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Thursday, May 15, 2014

बाखलीः पहाड़ की परंपरागत हाउसिंग कालोनी


एक बाखली में 100 परिवार तक रहते हैं, भीतर-भीतर ही रेल के डिब्बों की तरह एक से दूसरे घर में जाने का प्रबंध भी रहता है। 
नवीन जोशी, नैनीताल। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और वह समाज में एक साथ मिलकर रना पसंद करता है। आज के एकाकी व एकल परिवार के दौर में भी मनुष्य समाज के साथ एक तरह की सुविधाओं युक्त कालोनियों में रहना पसंद करता है। बीते दौर में भी मानव की यही प्रवृत्ति रही थी। खासकर उत्तराखंड के गांवों में घरों की लंबी श्रृंखला होती थी, जिसे बाखली (बाखई) कहा जाता है। पहाड़ में अनेक गांवों में ऐसी बाखली हैं, जिनमें सैकड़ों परिवार एक साथ रहा करते थे। आज के बदलते दौर में भी कई गांवों में ऐसी बाखली मौजूद हैं, जो सामाजिकता का संदेश देती हैं। इन्हें पहाड़ की परंपरागत हाउसिंग कालोनियां भी कहा जा सकता है।
नैनीताल जनपद के मौना क्षेत्र में शिमायल के पास कुमाटी नाम का एक गांव है, जहां स्थित बाखली में करीब 80 मवासे (परिवार) एक साथ रहते हैं। बाखली पहाड़ के घरों की एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें पहाड़ के परंपरागत पत्थर व मिट्टी के गारे से बने तथा चपटे पत्थरों (पाथरों) से छाये गए दर्जनों घर आपस में रेल के डिब्बों की तर बाहर ही नहीं भीतर से भी जुड़े रहते हैं, और इनमें घरों के बाहर आए बिना भी रेल के डिब्बों की तरह भीतर-भीतर ही एक से दूसरे घर में जाया जा सकता है। सामान्यतया घरों में बनने वाले व्यंजनों का आदान-प्रदान, एक-दूसरे के घरों में दुःख-तकलीफ तथा कामकाज में सहयोग और खासकर गांवों में रात्रि में बाघ आदि जंगली जानवरों के आने की स्थिति में घरों के भीतर-भीतर ही आने-जाने की यह व्यवस्था खासी कारगर साबित होती रही है। इससे गांव के लोगों में आपसी संबंध भी काफी मधुर रहते हैं, क्योंकि लोग एक-
दूसरे से अधिक गहराई तक जुड़े रहते हैं। इन घरों में जहां दरवाजे व खिड़कियों (द्वार-म्वाव) पर लकड़ी की नक्काशी पहाड़ की समृद्ध काष्ठ कला के दर्शन कराती है, वहीं निचली मंजिल में पशुओं के लिए गोठ, ऊपरी मंजिल में बाहरी कमरा-चाख (जहां चाख यानी अनाज पीसने के लिए हाथ से चलाई जाने वाली चक्की भी होती है), पीछे की ओर रसोई, बाहर की ओर पंछियों के लिए घोंसले, छत में पाथरों के बीच से धुंवे के बाहर निकलने और रोशनी के भीतर आने के प्रबंध तथा आंगन (पटांगण) में बैठने के लिए चौकोर पत्थरों (पटाल) के बीच धान कूटने की ओखली (ऊखल) आदि के प्रबंध भी होते थे। लाल मिट्टी व गोबर से लीपे इन घरों में पहाड़ की समृद्ध परंपरागत चित्रकारी-ऐपण भी देखने लायक होती हैं। बदलते दौर में जहां 1970 के दशक में आए वनाधिकारों के बाद गांवों में पत्थर, लकड़ी आदि वन सामग्री न मिलने की वजह से सीमेंट-कंक्रीट से घर बनने लगे, और पुराने घर भी उनमें रहने वाले लोगों के पलायन की वजह से खाली छूटने के कारण खंडहर में तब्दील होने लगे हैं। इसके बावजूद कुमाटी जैसे अनेक गांव हैं, जहां के ग्रामीणों ने आज भी अपनी विरासत को सहेज कर रखा हुआ है।

Tuesday, January 14, 2014

कुमाऊं का ऋतु पर्व ही नहीं ऐतिहासिक व लोक सांस्कृतिक पर्व भी है उत्तरायणी


-1921 में इसी त्योहार के दौरान बागेश्वर में हुई रक्तहीन क्रांति, कुली बेगार प्रथा से मिली थी निजात
-घुघुतिया के नाम से है पहचान, काले कौआ कह कर न्यौते जाते हैं कौए और परोसे जाते हैं पकवान

नवीन जोशी, नैनीताल। दुनिया को रोशनी के साथ ऊष्मा और ऊर्जा के रूप में जीवन देने के कारण साक्षात देवता कहे जाने वाले सूर्यदेव के धनु से मकर राशि में यानी दक्षिणी से उत्तरी गोलार्ध में आने का पर्व पूरे देश में अलग-अलग प्रकार से मनाया जाता है। पूर्वी भारत में यह बीहू, पश्चिमी भारत (पंजाब) में लोहणी और दक्षिणी भारत (कर्नाटक, तमिलनाडु आदि) में पोंगल तथा उत्तर भारत में मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाने वाला  यह पर्व देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में उत्तरायणी के रूप में मनाया जाता है।उत्तरायणी पर्व कुमाऊं का न केवल मौसम परिवर्तन के लिहाज से एक ऋतु पर्व वरन बड़ा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पर्व भी है। 

घुघुते 
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में मकर संक्रांति यानी उत्तरायणी को लोक सांस्कृतिक पर्व घुघुतिया के रूप में मनाए जाने की विशिष्ट परंपरा रही है। यहाँ 14 जनवरी 1921 को इसी त्योहार के दिन हुए एक बड़े घटनाक्रम को कुमाऊं की ‘रक्तहीन क्रांति’ की संज्ञा दी जाती है, इस दिन कुमाऊं परिषद के अगुवा कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे के नेतृत्व में सैकड़ों क्रांतिकारियों ने कुमाऊं की काशी कहे जाने वाले बागेश्वर के सरयू बगड़ में सरयू नदी का जल हाथों में लेकर बेहद दमनकारी गोर्खा और अंग्रेजी राज के सदियों पुराने 'कुली बेगार' नाम के काले कानून संबंधी दस्तावेजों को नदी में बहाकर हमेशा के लिए तोड़ डाला था। यह परंपरा बागेश्वर में राजनीतिक दलों के सरयू बगड़ में पंडाल लगने और राजनीतिक हुंकार भरने के रूप में अब भी कायम है। इस त्योहार से कुमाऊं के लोकप्रिय कत्यूरी शासकों की एक अन्य परंपरा भी जुड़ी हुई है, जिसके तहत आज भी कत्यूरी राजाओं के वंशज नैनीताल जिले के रानीबाग में गार्गी (गौला) नदी के तट पर उत्तरायणी के दिन रानी जिया का जागर लगाते व परंपरागत पूजा-अर्चना करते हैं। वहीं एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार कुमाऊं के अन्य लोकप्रिय चंदवंशीय राजवंश के राजा कल्याण चंद को बागेश्वर में भगवान बागनाथ की तपस्या के उपरांत राज्य का इकलौता वारिस निर्भय चंद प्राप्त हुआ, जिसे रानी प्यार से घुघुती कहती थी। राजा का मंत्री राज्य प्राप्त करने की नीयत से एक बार घुघुतिया को शड्यंत्र रच कर चुपचाप उठा ले गया। इस दौरान एक कौए ने घुघुतिया के गले में पड़ी मोतियों की माला ले ली, और उसे राजमल में छोड़ आया, इससे रानी को पुत्र की कुशल मिली। उसने कौए को तरह-तरह के पकवान खाने को दिए और अपने पुत्र का पता जाना। तभी से कुमाऊं में घुघुतिया के दिन आटे में गुड़ मिलाकर पक्षी की तरह के घुघुती कहे जाने वाले और पूड़ी नुमा ढाल, तलवार, डमरू, अनार आदि के आकार के स्वादिष्ट पकवानों से घुघुतिया माला तैयार करने और कौओं को पुकारने की प्रथा प्रचलित है। बच्चे उत्तरायणी के दिन गले में घुघुतों की माला डालकर कौओं को ‘काले कौआ काले घुघुति माला खाले, 
ले कौआ पूरी, मकै दे सुनकि छुरी, ले कौआ ढाल, मकैं दे सुनक थाल, ले कौआ बड़, मकैं दे सुनल घड़...’ पुकार कर कोओं को आकर्षित करते हैं, और प्रसाद स्वरूप स्वयं भी घुघुते ग्रहण करते हैं। कौओं को इस तरह बुलाने और पकवान खिलाने की परंपरा त्रेता युग में भगवान श्रीराम की पत्नी सीता से भी जोड़ी जाती है। कहते हैं कि देवताओं के राजा इंद्र का पुत्र जयेंद्र सीता के रूप-सौंदर्य पर मोहित होकर कौए के वेश में उनके करीब जाता है। राम कुश के एक तिनके से जयेंद्र की दांयी आंख पर प्रहार कर डालते हैं, जिससे कौओं की एक आंख हमेशा के लिए खराब हो जाती है। बाद में राम ने ही कौओं को प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के दिन पवित्र नदियों में स्नान कर पश्चाताप करने का उपाय सुझाया था।
इसके साथ ही कुमाऊं में उत्तरायणी के दिन सरयू, रामगंगा, काली, गोरी व गार्गी (गौला) आदि नदियों में कड़ाके की सर्दी के बावजूद सुबह स्नान-ध्यान कर सूर्य का अर्घ्य च़ाकर सूर्य आराधना की जाती है, जो इस त्योहार के कुमाऊं में भी देश भर की तरह सूर्य उपासना से जु़ड़े होने का प्रमाण है। तात्कालीन राज व्यवस्था के कारण कुमाऊं में इस पर्व को सरयू नदी के पार और वार अलग- अलग दिनों में मनाने की परंपरा है। सरयू पार के लोग पौष मासांत के दिन घुघुते तैयार करते हैं, और अगले दिन कौओं को चढ़ाते हैं। जबकि वार के लोग माघ मास की सक्रांति यानि एक दिन बाद पकवान तैयार करते हैं, और अगले दिन कौओं को न्यौतते हुए यह पर्व मनाते हैं।

Sunday, January 12, 2014

कटारमलः जहां है देश का प्राचीनतम सूर्य मंदिर

कटारमल सूर्य मंदिर: जिसका शीर्ष बुर्ज के बजाय जमीन पर पड़ा हुआ है
देश में सूर्य मन्दिर का नाम आते ही मस्तिष्क में सर्वप्रथम कोणार्क के सूर्य मंदिर का नाम आता है, लेकिन देवताओं की भूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में भी दुनिया को सीधे तौर पर जीवन प्रदान करने वाले सूर्य देव का ऐसा मंदिर स्थित है, जो कई संदर्भों में कोणार्क के सूर्य मंदिर से भी पहले आता है। अल्मोड़ा जिले में जिला मुख्यालय से करीब 14 किमी सड़क एवं तीन किमी की पैदल दूरी पर स्थित कटारमल के सूर्य मंदिर में ‘क’ नाम की समानता के साथ ही बाहरी स्वरूप के लिहाज से भी बड़ी समानता दिखाई देती है। दोनों मंदिरों की स्थापत्य कला और स्थापना की अवधि के बारे में वैज्ञानिकों में भी काफी हद तक मतैक्य है।

