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Monday, March 3, 2014

मुरली मनोहर जोशी और एनडी तिवारी बदल सकते हैं नैनीताल के चुनावी समीकरण !

-मोदी के लिए बनारस छो़ड़ नैनीताल आने का है मुरली मनोहर जोशी पर दबाव
-रोहित को पुत्र स्वीकारने के बाद राजनीतिक विरासत भी सोंप सकते हैं एनडी तिवारी
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां, अब तक कांग्रेस के राजकुमार केसी सिंह ‘बाबा’ के कब्जे वाली नैनीताल-ऊधमसिंहनगर संसदीय सीट एक बार फिर प्रदेश की सबसे बड़ी वीवीआईपी व हॉट सीट हो सकती है। अभी भले यहां कांग्रेस से बाबा या राहुल गांधी के खास प्रकाश जोशी तथा भाजपा से पूर्व सीएम भगत सिंह कोश्यारी, बची सिंह रावत और बलराज पासी में से किसी के लोक सभा चुनाव लड़ने के भी चर्चे हों, लेकिन बेहद ताजा राजनीतिक घटनाक्रमों को देखा जाए तो इस सीट से भाजपा अपने त्रिमूर्तियों में शुमार मुरली मनोहर जोशी को चुनाव मैदान में उतार सकती है। जोशी को इस हेतु मनाया जा रहा है। वहीं पूर्व सीएम एनडी तिवारी अपने जैविक पुत्र रोहित शेखर को स्वीकारने के बाद यहां से अपनी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं। उनके जल्द ही संसदीय क्षेत्र का तीन दिवसीय कार्यक्रम भी तय बताया जा रहा है।
देश के बदले राजनीतिक हालातों में यूपी भाजपा के मिशन-272 प्लस की मुख्य धुरी माना जा रहा है। भाजपा मान रही है कि ‘मुजफ्फरनगर’ के हालिया हालातों और कल्याण सिंह व उनकी पार्टी के औपचारिक तौर पर पार्टी में आने के बाद पश्चिमी यूपी में भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण होना तय हो गया है। मध्य यूपी में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व उपाध्यक्ष राहुल गांधी का प्रभाव क्षेत्र मानते हुए भाजपा जबरन बहुत जोर लगाने के पक्ष में नहीं है, ऐसे में पूवी यूपी को साधने के लिए भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के लिए मुरली मनोहर जोशी की बनारस सीट खाली कराने का न केवल पार्टी वरन संघ की ओर से भी भारी दबाव अब खुलकर सामने आ गया है। दूसरी ओर जोशी लोस चुनाव लड़ने पर अढ़े हुए हैं। ऐसे में उन्हें काफी समय से नैनीताल सीट के लिए मनाये जाने की चर्चाएं अब सतह पर आने लगी हैं। गौरतलब है कि जोशी मूलतः उत्तराखंड के ही अल्मोड़ा के निवासी हैं, और 1977 में भारतीय लोकदल से अल्मोड़ा के सांसद रह चुके हैं। उनके नैनीताल आने की सूरत में माना जा रहा है कि पार्टी के यहां से तीन प्रबल दावेदार भगत सिंह कोश्यारी, बची सिंह रावत व बलराज पासी के होने की वजह से उठ रही भितरघात की संभावनाएं क्षींण हो जाएंगी। वह नैनीताल से भली प्रकार वाकिफ भी हैं, और संसदीय क्षेत्र में ब्राह्मण मतों का ध्रुवीकरण भी कर सकते हैं, लिहाजा वह नैनीताल के लिए मान भी सकते हैं। भाजपा के लिए नैनीताल का संसदीय इतिहास भी बेहतर नहीं रहा है। यहां भाजपा के केवल बलराज पासी 1991 की रामलहर ओर  इला पंत 1998 में जीते भी तो जीत का अंतर करीब महज नौ और 12 हजार मतों का ही रहा, और आगे बाबा इस अंतर को कांग्रेस के पक्ष में बढ़ाते हुए 2004 में 40 हजार और 2009 में 88 हजार कर चुके हैं। ऐसे में यह सीट भाजपा के लिए कठिन है और इसे पार्टी का कोई हैवीवेट प्रत्याशी ही पाट सकता है।
दूसरी ओर एनडी तिवारी के लिए यह सीट 1980 से अपनी सी रही है। तिवारी ने यहां से 1980 में जीत हासिल की, 84 में उनके खास सत्येंद्र चंद्र गु़िड़या जीते और आगे 1996 में तिवारी ने अपनी तिवारी कांग्रेस के टिकट पर तथा 99 में पुनः कांग्रेस से जीत हासिल की। उल्लेखनीय है कि तिवारी हाल में कांग्रेस पार्टी में रहते हुए भी सपा से नजदीकी बढ़ा चुके हैं, और ताजा घटनाक्रम में उन्होंने रोहित शेखर को एक दशक लंबी चली कानूनी लड़ाई के बाद अपना पुत्र मान लिया है। उनका तीन दिवसीय नैनीताल दौरा तीन जनवरी से तय भी हो गया था। ऐसे में आने वाले कुछ दिन इस संसदीय सीट पर नए गुल भी खिला सकते हैं।

