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Friday, August 19, 2011

जितने सवाल-उतने जवाब थे गिर्दा

 'बबा, मानस को खोलो, गहराई में जाओ, चीजों को पकड़ो.. यह मेरी व्यक्तिगत सोच है, मेरी बात सुनी जाए लेकिन मानी न जाए..' प्रदेश के जनकवि, संस्कृतिकर्मी, आंदोलनकारी, कवि, लेखक गिरीश तिवारी 'गिर्दा' जब यह शब्द कहते थे, तो पीछे से लोग यह चुटकी भी लेते थे कि 'तो बात कही ही क्यों जाए' लेकिन यही बात जब वर्ष 2009 की होली में 'स्वांग' परंपरा के तहत युगमंच संस्था के कलाकारों ने उनका 'स्वांग' करते हुए कही तो गिर्दा का कहना था कि यह उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है। आज उन्हें याद कर लोगों की आंखें न केवल नम हो जाती हैं, वरन वह फफक पड़ते है, उन्हें दूर से भी जानने वाले लोग शोक संतप्त है। 

गिर्दा क्या थे, इस सवाल को जितने लोगों से पूछा जाए उतने जवाब मिलते है। गिर्दा एक आंदोलनकारी थे, उनमें गजब की जीवटता थी, शारीरिक रूप से काफी समय से अस्वस्थ थे, पर उनमें गजब की जीवंतता थी। वह 'हम लड़ते रयां भुला, हम लड़ते रुलो' और 'ओ जैता एक दिन त आलो उ दिन यीं दुनीं में' गाते हुए हमेशा आगे देखने वाले थे। उनमें गजब की याददाश्त थी, वह 40 वर्ष पूर्व लिखी अपनी कविताओं की एक-एक पंक्ति व उसे रचने की पृष्ठभूमि बता देते थे। वह लोक संस्कृति के इतिहास के 'एनसाइक्लोपीडिया' थे। लोक संस्कृति में कौन से बदलाव किन परिस्थितियों में आए इसकी तथ्य परक जानकारी उनके पास होती थी। कुमाऊंनीं लोक गीतों झोड़ा चांचरी में मेलों के दौरान हर वर्ष देशकाल की परिस्थितियों पर पारंपरिक रूप से जोड़े जाने वाले 'जोड़ों' की परंपरा को उन्होंने आगे बढ़ाया। चाहे जार्ज बुश व केंद्रीय गृहमंत्री को जूता मारे जाने की घटना पर उनकी कविता 'ये जूता किसका जूता है' हो, जिसे सुनाते हुए वह जोर देकर कहते थे कि जूता मारा नहीं वरन 'भनकाया' गया है। वहीं विगत वर्ष होली के दौरान आए त्रिस्तरीय चुनावों पर उन्होंने कविता लिखी थी 'ये रंग चुनावी रंग ठैरा..'। वह अपनी कविताओं में आगे भी तत्कालीन परिस्थितियों को जोड़ते हुए चलते थे। उनकी तर्कशक्ति लाजबाब थी। वह किसी भी मसले पर एक ओर खड़े होने के बजाय दूसरी तरफ का झरोखा खोलकर भी झांकते थे। राज्य की राजधानी के लिए गैरसैण समर्थक होने के बावजूद उनका कहना था 'हम तो अपनी औकात के हिसाब से गैरसैण में छोटी डिबिया सी राजधानी चाहते थे, देहरादून जैसी ही 'रौकात' अगर वहां भी करनी हो तो उत्तराखंड की राजधानी को लखनऊ से भी कहीं दूर ले जाओ'। गिर्दा सबकी पहुंच में थे, कमोबेश सभी ने उनके भीतर की विराटता से अपने लिए कुछ न कुछ लिया और गिर्दा ने भी बिना कुछ चाहे किसी को निराश भी नहीं किया। उनके कटाक्ष बेहद गहरे वार करते थे, 'बात हमारे जंगलों की क्या करते हो, बात अपने जंगले की सुनाओ तो कोई बात करें'। अपनी कविता 'जहां न बस्ता कंधा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा' से उन्होंने देश की शिक्षा व्यवस्था की पोल खोली तो 'मेरि कोसी हरै गे' के जरिए वह नदी व पानी बचाओ आंदोलन से भी जुड़े। एक दार्शनिक के रूप में भी वह हमेशा अपनी इन पंक्तियों के साथ याद किए जाएंगे, 'दिल लगाने में वक्त लगता है, टूट जाने में वक्त नहीं लगता, वक्त आने में वक्त लगता है, वक्त जाने में कुछ नहीं लगता' अफसोस कि वह गए है तो जैसे एक बड़े 'वक्त' को भी अपने साथ ले चले हैं।

फक्कड़ दा अलविदा..