कटारमल मंदिर समूह
भारतीय पुरातत्व सवेक्षण विभाग के अनुसार कटारमल का मंदिर समूह 13वीं सदी में निर्मित है, जबकि कोणार्क मंदिर समूह का निर्माण वर्ष भी 13वीं सदी में ही 1236 से 1264 के बीच बताया जाता है। हालांकि अनेक पुरातत्व विद्वान कटारमल के सूर्य मंदिर को कोणार्क के मुकाबले दो सदी पुराना यानी सबसे पुराना भी मानते हैं। हालांकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीक्षण पुरातत्वविद् डा. डीएन डिमरी भी मानते हैं कि मंदिर 11वीं सदी का बना हुआ यानी देश का सबसे पुराना सूर्य मंदिर है। हालांकि यहां के मंदिरों के आठवीं-नवीं सदी में होने के भी कुछ प्रमाण मिलते हैं। बहरहाल, दोनों मंदिरों में यह भी समानता है कि दोनों मूल स्वरूप से खंडित हैं। कटारमल का मंदिर तो इस लिहाज से अनूठा ही है कि इसका शीर्ष बुर्ज के बजाय जमीन पर पड़ा हुआ है।
अल्मोडा जिले में रानीखेत रोड पर कोसी नदी व स्थान के निकट समुद्र सतह से करीब 1554 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कटारमल गांव पहुंचने के लिए सड़क निर्माणाधीन है। यहां स्थित सूर्य मंदिर में भगवान सूर्य की मटमैले रंग के पत्थर की करीब एक मीटर लम्बी और पौन मीटर चौड़ी कमल के पुष्प पर आसीन पद्मासन में बैठी मुद्रा की मूर्ति स्थित है। मूर्ति के सिर पर मुकुट तथा पीछे प्रभामंडल है। स्थानीय लोग इसे बड़ादित्य (बड़ा आदित्य यानी बड़ा सूर्य) मंदिर भी कहते हैं। स्कन्दपुराण के मानस खंड के अनुसार ऋषि मुनियों ने आतंक मचाने वाले कालनेमि नाम के राक्षश के वध के लिए इस स्थान पर वट आदित्य की स्थापना कर भगवान सूर्य देव का आह्वान किया था। वास्तु लक्षणों और स्तंभों पर उत्कीर्ण अभिलेखों के आधार पर १३वी सदी में कुमाऊं के कत्यूर वंश के राजा कटारमल देव ने यहां नव ग्रहों सहित सूर्य देव की स्थापना करवाई। राजा कटारमल के नाम से इसे कटारमल सूर्य मंदिर नाम मिला। मंदिर परिसर में सूर्य के अलावा लक्ष्मीनारायण, शिव-पार्वती, कुबेर, नृसिंह, कार्तिकेय, महिषासुरमर्दिनी व गणेश की मूर्तियों सहित अनेक देवी-देवताओं के करीब 45 छोटे-बड़े मंदिर हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वह मनौतियां पूरी होने पर समय-समय पर बनवाए गए। मुख्य मन्दिर की संरचना त्रिरथ आकार की है, जो वर्गाकार गर्भगृह के साथ नागर शैली के वक्र रेखी शिखर सहित निर्मित है। मन्दिर में पहुंचते ही इसकी विशालता और वास्तु शिल्प बरबस ही पर्यटकों का मन मोह लेता है। मुख्य मंदिर के दक्षिण में तुंगेश्वर व पश्चिम में महारूद्र के मंदिर तथा पास में सूर्य व चंद्र नाम के दो जल-धारे भी हैं।
कत्यूरियों द्वारा निर्मित देवालयों के बारे में यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि सूर्यवंशी होने की वजह से कत्यूरी राजा हर मंदिर को सूर्य की रोशनी के बिना हजारों लोगों, श्रमिकों की मदद से विशालकाय शिलाओं और बेजोड़ शिल्प कला का प्रयोग करते हुए एक ही रात्रि में बनाते थे। एक रात्रि में मंदिर जितने बन जाते, और शेष अधूरे रह जाते। कुमाऊं में बिन्सर महादेव सहित कत्यूरियों द्वारा अधूरे छोड़े कई मंदिरों से इस बात की पुष्टि होती है। उन्होंने जागेश्वर, चंपावत व द्वाराहाट मंदिर समूह सहित सैकड़ों मंदिरों का निर्माण किया था।


भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग कटारमल सूर्य मंदिर समूह को संरक्षित स्मारक घोषित कर चुका है। पूर्व में मंदिर का प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा में था, लेकिन वर्ष 2010 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को मन्दिर की पूर्व दिशा में आठ सीढियों के अवशेष मिले।एक वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद इसके पूर्व दिशा में दरवाजे के बाहर चुनी गई दीवार को हटा दिया गया। इसके बाद वर्ष के अक्टूबर और फरवरी के अंतिम पखवाड़े में सुबह के सूरज की पहली किरणें मंदिर के भीतर स्थित सूर्यदेव की प्रतिमा का अभिषेक करने लगीं। इसके बाद कोणार्क और कटारमल के सूर्य मंदिर में प्रवेश द्वार के पूर्व दिशा में होने की समानता भी जुड़ गई है।

Monday, August 19, 2013

सत्याग्रह की जिद पर गांधी जी को भी झुका दिया था डुंगर ने

पहले मना करने पर दुबारा की गई अनुनय पर दी थी अनुमति 
पांच वर्ष रहे जेल में, जेलरों की नाक में भी कर दिया था दम, बदलनी पड़ीं 11 जेलें
नवीन जोशी, नैनीताल। जिद यदि नेक उद्देश्य के लिए हो और दृ़ढ़ इच्छा शक्ति के साथ की जाए तो फिर पहाड़ों का भी झुकना पड़ता है। जिस अहिंसा और सत्याग्रह के मार्ग से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कभी अपने राज्य में सूर्य के न छुपने के घमंड वाले अंग्रेजों को झुका कर देश से बाहर खदेड़ दिया था, उसी अहिंसा  और सत्याग्रह की जिद से पहाड़ के एक बेटे ने महात्मा गांधी को भी झुका दिया था। जी हां, राष्ट्रपिता के समक्ष भी ऐसे विरले अनुभव ही आए होंगे, जहां उन्हें किसी ने अपना निर्णय बदलने को मजबूर किया होगा। देश को आजाद कराने के लिए गांधी जी के ऐसे ही एक जिद्दी सिपाही और स्वतंत्रता सेनानी का नाम डुंगर सिंह बिष्ट है।
यह 1940 की बात है। 1919 में जिले के सुंदरखाल गांव में सबल सिंह के घर जन्मे डुंगर तब कोई 20 वर्ष के रहे होंगे। इस उम्र में भी वह आईवीआरआई मुक्तेश्वर के सरकारी स्कूल में प्रधानाध्यापक के पद पर कार्यरत थे। तभी गांधी जी के सत्यागह्र आंदोलन से वह ऐसे प्रेरित हुए कि पांच नवंबर 1940 को आजादी के आंदोलन में पूरी तर रमने के लिए लगी-लगाई नौकरी छोड़ दी, और देश की सक्रिय सेवा के लिए फौज में शामिल होने का मन बनाया। 14 नवंबर 1940 को भर्ती अफसर कर्नल एटकिंशन ने उन्हें देखते ही अस्थाई सेकेंड लेफ्टिनेंट के पद पर चयनित कर लिया। लेकिन इसी बीच हल्द्वानी में पं. गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व में चल रहे सत्याग्रह आंदोलन को देखकर उन्होंने फौज का रास्ता छोड़ सीधे सत्याग्रह आंदोलन में कूदने का मन बना डाला, और पहले तत्कालीन कांग्रेस जिलाध्यक्ष मोतीराम पाण्डे को और फिर सीधे महात्मा गांधी को पत्र लिखकर सत्याग्रह आंदोलन की अनुमति देने का आग्रह किया। 26 दिसंबर 1940 को बापू के पीए प्यारे लाल नैयर ने उन्हें बापू का संदेश देते हुए पत्र लिखा कि उनके पिता 84 वर्ष के हैं, माता तथा भाभी की मृत्यु हो चुकी है, और पिता की देखभाल को कोई नहीं हैं, लिहाजा उन्हें सत्याग्रह की इजाजत नहीं दी जा सकती। वह पिता की सेवा करते हुए बाहर से ही देश सेवा करते रहें। डुंगर अनुमति न मिलने से बेहद दुःखी हुए, और पुनः एक जनवरी 1941 को बापू को पत्र लिखकर अनुमति देने की जिद की। आखिर उनकी जिद पर बापू को झुकना पड़ा और बापू ने 18 मार्च 41 को उन्हें, ‘स्वयं को उनके देश-प्रेम से बेहद हर्षित और उत्साहित’ बताते हुए इजाजत दे दी। इस पर डुंगर ने आठ अप्रेल को कड़ी सुरक्षा को धता बताते हुए आठ दिनों तक घर व जंगल में छुपते-छुपाते सरगाखेत में अपने साथी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व पुरोहित भवानी दत्त जोशी के साथ सत्यागह्र कर ही दिया। हजारों लोगों के बीच वह अचानक मंच पर प्रकट हुए, और ‘गांधी जी की जै-जैकार, अंग्रेजो भारत को स्वतंत्र करो’ तथा बापू द्वारा सत्याग्रह हेतु दिया गया संदेश ‘इस अंग्रेजी लड़ाई में रुपया या आदमी से मदद देना हराम है, हमारे लिए यही है कि अहिंसात्मक सत्याग्रह के जरिए हर हथियारबंद लड़ाई का मुकाबिला करें’ पढ़ा।  इसके तुरंत बाद उन्हें पुलिस ने पकड़कर पांच वर्ष के लिए जेल भेज दिया। वर्तमान में 96 वर्षीय श्री बिष्ट बताते हैं कि जेल में भी वह जेलर व जेल अधीक्षकों की नाक में दम किए रहे, इस कारण उन्हें पांच वर्षों में अल्मोड़ा, नैनीताल, हल्द्वानी, आगरा, खीरी-लखीमपुर, लखनऊ कैंप व वनारस सहित 11 जेलों में रखना पड़ा। इस दौरान देश में 87 हजार लोगों ने सत्याग्रह किया था, पर डुंगर का दावा है कि 1945 में वनारस जल से रिहा होने वाले वह आखिरी सत्याग्रही थे। आगे देश को दी गई सेवाओं का सिला उन्हें अपने गांव का पहला प्रधान, सरपंच तथा आगे यूपी के मंत्री बनने के रूप में मिला। 

Monday, August 12, 2013

वो भी क्या दिन थे.....