रावत, तिवारी, जोशी का भी अलग राजनीतिक त्रिकोण

नैनीताल। हालांकि यह अभी राजनीतिक भविष्य के गर्भ में है, लेकिन अटकलें सही साबित हुईं तो उत्तराखंड में हरीश रावत, एनडी तिवारी और मुरली मनोहर जोशी का अलग राजनीतिक त्रिकोण भी चर्चाओं में रहना तय है। रावत और तिवारी का संघर्ष हमेशा से प्रदेश की राजनीति में दिखता रहा है। 2002 में तिवारी के नेतृत्व वाली तिवारी सरकार के पूरे कार्यकाल में यह संघर्ष खुलकर नजर आया। रावत जिस तरह तिवारी को परेशान किए रहे, ऐसे में रावत की ताजपोशी तिवारी को कितना रास आ रही होगी, समझना आसान है। वहीं रावत एवं जोशी के बीच उनके मूल स्थान अल्मोड़ा में 1980 से जंग शुरू हुई थी, जब युवा रावत ने तब के सिटिंग सांसद जोशी को 80 और 84 के लगातार दो चुनावों में हराकर अल्मोड़ा छोड़ने पर ही मजबूर कर दिया था।
यह भी पढ़ें: तिवारी के बहाने 

Wednesday, February 26, 2014

यह क्या अजीबोगरीब हो रहा हरीश सरकार में !

हरीश रावत के आते ही तीन 'रावत' निपटे 
उत्तराखंड में जब से हरीश रावत के नेतृत्व में सरकार बनी है, बहुत कुछ अजीबोगरीब हो रहा है। विरोधियों को 'विघ्नसंतोषी' कहने और उनसे निपटने में महारत रखने वाले रावत के खिलाफ मुंह खोल रहे और खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बता रहे तीन रावत (सतपाल, अमृता और हरक) निपट चुके हैं। सतपाल व अमृता के खिलाफ विपक्ष ने अपने परिजनो को पॉलीहाउस बांटने में घोटाले का आरोप लगाया, और सीबीआई जांच की मांग उठाई है। हरक का नाम दिल्ली की लॉ इंटर्न ने छेड़खानी का मुक़दमा दर्ज कराकर ख़राब कर दिया है। बचा-खुचा नाम भाजपाई हरक को 'बलात्कारी हरक सिंह रावत' बताकर और उनका पुतला फूंक कर ख़राब करने में जुट गए हैं। रावत ने पहले ही उनके पसंदीदा कृषि महकमे की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी गैर विधायक तिलक राज बेहड़ को मंत्री के दर्जे के साथ देकर जोर का झटका धीरे से दे दिया था। विपक्ष के 'मुंहमांगे' से अविश्वाश प्रस्ताव से हरीश सरकार पहले ही छह मांह के लिए पक्की हो ही चुकी है। अब यह समझने वाली बात है कि विरोधी खुद-ब-खुद निपट रहे और रावत की राह स्वतः आसान होती जा रही है कि यह रावत के राजनीतिक या कूटनीतिक कौशल का कमाल है। 