गिर्दा में अजीब सा फक्कड़पन था। वह हमेशा वर्तमान में रहते थे, भूत उनके मन मस्तिक में रहता था और नजरे हमेशा भविष्य पर। बावजूद वह भविष्य के प्रति बेफिक्र थे। वह जैसे विद्रोही बाहर से थे कमोबेश वैसा ही उन्होंने खासकर अपने स्वास्थ्य व शरीर के साथ किया। इसी कारण बीते कई वर्षों से शरीर उन्हें जवाब देने लगा था लेकिन उन्होंने कभी किसी से किसी प्रकार की मदद नहीं ली। वरन वह खुद फक्कड़ होते हुए भी दूसरों पर अपने ज्ञान के साथ जो भी संभव होता लुटाने से परहेज न करते। ऐसा ही एक वाकया लखीमपुर खीरी में हुआ था जब एक चोर उनकी गठरी चुरा ले गया था तो उन्होंने उसे यह कहकर अपनी घड़ी भी सौप दी थी कि 'यार, मुझे लगता है, मुझसे ज्यादा तू फक्कड़ है।' गिर्दा ने आजीविका के लिए लखनऊ में रिक्शा भी चलाया और लोनिवि में वर्कचार्ज कर्मी, विद्युत निगम में क्लर्क के साथ ही आकाशवाणी से भी संबद्ध रहे। पूरनपुर (यूपी) में उन्होंने नौटंकी भी की और बाद में सन् 1967 से गीत व नाटक प्रभाग भारत सरकार में नौकरी की और सेवानिवृत्ति से चार वर्ष पूर्व 1996 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। वर्ष 2005 में अल्मोड़ा जनपद के हवालबाग के निकट ज्योली गांव में हंसादत्त तिवाड़ी व जीवंती तिवाड़ी के उच्च कुलीन घर में जन्मे गिर्दा का यह फक्कड़पन ही हो कि उत्तराखंड के एक-एक गांव की छोटी से छोटी भौगोलिक व सांस्कृतिक जानकारी के 'जीवित इनसाइक्लोपीडिया' होने के बावजूद उन्हें अपनी जन्म तिथि का ठीक से ज्ञान नहीं था। 1977 में केंद्र सरकार की नौकरी में होने के बावजूद वह वनांदोलन में न केवल कूदे वरन उच्चकुलीन होने के बावजूद 'हुड़का' बजाते हुए सड़क पर आंदोलन की अलख जगाकर औरों को भी प्रोत्साहित करने लगे। इसी दौरान नैनीताल क्लब को छात्रों द्वारा जलाने पर गिर्दा हल्द्वानी जेल भेजे गए। इस दौरान उनके फक्कड़पन का आलम यह था कि वह मल्लीताल में नेपाली मजदूरों के साथ रहते थे। उत्तराखंड आंदोलन के दौर में गिर्दा कंधे में लाउडस्पीकर थाम 'चलता फिरता रेडियो' बन गए। वह रोज शाम आंदोलनात्मक गतिविधियों का 'नैनीताल बुलेटिन' तल्लीताल डांठ पर पड़ने लगे। उन्होंने हिंदी, उर्दू, कुमाऊनीं व गढ़वाली काव्य की रिकार्डिंग का भी अति महत्वपूर्ण कार्य किया। वहीं भारत और नेपाल की साझा संस्कृति के प्रतीक कलाकार झूसिया दमाई को वह समाज के समक्ष लाए और उन पर हिमालय संस्कृति एवं विकास संस्थान के लिए स्थाई महत्व के कार्य किये। जुलाई 2007 में वह डा. शेखर पाठक व नरेंद्र नेगी के साथ उत्तराखंड के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के रूप में 'उत्तराखंड ऐसोसिएशन ऑफ नार्थ अमेरिका-UANA' के आमंत्रण पर अमेरिका गए थे जहां नेगी व उनकी जुगलबंदी काफी चर्चित व संग्रहणीय रही थी। उनका व्यक्तित्व वाकई बहुआयामी व विराट था। प्रदेश के मूर्धन्य संस्कृति कर्मी स्वर्गीय बृजंेद्र लाल साह ने उनके बारे में कहा था, ’मेरी विरासत का वारिश गिर्दा है।‘ उनके निधन पर संस्कृतिकर्मी प्रदीप पांडे ने ’अब जब गिर्दा चले गए है तो प्रदेश की संस्कृति का अगला वारिश ढूंढ़ना मुश्किल होगा। आगे हम संस्कृति और आंदोलनों के इतिहास को जानने और दिशा-निदश लेने कहां जाएंगे।‘ गिर्दा, आदि विद्रोही थे। वह ड्रामा डिवीजन में केंद्र सरकार की नौकरी करने के दौरान ही वनांदोलन में जेल गए। प्रतिरोध के लिए उन्होंने उच्चकुलीन ब्राह्मण होते हुए भी हुड़का थाम लिया। उन्होंने आंदोलनों को भी सांस्कृतिक रंग दे दिया। होली को उन्होंने शासन सत्ता पर कटाक्ष करने का अवसर बना दिया। 
उनका फलक बेहद विस्तृत था। जाति, धर्म की सीमाओं से ऊपर वह फैज के दीवाने थे। उन्होंने फैज की गजल ’लाजिम है कि हम भी देखेंगे, वो दिन जिसका वादा है‘ से प्रेरित होकर अपनी मशहूर कविता 'ओ जैता एक दिन त आलो, उ दिन य दुनी में' तथा फैज की ही एक अन्य गजल 'हम मेहनतकश जब दुनिया से अपना हिस्सा मागेंगे..' से प्रेरित होकर व समसामयिक परिस्थितियों को जोड़ते हुए 'हम कुल्ली कबाड़ी ल्वार ज दिन आपंण हक मागूंलो' जैसी कविता लिखी। वह कुमाऊंनीं के आदि कवि कहे जाने वाले 'गौर्दा' से भी प्रभावित थे। गौर्दा की कविता से प्रेरित होकर उन्होंने वनांदोलन के दौरान 'आज हिमाल तुमूकें धत्यूछौ, जागो जागो हो मेरा लाल..' लिखी।
गिर्दा का कई संस्थाओं से जुड़ाव था। वह नैनीताल ही नहीं प्रदेश की प्राचीनतम नाट्य संस्था युगमंच के संस्थापक सदस्यों में थे। युगमंच के पहले नाटक 'अंधा युग' के साथ ही 'नगाड़े खामोश है' व 'थैक्यू मिस्टर ग्लाड' उन्हीं ने निदशित किये। महिलाओं की पहली पत्रिका 'उत्तरा' को शुरू करने का विचार भी गिर्दा ने बाबा नागार्जुन के नैनीताल प्रवास के दौरान दिया था। वह नैनीताल समाचार, पहाड़, जंगल के दावेदार, जागर, उत्तराखंड नवनीत आदि पत्र- पत्रिकाओं से भी संबद्ध रहे। दुर्गेश पंत के साथ उनका 'शिखरों के स्वर' नाम से कुमाऊनीं काव्य संग्रह, 'रंग डारि दियो हो अलबेलिन में' नाम से होली संग्रह, 'उत्तराखंड काव्य' व डा. शेखर पाठक के साथ 'हमारी कविता के आखर' आदि पुस्तकें प्रकाशित हुई। 

प्रदेश के प्रति गहरी पीड़ा थी गिर्दा के मन में
हम ‘भोले-भाले’ पहाड़ियों को हमेशा ही सबने छला है। पहले दूसरे छलते थे, और अब अपने छल रहे हैं। हमने देश-दुनिया के अनूठे ‘चिपको आन्दोलन’ वाला वनान्दोलन लड़ा, इसमें हमें कहने को जीत मिली, लेकिन गिर्दा के अनुसार सच्चाई कुछ और थी। गिर्दा को वनान्दोलन के परिणामस्वरूप पूरे देश के लिए बने वन अधिनियम से हमारे हकूक और अधिक पाबंदियां आयद कर दिए जाने की गहरी टीस थी। इसी तरह हमने राज्य आन्दोलन से अपना नयां राज्य तो हासिल कर लिया। पर राज्य बनने से बकौल गिर्दा ही, ‘कुछ नहीं बदला कैसे कहूँ,  दो बार नाम बदला-अदला, चार-चार मुख्यमंत्री बदले’ पर नहीं बदला तो हमारा मुकद्दर, और उसे बदलने की कोशिश तो हुई ही नहीं। बकौल गिर्दा, ‘हमने गैरसैण राजधानी इसलिए माँगी थी ताकि अपनी ‘औकात’ के हिसाब से राजधानी बनाएं, छोटी सी ‘डिबिया सी’ राजधानी, हाई स्कूल के कमरे जितनी ‘काले पाथर’ के छत वाली विधान सभा, जिसमें हेड मास्टर की जगह विधान सभा अध्यक्ष और बच्चों की जगह आगे मंत्री और पीछे विधायक बैठते, इंटर कालेज जैसी विधान परिषद्, प्रिंसिपल साहब के आवास जैसे राजभवन तथा मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के आवास। पहाड़ पर राजधानी बनाने के का एक लाभ यह भी कि बाहर के असामाजिक तत्व, चोर, भ्रष्टाचारी वहां गाड़ियों में उल्टी होने की डर से ही न आ पायें, और आ जाएँ तो भ्रष्टाचार कर वहाँ की सीमित सड़कों से भागने से पहले ही पकडे जा सकें। गिर्दा कहते थे कि अगर गैरसैण राजधानी ले जाकर वहां भी देहरादून जैसी ही ‘रौकात’ करनी है तो अच्छा है कि उत्तराखंड की राजधानी लखनऊ से भी कहीं दूर ले जाओ। यह कहते हुए वह खास तौर पर ‘औकात’ और ‘रौकात’ षब्दों पर खास जोर देते थे। वह बड़े बांधों के घोर विरोधी थे, उनका मानना था कि हमें पारंपरिक घट-आफर जैसे अपने पुश्तैनी धंधों की ओर लौटना होगा। यह वन अधिनियम के बाद और आज के बदले हालातों में शायद पहले की तरह संभव न हो, ऐसे में सरकारों व राजनीतिक दलों को सत्ता की हिस्सेदारी से ऊपर उठाकर राज्य की अवधारण पर कार्य करना होगा। हमारे यहाँ सड़कें इसलिए न बनें कि वह बेरोजगारों के लिए पलायन के द्वार खोलें, वरन घर पर रोजगार के अवसर ले कर आयें। हमारा पानी, बिजली बनकर महानगरों को ही न चमकाए व ए.सी. ही न चलाये, वरन हमारे पनघटों, चरागाहों को भी ‘हरा’ रखे। हमारी जवानी परदेश में खटने की बजाये अपनी ऊर्जा से अपना ‘घर’ सजाये। हमारे जंगल पूरे एशिया को ‘प्राणवायु’ देने के साथ ही हमें कुछ नहीं तो जलौनी लकड़ी, मकान बनाने के लिए ‘बांसे’, हल, दनेला, जुआ बनाने के काम तो आयें। हमारे पत्थर टूट-बिखर कर रेत बन अमीरों की कोठियों में पुतने से पहले हमारे घरों में पाथर, घटों के पाट, चाख, जातर या पटांगड़ में बिछाने के काम तो आयें। हम अपने साथ ही देश-दुनियां के पर्यावरण के लिए बेहद नुकसानदेह पनबिजली परियोजनाओ से अधिक तो दुनियां को अपने धामों, अनछुए प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर स्थलों को पर्यटन केंद्र बना कर ही और अपनी ‘संजीवनी बूटी’ सरीखी जड़ी-बूटियों से ही कमा लेंगे। हम अपने मानस को खोल अपनी जड़ों को भी पकड़ लेंगे, तो लताओं की तरह भी बहुत ऊंचे चले जायेंगे.......।  