ठीक से तो याद नहीं, मेरी जन्म तिथि शायद सन् 1917 की रही होगी। 1917 इसलिऐ क्योंकि सन् 1946 के आसपास जब मैं अंग्रेजों की फौज (द्वितीय विश्व युद्ध की ब्रिटिश आर्मी-द ट्वेल्थ फ्रंटियर फोर्स रेजीमेंट सियालकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में 03.05.1945 से 16.07.1946 तक सिपाही 3429418 के रूप में) में भर्ती हुआ था, तब मेरी उम्र करीब 29 वर्ष थी। मेरी शादी हो चुकी थी, और पहली सन्तान होने को थी। बड़े भाई ने मेरे खिलाफ पिता के कान भरे थे, जिस पर पिता ने एक दिन डपट दिया। बस क्या था, मैं घर से निकल भागा। तब गरुड़ तक ही सड़क थी, और हमारा गांव ‘तोली’ (पोथिंग) पिण्डारी ग्लेशियर के यात्रा मार्ग पर पड़ता था। मैं सुबह तड़के घर से भागकर जगथाना के रास्ते से गरुड़ के लिए निकल पड़ा। शाम तक वज्यूला गांव पहुंच गया, वहां मेरे ममेरे भाई की ससुराल थी। रात्रि में वहीं रुका। सुबह बस पकड़ी और नैनीताल के लिए चल पड़ा। वहां नैनीताल में मेरे जेठू अंबा दत्त, मोटर कंपनी में ‘मोटर मैन’ थे। चलते ही ममेरे भाई ने ताकीद कर दी थी, गेठिया में बस से उतर जाना, वहां से नैनीताल पास ही होता है। सीधे नैनीताल जाओगे तो वहां ‘टैक्स’ देना पड़ेगा। तब अक्सर लोग चार आने के करीब पड़ने वाले टैक्स को बचाने के लिए ऐसे यत्न आम तौर पर करते थे। मैंने भी ऐसा ही किया। गेठिया से नैनीताल के लिए करीब दो किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई थी। पर उस जमाने में जब पैदल चलना आम होता था, यह दूरी नगण्य ही मानी जाती थी।
खैर, मैं नैनीताल पहुंच गया। जेठू जी से मिला, उनके घर रहा। दूसरे दिन मुझे घर पर बैठे रहने को कह कर जेठू काम पर चले गऐ, लेकिन मैं अकेला ही बाहर निकल गया। गांव से पहली बार घर से निकला था, पर किसी तरह की झिझक मुझमें नहीं थी। देखा, तल्लीताल में अंग्रेजों की सेना के लिए भर्ती चल रही थी। मैं भी भर्ती प्रक्रिया में शामिल हो गया। वजन आदि लिया गया। आगे मेडिकल जांच के लिए नऐ रंगरूटों (रिक्रूटों) को पैदल अल्मोड़ा जाने की बात हुई। अंग्रेजी न जानने के बावजूद मुझमें अंग्रेजों से बात करने में कोई झिझक नहीं थी। अंग्रेज भी कोई ‘हिटलर’ जैसे न थे। मैंने कह दिया, अंग्रेज साहब तुम्हें भी साथ में पैदल चलना पड़ेगा, तभी जाऐंगे। उन्हें भी कोई आपत्ति नहीं हुई। तब अल्मोड़ा के लिए सीधे सड़क नहीं थी। गरमपानी से रानीखेत व कोसी होते हुऐ अल्मोड़ा के लिए रास्ता था। हम लोग सुयालबाड़ी के गधेरे से होते हुऐ पैदल रास्ते से अल्मोड़ा पहुंचे। कमोबेश इसी पैदल रास्ते से आज की सड़क बनी है। मेडिकल प्रक्रिया में शामिल हुआ। वहां साथ गऐ सभी रिक्रूटों में से केवल मैं भर्ती हुआ। अन्य ‘टेस्ट’ में कोई आंख न दिखाई देने, तो कोई न सुनाई देने जैसी बातें बताकर बाहर हो गये थे। बाद में पता चला कि यह लोग बहाने करते थे। वह बहुत गरीबी का जमाना था। भर्ती प्रक्रिया के दौरान खाने को पूड़ियां और वापसी पर दो रुपऐ मिलते थे, जिसके लालच में लड़के भर्ती होने आते थे, और बहाने बनाकर दो रुपऐ लेकर वापस लौट आते थे। मुझे यह पता न था। मुझसे अंग्रेज अफसर ने पूछा, तुम्हें कोई परेशानी नहीं है। मैंने दृढ़ता से कहा, ‘नहीं, मैं लड़ने आया हूं। कुछ परेशानी होती तो क्यों आता ?’ अफसर मुझसे बहुत प्रभावित हुआ। कहा, ‘तुम भर्ती हो गऐ हो। सियालकोट (पाकिस्तान) पोस्टिंग हुई है। वहीं ज्वाइनिंग लेनी होगी।’ रास्ते के खर्च के लिए चार रुपऐ दिऐ। तब आठ आने यानी 50 पैंसे में अच्छा खाना मिल जाता था। काठगोदाम तक साथ में एक आदमी भेजा, और रास्ते के बारे में बताकर अकेले सियालकोट भेज दिया। मैंने उससे पूर्व ट्रेन क्या बस भी नहीं देखी थी, पर मैं निर्भीक होकर रुपऐ ले खुशी-खुशी चल पड़ा।
ट्रेन से पहले बरेली, वहां से ट्रेन बदलकर मुरादाबाद, और वहां से एक और ट्रेन बदलकर सीधे सियालकोट पहुंच गया। वहां गर्मी के दिन थे, पहुंचते ही पोस्टिंग ले ली। तुरन्त मलेशिया की बनी नई ड्रेस मिल गई। अपने इलाके के और रिक्रूट मिल गऐ। मुझे देखकर खुश हो गऐ। मैं उनसे अधिक उम्र का था, और डील डौल में भी बड़ा, लिहाजा पहुंचते ही उन्होंने मेरी अच्छी सेवा की। वहां हिन्दू और मुस्लिम हर तरह के सिपाही थे, सबमें अच्छा दोस्ताना था। बस दोनों की ‘खाने की मेस’ अलग-अलग होती थी। छह माह के भीतर गोलियां चलाने की ट्रेनिंग शुरू हो गई। इस हेतु 600 गज में चॉंदमारी (गोलियां चलाने की ट्रेनिंग का स्थान) बनाई गई थी। मैंने जिन्दगी में पहला फायर झोंका, बिल्कुल निशाने पर। अंग्रेज अफसर से शाबासी मिली। फिर दूसरा, तीसरा.....कर पूरे दस, सब के सब ठीक निशाने पर। साथियों और अफसरों में मैं हीरो हो गया। सबसे शाबासी मिली। मेरा खयाल रखा जाने लगा। लेकिन फौज में एक वर्ष ही हुआ होगा, कि आजाद हिन्द फौज के सिपाही आ गऐ। अंग्रेजों के उनके सामने पांव उखड़ गऐ। लिहाजा, हमारी ‘फौज’ टूट गई। आजादी का वक्त आ गया। हमसे कहा गया कि ‘सेकेण्ड कुमाऊं रेजीमेंट’ खुल गई है। वहां चले जाओ। सीधे घर जाने पर 120 रुपऐ मिलने थे, और ‘सेकेण्ड कुमाऊं रेजीमेंट’ में जाने पर यह 120 रुपऐ खोने का खतरा था। तब अक्ल भी नहीं हुई। 120 रुपऐ बहुत होते थे, घर की परिस्थितियां भी याद आईं। लालच में आ गया। सीधे घर चला आया। 120 रुपऐ से गांव में चाचा की जमीन खरीद ली, जबकि शान्तिपुरी भाबर में 210 रुपऐ में 120 नाली जमीन और जंगल काटने के लिए हथियार मिल रहे थे। लेकिन अपनी मिट्टी के प्यार ने वहां भी नहीं जाने दिया। तभी से अपनी मिट्टी को थामे हुऐ पहाड़ में जमा हुआ हूं। 
(दादाजी स्वर्गीय श्री देवी दत्त जोशी जी से बातचीत के आधार पर, वह गत 8 अगस्त 2013 को मोक्ष को प्राप्त हो गए ) -नवीन जोशी, नैनीताल।

सम्बंधित लेख: http://uttarakhandsamachaar.blogspot.in/2013/08/blog-post_11.html

Thursday, April 18, 2013

बसने के चार वर्ष के भीतर ही देश की दूसरी पालिका बन गया था नैनीताल


सफाई व्यवस्था सुनियोजित करने को बंगाल प्रेसीडेंसी एक्ट के तहत 1845 में हुआ था गठन
नवीन जोशी नैनीताल। जी हां, देश ही नहीं दुनिया में नैनीताल ऐसा अनूठा व इकलौता शहर होगा जिसे बसने के चार वर्ष के अंदर ही नगर पालिका का दर्जा मिल गया था। दूर की सोच रखने वाले इस शहर के अंग्रेज नियंताओं ने शहर के बसते ही इसकी साफ-सफाई को सुनियोजित करने के लिए बंगाल प्रेसीडेंसी एक्ट-1842 के तहत इसे 1845 में नगर पालिका का दर्जा दे दिया गया था। 
विदित है कि नैनीताल नगर को वर्तमान स्वरूप में बसाने का श्रेय अंग्रेज व्यवसायी पीटर बैरन को जाता है, जो 18 नवम्बर 1841 को यहां आया लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि इसके तीन वर्ष के उपरांत 1843-44 में ही, जब नगर की जनसंख्या कुछ सौ ही रही होगी, नगर की साफ-सफाई के कार्य को सुनियोजित करने के लिए इसे नगर पालिका बनाने का प्रस्ताव नगर के तत्कालीन नागरिकों ने कर दिया था। अंग्रेज लेखक टिंकर की पुस्तक "लोकल सेल्फ गवर्नमेंट इन इंडिया, पाकिस्तान एंड वर्मा" के पेज 28-29 में नैनीताल के देश की दूसरी नगर पालिका बनने का रोचक जिक्र किया गया है। पुस्तक के अनुसार उस दौर में किसी शहर की व्यवस्थाओं को सुनियोजित करने के लिए तत्कालीन नार्थ-वेस्ट प्रोविंस में कोई प्राविधान ही नहीं थे। लिहाजा 1842 में बंगाल प्रेसीडेंसी के लिए बने बंगाल प्रेसीडेंसी अधिनियम-1842 के आधार पर इस नए नगर को नगर पालिका का दर्जा दे दिया गया। इससे पूर्व केवल मसूरी को (1842 में) नगर पालिका का दर्जा हासिल था, इस प्रकार नैनीताल को देश की दूसरी नगर पालिका होने का सौभाग्य मिल गया। अधिनियम के तहत 7 जून 1845 को नगर की व्यवस्थाएं देखने के लिए कुमाऊं के दूसरे कमिश्नर मेजर लूसिंग्टन की अध्यक्षता में मेजर जनरल सर डब्लू रिचर्ड्स, मेजर एचएच आरवॉड, कैप्टेन वाईपी पोंग व पी वैरन की पांच सदस्यीय समिति  गठित कर दी गयी।  आगे 1850 में म्युनिसिपल एक्ट आने के बाद तीन अक्टूबर 1850 को यहां विधिवत नगर पालिका बोर्ड का गठन हुआ। नगर के बुजुर्ग नागरिक व म्युनिसिपल कमिश्नर (सभासद) रहे गंगा प्रसाद साह बताते हैं कि उस दौर में नियमों का पूरी तरह पालन सुनिश्चित किया जाता था। सेनिटरी इंस्पेक्टर घोड़े पर सवार होकर रोज एक-एक नाले का निरीक्षण करते थे। माल रोड पर यातायात को हतोत्साहित करने के लिए चुंगी का प्राविधान किया गया था। गवर्नर को चुंगी से छूट थी। एक बार अंग्रेज लेडी गवर्नर बिना चुंगी दिए माल रोड से गुजरने का प्रयास करने लगीं, जिस पर तत्कालीन पालिकाध्यक्ष राय बहादुर जसौत सिंह बिष्ट ने लेडी गवर्नर का 10 रुपये का चालान कर दिया था।

नैनीताल नगर पालिका की विकास यात्रा

  • 1841 में पहला भवन पीटर बैरन का पिलग्रिम हाउस बनना शुरू ।
  • तल्लीताल गोरखा लाइन से हुई बसासत की शुरूआत। 
  • 1845 में मेजर लूसिंग्टन, 1870 में जे मैकडोनाल्ड व 1845 में एलएच रॉबर्टस बने पदेन अध्यक्ष। 
  • 1891 तक कुमाऊं कमिश्नर होते थे छह सदस्यीय पालिका बोर्ड के पदेन अध्यक्ष व असिस्टेंट कमिश्नर उपाध्यक्ष। 
  • 1891 के बाद डिप्टी कमिश्नर (डीसी) ही होने लगे अध्यक्ष। 
  • 1900 से वैतनिक सचिव होने लगे नियुक्त, बोर्ड में होने लगे पांच निर्वाचित एवं छह मनोनीत सदस्य। 
  • 1921 से छह व 1927 से आठ सदस्य होने लगे निर्वाचित। 
  • 1934 में आरई बुशर बने पहले सरकार से मनोनीत गैर अधिकारी अध्यक्ष (तब तक अधिकारी-डीसी ही होते थे अध्यक्ष)। 
  • 1941 में पहली बार रायबहादुर जसौत सिंह बिष्ट जनता से चुन कर बने पालिकाध्यक्ष। 
  • 1953 से राय बहादुर मनोहर लाल साह रहे पालिकाध्यक्ष। 
  • 1964 से बाल कृष्ण सनवाल रहे पालिकाध्यक्ष। 
  • 1971 से किशन सिंह तड़ागी रहे पालिकाध्यक्ष। 
  • 1977 से 1988 तक डीएम के हाथ में रही सत्ता। 
  • 1977 तक बोर्ड सदस्य कहे जाते थे म्युनिसिपल कमिश्नर, जिम कार्बेट भी 1919 में रहे म्युनिसिपल कमिश्नर। 
  • 1988 में अधिवक्ता राम सिंह बिष्ट बने पालिकाध्यक्ष। 
  • 1994 से 1997 तक पुन: डीएम के हाथ में रही सत्ता। 
  • 1997 में संजय कुमार :संजू", 2003 में सरिता आर्या व 2008 में मुकेश जोशी बने अध्यक्ष।
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Monday, September 24, 2012