माँगा गाँव-मिला शहर  

हरीश रावत सरकार आसन्न त्रि-स्तरीय पंचायत व लोक सभा चुनावों की चुनावी बेला में अनेक अनूठी चीजें कर रही हैं। अचानक राज्य के सब उत्तराखंडी लखपति हो गए हैं। सरकार ने बताया है, राज्य की प्रति व्यक्ति आय 1,12,000 रुपये से अधिक हो गयी है। सांख्यिकी विभाग ने आंकड़ों की बाजीगरी कर कर सिडकुल में लगे चंद उद्योगों के औद्योगिक घरानों की आय राज्य की जीडीपी में जोड़कर यह कारनामा कर डाला है।
दूसरे संभवतया देश में ही ऐसा पहली बार हुआ है कि राज्य में पंचायत चुनावों की अधिसूचना 1 मार्च को और चुनाव आचार संहिता 2 मार्च से जारी होने वाली है और चुनावों के लिए नामांकन पत्रों की बिक्री इससे एक सप्ताह पहले 24 फरवरी से ही शुरू हो गयी है।
तीसरे राज्य के वन क्षेत्र सीधे ही शहर बन गए हैं। लालकुआ के पास पूरी तरह वन भूमि पर बसे बिन्दुखत्ता को राज्य कैबिनेट ने जनता की राजस्व गाँव घोषित करने की मांग से भी कई कदम आगे बढ़कर एक तरह के बिन मांगे ही स्वतंत्र रूप से नगर पालिका बनाने की घोषणा कर दी है, वहीँ इसी तरह के दमुवाढूंगा को सीधे हल्द्वानी नगर निगम का हिस्सा बनाने की घोषणा कर दी गयी है।