वनांदोलन से ठगे जाने की टीस थी गिर्दा को
1972 से शुरू हुऐ पहाड़ के एक छोटे से भूभाग का वन आंदोलन, चिपको जैसे विश्व प्रसिद्ध आंदोलन के साथ ही पूरे देश के लिए वन अधिनियम 1980 का प्रणेता भी रहा। लेकिन यह सफलता भी आंदोलनकारियों की विफलता बन गई। दरअसल शासन सत्ता ने आंदोलनकारियों के कंधे का इस्तेमाल कर अपने हक हुकूक के लिए आंदोलन में साथ दे रहे पहाड़वासियों से उल्टे उनके हक हुकूक और बुरी तरह छीन लिऐ थे। आंदोलनकारियों अपने ही लोगों के बीच गुनाहगार की तरह खड़ा कर दिया था। आंदोलन में अगली पंक्ति में रहे गिर्दा को आखिरी दिनों में यह टीस बहुत कष्ट पहुंचाती थी। 
‘गिर्दा’ से जब वनांदोलन की बात शुरू होकर जब वन अधिनियम 1980 की सफलता तक पहुंची तो उनके भीतर की टीस बाहर निकल आई। वह बोले, ‘1972 में वनांदोलन शुरू होने के पीछे लोगों की मंशा अपने हक हुकूकों को बेहतरी से प्राप्त करने की थी। यह वनों से जीवन यापन के लिए अधिकार की लड़ाई थी। सरकार स्टार पेपर मिल सहारनपुर को कौड़ियों के भाव यहां की वन संपदा लुटा रही थी। इसके खिलाफ आंदोलन हुआ, लेकिन जो वन अधिनियम मिला, उसने स्थितियों को और अधिक बदतर कर दिया। इससे जनभावनाऐं साकार नहीं हुईं। वरन, जनता की स्थिति बद से बदतर हो गई। तत्कालीन पतरौलशाही के खिलाफ जो आक्रोष था, वह आज भी है। औपनिवेषिक व्यवस्था ने ‘जन’ के जंगल के साथ जल भी हड़प लिया। वन अधिनियम से वनों का कटना नहीं रुका, उल्टे वन विभाग का उपक्रम वन निगम और बिल्डर वनों को वेदर्दी से काटने लगे। साथ ही ग्रामीण भी परिस्थितियों के वशीभूत ऐसा करने को मजबूर हो गऐ। अधिनियम का पालन करते वह अपनी भूमि के निजी पेड़ों तक को नहीं काट सकते। उन्हें हक हुकूक के नाम पर गिनी चुनी लकड़ी भी मीलों दूर मिलने लगी। इससे उनका अपने वनों से आत्मीयता का रिस्ता खत्म हो गया। वन जैसे उनके दुष्मन हो गऐ, जिनसे उन्हें पूर्व की तरह अपनी व्यक्तिगत जरूरतों की चीजें तो मिलती नहीं, उल्टे वन्यजीव उनकी फसलों और उन्हें नुकसान पहुंचा जाते हैं। इसलिऐ अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ग्रामीण महिलाऐं वनाधिकारियों की नजरों से बचने के फेर में बड़े पेड़ों की टहनियों को काटने की बजाय छोटे पेड़ों को जल्द काट गट्ठर बना उनके निसान तक छुपा देती हैं। इससे वनों की नई पौध पैदा ही नहीं हो रही। पेड़-पौधों का चक्र समाप्त हो गया है। अब लोग गांव में अपना नया घर बनाना तो दूर उनकी मरम्मत तक नहीं कर सकते। लोगों का न अपने निकट के पत्थरों, न लकड़ी की ‘दुंदार’, न ‘बांस’ और न छत के लिऐ चौडे़ ‘पाथरों’ पर ही हक रह गया है। पास के श्रोत का पानी भी ग्रामीण गांव में अपनी मर्जी से नहीं ला सकते। अधिनियम ने गांवों के सामूहिक गौचरों, पनघटों आदि से भी ग्रामीणों का हक समाप्त करने का शडयंत्र कर दिया। उनके चीड़ के बगेटों से जलने वाले आफर, हल, जुऐ, नहड़, दनेले बनाने की ग्रामीण काष्ठशालायें, पहाड़ के तांबे के जैसे परंपरागत कारोबार बंद हो गऐ। लोग वनों से झाड़ू, रस्सी को ‘बाबीला’ घास तक अनुमति बिना नहीं ला सकते। यहां तक कि पहाड़ की चिकित्सा व्यवस्था का मजबूत आधार रहे वैद्यों के औषधालय भी जड़ी बूटियों के दोहन पर लगी रोक के कारण बंद हो गऐ। दूसरी ओर वन, पानी, खनिज के रूप में धरती का सोना बाहर के लोग ले जा रहे हैं, और गांव के असली मालिक देखते ही रह जा रहे हैं। गिर्दा वन अधिनियम के नाम पर पहाड़ के विकास को बाधित करने से भी चिंतित थे। उनका मानना था कि विकास की राह में अधिनियम के नाम पर जो अवरोध खड़े किऐ जाते हैं उनमें वास्तविक अड़चन की बजाय छल व प्रपंच अधिक होता है। जिस सड़क के निर्माण से राजनीतिक हित ने सध रहे हों, वहां अधिनियम का अड़ंगा लगा दिया जाता है।                                                                       

वर्तमान हालातों से बेहद व्यथित थे गिर्दा 
गिर्दा से वर्तमान हालातों व संस्कृति पर बात शुरू हुई तो उनका जवाब रूंआसे स्वरों में ‘कौन समझे मेरी आंखों की नमी का मतलब, कौन मेरी उलझे हुए बालों की गिरह सुलझाऐ..’ से प्रारम्भ हुआ। कहने लगे, जहां देश के सबसे बड़े मंदिर (सवा अरब लोगों की आस्था के केंद्र) संसद में ‘नोटों के बंडल’ लहराने की संस्कति चल पड़ी हो, वहां अपनी संस्कृति की बात ही बेमानी है। उत्तराखंड भी इससे अछूता कैसे रह सकता है, इसकी बानगी गत दिनों पंचायत चुनावों में हम देख चुके हैं। जहां विधानसभा में कितनी तू-तू, मैं-मैं होती है, कई विपक्षी तो शायद वहां घुसने से पहले शायद लड़ने का मूंड ही बनाकर आते हैं। राज्य की राजधानी, परिसीमन, यहां के गाड़-गधेरों पर कोई बात नहीं करता। हां, थोड़ी बची खुची कृषि भूमि को बंजर कर 'नैनो के लिए जरूर नैन' लगाऐ बैठे हैं। नदियों को 200 परियोजनाऐं बनाकर टुकड़े-टुकड़े कर बेच डाला है। खुद दिवालिया होते जा रहे अमेरिका से अभी भी मोहभंग नहीं हो रहा है। वह ही हमारी संस्कृति बनता जा रहा है। वह कहते हैं, हमारी संस्कृति मडुवा, मादिरा, जौं और गेहूं के बीजों को भकारों, कनस्तरों और टोकरों में बचाकर रखने, मुसीबत के समय के लिए पहले प्रबंध करने और स्वावलंबन की रही है, यह केवल ‘तीलै धारु बोला’ तक सीमित नहीं है। आखिर अपने घर की रोटी और लंगोटी ही तो हमें बचाऐगी। गांधी जी ने भी तो ‘अपने दरवाजे खिड़कियां खुली रखो’ के साथ चरखा कातकर यही कहा था। वह सब हमने भुला दिया। आज हमारे गांव रिसोर्ट बनते जा रहे हैं। नदियां गंदगी बहाने का माध्यम बना दी हैं। स्थिति यह है कि हम दूसरों पर आश्रित हैं, और अपने दम पर कुछ माह जिंदा रहने की स्थिति में भी नहीं हैं। वह कहते हैं, ‘संस्कृति हवा में नहीं उगती, यह बदले माहौल के साथ बदलती है, और ऐसा बीते वर्ष में अधिक तेजी से हुआ है।’ हालांकि वह आशान्वित होकर बताते हैं, ‘संस्कृति कर्मी अपना काम कर रहे हैं। पूर्व में मेलों में तत्कालीन स्थितियों को ‘दिल्ली बै आई भानमजुवा, पैंट हीरो कट’ या ‘दिन में हैरै लेख लिखाई, रात रबड़ा घिस’ जैसे गीतों से प्रकट किया जाता था। इधर नंदा देवी के मेले के दौरान चौखुटिया के दल ने पंचायत चुनावों की स्थिति ‘गौनूं में चली देशि शराबा बजार चली रम, उम्मीदवार सकर है ग्येईं भोटर है ग्येईं कम’ के रूप में प्रकट कर इस परंपरा को कई वर्षों बाद फिर से जीवंत किया है। उनका दर्द इस रूप में भी फूटता है कि आज संस्कृति बनाने की तो फुरसत ही नहीं है, उसका फूहड़ रूप भी बच जाऐ तो गनीमत है।