कौन हैं दो देवियाँ, मां नंदा-सुनंदा

एक शताब्दी से पुराना और अपने 112वें वर्ष में प्रवेश कर रहा सरोवरनगरी का नंदा महोत्सव आज अपने चरम पर है। पिछली शताब्दी और इधर तेजी से आ रहे सांस्कृतिक शून्यता की ओर जाते दौर में भी यह महोत्सव न केवल अपनी पहचान कायम रखने में सफल रहा है, वरन इसने सर्वधर्म संभाव की मिशाल भी पेश की है। पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी यह देता है, और उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं व गढ़वाल अंचलों को भी एकाकार करता है। यहीं से प्रेरणा लेकर कुमाऊं के विभिन्न अंचलों में फैले मां नंदा के इस महापर्व ने देश के साथ विदेश में भी अपनी पहचान स्थापित कर ली है। 
इस मौके पर मां नंदा सुनंदा के बारे में फैले भ्रम और किंवदंतियों को जान लेना आवश्यक है। विद्वानों के इस बारे में अलग अलग मत हैं, लेकिन इतना तय है कि नंदादेवी, नंदगिरि व नंदाकोट की धरती देवभूमि को एक सूत्र में पिरोने वाली शक्तिस्वरूपा मां नंदा ही हैं। यहां सवाल उठता है कि नंदा महोत्सव के दौरान कदली वृक्ष से बनने वाली एक प्रतिमा तो मां नंदा की है, लेकिन दूसरी प्रतिमा किनकी है। सुनंदा, सुनयना अथवा गौरा-पार्वती की। एक दंतकथा के अनुसार मां नंदा को द्वापर युग में नंद यशोदा की पुत्री महामाया भी बताया जाता है जिसे दुष्ट कंश ने शिला पर पटक दिया था, लेकिन वह अष्टभुजाकार देवी के रूप में प्रकट हुई थीं। त्रेता युग में नवदुर्गा रूप में प्रकट हुई माता भी वह ही थी। यही नंद पुत्री महामाया नवदुर्गा कलयुग में चंद वंशीय राजा के घर नंदा रूप में प्रकट हुईं, और उनके जन्म के कुछ समय बाद ही सुनंदा प्रकट हुईं। राज्यद्रोही शडयंत्रकारियों ने उन्हें कुटिल नीति अपनाकर भैंसे से कुचलवा दिया था। भैंसे से बचने के लिये उन्होंने कदली वृक्ष की ओट में छिपने का प्रयास किया था लेकिन इस बीच एक बकरे ने केले के पत्ते खाकर उन्हें भैंसे के सामने कर दिया था। बाद में यही कन्याएं पुर्नजन्म लेते हुए पुनः नंदा-सुनंदा के रूप में अवतरित हुईं और राज्यद्रोहियों के विनाश का कारण बनीं। इसीलिए कहा जाता है कि सुनंदा अब भी चंदवंशीय राजपरिवार के किसी सदस्य के शरीर में प्रकट होती हैं। इस प्रकार दो प्रतिमाओं में एक नंदा और दूसरी सुनंदा हैं। कहीं-कहीं इनके लिये नयना और सुनयना नाम भी प्रयुक्त किये जाते हैं, लेकिन इतना तय है कि नैनीताल में जिन नयना देवी का मंदिर है, उनमें और नंदा देवी में साम्य नहीं है। वरन नयना की नगरी में हर वर्ष सप्ताह भर के लिये नंदा-सुनंदा कदली दलों के रूप में आती हैं, उनकी पर्वताकार सुंदर मूर्तियां बनाई जाती हैं, और आखिर में भव्य शोभायात्रा निकालकर मूर्तियों का नैनी सरोवर में विसर्जन कर दिया जाता है। 
बहरहाल, एक अन्य किंवदंती के अनुसार एक मूर्ति हिमालय क्षेत्र की आराध्य देवी पर्वत पुत्री नंदा एवं दूसरी गौरा पार्वती की हैं। इसीलिए प्रतिमाओं को पर्वताकार बनाने का प्रचलन है। माना जाता है कि नंदा का जन्म गढ़वाल की सीमा पर अल्मोड़ा जनपद के ऊंचे नंदगिरि पर्वत पर हुआ था। गढ़वाल के राजा उन्हें अपनी कुलदेवी के रूप में ले आऐ थे, और अपने गढ़ में स्थापित कर लिया था। इधर कुमाऊं में उन दिनों चंदवंशीय राजाओं का राज्य था। 1563 में चंद वंश की राजधानी चंपावत से अल्मोड़ा स्थानांतरित की गई। इस दौरान 1673 में चंद राजा कुमाऊं नरेश बाज बहादुर चंद (1638 से 1678) ने गढ़वाल के जूनागढ़ किले पर विजय प्राप्त की और वह विजयस्वरूप मां नंदा की मूर्ति को डोले के साथ कुमाऊं ले आए। कहा जाता है कि इस बीच रास्ते में राजा का काफिला गरुड़ के पास स्थित झालामाली गांव में रात्रि विश्राम के लिए रुका। दूसरी सुबह जब काफिला अल्मोड़ा के लिए चलने लगा तो मां नंदा की मूर्ति आश्चर्यजनक रूप से नहीं हिल पायी, (एक अन्य मान्यता के अनुसार दो भागों में विभक्त हो गई।) इस पर राजा ने मूर्ति के एक हिस्से (अथवा मूर्ति के न हिलने की स्थिति में पूरी मूर्ति को ही) स्थानीय पंडितों के परामर्श से पास ही स्थित भ्रामरी के मंदिर में रख दिया। भ्रामरी कत्यूर वंश में पूज्य देवी थीं, और उनका मंदिर कत्यूरी जमाने के किले यानी कोट में स्थित था। मंदिर में भ्रामरी शिला के रूप में विराजमान थीं। ‘कोट भ्रामरी’ मंदिर में अब भी भ्रामरी की शिला और नंदा देवी की मूर्ति अवस्थित है, यहां नंदा अब ‘कोट की माई’ के नाम से जानी जाती हैं। कहते हैं कि अल्मोड़ा लाई गई दूसरी मूर्ति को अल्मोड़ा के मल्ला महल स्थित देवालय (वर्तमान जिलाधिकारी कार्यालय) के बांऐ प्रकोष्ठ में स्थापित की गई। 
इस प्रकार विद्वानों के अनुसार मां नंदा चंद वंशीय राजाओं के साथ संपूर्ण उत्तराखंड की विजय देवी थीं। हालांकि  कुछ विद्वान उन्हें राज्य की कुलदेवी की बजाय शक्तिस्वरूपा माता पराम्बा के रूप में भी मानते हैं। उनका कहना है कि चंदवंशीय राजाओं की पहली राजधानी में मां नंदा का कोई मंदिर न होना सिद्ध करता है कि वह उनकी कुलदेवी नहीं थीं वरन विजय देवी व आध्यात्मिक दृष्टि से आराध्य देवी थीं। चंदवंशीय राजाओं की कुलदेवी मां गौरा-पार्वती को माना जाता है। कहते हैं कि जिस प्रकार गढ़वाल नरेशों की राजगद्दी भगवान बदरीनाथ को समर्पित थी, उसी प्रकार कुमाऊं नरेश चंदों की राजगद्दी भगवान शिव को समर्पित थी, इसलिए चंदवंशीय नरेशों को ‘गिरिराज चक्र चूढ़ामणि’ की उपाधि भी प्राप्त थी। इस प्रकार गौरा उनकी कुलदेवी थीं, और उन्होंने अपने मंदिरों में बाद में जीतकर लाई गई नंदा और गौरा को राजमंदिर में साथ-साथ स्थापित किया। 
वर्तमान नंदा महोत्सवों के आयोजन के बारे में कहा जाता है कि पहले यह आयोजन चंद वंशीय राजाओं की अल्मोड़ा शाखा द्वारा होता था, किंतु 1938 में इस वंश के अंतिम राजा आनंद चंद के कोई पुत्र न होने के कारण तब से यह आयोजन इस वंश की काशीपुर शाखा द्वारा आयोजित किया जाता है, जिसका प्रतिनिधित्व वर्तमान में नैनीताल सांसद केसी सिंह बाबा करते हैं। नैनीताल में वर्तमान नयना देवी मंदिर को स्थापित करने वाले मोती राम शाह ने ही 1903 में अल्मोड़ा से लाकर नंदा देवी महोत्सव मनाने की शुरुआत की थी। शुरुआत में यह आयोजन मंदिर समिति द्वारा ही आयोजित होता था। 1926 से यह आयोजन नगर की सबसे पुरानी धार्मिक सामाजिक संस्था श्रीराम सेवक सभा को दे दिया गया, जो तभी से लगातार दो विश्व युद्धों के दौरान भी बिना रुके सफलता से और नए आयाम स्थापित करते हुए यह आयोजन कर रही है। यहीं से प्रेरणा लेकर अब कुमाऊं के कई अन्य स्थानों पर भी नंदा महोत्सव के आयोजन होने लगे हैं।  

Monday, September 17, 2012

त्रासदियों से नहीं लिए आजाद देश के हुक्मरानों ने सबक

नवीन जोशी नैनीताल। 18 की तिथि सरोवरनगरी के लिये बेहद महत्वपूर्ण है। 18 नवम्बर 1841 को ही इस नगर को वर्तमान स्वरूप में बसाने वाले पीटर बैरन के नगर में आगमन की बात कही जाती है, वहीं सितम्बर माह की 18 तारीख को132 वर्ष पूर्व नगर में जो हुआ, उसे याद कर नैनीतालवासियों की रूह आज भी कांप उठती है। 1880 में इस तिथि को हुए हादसे से तत्कालीन हुक्मरानों ने सबक लेकर जो किया, उससे यह नगर आज भी कई विकराल परिस्थितियों के बावजूद पूरी तरह सुरक्षित है लेकिन चिंताजनक बात यह है कि आजाद देश के हुक्मरान और जनता दोनों मानो इन सबकों को याद करने को तैयार नहीं हैं। नतीजा, घटना की पुनरावृत्ति के रूप में सामने न आये, इसकी दुआ ही की जा सकती है। 
अंग्रेज लेखक एटकिंसन के अनुसार 18 सितम्बर 1880 को काले शनिवार के दिन नगर में आल्मा पहाड़ी की ओर से आये महाविनाशकारी भूस्खलन ने नगर का भूगोल ही परिवर्तित कर दिया था। उस दौर का एशिया का सबसे बड़ा होटल बताया जाने वाला विक्टोरिया होटल, वर्तमान बोट हाउस क्लब के पास स्थित प्राचीन नयना देवी मंदिर और मिस्टर बेल की बिसातखाने की दुकान जमींदोज होकर धमाके के साथ पलक झपकते ही नैनी झील में समा गई थी। इस दुर्घटना में 43 यूरोपीय व यूरेशियन लोगों के साथ ही स्थानीय निवासियों को मिलाकर 151 लोग जिंदा दफन हो गये थे, जबकि तब नगर की जनसंख्या केवल ढाई हजार के करीब थी। तब 16 सितम्बर की दोपहर से बारिश शुरू हो गई थी, और 17 की रात्रि तक करीब नौ इंच और 18 सितम्बर तब 40 घंटों में 20 से 25 इंच तक बारिश हुई थी। इससे पूर्व भी नगर में 1867 में बड़ा भूस्खलन हुआ था। बहरहाल इस दुर्घटना से सबक लेते हुऐ तत्कालीन अंग्रेज नियंताओं ने पहले चरण में सबसे खतरनाक शेर-का-डंडा, चीना (वर्तमान नैना), अयारपाटा, लेक बेसिन व बड़ा नाला (बलिया नाला) का दो लाख रुपये से निर्माण किया। बाद में 80 के अंतिम व 90 के शुरूआती दशक में नगर पालिका ने तीन लाख रुपये से अन्य नाले बनाए। 1898 में आयी तेज बारिश ने लोंग्डेल व इंडक्लिफ क्षेत्र में ताजा बने नालों को नुकसान पहुंचाया, जिसके बाद यह कार्य पालिका से हटाकर पीडब्लूडी को दे दिए गए। 23 सितम्बर 1898 को इंजीनियर वाइल्ड ब्लड्स द्वारा बनाए नक्शों से 35 से अधिक नाले बनाए गए। 1901 तक कैचपिट युक्त 50 नालों (लम्बाई 77,292 फीट) व 100 शाखाओं का निर्माण (कुल लम्बाई 1,06,499 फीट) कर लिया गया। बारिश में भरते ही कैच पिटों में भरा मलवा हटा लिया जाता था। 
अंग्रेजों ने ही नगर के आधार बलियानाले में सुरक्षा कार्य करवाए, जो आज भी बिना एक इंच हिले नगर को थामे हुऐ हैं, जबकि इधर कुछ वर्ष पूर्व ही हमारे इंजीनियरों द्वारा बलियानाला में कराये गए कार्य कमोबेश पूरी तरह दरक गये हैं। नालों में बने कैचपिट अब एकाध जगह देखने भर को मिलते हैं। उनकी सफाई हो-हल्ला मचने पर ही होती है। करोड़ों रुपये की परियोजनाऐं चलने के बावजूद लोनिवि हमेशा नालों की सफाई के लिये बजट न होने का रोना रोता है। नगर पालिका से नालों से कूड़ा व मलवा हटाने को लेकर हमेशा विवाद रहता है। दूसरी ओर नगर वासी निर्माणों के मलवे को नालों के किनारे बारिश होने के इंतजार में रहते हैं, और बारिश होते ही उड़ेल देते हैं। 
बहरहाल, 1880 के बाद विगत वर्ष 2010 में ठीक 18 सितंबर और 2011 में भी सितंबर माह में प्रदेश व निकटवर्ती क्षेत्रों में जल पल्रय जैसे हालात आये। 2010 में नगर की सामान्य 248 सेमी से करीब दोगुनी 413 सेमी बारिश रिकार्ड की गई, बावजूद नगर पूरी तरह सुरक्षित रहा। नगर के बुजुर्ग, आम जन, अधिकारी हर कोई इस बात को स्वीकार करते हैं, लेकिन कोई इस घटना से सबक लेता नहीं दिखता। 