Thursday, February 6, 2014

कौन और क्या हैं हरीश रावत


रीश रावत उत्तराखंड में कांग्रेस के सबसे कद्दावर व मंझे हुए राजनेताओं में शामिल रहे हैं। अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत से ही जनता के दुलारे इस राजनेता का ऐसा आकर्षण था, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने सबसे कम उम्र में ब्लाक प्रमुख बनने का रिकार्ड बनाया। हालांकि बाद में निर्धारित से कम उम्र का होने के कारण उन्हें भिकियासेंण के ब्लाक प्रमुख के पद से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेशों पर हटना पड़ा था। 1980 में अपने पहले संसदीय चुनाव में भाजपा के त्रिमूर्तियों में शुमार व तब भारतीय लोक दल से सांसद रहे मुरली मनोहर जोशी को पटखनी देकर हमेशा के लिए संसदीय क्षेत्र छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। वहीं 1989 के लोस चुनावों में उन्होंने उक्रांद के कद्दावर नेता व वर्तमान केंद्रीय अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी और भाजपा के भगत सिंह कोश्यारी को बड़े अंतर से हराया। इस चुनाव में उन्हें 1,49,703, ऐरी को 1,38,902 और कोश्यारी को केवल 34,768 वोट मिले। अब इसे ‘देर आयद-दुरुस्त आयद’ ही कहा जाएगा कि रावत कोश्यारी से 12 वर्षों के बाद उत्तराखंड के आठवें मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे हैं।
27 अप्रैल 1947 को तत्कालीन उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा जिले के ग्राम मोहनरी पोस्ट चौनलिया में स्वर्गीय राजेंद्र सिंह रावत व देवकी देवी के घर जन्मे रावत की राजनीति यात्रा एलएलबी की पढ़ाई के लिए लखनऊ विश्व विद्यालय जाने से शुरू हुई। यहां वह रानीखेत के कांग्रेस विधायक व यूपी सरकार में कद्दावर मंत्री गोविंद सिंह मेहरा के संपर्क में आए, और उनकी पुत्री रेणुका से दूसरा विवाह किया। यहीं संजय गांधी की नजर भी उन पर पड़ी, जिन्होंने तभी उनमें भविष्य का नेता देख लिया था, और केवल 33 वर्ष के युवक हरीश को 1980 में कांग्रेस पार्टी का सक्रिय सदस्य बनाकर लोक सभा चुनावों में अल्मोड़ा संसदीय सीट से कांग्रेस-इंदिरा का टिकट दिलाने के साथ ही कांग्रेस सेवादल की जिम्मेदारी भी सोंप दी। इस चुनाव में एक छात्र हरीश ने गांव से निकले एक आम युवक की छवि के साथ तत्कालीन सांसद प्रो. मुरली मनोहर जोशी के विरुद्ध 50 हजार से अधिक मतों से बड़ी पटखनी देकर भारतीय राजनीति में एक नए नक्षत्र के उतरने के संकेत दे दिए। जोशी को मात्र 49,848 और रावत को 1,08,503 वोट मिले। आगे 1984 में भी उन्होंने जोशी को हराकर अल्मोड़ा सीट छोड़ने पर ही विवश कर दिया। 1989 के चुनावों में उक्रांद के कद्दावर नेता काशी सिंह ऐरी निर्दलीय और भगत सिंह कोश्यारी भाजपा के टिकट पर उनके सामने थे। यह चुनाव भी रावत करीब 11 हजार वोटों से जीते। रावत को 1,49,703, ऐरी को 1,38,902 और कोश्यारी को केवल 34,768 वोट मिले, और यही कोश्यारी रावत से 12 वर्ष पहले उत्तराखंड के दूसरे मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे। आगे वह युवा कांग्रेस व कांग्रेस की ट्रेड यूनियन के साथ ही 2000 से 2007 तक उत्तराखंड कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। इस बीच 2002 में वह राज्य सभा सांसद के रूप में भी संसद पहुंचे।
उत्तराखंड आंदोलन के दौर में भी हरीश रावत की प्रमुख भूमिका रही। उन्होंने उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति की स्थापना कर राज्य आंदोलन को आगे बढ़ाया, और राज्य की मजबूती के लिए उत्तराखंड को राज्य से पहले केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग के साथ राज्य आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में ले ली थी। आगे रामलहर के दौर में रावत भाजपा के नए चेहरे जीवन शर्मा से करीब 29 हजार वोटों से सीट गंवा बैठे। इसके साथ ही विरोधियों को मौका मिल गया, जो उनकी राजनीतिक छवि एक ब्राह्मण विरोधी छत्रिय नेता की बनाते चले गए, जिसका नुकसान उन्हें बाद में केंद्रीय मंत्री बने भाजपा नेता बची सिंह रावत से लगातार 1996, 1998 और 1999 में तीन हारों के रूप में झेलना पड़ा। 2004 के लोक सभा चुनावों में हरीश की पत्नी रेणुका को भी बची सिंह रावत ने करीब 10 हजार मतों के अंतर से हरा दिया। लेकिन यही असली राजनीतिज्ञ की पहचान होती है, कि वह विपरीत हालातों को भी अपने पक्ष में मोड़ने की काबीलियत रखता है। 2009 के चुनावों में रावत ने एक असाधारण फैसला करते हुए दूर-दूर तक संबंध रहित प्रदेश की हरिद्वार सीट से नामांकन करा दिया, जहां समाजवादी पार्टी से उनकी परंपरागत सीट रिकार्ड 3,32,235 वोट प्राप्त कर हासिल की गई जीत के साथ रावत का मंझे हुए राजनीतिज्ञ के रूप में राजनीतिक पुर्नजन्म हुआ। इसी जीत के बाद उन्हें केंद्र सरकार में पहले श्रम राज्यमंत्री बनाया गया, और आगे केंद्रीय मंत्रिमंडल में उनका कद बढ़ता चला गया। वर्ष 2011 में कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग में राज्य मंत्री तथा बाद में ससंदीय कार्य राज्य मंत्री बनाया गया, और 2012 में वह जल संसाधन मंत्रालय के कैबिनेट मंत्री बना दिए गए। इस दौरान वह लगातार विपक्ष के हमले झेल रही यूपीए सरकार और कांग्रेस पार्टी के ‘फेस सेवर’ की दोहरी जिम्मेदारी निभाते रहे। अनेक बेहद विषम मौकों पर जब पार्टी के कोई भी नेता मीडिया चैनलों पर आने से बचते थे, रावत एक ही दिन कई-कई मीडिया चैनलों पर अपनी कुशल वाकपटुता और तर्कों के साथ पार्टी और सरकार का मजबूती से बचाव करते थे। इस तरह वह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के समक्ष उत्तराखंड के सबसे विश्वस्त और भरोसेमंद राजनेता बनने में सफल रहे। शायद इसी का परिणाम रहा कि 2002 और 2012 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को प्रदेश में सत्ता तक पहुंचाने में सबसे प्रमुख भूमिका निभाने वाले हरीश रावत के राजनीतिक कौशल की हाईकमान अधिक दिनों तक अनदेखी नहीं कर पाया, और अब आगामी लोक सभा चुनावों के विपरीत नजर आ रहे हालातों में रावत के हाथों में ही संकटमोचक के रूप में उत्तराखंड राज्य की सत्ता सोंप दी गई है।
ऐसे में लगातार मुख्यमंत्री बदलने की छवि बना रहे 13 वर्षों के उत्तराखंड राज्य में आठवें मुख्यमंत्री के रूप में रावत की ताजपोशी कई मायनों में सुखद है। कमोबेश पहली बार ही राज्य के एक वास्तविक संघर्षशील, केंद्र से लेकर राज्य तक बेहतर संबंधों वाले, राज्य के जन-जन से आत्मीय और नजदीकी रिश्ता रखने वाले और मंझे हुए अनुभवी राजनेता को राज्य की कमान मिली है। वह पूरे प्रदेश और उसकी अच्छाइयों के साथ ही कमियों से भी वाकिफ हैं, तथा सत्ता पक्ष के साथ ही विपक्ष में भी उनकी बेहतर छवि है। मुख्यमंत्री बनते ही राज्य के दूरस्थ आपदाग्रस्त केदारघाटी और धारचूला क्षेत्र के लोगों के आंसू पोंछते हुए उन्होंने अपनी बेहतर कार्यशैली के संदेश भी दे दिए हैं।