होली को हुड़दंग नहीं अभिव्यक्तियों का त्यौहार मानते थे गिर्दा
होली में हुड़दंग का समावेश यूं तो हमेशा से ही रहा है, लेकिन कुमाऊं की होली की यह अनूठी विशेषता रही कि यहां हुड़दंग के बीच भी अभिव्यक्तियों की विकास यात्रा चलती रही है। कुमाउनीं के साथ हिंदी के भी प्राचीनतम (भारतेंदु हरीश्चंद्र से भी पूर्व के) कवि गुमानी पंत से होते हुऐ यह यात्रा गोर्दा एवं मौलाराम से होती हुई आगे बढ़ी, और इसे प्रदेश के जनकवि के रूप में ख्याति प्राप्त गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ ने आगे बढ़ाया। गिर्दा होली को हुड़दंग व केवल अभिव्यक्तियों का नहीं वरन सामूहिक अभिव्यक्तियों का त्यौहार मानते थे। गिर्दा अतीत से शुरू करते हुऐ बताते थे कि संचार एवं मनोरंजन माध्यमों के अभाव के दौर में कुमाऊंवासी भी मेलों के साथ होली का इंतजार करते थे। वर्श भर की विशिष्ट घटनाओं पर उस वर्ष के बड़े मेलों के साथ ही होली में नई सामूहिक अभिव्यक्तियां निकलती थीं। उदाहरणार्थ 1919 में जलियावालां बाग में हुऐ नरसंहार पर कुमाऊं में गौर्दा ने 1920 की होलियों में ‘होली जलियांवालान बाग मची...’ के रूप में नऐ होली गीत से अभिव्यक्ति दी। इसी प्रकार गुलामी के दौर में ‘होली खेलनू कसी यास हालन में, छन भारत लाल बेहालन में....’ तथा ‘कैसे हो इरविन ऐतवार तुम्हार....’ जैसे होली गीत प्रचलन में आऐ। उत्तराखंड बनने के बाद गिर्दा ने इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए 2001 की होलियों में ‘अली बेर की होली उनरै नाम, करि लिया उनरि लै फाम, खटीमा मंसूरी रंगै ग्येईं जो हंसी हंसी दी गया ज्यान, होली की बधै छू सबू कैं...’ जैसी अभिव्यक्ति दी। इसी कड़ी में आगे भी चुनावों के दौर में भी गिर्दा ‘ये रंग चुनावी रंग ठहरा...’ जैसी होलियों का सृजन किया। ‘नैनीताल समाचार’ के प्रांगण में अपनी आखिरी होली में वह सर्वाधिक उत्साह का प्रदर्शन कर उपस्थित लोगों को आशंकित कर गये थे, बावजूद उन्होंने इस मौके पर कोई नईं होली पेश नहीं की। पूछने पर उनका जवाब था, ‘निराशा का वातावरण है, इस निराशा को शब्द देना ‘फील गुड’ के दौर में कठिन है।’

सचिन को सांस्कृतिक पुरूष मानते थे गिर्दा
सुनने में यह अजीब लग सकता है, पर एक मुलाकात में गिर्दा ने उस दिन का 'राष्ट्रीय सहारा' अखबार उठाया, और पहले पन्ने पर ही संस्कृति के दो रूप दिखा दिये। वहां एक ओर बकौल गिर्दा देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक पुरूष, बल्ले में दम दिखाते 12 हजारी सचिन थे, तो दूसरी ओर हमारी दूसरों पर निर्भरता का प्रतीक दस हजार से नीचे गिरकर बेदम पड़ा सेंसेक्स। गिर्दा बोले, गुडप्पा विश्वनाथ के बाद वह देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक पुरूष नम्रता, शालीनता व देश की गरिमा के प्रतीक उस सचिन को नमन करते है, जिसे इतनी बड़ी उपलब्धि पर अपनी मां की कोख और गुरु याद आते हैं। वह कभी उपलब्धियों पर इतराते नहीं, और असफलताओं पर व्यथित नहीं होते। वह युवा पीढ़ी के लिए आदर्श हो सकते हैं। हमारी संस्कृति भी हमें यही तो सिखाती है। दूसरी ओर सेंसेक्स जो हमारी खोखली प्रगति का परिचायक है।



गिर्दा की चुनावी कविताः रंगतै न्यारी         

चुनावी रंगै की रंगतै न्यारी
मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!
दिल्ली बै छुटि गे पिचकारी-
आब पधानगिरी की छु हमरी बारी।
चुनावी रंगै की रंगतै न्यारी।।

मथुरा की लठमार होलि के देखन्छा,
घर- घर में मची रै लठमारी-
मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!

आफी बंण नैग, आफी पैग,
आफी बड़ा ख्वार में छापरि धरी, 
आब पधानगिरी की हमरि बारी।

बिन बाज बाजियै नाचि गै नौताड़,
‘खई- पड़ी’ छोड़नी किलक्वारी,
आब पधानगिरी की हमरि बारी।

रैली- थैली, नोट- भोटनैकि,
मचि रै छौ मारामारी-
मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!

पांच साल त कान आंगुल खित,
करनै रै हुं हुं ‘हुणणै’ चारी,
मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!

काटी में मुतण का लै काम नि ऐ जो,
चोट माड़ण हुंणी भै बड़ी-
मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!