Sunday, September 9, 2012

हिमालय सा व्यक्तित्व और दिल में बसता था पहाड़

लखनऊ, दिल्ली की रसोई में भी कुमाऊंनी भोजन बनता था 

पर्वतीय लोगों से अपनी बोली- भाषा में करते थे बात 
नवीन जोशी नैनीताल। देश की आजादी के संग्राम और आजादी के बाद देश को संवारने में अपना अप्रतिम योगदान देने वाले उत्तराखंड के लाल भारतरत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत का व्यक्तित्व हिमालय जैसा विशाल था। वह राष्ट्रीय फलक पर सोचते थे, लेकिन दिल में पहाड़ ही बसता था। उन्हें पहाड़ और पहाड़वासियों से अपार स्नेह था। पंत आज के नेताओं के लिए भी मिसाल हैं। वे महान ऊंचाइयों तक पहुंचने के बावजूद अपनी जड़ों से हमेशा जुड़े रहे और स्वार्थ की भावना से कहीं ऊपर उठकर अपने घर से विकास की शुरूआत की। उनके घर में आम कुमाऊंनी रसोई की तरह ही भोजन बनता था और आम पर्वतीय ब्राह्मणों की तरह वे जमीन पर बैठकर ही भोजन करते थे। पं. पंत के करीबी रहे नगर के वयोवृद्ध किशन लाल साह ‘कोनी’ ने 125वीं जयंती की पूर्व संध्या पर पं. पंत के नैनीताल नगर से जुड़ी यादों को से साझा किया। 
श्री साह 1952 में युवा कांग्रेस का गठन होते ही नैनीताल संयुक्त जनपद के पहले जिला अध्यक्ष बने। श्री साह बताते हैं कि 1945 से पूर्व संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री (प्रीमियर) रहने के दौरान तक पं. पंत तल्लीताल नया बाजार क्षेत्र में रहते थे। यहां वर्तमान क्लार्क होटल उस समय उनकी संपत्ति था। यहीं रहकर उनके पुत्र केसी पंत ने नगर के सेंट जोसफ कालेज से पढ़ाई की। वह अक्सर यहां तत्कालीन विधायक श्याम लाल वर्मा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल, दलीप सिंह कप्तान आदि के साथ बी. दास, श्याम लाल एंड सन्स, इंद्रा फाम्रेसी, मल्लीताल तुला राम आदि दुकानों में बैठते और आजादी के आंदोलन और देश के हालातों व विकास पर लोगों की राय सुनते, सुझाव लेते, र्चचा करते और सुझावों का पालन भी करते थे।
बाद में वह फांसी गधेरा स्थित जनरल वाली कोठी में रहने लगे। यहीं से केसी पंत का विवाह बेहद सादगी से नगर के बिड़ला विद्या मंदिर में बर्शर के पद पर कार्यरत गोंविद बल्लभ पांडे ‘गोविंदा’ की पुत्री इला से हुआ। केसी पूरी तरह कुमाऊंनी तरीके से सिर पर मुकुट लगाकर और डोली में बैठकर दुल्हन के द्वार पहुंचे थे। इस मौके पर आजाद हिंद फौज के सेनानी रहे कैप्टन राम सिंह ने बैंड वादन किया था। आजादी के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए वे पंत सदन (वर्तमान उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का आवास) में रहे, जोकि मूलत: रामपुर के नवाब की संपत्ति था और इसे अंग्रेजों ने अधिग्रहीत किया था। साह बताते हैं कि वह जब भी उनके घर जाते, उनकी माताजी पर्वतीय दालों भट, गहत आदि लाने के बारे में पूछतीं और हर बार रस- भात बनाकर खिलाती थीं।
उनके लखनऊ के बदेरियाबाग स्थित आवास पर पहाड़ से जो लोग भी पहुंचते, पंत उनके भोजन व आवास की स्वयं व्यवस्था कराते थे और उनसे कुमाऊंनी में ही बात करते थे। उनका मानना था कि पहाड़ी बोली हमारी पहचान है। वह अन्य लोगों से भी अपनी बोली-भाषा में बात करने को कहते थे। साह पं. पंत की वर्तमान राजनेताओं से तुलना करते हुए कहते हैं कि पं. पंत के दिल में जनता के प्रति दर्द था, जबकि आज के नेता नितांत स्वार्थी हो गये हैं। पंत में सादगी थी, वह लोगों के दुख-दर्द सुनते और उनका निदान करते थे। वह राष्ट्रीय स्तर के नेता होने के बावजूद अपनी जड़ों से जुड़े हुए थे। उन्होंने नैनीताल जनपद में ही पंतनगर कृषि विवि की स्थापना और तराई में पाकिस्तान से आये पंजाबी विस्थापितों को बसाकर पहाड़ के आँगन को हरित क्रांति से लहलहाने सहित अनेक दूरगामी महत्व के कार्य किये। 

पन्त के जीवन के कुछ अनछुवे पहलू 

राष्ट्रीय नेता होने के बावजूद पं. पंत अपने क्षेत्र-कुमाऊं, नैनीताल से जुड़े रहे। केंद्रीय गृह मंत्री और संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री रहते हुई भी वह स्थानीय इकाइयों से जुड़े रहे। उनकी पहचान बचपन से लेकर ताउम्र कैसी भी विपरीत परिस्थितियों में सबको समझा-बुझाकर साथ लेकर चलने की रही। कहते हैं कि बचपन में वह मोटे बालक थे, वह कोई खेल भी नहीं खेलते थे, एक स्थान पर ही बैठे रहते थे, इसलिए बचपन में वह 'थपुवा" कहे जाते थे। लेकिन वे पढ़ाई में होशियार थे। कहते हैं कि गणित के एक शिक्षक ने कक्षा में प्रश्न पूछा था कि 30 गज कपड़े को यदि हर रोज एक मीटर काटा जाए तो यह कितने दिन में कट जाएगा, जिस पर केवल उन्होंने ही सही जवाब दिया था-29 दिन, जबकि अन्य बच्चे 30 दिन बता रहे थे। अलबत्ता, इस दौरान उनका काम खेल में लड़ने वाले बालकों का झगड़ा निपटाने का रहता था। उनकी यह पहचान बाद में गोपाल कृष्ण गोखले की तरह तमाम विवादों को निपटाने की रही। संयुक्त प्रांत का प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते वह रफी अहमद किदवई सरीखे अपने आलोचकों और अनेक जाति-धर्मों में बंटे इस बड़े प्रांत को संभाले रहे और यहां तक कि केंद्रीय गृह मंत्री रहते 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौर में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने चीनी समकक्ष चाऊ तिल लाई से बात नहीं कर पा रहे थे, तब पं पंत ही थे, जिन्होंने चाऊलाई को काबू में किया था। इस पर चाऊलाई ने उनके लिए कहा था-भारत के इस सपूत को समझ पाना बड़ा मुश्किल है। अलबत्ता, वह कुछ गलत होने पर विरोध करने से भी नहीं हिचकते थे। कहते हैं कि उन्होंने न्यायाधीश से विवाद हो जाने की वजह से अल्मोड़ा में वकालत छोड़ी और पहले रानीखेत व फिर काशीपुर चले गए। इस दौरान एक मामले में निचली अदालत में जीतने के बावजूद उन्होंने सेशन कोर्ट में अपने मुवक्किल का मुकदमा लड़ने से इसलिए इंकार कर दिया था कि उसने उन्हें गलत सूचना दी थी, जबकि वह दोषी था।
राजनीति और संपन्नता उन्हें विरासत में मिली थी। उनके नाना बद्री दत्त जोशी तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर सर हेनरी रैमजे के अत्यधिक निकटस्थ सदर अमीन के पद पर कार्यरत थे, और उनके दादा घनानंद पंत टी-स्टेट नौकुचियाताल में मैनेजर थे। कुमाऊं परिषद की स्थापना 1916 में उनके नैनीताल के घर में ही हुई थी। प्रदेश के नया वाद, वनांदोलन, असहयोग व व्यक्तिगत सत्याग्रह सहित तत्कालीन समस्त आंदोलनों में वह शामिल रहे थे। अलबत्ता कुली बेगार आंदोलन में उनका शामिल न होना अनेक सवाल खड़ा करता है। इसी तरह उन्होंने गृह मंत्री रहते देश की आजादी के बाद के पहले राज्य पुर्नगठन संबंधी पानीकर आयोग की रिपोर्ट के खिलाफ जाते हुए हिमांचल प्रदेश को संस्कृति व बोली-भाषा का हवाला देते हुए अलग राज्य बनवा दिया, लेकिन वर्तमान में कुमाऊं आयुक्त अवनेंद्र सिंह नयाल के पिता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल के इसी तर्ज पर उत्तराखंड को भी अलग राज्य बनाने के प्रस्ताव पर बुरी तरह से यह कहते हुए डपट दिया था कि ऐसा वह अपने जीवन काल में नहीं होने देंगे। आलोचक कहते हैं कि बाद में पंडित नारायण दत्त तिवारी (जिन्होंने भी उत्तराखंड मेरी लाश पर बनेगा कहा था) की तरह वह भी नहीं चाहते थे कि उन्हें एक अपेक्षाकृत बहुत छोटे राज्य के मुख्यमंत्री के बारे में इतिहास में याद किया जाए।  1927 में साइमन कमीशन के विरोध में उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को बचाकर लाठियां खाई थीं। इस पर भी आलोचकों का कहना है कि ऐसा उन्होंने नेहरू के करीब आने और ऊंचा पद प्राप्त करने के लिए किया। 1929 में वारदोली आंदोलन में शामिल होकर महात्मा गांधी के निकटस्थ बनने तथा 1925 में काकोरी कांड के भारतीय आरोपितों के मुकदमे कोर्ट में लड़ने जैसे बड़े कार्यों से भी उनका कद बढ़ा था।

वास्तव में 30 अगस्त है पं. पंत का जन्म दिवस 
नैनीताल। पं. पंत का जन्म दिन हालांकि हर वर्ष 10 सितम्बर को मनाया जाता है, लेकिन वास्तव में उनका जन्म 30 अगस्त 1887 को अल्मोड़ा जिले के खूंट गांव में हुआ था। वह अनंत चतुर्दशी का दिन था। प्रारंभ में वह अंग्रेजी माह के बजाय हर वर्ष अनंत चतुर्दशी को अपना जन्म दिन मनाते थे। 1946 में अनंत चतुर्दशी यानी जन्म दिन के मौके पर ही वह संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री बने थे, यह 10 सितम्बर का दिन था। इसके बाद उन्होंने हर वर्ष 10 सितम्बर को अपना जन्म दिन मनाना प्रारंभ किया।
भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत के बारे में और अधिक जानकारी यहाँ भी पढ़ सकते हैं।  

Friday, September 3, 2010

उत्तराखंड का प्राचीन इतिहास: ताकि सनद रहे........

