मंत्री, मुख्यमंत्री के साथ ही केंद्रीय सिंचाई मंत्री और प्रधानमंत्री को भी सूचित कर दिया है। गूल में पानी कभी ना आता, लेकिर ग्रामीण पत्र प्राप्त कर ही हरीश का मुरीद बन जाते। 

विरोध, विरोध और विरोध...

उत्तराखंड आंदोलन के दौरान हरीश की पहचान उत्तराखंड राज्य विरोधी की भी बनी, जिसके परिणामस्वरूप 1989 के चुनावों के लिए नामांकन कराने के लिए भी चुपचाप आना पड़ा था। बाद के वर्षों में हरीश की अपने अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र में ब्राह्मणद्रोही क्षत्रिय नेता की छवि बनती चली गई, जिसका परिणाम उन्हें अपनी हार की हैट-ट्रिक और पत्नी की भी हार के बाद अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र का रण छोड़ने पर विवश कर गया। राज्य के ब्राह्मण नेता तिवारी और बहुगुणा का लगातार विरोध करने से भी उनकी इस ब्राह्मण विरोधी छवि का विस्तार ही हुआ है। इसी का परिणाम है कि आज उन्होंने कुर्सी प्राप्त भी की है तो नारायण दत्त तिवारी के राज्य की राजनीति से दूर जाने के बाद....