स्याह पक्ष:

गांव में एक पत्नी के होते हुए रावत ने रेणुका से दूसरा विवाह किया। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान वह राज्य विरोधी रहे। इसी कारण 1989 के लोक सभा चुनावों के लिए उन्हें जनता के विरोध को देखते हुए अल्मोड़ा में नामांकन कराने के लिए भी चुपचाप अकेले आना पड़ा। लेकिन इस चुनाव में उक्रांद के काशी सिंह ऐरी को हराने के बाद राजनीतिक चालबाजी दिखाते हुए अचानक उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति का गठन कर खुद को राज्य आंदोलन से भी जोड़ लिया। हालांकि इस दौरान भी वह राज्य से पहले केंद्र शासित प्रदेश की मांग पर बल देते रहे। अल्मोड़ा के सांसद रहते वह ब्राह्मण विरोधी क्षत्रिय नेता बनते चले गए, जिसका खामियाजा उन्हें बाद में स्वयं की हार की तिकड़ी और पत्नी रेणुका की भी हार के साथ अल्मोड़ा छोड़ने के रूप में भुगतना पड़ा। आगे प्रदेश में पंडित नारायण दत्त तिवारी और विजय बहुगुणा सरकारों को लगातार स्वयं और अपने समर्थक विधायकों के भारी विरोध के निशाने पर रखा, और अपनी ब्राह्मण विरोधी क्षत्रिय नेता और सत्ता के लिए कुछ भी करने वाले नेता की छवि को आगे ही बढ़ाया। केंद्र में श्रम एवं सेवायोजन, कृषि एवं खाद्य प्रसंसकरण तथा जल संसाधन मंत्री रहे, लेकिन इन मंत्रालयों के जरिए प्रदेश के बेरोजगारों को रोजगार, कृषि व फल उत्पादों को बढ़ावा देने तथा जल संसाधनों के सदुपयोग की दिशा में उन्होंने एक भी उल्लेखनीय कार्य राज्य हित में नहीं किया।