विश्व की तत्कालीन परिस्थितियों के आलोक में उत्तराखण्ड का इतिहास 
उत्तराखण्ड में अंग्रेजों का आगमन बिहार के सिघौली में 1815 में अंग्रेजों एवं गोर्खाओं के बीच हुई संधि के बाद हुआ। इससे पूर्व चन्द राजाओं के पतन के बाद गोर्खाओं के राज (कुमाऊं में 1790 से 1815 और गढ़वाल में 1804 से 1815 तक) में यहां के लोग खासे परेशान थे। गोर्खाली राज शासकीय जुल्मों का बेहद ही काला अध्याय रहा। इस दौर में कढ़ाई दीप व पाथर दान के मूर्खतापूर्ण तरीकों से दण्ड देने के प्राविधान थे। किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का शक भी होता, तो उसका `पाथर दान´ के तहत पत्थरों से वजन लिया जाता और एक माह तक उसे बिना भोजन, केवल पानी देकर गुफा में रखा जाता। एक माह बाद उसका पुन: वजन लिया जाता, जो निश्चित ही भोजन न मिलने से पहले से कम होता, और इस आधार पर उसे दोषी मान लिया जाता व कड़ी सजा दी जाती। इसी प्रकार `कढ़ाई दीप´ के तहत शक होने पर व्यक्ति के हाथ खौलते घी में डाले जाते और जलने पर उसे दोषी मान लिया जाता। इस कारण हर्ष देव जोशी, जो कि पूर्व में चन्द वंशीय राजाओं के अन्तिम दीवान थे, अंग्रेजों को यहां लेकर आऐ। अंग्रेजों के इस पर्वतीय भूभाग में आने के कारण यहां की प्राकृतिक सुन्दरता से अभिभूत होने के साथ ही व्यापारिक भी थे। उन दिनों भारत का तिब्बत व नेपाल से बड़ा व्यापारिक लेन-देन होता था। यहां जौलजीवी, बागेश्वर, गोपेश्वर व हल्द्वानी आदि में बड़े व्यापारिक मेले होते थे। 19वीं शताब्दी का वह समय औपनिवेशिक वैश्विकवाद व साम्राज्यवाद का दौर था। नऐ उपनिवेशों की तलाश व वहां साम्राज्य फैलाने के लिए फ्रांस, इंग्लैण्ड व पुर्तगाल जैसे यूरोपीय देश समुद्री मार्ग से भारत आ चुके थे, जबकि रूस स्वयं को इस दौड़ में पीछे रहता महसूस कर रहा था। कारण, उसकी उत्तरी समुद्री सीमा में स्थित वाल्टिक सागर व उत्तरी महासागर सर्दियों में जम जाते थे। तब स्वेज नहर भी नहीं थी। ऐसे में उसने काला सागर या भूमध्य सागर के रास्ते भारत आने के प्रयास किऐ, जिसका फ्रांस व तुर्की ने विरोध किया। इस कारण 1854 से 1856 तक दोनों खेमों के बीच क्रोमिया का विश्व प्रसिद्ध युद्ध हुआ। इस युद्ध में रूस पराजित हुआ, जिसके फलस्वरूप 1856 में हुई पेरिस की संधि में यूरोपीय देशों ने रूस पर काला सागर व भूमध्य सागर की ओर से सामरिक विस्तार न करने का प्रतिबंध लगा दिया। ऐसे में भारत आने के लिए उत्सुक रूस के भारत आने के अन्य मार्ग बन्द हो गऐ थे, और वह केवल तिब्बत की ओर के मार्गों से ही भारत आ सकता था। तिब्बत से उत्तराखण्ड के लिपुलेख, नीति, माणा व जौहार घाटी के पहाड़ी दर्रों से आने के मार्ग बहुत पहले से प्रचलित थे। यूरोपीय देशों को इन रास्तों की जानकारी कमोबेश 1624 से थी। 1624 में आण्ड्रा डे नाम के यूरोपीय ने श्रीनगर गढ़वाल के रास्ते ही शापरांग तिब्बत जाकर वहां चर्च बनाया था। इसलिए कंपनी सरकार ने रूस की उत्तराखण्ड के रास्ते भारत आने की संभावना को भांप लिया, लिहाजा उसके लिए `जियो पालिटिकल´ यानी भौगोलिक व राजनीतिक कारणों से उत्तराखण्ड बेहद महत्वपूर्ण हो गया था।
अंग्रेजों ने इन्हीं `जियो पालिटिकल´ कारणों के कारण यहां स्काटलेण्ड के अधिकारियों को कमिश्नर जैसे बड़े पदों पर रखा। स्काटलेण्ड इंग्लेण्ड का उत्तराखण्ड की तरह का ही पर्वतीय इलाका है, लिहाजा वहां के मूल निवासी अधिकारी यहां के पहाड़ों के हालातों को भी बेहतर समझ सकते थे। कुमाऊं कमिश्नर हैनरी रैमजे, जीडब्ल्यू ट्रेल, लूसिंग्टन आदि सभी स्काटलेण्ड के थे। इनमें से रैमजे कुमाउनीं में बातें करते थे, उन्होंने यहां कई सुधार कार्य किऐ, बल्कि उन्हें यदा-कदा लोग `राम जी´ भी कह दिया करते थे। ट्रेल ने एक अन्य यात्रा मार्ग ट्रेलपास की खोज की, नैनीताल की खोज का भी उन्हें श्रेय दिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने इस क्षेत्र से लोगों की धार्मिक भावनाओं का जुड़ाव व अप्रतिम सुन्दरता को अंग्रेजों की नज़रों से भी बचाने का प्रयास किया, और क्षेत्रीय लोगों से भी इस स्थान पर अंग्रेजों को न लाने को प्रेरित किया। लूसिंग्टन नैनीताल की बसासत के दौरान कमिश्नर थे। उन्होंने यहां सार्वजनिक हित के अलावा व्यक्तिगत कार्यों के लिए भूमि के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था, और यहां स्वयं का घर भी नहीं बनाया। उनकी कब्र आज भी नैनीताल में मौजूद है। इसका अर्थ यह हुआ कि उस दौर की कंपनी सरकार पहाड़ों के प्रति बेहद संवेदनशील थी।
शायद यही कारण रहा कि 1857 में जब देश कंपनी सरकार के खिलाफ उबल रहा था, पहाड़ में एकमात्र काली कुमाऊं में कालू महर व उनके साथियों ने ही रूहेलों से मिलकर आन्दोलन किऐ, हल्द्वानी से रुहेलों के पहाड़ की ओर बढ़ने के दौरान हुआ युद्ध व अल्मोड़ा जेल आदि में अंग्रेजों के खिलाफ छिटपुट आन्दोलन ही हो पाऐ। और जो आन्दोलन हुऐ उन्हें जनता का समर्थन हासिल नहीं हुआ। हल्द्वानी में 100 से अधिक रुहेले मारे गऐ। कालू महर व उनके साथियों को फांसी पर लटका दिया गया। 
शायद इसीलिए 1857 में जब देश में कंपनी सरकार की जगह `महारानी का राज´ कायम हुआ, अंग्रेज पहाड़ों के प्रति और अधिक उदार हो गऐ। उन्होंने यहां कई सुधार कार्य प्रारंभ किऐ, जिन्हें पूरे देश से इतर पहाड़ों पर अंग्रेजों द्वारा किऐ गऐ निर्माणों के रूप में भी देखा जा सकता है।
लेकिन इस कवायद में उनसे कुछ बड़ी गलतियां हो गईं। मसलन, उन्होंने पीने के पानी के अतिरिक्त शेष जल, जंगल, जमीन को अपने नियन्त्रण में ले लिया। इस वजह से यहां भी अंग्रेजों के खिलाफ नाराजगी शुरू होने लगी, जिसकी अभिव्यक्ति देश के अन्य हिस्सों से कहीं देर में पहली बार 1920 में देश में चल रहे `असहयोग आन्दोलन´ के दौरान देखने को मिली। इस दौरान गांधी जी की अगुवाई में आजादी की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस पार्टी यहां के लोगों को यह समझाने में पहली बार सफल रही कि अंग्रेजों ने उनके प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार जमा लिया है। कांग्रेस का कहना था कि वन संपदा से जुड़े जनजातीय व ऐसे क्षेत्रों के अधिकार क्षेत्रवासियों को मिलने चाहिऐ। इसकी परिणति यह हुई कि स्थानीय लोगों ने जंगलों को अंग्रेजों की संपत्ति मानते हुऐ 1920 में 84,000 हैक्टेयर भूभाग के जंगल जला दिऐ। इसमें नैनीताल के आस पास के 112 हैक्टेयर जंगल भी शामिल थे। इस दौरान गठित कुमाऊं परिशद के हर अधिवेशन में भी जंगलों की ही बात होती थी, लिहाजा जंगल जलते रहे। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान 1930-31 के दौरान और 1942 तक भी यही स्थिति चलती रही, तब भी यहां बड़े पैमाने पर जंगल जलाऐ गऐ। कुली बेगार जो कि वास्तव में गोर्खाली शासनकाल की ही देन थी, यह कुप्रथा हालांकि अंग्रेजों के दौरान कुछ शिथिल भी पड़ी थी। इतिहासकार पद्मश्री शेखर पाठक के अनुसार इसे समाप्त करने के लिए अंग्रेजों ने खच्चर सेना का गठन भी किया था। इस कुप्रथा के खिलाफ जरूर पहाड़ पर बड़ा आन्दोलन हुआ, जिससे पहाड़वासियों ने कुमाऊं परिषद के संस्थापक बद्री दत्त पाण्डे, हरिगोविन्द पन्त तथा चिरंजीवी लाल आदि के नेतृत्व में 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी के पर्व पर बागेश्वर में पीछा छुड़ाकर ही दम लिया। गढ़वाल में बैरिस्टर मुकुन्दी लाल के नेतृत्व में 30 जनवरी 21 को इसी तरह आगे से `कुली बेगार´ न देने की शपथ ली गई। सातवीं शताब्दी में कत्यूरी शासनकाल में भी बेगार का प्रसंग मिलता है। कहते हैं कि अत्याचारी कत्यूरी राजा वीर देव ने अपनी डोली पहाड़ी पगडण्डियों पर हिंचकोले न खाऐ, इसलिए कहारों के कंधों में हुकनुमा कीलें फंसा दी थी। कहते हैं कि इसी दौरान कुमाऊं का प्रसिद्ध गीत `तीलै धारो बोला...´ सृजित हुआ था। गोरखों के शासनकाल में खजाने का भार ढोने से लोगों के सिरों से बाल गायब हो गऐ थे। कुमाउनीं के आदि कवि गुमानी पन्त की कविता `दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब-शिब चूली में न बाल एकै कैका...´ कविता लिखी गई। 
                                                       (इतिहासविद् प्रो. अजय रावत से बातचीत के आधार पर)
उत्तराखंड में मिले हड़प्पा कालीन संस्कृति के भग्नावशेष
हड़प्पा कालीन है उत्तराखंड का इतिहास  
 महा पाषाण शवागारों से उत्तराखंड में आर्यों के आने की पुष्टि 
´ब्रिटिश कुमाऊं´ में भी गूंजे थे जंगे आजादी के `गदर में विद्रोह के स्वर
नवीन जोशी, नैनीताल। उत्तराखंड के पहाड़ों की भौगोलिक परिस्थितियां 1857 में देश के प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों से विद्रोह के अधिक अनुकूल नहीं थीं। सच्चाई यह भी थी कि अंग्रेजों के 1815 में आगमन से पूर्व यहां के लोग गोरखों का बेहद दमनात्मक राज झेल रहे थे, वरन उन्हें ब्रिटिश राज में कष्टों से कुछ राहत ही मिली थी। इसके बावजूद यहां भी जंगे आजादी के पहले 'गदर' के दौरान विद्रोह के स्वर काफी मुखरता से गूंजे थे। 