Saturday, February 12, 2011

अटल व तिवारी के सहारे सियासी कद बढाने की कोशिश में निशंक




`मिशन 2012´ के `चुनावी मोड´ में जा चुकी उत्तराखंड की भाजपा सरकार के तरकश से छूटा `अटल खाद्यान्न योजना´ का तीर आखिरी नहीं वरन पहला है। "अटल खाद्यान्न योजना" शुरू करने के साथ प्रदेश के मुख्य मंत्री डा. रमेश पोखरियाल 'निशंक'  ने अपने ताप-तेवरों से इशारा कर दिया कि आगे ऐसे कई तीर विपक्ष को भेदने के लिए उनके तरकश से निकलने वाले हैं। वहीँ "अटल आदर्श गाँव" के बाद इस योजना का नाम भी पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपयी के नाम से करके और योजना के प्रदेश भर में एक साथ भव्य शुभारम्भ करने तथा पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को देहरादून में साथ बैठा कर निशंक ने खुद की सियासी तौर पर "हल्के व बातूनी" राजनेता की छवि तोड़ने की कोशिश की है, वहीँ अपना कद भी कुछ हद तक बढ़ाने की कोशिश शुरू कर दी है। 
मुख्यमन्त्री निशंक ने अटल खाद्यान्न योजना के साथ जो चुनावी 'ट्रंप कार्ड' मारा है, इससे खासकर विपक्षी कांग्रेस पार्टी कई मोर्चों पर एक साथ आहत हुई है, और बर्षों तक उसे इसका दर्द सालता रहेगा, यह भी तय है। मालूम हो कि केन्द्र सरकार शीघ्र संसद में खाद्य सुरक्षा विधेयक लाने जा रही है। यदि यह विधेयक लागू हुआ तो केन्द्र सरकार योजना का पूरा क्रियान्वयन खर्च ठाऐगी, और नाम भाजपा सरकार का का होगा। यूं तो भाजपा इस योजना के बल पर ही छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश के साथ कमोबेश गुजरात में सत्ता में वापसी करने में सफल रही है, लेकिन ऐसा यदि उत्तराखण्ड में नहीं  दोहराया जाता तो अगली कांग्रेस सरकार के लिए भी जनता से जुडी इस योजना को जारी रखने की मजबूरी होगी। कांग्रेस अभी योजना के नाम पर आपत्ति कर रही है, लेकिन उसके पास भी गांधी परिवार के अतिरिक्त योजना के लिए कोई नाम मुश्किल से ही होगा, और ऐसा साहस जुटाना भी उसके लिऐ मुश्किल ही होगा। वैसे भी पूर्व सीएम तिवारी द्वारा योजना का नाम अटल जी के नाम पर रखने का स्वागत करने से कांग्रेस की स्थिति स्वयं हांस्यास्पद हो गई है। आगे मुख्यमन्त्री ने अटल जी के नाम से विकसित किऐ जा रे अटल आदर्श गांवों को मिनी सचिवालय बनाने का इरादा जताया है। 
उल्लेखनीय है कि अटल देश के एकमात्र गैर कांग्रेसी नेता हैं, जिन्हें धुर दक्षिणपंथी पार्टी का नेता होने के बावजूद उत्तर-दक्षिण रहने वाली बामपंथियों को भी साथ लेकर पांच से अधिक वर्ष केंद्र में सरकार चलाने का श्रेय जाता है। उत्तराखंड की बात करें तो उनके समय में ही यह राज्य बना। यही नहीं राज्य को वर्ष २०१३ तक के लिए विशेष राज्य का दर्जा दिया गया. आर्थिक व औद्योगिक पैकेज भी मिले, नैनीताल को दो अरब रुपये की झील संरक्ष्यं योजना मिली, वह भी तब जबकि राज्य में विपक्षी कांग्रेस पार्टी की सरकार थी, जिसके मुखिया तिवारी थे। जी हाँ, तिवारी जी, जो न केवल अटल जी के नाम से शुरू हुई "अटल खाद्यान्न योजना" के उदघाटन मौके पर आये, वरन अटल जी को अपना मित्र बताते हुए योजना और उसके नाम का स्वागत किया। निस्संदेह इसे निशंक की सफलता और एक तीर से कई शिकार कहा जा रहा है। अटल के नाम से योजना का नाम रखने और तिवारी को मंच पर लाने पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने भी निशंक की पीठ ठोंकी है। ऐसे में कहा जा सकता है कि यदि यह निशंक का चुनावी संख्नाद है तो फिर उनकी पार्टी राज्य में अब तक लगभग हारी गयी बाजी मानी जा रही जंग को जीतने का स्वप्न संजो सकती है। इससे विपक्ष में आने वाले दिनों में बेचैनी के और बढ़ने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। 
अटल व तिवारी की दोस्ती का गवाह है नैनीताल
नैनीताल। पूर्व सीएम तिवारी ने अटल खाद्यान्न योजना के शुभारम्भ मौके पर पूर्व पीएम अटल बिहांरी बाजपेयी से अपनी दोस्ती का जिक्र किया, और मुख्यमन्त्री डा. निशंक ने तुरन्त ही राज्य में उनकी दोस्ती के स्थल नैनीताल के लिए दो बड़ी घोषणाऐं कर दो बढे नेताओं की दोस्ती को यादगार बनाने का सन्देश दिया है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2002 में तत्कालीन पीएम बाजपेयी व सीएम तिवारी की नगर के राजभवन में भेंट हुई थी, और इसमें बिना किसी पूर्व भूमिका के बाजपेयी ने तिवारी के कहने पर नगर के लिए 200 करोड़ की नैनीताल झील संरक्षण परियोजना की घोषणा कर दी थी। आगे निशंक देश के इन दो राजनीतिक धुरंधरों की दोस्ती के नाम पर और सियासी फसल काटते हुऐ (भी) इनकी दोस्ती के प्रतीक नैनीताल को और कुछ दे जाऐ, तथा इससे नगर और मण्डल के सियासी समीकरण भी बदल जाऐं तो सन्देह न होगा।

Tuesday, January 5, 2010

तिवारी जी के बहाने : नैतिकता और अनैतिकता


आखिर अपने तिवारी जी ना नुकुर कर आंध्र के राजभवन से 'घर' लौट आये हैं. कोशिश की कि घर में छुप कर बैठने के बजाये खुलकर रहेंयह दिखाने के लिए कि वह 'नग्नतामें भी साफ़ हैं, लेकिन वह इस कोशिश में लाख प्रयासों के बावजूद सफल नहीं हो पाए. 'चौरसियाजी' ने उन्हें नग्न कर ही दिया. उन्हें ताव में ही सही स्वयं पर लगे आरोपों को स्वीकार करना पड़ा....