मुख्यमंत्री हरीश रावत का राजनीतिक लेखा-जोखा 

चुनाव लोक सभा क्षेत्र         जीते                                                हारे
1980 अल्मोड़ा हरीश रावत-कांग्रेस-ई (108530) मुरली मनोहर जोशी-भाजपा(49848)
1884 अल्मोड़ा हरीश रावत-कांग्रेस (185006)         मुरली मनोहर जोशी-भाजपा(44674)
1989 अल्मोड़ा हरीश रावत-कांग्रेस (149703)         काशी सिंह ऐरी-निर्दलीय (138902)
1991 अल्मोड़ा जीवन शर्मा-भाजपा (149761)         हरीश रावत-कांग्रेस (120616)
1996 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (161548) हरीश रावत-कांग्रेस (104642)
1998 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (228414) हरीश रावत-कांग्रेस (146511)
1999 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (192388)   हरीश रावत-कांग्रेस (180920)
2004 अल्मोड़ा बची सिंह रावत-भाजपा (225431)   रेणुका रावत-कांग्रेस (215568)
2009 हरिद्वार हरीश रावत -कांग्रेस (332235)        स्वामी यतींद्रानंद गिरि-भाजपा (204823)
(यह पोस्ट उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री के बारे में अधिकाधिक जानकारी देने के उद्देश्य से तैयार की गई है।)

यह भी पढ़ें: क्या अपना बोया काटने से बच पाएंगे हरीश रावत ?
कांग्रेस पार्टी और उनके नेताओं के सम्बन्ध में इस ब्लॉग पर और पढ़ें : यहां क्लिक कर के

Saturday, February 1, 2014

क्या अपना बोया काटने से बच पाएंगे हरीश रावत ?

त्तराखंड राज्य के आठवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करने वाले हरीश रावत की धनै के पीडीएफ से इस्तीफे, महाराज के आशीर्वाद बिना और झन्नाटेदार थप्पड़ जैसे एक्शन-ड्रामा के साथ हुई ताजपोशी के बाद यही सबसे बड़ा सवाल उठ रहा है कि क्या रावत अपना बोया काटने से बच पाएंगे। इस बाबत आशंकाएं गैरवाजिब भी नहीं हैं। रावत के तीन से चार दशक लंबे राजनीतिक जीवन में उपलब्धियों के नाम पर वादों और विरोध के अलावा कुछ नहीं दिखता। 
चाहे राज्य की पिछली बहुगुणा सरकार हो या 2002 में प्रदेश में बनी पं. नारायण दत्त तिवारी की सरकार, रावत ने कभी अपनी सरकारों और मुख्यमंत्रियों के विरोध के लिए विपक्ष को मौका ही नहीं दिया। इधर केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहते चाहे श्रम राज्य मंत्री का कार्यकाल हो, उन्होंने बेरोजगारी व पलायन से पीड़ित अपने राज्य के लिए एक भी कार्य उपलब्धि बताने लायक नहीं किया। वह कृषि मंत्री बने तब भी उन्होंने लगातार किसानी छोड़कर पलायन करने को मजबूर अपने राज्य के किसानों के लिए कुछ नहीं किया। जल संसाधन मंत्री बने, तब भी अपने राज्य की जवानी की तरह ही बह रहे पानी को रोकने या उसके सदुपयोग के लिए एक भी उल्लेखनीय पहल नहीं की। कुल मिलाकर तीन-चार दशक लंबे राजनीतिक करियर के बावजूद रावत के पास अपनी उपलब्धियां बताते के लिए कुछ है तो उत्पाती प्रकृति के समर्थक, जिनकी झलक रावत ने अपनी ताजपोशी से पहले खुद भी अपनी ही पार्टी के एक कार्यकर्ता को झन्नाटेदार थप्पड़ जड़कर दिखा दी है।