  • नैनीताल व अल्मोड़ा में फांसी पर लटकाए गए कई साधु वेशधारी क्रांतिकारी 
  • इनमें तात्या टोपे के होने की भी संभावना 
  • हल्द्वानी में शहीद हुए थे 114  क्रांतिकारी रुहेले 
  • काली कुमाऊं में बिश्ना कठायत व कालू महर ने थामी थी क्रान्ति की मशाल
इतिहासकारों के अनुसार ´ब्रिटिश कुमाऊं´ कहे जाने वाले बृहद कुमाऊं में वर्तमान कुमाऊं मण्डल के छ: जिलों के अलावा गढ़वाल मण्डल के चमोली व पौड़ी जिले तथा रुद्रप्रयाग जिले का मन्दाकिनी नदी से पूर्व के भाग भी शामिल थे। 1856 में जब ब्रितानी ईस्ट इण्डिया कंपनी के विरुद्ध देश भर में विद्रोह होने प्रारंभ हो रहे थे, यह भाग कुछ हद तक अपनी भौगोलिक दुर्गमताओं के कारण इससे अलग थलग भी रहा। 1815 में कंपनी सरकार यहां आई, जिससे पूर्व पूर्व तक पहाड़वासी बेहद दमनकारी गोरखों को शासन झेल रहे थे, जिनके बारे में कुमाऊं के आदि कवि ´गुमानी´ ने लिखा था ´दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब शिब चूली में का बाल न एकै कैका´ यानि गोरखे इतना शासकीय भार जनता के सिर पर थोपते थे, कि किसी के सिर में बाल ही नहीं उग पाते थे। लेकिन कंपनी सरकार को उर्वरता के लिहाज से कमजोर इस क्षेत्रा से विशेश राजस्व वसूली की उम्मीद नहीं थी, और वह इंग्लेण्ड के समान जलवायु व सुन्दरता के कारण यहां जुल्म ढाने की बजाय अपनी बस्तियां बसाकर घर जैसा माहौल बनाना चाहते थे। इतिहासकार पद्मश्री डा. शेखर पाठक बताते हैं कि इसी कड़ी में अंग्रेजों ने जनता को पहले से चल रही कुली बेगार प्रथा से निजात दिलाने की भी कुछ हद तक पहल की। इसके लिए 1822 में ग्लिन नाम के अंग्रेज अधिकारी ने लोगों के विस्तृत आर्थिक सर्वेक्षण भी कराए। उसने इसके विकल्प के रूप में खच्चर सेना गठित करने का प्रस्ताव भी दिया था। इससे लोग कहीं न कहीं अंग्रेजों को गोरखों से बेहतर मानने लगे थे, लेकिन कई बार स्वाभिमान को चोट पहुंचने पर उन्होंने खुलकर इसका विरोध भी किया। कुमाउंनी कवि गुमानी व मौला राम की कविताओं में भी यह विरोध व्यापकता के साथ रहा। इधर 1857 में रुहेलखण्ड के रूहेले सरदार अंग्रेजों की बस्ती के रूप में विकसित हो चुकी `छोटी बिलायत´ कहे जाने वाले नैनीताल को अंग्रेजों से मुक्त कराना चाहते थे, पर 17 सितम्बर 1857 को तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नर हेनरी रैमजे ने अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें हल्द्वानी के बमौरी दर्रे व कालाढुंगी से आगे नहीं बढ़ने दिया। इस कवायद में 114 स्वतंत्रता सेनानी क्रान्तिकारी रुहेले हल्द्वानी में शहीद हुए। इसके अलावा 1857 में ही रैमजे ने नैनीताल में तीन से अधिक व अल्मोड़ा में भी कुछ साधु वेशधारी क्रान्तिकारियों को फांसी पर लटका दिया गया। नैनीताल का फांसी गधेरा (तत्कालीन हैंग मैन्स वे) आज भी इसका गवाह है। प्रो. पाठक इन साधुवेश धारियों में मशहूर क्रांतिकारी तात्या टोपे के भी शामिल होने की संभावना जताते हैं, पर दस्तावेज न होने के कारण इसकी पुष्टि नहीं हो पाती।
इसी दौरान पैदा हुआ उत्तराखंड का पहला नोबल पुरस्कार विजेता
एक ओर जहां देश की आजादी के लिए पहले स्वतन्त्रता संग्राम चल रहा था, ऐसे में रत्नगर्भा कुमाऊं की धरती एक महान अंग्रेज वैज्ञानिक को जन्म दे रही थी। 1857 में मैदानी क्षेत्रों में फैले गदर के दौरान कई अंग्रेज अफसर जान बचाने के लिए कुमाऊं के पहाड़ों की ओर भागे थे। इनमें एक गर्भवती ब्रिटिश महिला भी शामिल थी, जिसने अल्मोड़ा में एक बच्चे को जन्म दिया। रोनाल्ड रॉस नाम के इस बच्चे ने ही बड़ा होकर   मलेरिया के परजीवी प्लास्मोडियम के जीवन चक्र  की खोज की, जिसके लिए उसे चिकित्सा का नोबल भी पुरस्कार प्राप्त हुआ।







उधर `काली कुमाऊं´ में बिश्ना कठायत व आनन्द सिंह फर्त्याल को अंग्रेजों ने विरोध करने पर फांसी पर चढ़ा दिया, जबकि प्रसिद्ध  क्रांतिकारी कालू महर को जेल में डाल दिया गया। ब्रिटिश कुमाऊं के ही हिस्सा रहे श्रीनगर में अलकनन्दा नदी के बीच पत्थर पर खड़ा कर कई क्रान्तिकारियों को गोली मार दी गई। 1858 में देश में ईस्ट इण्डिया कंपनी की जगह ब्रिटिश महारानी की सरकार बन जाने से पूर्व अल्मोड़ा कैंट स्थित आर्टिलरी सेना में भी विद्रोह के लक्षण देखे गए, जिसे समय से जानकारी मिलने के कारण दबा दिया गया। कई सैनिकों को सजा भी दी गईं। अंग्रेजों के शासकीय दस्तावेजों में यह घटनाएं दर्ज मिलती हैं, पर खास बात यह रही कि अंग्रेजों ने दस्तावेजों में कहीं उन क्रान्तिकारियों का नाम दर्ज करना तक उचित नहीं समझा, जिससे वह अनाम ही रह गऐ।

Friday, April 30, 2010

उत्तराखण्ड में 1400 वर्ष पुराना है श्रमिक आन्दोलनों का इतिहास

नवीन जोशी, नैनीताल। आन्दोलनों की परिणति स्वरुप ही बने उत्तराखण्ड राज्य में दिन-प्रतिदिन होने वाले कर्मचारी आन्दोलनों पर गाहे-बगाहे 'आन्दोलनकारी राज्य' होने की टिप्पणी की जाती है, लेकिन यह भी सच्चाई है कि राज्य के आन्दोलाओं का राज्यवाशियों पर विभिन्न काल खण्डों में हुए अत्याचारों के बराबर ही लम्बा व स्वर्णिम इतिहास रहा है. खासकर श्रमिक आन्दोलनों की बात की जाये तो यहाँ इनका इतिहास 1400 वर्ष से भी अधिक पुराना है। 'कुमाऊं केसरी' बद्री दत्त पाण्डे द्वारा लिखित पुस्तक `कुमाऊं का इतिहास´ के पृष्ठ संख्या २१२ के अनुसार यहां सातवीं शताब्दी में कत्यूर वंश के अत्याचारी व दुराचारी राजा वीर देव के शासनकाल में ही श्रमिक विरोध की शुरुआत हो गई थी। जिसके परिणाम स्वरुप ही कुमाऊं के लोकप्रिय गीत तथा अब लोक प्रियता के कारण कई कुमाउनीं गीतों का मुखड़ा बन चुके `तीलै धारू बोला´ के रूप में प्रदेश में श्रमिकों के विद्रोह के पहले स्वर फूटे थे। 
फोटो सौजन्य : माही सिंह मेहता 
  •  प्रसिद्ध कुमाउनीं लोकगीत `तीलै धारू बोला´ के रूप में फूटे थे विद्रोह के पहले स्वर 
  • श्रमिकों के कन्धों में हुकनुमा कीलें ठुकवा दी थीं अत्याचारी राजा वीर देव ने 
  • गोरखों के शासन  काल में जनता के शिर से बाल गायब हो गए थे
  • अंग्रेजों ने लादे थे कुली बेगार, कुली उतार व कुली बर्दाइश जैसे काले कानून

`कुमाऊं का इतिहास´ पुस्तक के अनुसार अन्तिम कत्यूरी राजा वीर देव अपनी मामी तिलोत्तमा देवी उर्फ तिला पर कुदृष्टि रखता था। उसने तिला से जबरन विवाह भी किया। उन दिनों आवागमन का प्रमुख साधन डोली था, पहाड़ी पगडण्डियों में राजा के डोली हिंचकोले न खाऐ, केवल इसलिऐ उसने कहारों के कंधों में हुकनुमा कीलें ठुकवा दी थीं। आखिर जुल्मों से तंग आकर कहारों ने राजा को डोली सहित `धार´ यानी पहाड़ की चोटी से खाई में गिराकर मार डाला। और `तिलै धारो बोला´ गाते हुऐ रानी तिला को राजा के अत्याचारों से मुक्ति का शुभ समाचार सुनाया। इस विषय में शोध कर चुके कुमाऊं विवि के डा. भुवन शर्मा इसकी पुष्टि करते हैं। श्री शर्मा बताते हैं कि कत्यूरों के बाद वर्ष 1790 में उत्तराखंड के कुमाऊं एवं 1803-04 में गढ़वाल अंचलों पर गोरखों का आधिपत्य हो गया, इसके बाद राज्य में राजशाही की ज्यादतियां और ज्यादा बढीं। गोरखा राज के अत्याचारों  का उल्लेख कुमाउनीं के 'आदिकवि' कहे जाने वाले गुमानी पन्त की कविता `दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब शिब चूली में का बाल न एकै कैका´ में भी मिलता है। यानी सरकारी बोझ को धोने के कारण किसी के मध्य शिर में बाल ही नहीं होते थे.  अंग्रेजी शासनकाल आया तो यहाँ की जनता पर  कुली बेगार, कुली उतार व कुली बरदाइश जैसी कुप्रथाएं जबरन थोप दी गयीं, जिसका भी यहां समय-समय पर विरोध हुआ। परिपालन में जरा सी घी चूक पर राजद्रोह के अधियोग वाले इन काले कानूनों के विरोध में स्वयं श्री बद्री दत्त पाण्डे ने `कुमाऊं परिषद´ की स्थापना की। 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी के पर्व पर बागेश्वर में श्री पाण्डे, हरिगोविन्द पन्त तथा चिरंजीवी लाल आदि ने पवित्र सरयू नदी में ऐतिहासिक आन्दोलन के दौरान बेगार के रजिष्टर  बहा दिऐ तथा हाथों में पवित्र जल लेकर बेगार न देने की शपथ ली तथा इन कुप्रथाओं का अन्त कर दिया। गढ़वाल में 30 जनवरी 1921 को बैरिस्टर मुकुन्दी लाल के नेतृत्व में भी यही शपथ ली गई। आजादी के बाद भी प्रदेश में श्रमिक आन्दोलनों का सिलसिला नहीं थमा. 1947 48 में अस्कोट तथा टिहरी रियासतों में भी महत्वपूर्ण श्रमिक आन्दोलन हुऐ, जिनमें प्रदेश के प्रसिद्ध आन्दोलनकारी नागेन्द्र सकलानी शहीद हुऐ। अल्मोड़ा के झिरौली मैग्नेसाइट तथा रानीखेत ड्रग फैक्टरी में हुऐ श्रमिक आन्दोलनों में जनकवि गिरीश तिवारी `गिर्दा´ ने 'हम मेहनतकश इश दुनियां से जब अपना हिस्सा मांगेंगे, एक खेत नहीं, एक बाग़ नहीं, हम पूरा हिस्सा मांगेंगे' की तर्ज पर `हम कुली कभाड़ी ल्वार, ज दिन आपंण हक मागूंलो...´ तथा `जैन्ता एक दिन त आलो उ दिन य दुनी में´ जैसे लोकप्रिय गीतों की रचना की। स्वर्गीय बालम सिंह जनौटी की भी इन आन्दोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसके बाद प्रदेश में श्रमिक आन्दोलन भूमिहीनों द्वारा सरकारी भूमि पर कब्जा करने के रूप में परिवर्तित हुऐ। 1958 में टाण्डा के पास वन भूमि में 47 गांव बसे तथा प्रशासनिक कार्रवाई में आठ किसानों को जान गंवानी पड़ी। 1968 में गदरपुर तथा रुद्रपुर में सूदखोरों के खिलाफ श्रमिकों के बड़े आन्दोलन हुऐ। 13 अप्रैल 1978 को पन्तनगर में खेत मजदूरों पर पीएसी द्वारा गोलियां बरसाईं गई, जिसमें दो दर्जन जानें गईं। 1980 से 1990 तक बिन्दूखत्ता श्रेत्र में भूमिहीनों ने 10,452 एकड़ भूमि पर कब्जा कर लिया। यहाँ प्रशासन से कई बार उग्र झड़पों के बाद कई भूमिहीनों पर `मीसा´ नामक राजद्रोह कानून के उल्लंघन के आरोप लगे। 1994 के बाद हुऐ उत्तराखण्ड आन्दोलन में भी सरकारी कर्मचारियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही, जिसके परिणामस्वरूप अलग राज्य अस्तित्व में आया। वर्तमान में भी सरकारी कर्मचारी एवं सिडकुल आदि में लगे उद्योगों में श्रमिक आन्दोलनों के स्वर कभी धीमे तो कभी उग्र सुनाई ही देते हैं। 