पाणि है पताल ऐल नौणि है चुपाणा,
यसिणी कताई, बोलि- बाणी प्यारी-
चुनावी रंगै कि रंगतै न्यारी।

जो पुर्जा दिल्ली, जो फुर्कों चुल्ली, 
जैकि चलंछौ कितकनदारी,
चुनावी रंगै कि रंगतै न्यारी।

मेरी बारी! मेरी बारी!! मेरी बारी!!!
चुनावी रंगै कि रंगतै न्यारी।

Saturday, January 29, 2011

उत्तराखंड विचार: कुछ खट्टा-कुछ मीठा

पहाड़ के बच्चे नहीं मना पाते गणतन्त्र दिवस 
शीतकालीन विद्यालय रहते हैं बन्द, अधिकांश बच्चों को नहीं पता कैसे मनाते हैं गणतन्त्र दिवस
नवीन जोशी, नैनीताल। देश की युवा पीढी यानी बच्चों के बिना गणतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती, पर उत्तराखंड में ऐसा हो रहा है. प्रदेश के पहाडी  अंचलों में अधिकांश बच्चों को गणतन्त्र दिवस मनाने के बारे में जानकारी नहीं है। कारण,  उनके विद्यालय गणतन्त्र दिवस के दौरान शीतकालीन अवकाश के  लिए बन्द होते हैं, इसलिए न स्कूलों में गणतन्त्र दिवस का आयोजन होता है, और न ही बच्चों को देश के गणतन्त्र के इस मान राष्ट्रीय पर्व के आयोजन की जानकारी हो पाती है। 
उल्लेखनीय है कि गणतन्त्र दिवस देश की आजादी का वास्तविक पर्व है। इसी दिन से राष्ट्र में अपने संविधान के साथ अपना राज कायम हुआ था। देश भर में यह आयोजन खासकर विद्यालयों में बेहद हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लेकिन नैनीताल जनपद से ही बात शुरू करें तो यहाँ कुल 96 प्राथमिक विद्यालयों में से 2 तथा जूनियर हाईस्कूल से इंटरमीडिएट तक के 9 सरकारी, मुख्यालय का एक स्थानीय निकाय संचालित नगर पालिका नर्सरी स्कूल एवं तीन अर्धशासकीय विद्यालयों भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय, सीआरएसटी इंटर कालेज व मोहन लाल साह बालिका विद्या मन्दिर के साथ ही सभी निजी पब्लिक स्कूलों में इन दिनों शीतकालीन अवकाश होने के कारण गणतन्त्र दिवस का आयोजन नहीं होता है। मुख्यालय में जहाँ अन्य राष्ट्रीय पर्वों पर सुबह प्रभात फेरी से लेकर अपराह्न तक कार्यक्रम बच्चों से ही गुलजार रहते हैं, वहीँ गणतन्त्र दिवस में बच्चे नहीं होते तो अन्य लोग भी कमोबेश इस राष्ट्रीय पर्व को औपचारिक ही मनाते हैं। शिक्षक अन्य संस्थानों में उपस्थिति दर्ज कराकर औपचारिकता निभा लेते हैं। वर्षों से ऐसा परिपाटी के रूप में हो रहा है। इसका एक नुकसान यह भी है कि बच्चों को गणतन्त्र दिवस के  इस महत्वपूर्ण आयोजन की जानकारी भी नहीं हो पाती है, या तब हो पाती है, जब वह ग्रीष्मकालीन अवकाश वाले विद्यालयों में जाते हैं। इसका निदान क्या हो यह एक विचारणीय प्रश्न हो सकता है।

पाकिस्तान का स्वंत्रता दिवस मनाया जाता है यहाँ !
यह आम बात है कि ख़ास कर निजी महंगे पब्लिक स्कूलों में त्योहारों के दिन अवकाश होने के कारण इन्हें पहले दिन ही मन लिया जाता है। गणतंत्र दिवस 25 जनवरी को तथा गांधी जयन्ती एक अक्टूबर को मनाकर औपचारिकता निभा ली जाती है। इन तिथियों के अखबार उठा कर देख लें पुष्टि हो जायेगी । यहाँ तक तो गलती कुछ हद तक माफी योग्य शायद हो भी, लेकिन यदि देश के भविष्य को तैयार महंगी फीस लेकर तैयार करने वाले यह स्कूल स्वतंत्रता दिवस को भी एक दिन पहले यानी 14 अगस्त को मना लें तो इसे क्या कहेंगे ? जान लें 14 अगस्त हमारा नहीं हमारे पड़ोसी दुश्मन राष्ट्र पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस है। आसपास नजर डालिए, कहीं आपके बच्चे के स्कूल में भी तो ऐसा नहीं हो रहा ? नैनीताल के तो अधिकाँश पब्लिक स्कूलों में ऐसा वर्षों से हो रहा है ।


....क्योंकि हमने अपनी `ताकतों´ को अपनी `कमजोरी´ बना लिया है ! 



हते हैं `पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं´, लेकिन `पालने´ की उम्र से बहुत पहले बाहर निकलकर 10 वर्ष के 'किशोर' होने जा रहे उत्तराखण्ड के `पांव´ कहां जा रहे हैं, यह कहना अभी भी मुश्किल ही बना हुआ है। इस उम्र तक आने में इसके `पालनहारों´ ने इसे कई दिशाओं में चलाने के दावे-वादे किऐ हैं, लेकिन यह कहीं पहुंचना तो दूर शायद अभी ठीक से चलना भी प्रारंभ नहीं कर पाया है। इसकी इस `गत´ का कारण एक से अधिक नावों का सवार होना भी माना जा सकता है, लेकिन असल कारण यह है कि इस अत्यधिक संभावनाओं वाले राज्य ने अपनी ताकतों को अपनी कमजोरी बना लिया है। हमने अपने संसाधनों का सदुपयोग करना दूर, उन पर पाबन्दियां लगा कर उन्हें निरुपयोगी बना दिया है। दरवाजे बन्द कर दिऐ हैं। हम ढांचागत सुविधाऐं बढ़ाने जैसे कार्य नहीं कर रहे हैं, कर रहे हैं तो बिना सोचे-समझे, और बेहद जल्दबाजी में, बिना गहन अध्ययन के दूसरों के ज्ञान को बिना पड़ताल किऐ आत्मसात करने के। ऐसे में एक कदम आगे बढ़ाते हैं तो दो कदम पीछे लौटने को मजबूर होते हैं।