तिवारी कौन हैं, शायद यह बताने की जरूरत नहीं. उन्होंने राजनीति की शुरुवात समाजवादियों की लाल टोपी पहनकर प्रजा सोशलिष्ट पार्टी से की थी, इसी पार्टी से वह 1952 व 1957 में उत्तर प्रदेश विधान सभा में पहली बार गए थे, लेकिन जब 1962 में हारे तो इसे झटक कांग्रेस का दामन थाम लिया. जहाँ से वह उत्तर प्रदेश के चार बार मुख्यमंत्री और केंद्र में प्रधानमंत्री छोड़कर न जाने किस-किस विभाग के मंत्री बने. हाँ, 1991 की राम लहर में वह भाजपा के नए प्रत्याशी बलराज पासी से हार गए और पहाड़ के मुलायम सिंह यादव के विरोध के दौर में मुलायम समर्थक एक दिन के मुख्यमंत्री जगदम्बिका पाल के समर्थन में दिए उनके एक बयान ने उन्हें चुनाव हरा न दिया होता तो वह देश के प्रधानमंत्री भी शायद बन गए होते. इतने बड़े कद के बावजूद कभी तिवारी ने इतना कुछ देने वाली कांग्रेस पार्टी से एक झटके में दामन झटक कर 'तिवारी कांग्रेस' बनाने से भी गुरेज न किया तो कभी "उत्तराखंड मेरी लाश पर बनेगा" कहने वाले तिवारी जी उत्तराखंड विधानसभा का सदस्य न होते हुए भी प्रदेश की पहली निर्वाचित विधानसभा के पहले मुख्यमंत्री बनने का लोभ संवरण न कर पाए, और अपनी अनिच्छा से बने उत्तराखंड को काट-पीट कर अपने उन चाटुकारों के साथ मिल-बाँट कर खाते रहे, जिन्होंने उनसे अब पूरी दूरी बना ली है. लगता है कि तिवारी जी के उसी दौर के कर्म अब उन्हें 'पिड़ा' रहे हैं. और एक वरिष्ठ पार्टी नेता के अनुसार पार्टी हाईकमान ने 'तिवारी नाम के सांप का फन' अपने पैरों तले तब तक के लिए दबा कर रख दिया है, जब तक वह कुचल कर दम न तोड़ दें. वैसे 'राजनीति में रिश्ते बनाए तो जाते हैं, पर अधिक लम्बे निभाये नहीं जाते. हाँ, वक्त पड़ने पर उनकी सियासी फसल जरूर काट ली जाती है' यह कहावत कभी तिवारी पर सटीक बैठती थी, और अब वह स्वयं इसके भुक्तभोगी हैं....
बहरहाल, तिवारीजी के आंध्र के राजभवन में सेक्स स्कैंडल में फंसने के दिनों से ही लोगों में तरह तरह की चर्चाएँ हैं. चर्चाएँ इस बात को लेकर नहीं कि 86 की उम्र में तिवारी ने ये क्या कर दिया ? क्यों किया? गंगा नहाने की उम्र में अपनी ही 'गंगा मैली' कर दीसफ़ेद खादी के लबादों वाली राजनीति में ऐसा दाग क्यों लगाया. वरन, किसी को संदेह नहीं है कि तिवारीजी ने ऐसा नहीं किया होगा आंध्र के राजजभवन में,   ही रोहित शेखर की मां उज्जवला शर्मा के साथ

तिवारीजी को जरा भी नजदीक से जानने वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं कि वह ऐसे ही हैंउत्तराखंड में उनके ऐसे लाख चर्चे पहले से रहे हैंउत्तर प्रदेश के लखनऊरायबरेलीइलाहाबाद में भी उनकी ऐसी ही खूब पहचान हैउत्तराखंड में मुख्यमंत्री रहते ही उन्हें यहाँ के प्रसिद्ध कविगायक नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने 'नौछमी नारेणाकह कर बाकायदा सीडी जारी कर दी थीजिसे तब उन्होंने बैन करवा दिया था लेकिन इन दिनों यह सीडी फिर से हिट हो रही हैइसमें तिवारी जी द्वारा लाल बत्ती से नवाजी गयी 'गोर्ख्यालीतथा अन्य महिला मित्रों की ओर भी इशारा किया गया था .इस मामले में भी जिस राधिका का नाम आ रहा है, वह उनकी पुरानी महिला मित्र ही बतायी जाती है, हालांकि वह अब उन्हें नंगा करने के लिए खुद यह खेल खेलने का दावा कर रही है. 