Saturday, April 17, 2010

लीजिये इतिहास हुई गदर के जमाने की अनूठी `गांधी पुलिस'



नवीन जोशी, नैनीताल। अंग्रेजों के जमाने की और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सिद्धान्तों पर आधारित देश की एक अनूठी व्यवस्था 150 से अधिक वर्षों तक सफलता के साथ चलने के बाद बीती 30 मार्च से तकरीबन इतिहास बन गई है। पूरे देश से इतर उत्तराखण्ड राज्य के केवल पहाड़ी अंचलों में कानून व्यवस्था को कमोबेश सफलता से निभाते हुऐ सामान्यतया `गांधी पुलिस´ कही जाने वाली राजस्व पुलिस यानी पटवारी व्यवस्था को आगे जारी रखने की आखिरी उम्मीद भी इसके साथ तकरीबन टूट गई है। पटवारी व कानूनगो तो बीते लंबे समय से इसका बहिस्कार किऐ ही हुऐ थे, अब नायब तहसीलदारों ने भी इससे तौबा कर ली है।
  • नायब तहसीलदारों ने किया प्रदेश भर में पुलिस कार्यों का बहिस्कार 
  • 1857 के गदर के जमाने से चल रही पटवारी व्यवस्था से पटवारी व कानूनगो पहले ही हैं विरत
  • पहले आधुनिक संसाधनों के लिए थे आन्दोलित, सरकार के उदासीन रवैये के बाद अब कोई मांग नहीं, राजस्व पुलिस भत्ता भी त्यागा
हाथ में बिना लाठी डण्डे के तकरीबन गांधी जी की ही तरह गांधी पुलिस के जवान देश आजाद होने और राज्य अलग होने के बाद भी अब तक उत्तराखण्ड राज्य के पर्वतीय भू भाग में शान्ति व्यवस्था का दायित्व सम्भाले हुऐ थे। लेकिन इधर अपराधों के बढने के साथ बदले हालातों में राजस्व पुलिस के जवानों ने व्यवस्था और वर्तमान दौर से तंग आकर स्वयं इस दायित्व का परित्याग कर दिया है। 1857 में जब देश का पहला स्वतन्त्राता संग्राम यानी गदर लड़ा जा रहा था, तत्कालीन हुक्मरान अंग्रेजों को पहली बार देश में कानून व्यवस्था और शान्ति व्यवस्था बनाने की सूझी थी। अमूमन पूरे देश में उसी दौर में पुलिस व्यवस्था की शुरूआत हुई। इसके इतर उत्तराखण्ड के पहाड़ों के लोगों की शान्ति प्रियता, सादगी और अपराधों से दूरी ने अंग्रेजों को अत्यधिक प्रभावित किया था, सम्भवतया इसी कारण अंग्रेजों ने 1861 में यहां अलग से "कुमाऊँ रूल्स" के तहत पूरे देश से इतर `बिना शस्त्रों वाली´ गांधी जी की ही तरह केवल लाठी से संचालित `राजस्व पुलिस व्यवस्था शुरू की, जो बाद में देश में `गांधी पुलिस व्यवस्था´ के रूप में भी जानी गई। इस व्यवस्था के तहत पहाड़ के इस भूभाग में पुलिस के कार्य भूमि के राजस्व सम्बंधी कार्य करने वाले राजस्व लेखपालों को पटवारी का नाम देकर ही सोंप दिऐ गऐ। पटवारी, और उनके ऊपर के कानूनगो व नायब तहसीलदार जैसे अधिकारी भी बिना लाठी डण्डे के ही यहां पुलिस का कार्य सम्भाले रहे। गांवों में उनका काफी प्रभाव होता था, और उन्हें सम्मान से अहिंसावादी गांधी पुलिस भी कहा जाता था। कहा जाता था कि यदि पटवारी क्या उसका चपरासी यानी सटवारी भी यदि गांव का रुख कर ले तो कोशों दूर गांव में खबर लग जाती थी, और ग्रामीण डर से थर-थरा उठते थे। 
एक किंवदन्ती के अनुसार कानूनगो के रूप में प्रोन्नत हुऐ पुत्र ने नई नियुक्ति पर जाने से पूर्व अपनी मां के चरण छूकर आशीर्वाद मांगा तो मां ने कह दिया, `बेटा, भगवान चाहेंगे तो तू फिर पटवारी ही हो जाएगा´। यह किंवदन्ती पटवारी के प्रभाव को इंगित करती है। लेकिन बदले हालातों और हर वर्ग के सरकारी कर्मचारियों के कार्य से अधिक मांगों पर अड़ने के चलन में पटवारी भी कई दशकों तक बेहतर संसाधनों की मांगों के साथ आन्दोलित रहे। उनका कहना था कि वर्तमान ब-सजय़ते और गांवों तक हाई-टेक होते अपराधों के दौर में उन्हें भी पुलिस की तरह बेहतर संसाधन चाहिऐ, लेकिन सरकार ने कुछ पटवारी चौकियां बनाने के अतिरिक्त उनकी एक नहीं सुनी। यहाँ तक कि वह 1947 की बनी हथकड़ियों से ही दुर्दांत अपराधियों को भी गिरफ्त में लेने को मजबूर थे इधर 40-40 जिप्सियां व मोटर साईकिलें मिलीं भी तो अधिकाँश पर कमिश्नर-डीएम जैसे अधिकारियों ने तक कब्ज़ा जमा लिया। 1982 से पटवारियों को प्रभारी पुलिस थानाध्यक्ष की तरह राजस्व पुलिस चौकी प्रभारी बना दिया गया, लेकिन वेतन तब भी पुलिस के सिपाही से भी कम था। अभी हाल तक वह केवल एक हजार रुपऐ के पुलिस भत्ते के साथ अपने इस दायित्व को अंजाम दे रहे थे। उनकी संख्या भी बेहद कम थी। स्थिति यह थी कि प्रदेश के समस्त पर्वतीय अंचलों के राजस्व क्षेत्रों की जिम्मेदारी केवल 1250 पटवारी, उनके इतने ही अनुसेवक, 150 राजस्व निरीक्षक यानी कानूनगो और इतने ही चेनमैन सहित कुल 2813 राजस्व कर्मी सम्भाल रहे थे। इस पर पटवारियों ने मई 2008 से पुलिस भत्ते सहित अपने पुलिस के दायित्वों का स्वयं परित्याग कर दिया। इसके बाद थोड़ा बहुत काम चला रहे कानूनगो के बाद बीती 30 मार्च से प्रदेश के रहे सहे नायब तहसीलदारों ने भी पुलिस कार्यों का परित्याग कर दिया है। पर्वतीय नायब तहसीलदार संघ के कुमाऊं मण्डल अध्यक्ष नन्दन सिंह रौतेला के हवाले से धारी के नायब तहसीलदार दामोदर पाण्डे ने बताया कि गढवाल मण्डल में इस बाबत पहले ही निर्णय ले लिया गया था, जबकि कुमाऊं के नायब तहसीलदारों ने बीती 28 मार्च 2010 को अल्मोड़ा में हुई बैठक में यह निर्णय लिया। लिहाजा प्रदेश के समस्त नायब तहसीलदारों ने 30 मार्च से पुलिस कार्य त्याग दिऐ हैं। उल्लेखनीय है कि राजस्व पुलिस व्यवस्था में अब ऐसा कोई पद संवर्ग नहीं बचा है, जो पुलिस कार्य करने को राजी है। ऐसे में नायब तहसीलदारों के भी पुलिस कार्यों के परित्याग से पहाड़ी गांवों में होने वाले अपराधों का खुलासा और ग्रामीणों की सुरक्षा भगवान भरोसे ही रह गई है।इधर प्रदेश के शासन प्रशासन ने पटवारियों के बाद नायब तहसीलदारों के भी पुलिसिंग कार्यों का बहिस्कार करने पर कड़ा रवैया अपनाया है। प्रदेश के मुख्य सचिव, राजस्व आयुक्त, कुमाऊं आयुक्त एवं जिलों में जिलाधिकारियों ने नायब तहसीलदारों से 30 अप्रैल तक कार्य पर लौटने का अल्टीमेटम दिया है। उनका कहना है कि अधिकतर आन्दोलित नायब तहसीलदार मूलत: पटवारी ही हैं। पटवारियों के पुलिस कार्यों का परित्याग करने पर पुलिस कार्य कराने के उद्देश्य से उन्हें प्रभारी नायब तहसीलदार बनाया गया था। वास्तविक नायब तहसीलदारों को पुलिस के अधिकार ही नहीं होते हैं। ऐसे में प्रभारी नायब तहसीलदारों के द्वारा पुलिस कार्यों का परित्याग करना कर्मचारी संहिता के तहत निरुद्ध है। ऐसे में उनके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। उन्हें मूल पद पर पदावनत भी किया जा सकता है। इधर 11 अप्रैल को नैनीताल में नायब तहसीलदारों की प्रदेश अध्यक्ष धीरज सिंह आर्य की अध्यक्षता में हुई बैठक में सरकार की धमकी के आगे न झुकने का ऐलान किया गया, साथ ही उत्पीड़न या जोर जबर्दस्ती होने पर आन्दोलन की धमकी भी दी गई।इस बाबत पूछे जाने पर उत्तराखंड के प्रमुख सचिव-राजस्व सुभाष कुमार ने एक मुलाकात में साफगोई से कहा कि पूरे प्रदेश में राजस्व पुलिस व्यवस्था पर केवल 1.5 करोड़ रुपये खर्च होते हैं, जबकि इसकी जगह यदि नागरिक पुलिस लगाई जाए तो 400 करोड़ रुपये खर्च होंगे