बात कहीं से भी शुरू कर लीजिऐ। उत्तराखण्ड को पर्यटन प्रदेश कहा गया। लेकिन सैलानियों की जरूरतों का खयाल नहीं रखा गया। पर्यटक स्थलों में ढांचागत सुविधाओं को बढ़ाना व सुधारना तो दूर 10 वर्ष बाद भी पर्यटन विभाग का ढांचा ही नहीं बनाया गया। हालत यह है कि राज्य की पर्यटन राजधानी नैनीताल में विभाग के नाम पर केवल तीन कर्मचारी हैं। राज्य में बाहर से आवागमन की सुविधाऐं नहीं बढ़ाई गईं। जो सैलानी पहुंचते भी हैं, उन्हें अपेक्षित मौज मस्ती के अवसर देने से हमारी संस्कृति पर दाग लग जाते हैं। लिहाजा हमने उनसे प्रकृति के अलावा अपनी संस्कृति सहित सब कुछ छुपाकर रखा है। हम उन्हें अच्छी शराब तक नहीं दे सकते। शराब कहने सुनने में शायद बुरा लग रहा हो, (इस पर यह साफ़ करते हुए कि में स्वयं व मेरे परिवार में कोई शराब नहीं पीता, और मैं शराब समर्थक भी नहीं हूँ) याद रखना होगा कि हमें अपने यहां पर्यटन विस्तार के लिए गोवा, मारीशश व सिंगापुर आदि सस्ते और `सर्वसुविधा´ वाले पर्यटक स्थलों से मुकाबला करना है, तभी हम पर्यटन प्रदेश बन सकते हैं। लेकिन जाहिर है, हम ऐसा नहीं कर सकते। कोई भी व्यक्ति जब जीवन के बेहद तनाव भरे क्षणों से बमुश्किल छुटि्टयां निकालकर घर से बाहर निकलता है तो स्वच्छन्दता चाहता है, और उसे हम अपने यहां स्वच्छन्दता तो हरगिज नहीं दे सकते। हां, आते ही उनका स्वागत हमारे `मित्र पुलिस´ के परेशानहाल जवान `यहां पार्किंग ही नहीं है तो इतनी बड़ी गाड़ियां लेकर आते ही क्यों हो´ सरीखी फब्तियां कस कर करते हैं। हम पर्वतारोहण कराकर ही देश-दुनिया के सैलानियों को आकर्षित कर सकते थे, लेकिन हमने 40 हजार रुपऐ से अधिक शुल्क नियत कर इस ओर भी रास्ते जैसे बन्द कर दिऐ हैं। 
बात वापस शराब पर मोड़ते हैं। `सूर्य अस्त...´ के रूप में अभिशप्त हमारे पहाड़ के जहां हजारों घर शराब की भेंट चढ़ रहे हैं, वहीं यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि करों के बाद शराब ही हमारे राज्य की तिजोरी की सर्वाधिक `सेहत´ सुधार रही है। बावजूद हमारे `तारणहार´ मुंह में 'शराब पर राज्य की तिजारी की निर्भरता खत्म करेंगे´ का `राम´ बोलते हुऐ बगल में `हर वर्ष शराब विक्रेताओं के लक्ष्य 10 से 25 फीसद तक बढ़ाकर´ छुरियां भांज रहे होते हैं। बावजूद शराब के शौकीनों के अनुसार उत्तराखण्ड की शराब देश में सर्वाधिक महंगी और गुणवत्ता में घटिया है। राज्य की सेहत सुधार रही शराब सैलानियों को पिलाकर हम अपनी आर्थिकी भी सुधार सकते थे, किन्तु हमने शराब का काम करने वाले लोगों को `शराब माफिया´ शब्द दे दिया है, इसलिए हम खुद यह काम नहीं कर सकते, भले इस शब्द का लोकलाज भय दिखाकर बाहर के लोग हमें शराब पिलाकर मार डालें, और खुद `फिल्म निर्माता´ और इस लायक तक हो जाऐं कि सरकारों को बदल डालें।
हमने अपनी वन संपदा, चिड़ियां, जैव संपदा बचाई है, जिसे दिखाकर भी हम सैलानियों से लाखों कमा सकते हैं। राज्य की आर्थिकी की प्रमुख धुरी जल, जंगल, जमीन और जवानी भी हो सकते हैं। बात राज्य के 65 फीसद से अधिक भूभाग पर फैले वनों की करें तो इन से रोजगार की भी प्रचुर संभावनाऐं हो सकती थीं। लेकिन हमारे यहां जो भी वन संपदा संबंधी कार्य करेगा, उनके लिए हमने `वन माफिया´ शब्द मानो `पेटेंट´ कर रखा है। चीड़, यूकेलिप्टस, पापुलर जैसे पेड़ जो हमारी आर्थिकी का मजबूत आधार हो सकते हैं, उन्हें हमने `विदेशी´, `पर्यावरण  शत्रु´ और बांज के जंगलों के `घुसपैठिऐ´ आदि  शब्द दे डाले हैं। लीसा खोप कर हमारे यहां हजारों लोगों के घरों में चूल्हा जलता था, हमारी पिछली पीढ़ी लीसे के छिलकों से पढ़कर ही आगे बढ़ी, लेकिन लीसे का कारोबार जो करे वह `लीसाचोर´, लिहाजा इस क्षेत्र में कारोबार करने के रास्ते भी हमारे लिऐ बन्द। भले बाहर के लोग सारे जंगल तबाह कर डालें। इसी प्रकार हमारे यहां की खड़िया, रेता, बजरी आदि का कारोबार करने वाले `खनन माफिया´, सो हम अपने खेतों से पत्थर भी नहीं उठा सकते। भले अपनी उपजाऊ जमीनों पर हम खाईयां खुदवाकर अथवा खनन सामग्री के ढेर लगाकर उन्हें हमेशा के लिए बंजर बना दें। भले हमारी जीवनदायिनी नदियां, जमीनें कौड़ियों के भाव बाहर वालों को सालों, दशकों के लिए लीज पर दे दी जाऐं। हम पूरे एशिया को अकेले `प्राणवायु-आक्सीजन´ देने की क्षमता वाले अपने वनों को अपने `विकास की बलि देकर´ बचाने वाले गांवों को बदले में `कार्बन क्रेडिट´ लेकर सड़क की बजाय सीधे सस्ती या मुफ्त `रोप वे´ अथवा `हवाई सेवा´ दे सकते थे, पर ऐसी सोच सोचने में ही शायद अभी हमें वर्षों लगें।
`जल´ की बात करें तो हमें अपने पानी के उपयोग पर सख्त आपत्ति है। बड़े बांधों का हम विरोध करेंगे, छोटे हम बनाऐंगे नहीं। कोई हम जल विद्युत परियोजनाओं का विरोध करने वालों से पूछे तो सही कि हममें से कुछ को छोड़कर अन्य ने खुद कितना पानी बचाया। हम पर्यावरणप्रेमियों ने अखबारों में अपने प्रचार के लिए छपने में खर्च किऐ कागज से अधिक कितना पर्यावरण बचाया है। क्या हम दावे से कह सकते हैं कि जिन सड़कों का हमने विरोध किया, वैसी सड़कें हमने अपने घर तक भी नहीं बनने दीं। पर्यावरण बचाने के लिए क्या हमने अपनी लंबी गाड़ियां लेने से परहेज किया। हम कब तक `छद्मविद्´ बने रहेंगे। हमने अपने पनघट बन्द कर हमने गांव गांव तक डीजल चालित आटा चक्कियां बना लीं। जल संरक्षण के परंपरागत प्रबंध `बज्या´ दिऐ। गांवों के पुश्तैनी कार्य करने में हमें शर्म आती है। सड़कें हमारे गांव में आईं तो समृद्धि को करीब लाने के बजाय हमारे लिए `पलायन´ का रास्ता खोलने वाली साबित हुईं। हमारी सिंचाई विभाग की अरबों की परिसंपत्तियों पर यूपी आज भी कब्जा जमाऐ बैठा है। कुल मिलाकर हम अपनी करोड़ों रुपऐ की आय दे सकने वाली जल संपदा से कोई लाभ लेने का तैयार नहीं।
बात `जवानी´ की करें तो हमारे पढ़े-लिखे युवा जो अपनी दुरूह भौगोलिक व कठिनतम् प्राकृतिक परिस्थितियों से कम मेहनत के भी अच्छे एथलीट, कवि, लेखक, कलाकारखिलाड़ी, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी व प्रशासनिक अधिकारी के रूप में प्रदेश ही नहीं देश के लिए विश्वसनीय मानवशक्ति हो सकते हैं आज भी राज्य बनने से पूर्व की ही तरह `पलायन´ करने को मजबूर हैं। जो यहां बचते हैं, उन्हें भी राज्य `पेट पालने लायक´ रोजगार नहीं दिला पा रहा। लिहाजा वह नशे की अंधेरी खाई में बढ़ रहे हैं। वरन उनमें राष्ट्रविरोधी विचारधारा से प्रभावित होने का खतरा भी बेहद बढ़ गया है। कोई स्वरोजगार करने की सोचे भी तो सरकारी योजनाऐं उसे बेरोजगार से `कर्जदार´ बनाने पर तुली हुई हैं।