देश और खासकर उत्तराखंड में जहाँ उनके लाखों समर्थक हैं, जो उन्हें 'बूबू' (दादाजी) की तरह मानते और पूजते भी हैं, एक-आध बार के अलावा हमेशा उन्हें वोटों के रूप में अपना प्यार भी दिया. वहां भी कमोबेश सभी इस बात पर एकमत हैं. 

बहरहाल, कथित तौर पर तिवारी जी को उनके जवानी के दिनों में उनकी जरूरत के ताजे 'पकवान' परोसने वाले कुछ चाटुकार उनके समर्थन की मुहिम चलाये हुए हैं. बाकी लोग चटखारे ले रहे हैं.....तिवारीजी ने साबित कर दिया उत्तराखंड 'हर्बल स्टेट' है, जिस 86 की उम्र में लोग अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाते उस उम्र में तिवारी जी 'ख़राब स्वास्थ्य' के बावजूद तने हुए हैं... राजनीति का गंदा धंदा छूट भी गया तो 'यारसा गम्बू' के ब्रांड अम्बेसडर बनने का विकल्प तो खोल ही दिया है.....,लोग पूछ रहे हैं- तिवारीजी सही है कि आपने स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफा दिया है, पर वह बीमारी तो बता दीजिये.. वगैरह... वगैरह.... 

लेकिन कुछ लोग उनके समर्थन में भी हैं, वह रामायण, महाभारत काल से लेकर चर्चिल, गाँधी, नेहरु.. जिन्ना....क्लिंटन जैसे उदाहरण देकर उन्हें सही साबित करने की कोशिश में हैं. 'शिबौ, त्याड़ज्यू को फंसाया गया है' कहकर झूठी सहानुभूति हासिल करने की असफल कोशिश भी की जा रही है. बहरहाल सभी सहमत हैं की उन्होंने ऐसा किया है. 

याद रखना होगा कि अनैतिकता हर युग में रही है पर हमेशा परदे के पीछे और विरोध के साथ......

इस भुलावे में भी न रहें की पश्चिम में सब चलता है की तर्ज पर इसे यहाँ भी स्वीकार कर लिया जायेगा. अपने यहाँ रुचिका का मामला चर्चा में है ही, I.A.S. अफसर रूपल देओल फिर से गिल से पद्मश्री वापस लिए जाने की मांग कर रही हैं. यहाँ देवभूमि से तो पूरे देश को 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' का सन्देश गया था, और उधर पश्चिम में भी अनैतिक कर्म अनैतिक ही हैं. नैतिक होता तो क्लिंटन की हवस का शिकार होने के बाद से मोनिका सबूत की उस 'चादर' को इतने वर्ष न ढो रही होती. इसे साधारण बात मान कर भूल जाती. यदि होता तो आज ब्रिटेन का प्रसिद्ध समाचार पत्र 'द सन' तिवारी जी को लेकर अंग्रेजी में 'ऑर्गी मिनिस्टर 86' यानी 'भोगी मंत्री 86' हेडिंग लगाकर समाचार न छापता. 


अनैतिक तो केवल पशुओं में ही नैतिक हो सकता है. हाँ इंसानों में भी होता था, लेकिन तभी तक, जब तक उसने ज्ञान का फल नहीं खाया था. अनैतिकता केवल निर्बुद्धि लोगों के लिए ही नैतिक हो सकती है. और सार्वजनिक जीवन के लोगों में इतनी नैतिकता की उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि वह समाज के लिए आदर्श प्रस्तुत करैं. आखिर वह हमारे नेता हैं...लीडर हैं. और राजनेताओं में तो खास तौर पर, क्योंकि वह जनता के मत से ही इस मुकाम पर पहुंचे हैं.  

हाँ, आखिर में एक बात और, तिवारी जी के मामले में अन्य राजनेताओं की चुप्पी समझ से परे है. खास कर आदर्शों की बात करने वाली और मुख्य विरोधी दल भाजपा के नेताओं की, कहीं यह चुप्पी दूसरों पर कीचड़ उछालने से अपने दामन पर भी छीटे आने के डर के कारण है या उन्हें 'हम्माम में सभी नंगे' कहावत के सही साबित हो जाने का डर सता रहा है ?

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