इधर, बहुगुणा की सरकार बनने के दौरान एक हफ्ते तक दिल्ली में पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर चले राजनीतिक ड्रामे की यादें अभी बहुत पुरानी नहीं पड़ी हैं, जिसकी हल्की झलक शनिवार को उनकी ताजपोशी के दिन सतपाल महाराज ने दिखा दी है। शपथ ग्रहण समारोह में उनके साथ शपथ लेते मंत्रियों के बुझे चेहरे भी बहुत कुछ कहानी कह रहे थे। बहुगुणा जाते-जाते अपने अनेक समर्थकों को ‘बैक डेट’ से दायित्व देकर उनके लिए परेशानी के सबब पहले ही खड़े कर चुके हैं, जिन्हें उगलना और निगलना दोनों रावत के लिए आसान न होगा। उनके रहते रावत अपने समर्थकों को माल-मलाई देकर कैसे सहलाएंगे, यह बड़ा सवाल है। व्यक्तिगत रूप से वह, उनके समर्थकों का चाल-चरित्र कैसा रहने वाला है, इसकी झलक खुद तो दिखा ही चुके हैं, उनके आज 'कंधों पर झूलते' उनके बड़े समर्थकों के 'दिन-दहाड़े' के चर्चे भी आम हैं। इसलिए बहुत आश्चर्य नहीं उनके कार्यकाल के लिए आज चैनलों में प्रयुक्त किए जा रहे "राव'त' राज" का केवल एक अक्षर बदल कर आगे काम चलाया जाए। 

वह गूल में पानी ना आने पर प्रधानमंत्री को पत्र लिखने की अदा...

अपने शुरुआती राजनीतिक दौर में अपनी समस्याएं बताने वाले लोगों को तत्काल पत्र लिखकर समाधान कराने का वादा करना तब हरीश चंद्र सिंह रावत के नाम से पहचाने जाने वाले रावत का लोगों को अपना मुरीद बनाने का मूलमंत्र रहा। अपने खेत में पानी की गूल से पानी न आने की शिकायत करने वाले ग्रामीण को उनका तीसरे दिन ही पोस्टकार्ड से जवाब आ जाता कि उन्हें लगा है कि गूल में पानी आपके नहीं मेरी गूल में नहीं आ रहा है। उन्होंने शिकायत को सिंचाई विभाग के जेई, एई, ईई, एसई से लेकर राज्य के सिंचाई मंत्री, मुख्यमंत्री के साथ ही केंद्रीय सिंचाई मंत्री और प्रधानमंत्री को भी सूचित कर दिया है। गूल में पानी कभी ना आता, लेकिर ग्रामीण पत्र प्राप्त कर ही हरीश का मुरीद बन जाते। 

विरोध, विरोध और विरोध...

उत्तराखंड आंदोलन के दौरान हरीश की पहचान उत्तराखंड राज्य विरोधी की भी बनी, जिसके परिणामस्वरूप 1989 के चुनावों के लिए नामांकन कराने के लिए भी चुपचाप आना पड़ा था। बाद के वर्षों में हरीश की अपने अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र में ब्राह्मणद्रोही क्षत्रिय नेता की छवि बनती चली गई, जिसका परिणाम उन्हें अपनी हार की हैट-ट्रिक और पत्नी की भी हार के बाद अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र का रण छोड़ने पर विवश कर गया। राज्य के ब्राह्मण नेता तिवारी और बहुगुणा का लगातार विरोध करने से भी उनकी इस ब्राह्मण विरोधी छवि का विस्तार ही हुआ है। इसी का परिणाम है कि आज उन्होंने कुर्सी प्राप्त भी की है तो नारायण दत्त तिवारी के राज्य की राजनीति से दूर जाने के बाद....

Tuesday, March 13, 2012

अब तो बस यह देखिये कि बहुगुणा के लिए 13 का अंक शुभ होता है या नहीं....

"चिंता न करें, जल्द मान जाऊँगा..." शायद यही कह रहे हैं हरीश रावत, उत्तराखंड के सीएम विजय बहुगुणा से  
दोस्तो आश्चर्य न करें, कांग्रेस पार्टी में बिना पारिवारिक पृष्ठभूमि के कोई नेता मुख्यमंत्री बनना दूर आगे भी नहीं बढ़ सकता...बहुगुणा की ताजपोशी पहले से ही तय थी, बस माहौल बनाया जा रहा था.... 