उपजाऊ जमीनें हमारे यहां शुरू से कम थीं, लेकिन ताकत के तौर पर जो तराई-भावर की उपजाऊ कृषि भूमि थी, उस पर हमने फसलों के बजाय उद्योग उगा लिऐ। जो कब `कट´ जाऐं, कुछ भरोसा नहीं। तब तक इन्हें बेचकर `उजड़े´ किसान भी खेती भूल, कीमत खर्च कर, चाकरी करने शहर जा चुके होंगे।
लोक संस्कृति के रूप में हम समृद्ध थे, किन्तु हमने अपनी पहचान नाड़ा बाहर लटके धारीदार `घोड़िया´ पैजामा, फटा कुर्ता और टेढ़ी बदबूदार टोपी पहने 'जोकर नुमा' व्यक्ति के रूप में बना ली। अपनी `दुदबोली´ को बोलने में `शरम´ की, और मानो किस्मत फोड़ ली। उसे लिखने, पढ़ने की बात तो बहुत दूर की ठैरी। स्वयं की पहचान, स्वयं में अपनी पहाड़ी होने की `शिनाख्त´ के निशानों को छुपाने में हमारा कोई सानी नहीं। `धौनी´ से लेकर हमारा आम पहाड़ी अपनी पहचान बताने में आख़िरी दम तक संकोच नहीं छोड़ता। अपने धुर पहाड़ी गांव में `डीजे´ पर `बोलो तारा रा रा´ पर `भांगड़ा´ करने में हम `माडर्न लुक´ देने वाले ठैरे। कैसेट में हमारी बहनें रंग्वाली पिछौड़ा पहनकर घास काटने और अपने परदेश गऐ `हीरो´ के लिए हिन्दी फिल्मी गीतों की पहाड़ी `पैरोडी´ गाने वाली ठैरीं।
इसी तरह हम जड़ी बूटी, आयुर्वेद, ऊर्जा, शिक्षा आदि प्रदेश बनने के दावे भी कर रहे हैं, पर उनकी तैयारी भी हमारी कितनी और कैसी है, जरा सोचें तो खुद समझ में आ जाता है। ऐसे में `जब जागें, तभी सवेरा´ मानकर हम स्वयं और अपनी क्षमताओं को पहचान व निखारकर समिन्वत रूप में सर्वोत्तम योगदान देने की कोशिश करें, और दूसरों की तिजोरियां भरने के बजाय अपने `घर´ को सजाऐं।
                                                                  (नैनीताल, 11 अगस्त, 2010)

....फिर क्या हो ? (दिवंगत गिर्दा को श्रद्धांजलि के साथ)



girda3.JPG........ऐसे में यह सोचना जरूरी हो जाता है कि जब हम अपने संसाधनों (मूलतः पानी, जवानी और जंगलों) का उपयोग नहीं होने देना चाहते, (इसलिए कि सरकारें उनका सदुपयोग या उपयोग करने की बजाय शोषण करने पर तुली हुई हैं) ऐसे में यह भी सच्चाई है कि हमारा भविष्य बेरोजगारी, मुफलिसी से भरा होने वाला है, ऐसा न हो, इससे बचने के लिए क्या करें ? 
हम 'भोले-भाले' पहाड़ियों को हमेशा ही सबने छला है। पहले दूसरे छलते थे, और अब अपने छल रहे हैं हमने देश-दुनिया के अनूठे 'चिपको आन्दोलन' वाला वनान्दोलन लड़ा, इसमें हमें कहने को जीत मिली, लेकिन सच्चाई गिर्दा बताते थे गिर्दा को वनान्दोलन के परिणामस्वरूप पूरे देश के लिए बने वन अधिनियम से हमारे हकूक और अधिक पाबंदियां आयद कर दिए जाने की गहरी टीस थी इसी तरह हमने राज्य आन्दोलन से अपना नयां राज्य तो हासिल कर लिया पर राज्य बनने से बकौल गिर्दा ही,"कुछ नहीं बदला कैसे कहूँ,  दो बार नाम बदला-अदला, चार-चार मुख्यमंत्री बदले", पर नहीं बदला तो हमारा मुकद्दर, और उसे बदलने की कोशिश तो हुई ही नहीं बकौल गिर्दा, हमने गैरसैण राजधानी इसलिए माँगी थी ताकि अपनी 'औकात' के हिसाब से राजधानी बनाएं, छोटी सी 'डिबिया सी' राजधानी, हाई स्कूल के कमरे जितनी 'काले पाथर' के छत वाली विधान सभा, जिसमें हेड मास्टर की जगह विधान सभा अध्यक्ष और बच्चों की जगह आगे मंत्री और पीछे विधायक बैठते, इंटर कोलेज जैसी विधान परिषद्, प्रिंसिपल साहब के आवास जैसे राजभवन तथा मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के आवास पहाड़ पर राजधानी बनाने के का एक लाभ यह भी कि बाहर के असामाजिक तत्व, चोर, भ्रष्टाचारी वहां गाड़ियों में उल्टी होने की डर से ही न आ पायें, और आ जाएँ तो भ्रष्टाचार कर वहाँ की सीमित सड़कों से भागने से पहले ही पकडे जा सकें गिर्दा कहते थे कि अगर गैरसैण राजधानी ले जाकर वहां भी देहरादून जैसी ही 'रौकात' करनी है तो अच्छा है कि उत्तराखंड की राजधानी लखनऊ से भी कहीं दूर ले जाओ यह कहते हुए वह खास तौर पर 'औकात' और 'रौकात' पर ख़ास जोर देते थे खैर...., बात शुरू हुई थी, फिर करें क्या से, पर गिर्दा मन-मस्तिष्क में ऐसे बैठे हैं कि... 

गिर्दा भी बड़े बांधों के विरोधी थे, उनका मानना था के हमें पारंपरिक घट-आफर जैसे अपने पुश्तैनी धंधों की ओर लौटना होगा यह वन अधिनियम के बाद और आज के बदले हालातों में शायद पहले की तरह संभव न हो, ऐसे में सरकारों व राजनीतिक दलों को सत्ता की हिस्सेदारी से ऊपर उठाकर राज्य की अवधारण पर कार्य करना होगा। हमारे यहाँ सड़कें इसलिए न बनें कि वह बेरोजगारों के लिए पलायन के द्वार खोलें, वरन घर पर रोजगार के अवसर ले कर आयें हमारा पानी बिजली बनकर महानगरों को ही न चमकाए व ए.सी. ही न चलाये, वरन हमारे पनघटों, चरागाहों को भी 'हरा' रखे हमारी जवानी परदेश में खटने की बजाये अपनी ऊर्जा से अपना 'घर' सजाये हमारे जंगल पूरे एशिया को 'प्राणवायु' देने के साथ ही हमें कुछ नहीं तो जलौनी लकड़ी, मकान बनाने के लिए 'बांसे', हल, दनेला, जुआ बनाने के काम तो आयें हमारे पत्थर टूट-बिखर कर रेत बन अमीरों की कोठियों में पुतने से पहले हमारे घरों में पाथर, घटों के पाट, चाख, जातर या पटांगड़ में बिछाने के काम तो आयें हम अपने साथ ही देश-दुनियां के पर्यावरण के लिए बेहद नुक्सानदेह पनबिजली परियोजनाओ से अधिक तो दुनियां को अपने धामों, अनछुए प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर स्थलों को पर्यटन केंद्र बना कर ही और अपनी 'संजीवनी बूटी' सरीखी जड़ी-बूटियों से ही कमा लेंगे हम अपने मानस को खोल अपनी जड़ों को भी पकड़ लेंगे, तो लताओं की तरह भी बहुत ऊंचे चले जायेंगे.......
                                                                        (नैनीताल, 24 अगस्त, 2010)

वनान्दोलन से ठगे जाने की टीस थी दिवंगत 'गिर्दा' को



पहाड़ के छोटे से भूभाग का आन्दोलन बना था देश भर के लिए वन अधिनियम 1980 का प्रणेता, लेकिन इससे पहाड़ वासियों को मिला कुछ नहीं उल्टे हक हुकूक छिन गऐ 
1972 से शुरू हुऐ पहाड़ के एक छोटे से भूभाग का वन आन्दोलन, चिपको जैसे विश्व प्रसिद्ध आन्दोलन के साथ ही पूरे देश के लिए वन अधिनियम 1980 का प्रणेता भी रहा। लेकिन यह सफलता भी आन्दोलनकारियों की विफलता बन गई। दरअसल शासन सत्ता ने आन्दोलनकारियों के कंधे का इस्तेमाल कर अपने हक हुकूक के लिए आन्दोलन में साथ दे रहे पहाड़वासियों से उल्टे उनके हक हुकूक और बुरी तरह छीन लिऐ थे। आन्दोलनकारियों को अपने ही लोगों के बीच गुनाहगार की तरह खड़ा कर दिया था। आन्दोलनकारियों में यह टीस आज भी है।वनान्दोलन से गहरे जुड़े जनकवि गिरीश तिवारी `गिर्दा´ से जब वनान्दोलन की बात चलते हुऐ वन अधिनियम 1980 की सफलता तक पहुंचती है, उनके भीतर की टीस बाहर निकल आती है। वह खोलते हैं, 1972 में वनान्दोलन शुरू होने के पीछे लोगों की मंशा अपने हक हुकूकों को बेहतरी से प्राप्त करने की थी। यह वनों से जीवन यापन के लिए अधिकार की लड़ाई थी। सरकार स्टार पेपर मिल सहारनपुर को कौड़ियों के भाव यहां की वन संपदा लुटा रही थी। इसके खिलाफ ऐतिहासिक वन आन्दोलन हुआ, लेकिन जो वन अधिनियम मिला, उसने स्थितियों को और अधिक बदतर कर दिया है। इससे जनभावनाऐं साकार नहीं हुईं। जनता की स्थिति यथावत बनी हुई है। तत्कालीन पतरौलशाही के खिलाफ जो आक्रोश था, वह आज भी है। औपनिवेशिक व्यवस्था ने जन के जंगल के साथ जल भी हड़प लिया। वन अधिनियम से वनों का कटना नहीं रुका, उल्टे वन विभाग का उपक्रम वन निगम ही और विल्डर वनों को बेदर्दी से काटने लगे। साथ ही ग्रामीण भी परिस्थितियों के वशीभूत ऐसा करने को मजबूर हो गऐ। अधिनियम का पालन करते वह अपनी भूमि के व्यक्तिगत पेड़ों तक को नहीं काट सकते थे। उन्हें हक हुकूक के नाम पर गिनी चुनी लकड़ी भी मीलों दूर मिलती। इससे उनका अपने वनों से आत्मीयता का रिश्ता खत्म हो गया। वन जैसे उनके दुश्मन हो गऐ, जिनसे उन्हें अपनी व्यक्तिगत जरूरतों की चीजें तो मिलती नहीं, उल्टे वन्यजीव उनकी फसलों और उन्हें नुकसान पहुंचा जाते हैं। इसलिऐ अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ग्रामीण महिलाऐं वनाधिकारियों की नज़रों से बचने के फेर में बड़े पेड़ों की टहनियों को काटने की बजाय छोटे पेड़ों को जल्द काट गट्ठर बना उनके निसान तक छुपा देती हैं। इससे वनों की नई पौध पैदा ही नहीं हो रही। पेड़ पौधों का चक्र समाप्त हो गया है। अब आप गांव में अपना नया घर बनाना दूर उनकी मरम्मत तक नहीं कर सकते। आपका न अपने निकट के पत्थरों, न लकड़ी की `दुन्दार´, न `बांस´ और न छत के लिऐ चौडे़ `पाथरों´ पर ही हक रह गया है। पास के श्रोत का पानी भी आप गांव में अपनी मर्जी से नहीं ला सकते। अधिनियम ने गांवों के सामूहिक गौचरों, पनघटों आदि से भी ग्रामीणों का हक समाप्त करने का शडयन्त्र कर दिया। उनके चीड़ के बगेटों से जलने वाले आफर, हल, जुऐ, नहड़, दनेले बनाने की ग्रामीण काष्ठशालाऐं, पहाड़ के तांबे के जैसे परंपरागत कारोबार बन्द हो गऐ। लोग वनों से झाड़ू, रस्सी को `बाबीला´ घास तक अनुमति बिना नहीं ला सकते। यहां तक कि पहाड़ की चिकित्सा व्यवस्था का मजबूत आधार रहे वैद्यों के औशधालय भी जड़ी बूटियों के दोहन पर लगी रोक के कारण बन्द हो गऐ। दूसरी ओर वन, पानी, खनिज के रूप में धरती का सोना बाहर के लोग ले जा रहे हैं, और गांव के असली मालिक देखते ही रह जा रहे हैं। इसके साथ ही गिर्दा वन अधिनियम के नाम पर पहाड़ के विकास को बाधित करने से भी चिन्तित हैं। उनका मानना है कि विकास की राह में अधिनियम के नाम पर जो अवरोध खड़े किऐ जाते हैं उनमें वास्तविक अड़चन की बजाय छल व प्रपंच अधिक होता है। जिस सड़क के निर्माण से राजनीतिक हित न सध रहे हों, वहां अधिनियम का अड़ंगा लगा दिया जाता है।
                                      (गिर्दा से 20 अप्रैल, 2010 को हुए साक्षात्कार के आधार पर)

Saturday, October 23, 2010

जनकवि 'गिर्दा' की दो एक्सक्लूसिव कवितायें

उत्तराखंड के दिवंगत जनकवि गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' (जन्म: 09 सितंबर 1945, निधन: 22 अगस्त 2010) की दो एक्सक्लूसिव कवितायें: 
1. 'ये जूता किसका जूता है'
 यह कविता गिर्दा ने मई 2009 में, केन्द्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम पर दैनिक जागरण के पत्रकार जरनैल सिंह द्वारा जूता मारने से प्रेरित होकर लिखी थी, और 3 मई 2009 को मेरे द्वारा आयोजित 'राष्ट्रीय सहारा' के कार्यक्रम "सही नेता चुने जनता" में पहली बार प्रस्तुत की थी इस कविता में कुमाउनी शब्द "भन्काया" पर गिर्दा का विशेष जोर देकर कहना था कि 'जूता मारा नहीं वरन गुस्से की पराकाष्ठा के साथ मारा है, जरूरी नहीं कि वह सामने वाले को छुवे ही, पर उसका असर होना अवश्यंभावी है ' 

ये जूता किसका जूता है, ये जूता किस पर जूता है ?
ये जूता खाली जूता है, या जूते के ऊपर जूता है ?
जिस पर यह जूता फैंका क्या, उस पर ही क्या यह जूता फेंका है ?
जिसने यह जूता फेंका आखिर, उसने क्यों कर फेंका है ?
क्या नालायक नेताओं की यह साजिश सोची समझी है ?
या नेताओं पर लोगों के गुस्से की यह अभिव्यक्ती है।
जूते की यात्रा लंबी है, जूते का मतलब गहरा है,
आखिर क्यों लोगों का गुस्सा, जूता `भनका´ कर निकला है ?
इन मुद्दों पर सोचो यारो, वर्ना हालत नाजुक होगी,
आगे यह स्थिति लोकतन्त्र के लिए बहुत घातक होगी।

2. `फिर चुनाव की रितु आने वाली है बल'
'संभवतया' जैसा अर्थ देने वाले व कुमाउनी में तकिया कलाम की तरह बोले जाने वाले शब्द 'बल' का ख़ास तरीके से हिंदी में प्रयोग करते हुए यह कविता गिर्दा ने वर्ष 2009 की होलियों में राज्य में हो रहे त्रि-स्तरीय पंचायत चुनावों के दौरान लिखी थी इसे वह ठीक-ठाक कर ही रहे थे कि मैंने इसे मांग लिया, और उन्होंने सहर्ष दे भी दी थी

फिर चुनाव की रितु आने वाली है बल, 
घर घर में तूफान मचाने वाली है बल,
हर दल में `मैं´`मैं´ का दलदल गहराया, 
यह `मैं´ जाने क्या कर जाने वाली है बल, 
सौ बीमारो को एक अनार दिखला, 
हो सके जहां तक मतकाने वाली है बल, 
संसद में नोटों का करतब दिखा चुके, 
अब `रैली´ में `थैली´ आने वाली है बल, 
फिर भी लगता अपने बल चलने वाली, 
कोई सरकार नहीं आने वाली है बल,
मिली जुली सरकारों का फिर स्वांग रचा, 
जाने कब तक ठग खाने वाली है बल, 
पर सब को ही नाच नचाने वाली है बल, 
जाने क्या क्या स्वांग दिखाने वाली है बल, 
फिर चुनाव की रितु आने वाली है बल´