विजय बहुगुणा को उत्तराखंड का सीएम बनाना कांग्रेस हाईकमान ने चुनावों से पहले ही तय कर लिया था. इसकी शुरुवात तब के पराजित भाजपा सांसद प्रत्यासी रहे अंतर्राष्ट्रीय निशानेबाज जसपाल राणा को कांग्रेस में शामिल कराया गया था, ताकि बहुगुणा को सीएम बनाये जाने पर पौड़ी सीट खली हो तो वहां से जसपाल को चुनाव लड़ाया जा सके. तब इसलिए उनका नाम घोषित नहीं किया गया कि पार्टी के अन्य क्षत्रप पहले ही (अब की तरह) न बिदक जाएँ. 6 मार्च को चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद भी नाम घोषित नहीं किया, ताकि सीएम पद का ख्वाब पाल रहे दावेदार बहुमत के लिए जरूरी निर्दलीयों व उक्रांद का समर्थन हासिल कर लायें.  क्षत्रप 36 का आंकड़ा तो हासिल कर लाये, पर यहाँ पर एक गड़बड़ हो गयी. निर्दलीय अपने आकाओं को सीएम बनाने की मांग उठा कर एक तरह से हाईकमान को आँख दिखाने लगे, इस पर हाईकमान को एक बार फिर बहुगुणा को सीएम बनाने की घोषणा टालनी पडी. अब प्रयास हुए बसपा का समर्थन हासिल करने की, बसपा के कथित तौर पर दो विधायक कांग्रेस में आने को आतुर थे, ऐसे में तीसरा भी क्यों रीते हाथ बैठता. ऐसे में बसपाई 12 मार्च को राजभवन जा कर कमोबेश बिन मांगे कांग्रेस को समर्थन का पत्र सौंप आये. अब क्या था, तत्काल ही कांग्रेस हाईकमान ने बहुगुणा के नाम की घोषणा कर दी. इसके तुरंत बाद हरीश रावत गुट ने दिल्ली में जो किया, उससे कांग्रेस में बीते सात दिनों से 'आतंरिक लोकतंत्र' के नाम पर चल रहे विधायकों की राय पूछने के ड्रामे की पोल-पट्टी खुल गयी.  

सच्चाई है कि कांग्रेस हाईकमान के विजय बहुगुणा को सीएम घोषित करने का एकमात्र कारण था उनका पूर्व सीएम हेमवती नंदन बहुगुणा का पुत्र होना. स्वयं परिवारवाद पर चल रहे कांग्रेस हाईकमान के लिए अपनी इस मानसिकता से बाहर निकलना आसान न था, रावत समर्थक सांसद प्रदीप टम्टा कह चुके हैं की बहुगुणा को कांग्रेस के बड़े नेता किशोर उपाध्याय को निर्दलीय दिनेश धने के हाथों हराकर पार्टी की 'पीठ में छुरा भौकने' का इनाम मिला है, जबकि रावत कांग्रेस की 'छाती में वार' करने चले थे. सो आगे उनका 'कोर्टमार्शल' होना तय है, कब होगा-इतिहास बतायेगा.     हरीश रावत और उनके समर्थक नेता इस बात को जितना जल्दी समझ लें बेहतर होगा.. 

किसी भ्रम में न रहें, कुछ भी आश्चर्यजनक या अनपेक्षित नहीं होने जा रहा है, बन्दर घुड़की दिखाने के बाद दोनों रावत (हरीश-हरक) व टम्टा आदि हाईकमान की 'दहाड़' के बाद चुप होकर फैसले को स्वीकार कर लेंगे, किसी शौक से नहीं वरन इस फैसले को ही नियति मानकर, आखिर उनका इस पार्टी के इतर अपना कोई वजूद भी तो नहीं है.  

अब तो बस यह देखिये कि 13 मार्च को प्रदेश के सीएम पद की शपथ ग्रहण करने वाले बहुगुणा के लिए 13 का अंक पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी की तरह पूर्व मान्यताओं के इतर शुभ होता है या नहीं....बहरहाल खंडूडी के बाद उनके ममेरे भाई में प्रदेश की जनता एक धीर-गंभीर मुख्यमंत्री देख रही है..