You'll Also Like

Showing posts with label Corruption. Show all posts
Showing posts with label Corruption. Show all posts

Friday, March 7, 2014

यह युग परिवर्तन की भविष्यवाणी के सच होने का समय तो नहीं ?



(मूलतः 2011 में लिखी गई पोस्ट) 

बात कुछ पुराने संदर्भों से शुरू करते हैं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि १८३६ में उनके गुरु आचार्य रामकृष्ण परमहंस के जन्म के साथ ही युग परिवर्तन काल प्रारंभ हो गया है। यह वह दौर था जब देश ७०० वर्षों की मुगलों की गुलामी के बाद अंग्रेजों के अधीन था, और पहले स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल भी नहीं बजा था।
बाद में महर्षि अरविन्द ने प्रतिपादित किया कि युग परिवर्तन का काल, संधि काल कहलाता है और यह करीब १७५ वर्ष का होता है...
पुनः, स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘वह अपने दिव्य चक्षुओं से देख रहे हैं कि या तो संधि काल में भारत को मरना होगा, अन्यथा वह अपने पुराने गौरव् को प्राप्त करेगा.... ’
उन्होंने साफ किया था ‘भारत के मरने का अर्थ होगा, सम्पूर्ण दुनिया से आध्यात्मिकता का सर्वनाश ! लेकिन यह ईश्वर को भी मंजूर नहीं होगा... ऐसे में एक ही संभावना बचती है कि देश अपने पुराने गौरव को प्राप्त करेगा....और यह अवश्यम्भावी है।’
वह आगे बोले थे ‘देश का पुराना गौरव विज्ञान, राज्य सत्ता अथवा धन बल से नहीं वरन आध्यात्मिक सत्ता के बल पर लौटेगा....’
अब १८३६ में युग परिवर्तन के संधि काल की अवधि १७५ वर्ष को जोड़िए. उत्तर आता है २०११. यानी हम 2011 में युग परिवर्तन की दहलीज पर खड़े थे, और इसी दौर से देश में परिवर्तनों के कई सुर मुखर होने लगे थे....
अब आज के दौर में देश में आध्यात्मिकता की बात करें, और बीते कुछ समय से बन रहे हालातों के अतिरेक तक जाकर देखें तो क्या कोई व्यक्ति इस दिशा में आध्यात्मिकता की ध्वजा को आगे बढाते हुआ दिखते हैं, क्या वह बाबा रामदेव या अन्ना हजारे हो सकते हैं.....?
कोई आश्चर्य नहीं, ईश्वर बाबा अथवा अन्ना को युग परिवर्तन का माध्यम बना रहे हों, और युगदृष्टा महर्षि अरविन्द और स्वामी विवेकानंद की बात सही साबित होने जा रही हो....
यह भी जान लें कि आचार्य श्री राम शर्मा सहित फ्रांस के विश्वप्रसिद्ध भविष्यवेत्ता नास्त्रेदमस सहित कई अन्य विद्वानों ने भी इस दौर में ही युग परिवर्तन होने की भविष्यवाणी की हुई है। उन्होंने तो यहाँ तक कहा था कि "दुनिया में तीसरे महायुद्ध की स्थिति सन् 2012 से 2025 के मध्य उत्पन्न हो सकती है। तृतीय विश्वयुद्ध में भारत शांति स्थापक की भूमिका निबाहेगा। सभी देश उसकी सहायता की आतुरता से प्रतीक्षा करेंगे। नास्त्रेदमस ने तीसरे विश्वयुद्ध की जो भविष्यवाणी की है उसी के साथ उसने ऐसे समय एक ऐसे महान राजनेता के जन्म की भविष्यवाणी भी की है, जो दुनिया का मुखिया होगा और विश्व में शांति लाएगा।"
अब 2014 में, जबकि लोक सभा चुनावों की दुंदुभि बज चुकी है। ऐसे में क्या यह मौका युग परिवर्तन की भविष्यवाणी के सच साबित होने का तो नहीं है। देश का बदला मिजाज भी इसका इशारा करता है, पर क्या यह सच होकर रहेगा ? कौन होगा युग परिवर्तक ? क्या मोदी ?

एक रिपोर्ट के अनुसार केंद्र की कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार अब तक चीनी, आईपीएल, राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श सोसाइटी, २-जी स्पेक्ट्रम आदि सहित २,५०,००० करोड़ मतलब २,५०,००, ००,००,००,००० रुपये का घोटाला कर चुकी है. मतलब दो नील ५० खरब रुपये का घोटाला, 

यह अलग बात है कि हमारे (कभी विश्व गुरु रहे हिंदुस्तान के) प्रधानमंत्री मनमोहन जी और देश की सत्ता के ध्रुव सोनिया जी को यह नील..खरब जैसे हिन्दी के शब्द समझ में ही नहीं आते हैं.... 
अतिरेक नहीं कि एक विदेशी है और दूसरा विश्व बैंक का पुराना कारिन्दा.... यानी दोनों ही देश की आत्मा से बहुत दूर …
शायद वह अपनी करनी से देश में क्रांति को रास्ता दे रहे है….
संभव है बाबा रामदेव जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं, और अन्ना हजारे जो जन लोकपाल के मुद्दे पर आन्दोलन का बिगुल बजाये हुए हैं, इस क्रांति के अग्रदूत हों. बाबा रामदेव के आरोप अब सही लगने लगे हैं की गरीब देश कहे जाने वाले (?) हिन्दुस्तानियों के ( जिनमें निस्संदेह नेताओं का हिस्सा ही अधिक है) १०० लाख करोड़ (यानी १०,००,००,००,००,००,००,०००) यानी १० पद्म रुपये (बाबा रामदेव के अनुसार) और एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार ७० लाख करोड़ यानी सात पद्म रुपये भारत से बाहर स्विस और दुनिया ने देश के अन्य देशों के अन्य बैंको में छुपाये है. इस अकूत धन सम्पदा को यदि वापस लाकर देश की एक अरब  से अधिक जनसँख्या में यूँही बाँट दिया जाए तो हर बच्चे-बूढ़े, अमीर-गरीब को ७० लाख से एक करोड़ रुपये तक बंट सकते हैं....  
जान लीजिये की देश की केंद्र सरकार, सभी राज्य सरकारों और सभी निकायों का वर्ष का कुल बजट इस मुकाबले कहीं कम केवल २० लाख करोड़ यानी दो पद्म रुपये यानी विदेशों में जमा धन का पांचवा हिस्सा  है. यानी इस धनराशी से देश का पांच वर्ष का बजट चल सकता है..
लेकिन अपने सत्तासीन नेताओं से यह उम्मीद करनी ही बेमानी है की देश की इस अकूत संपत्ति को वापस लाने के लिए वह इस ओर पहल भी करेंगे…
मालूम हो की संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्विट्जरलैंड के बैंकों में जमा धन वापस लाने के लिए भारत सहित १४० देशों के बीच एक संधि की है. इस संधि पर १२६ देश पुनः सहमति पत्र पर हस्ताक्षर कर चुके हैं, लेकिन भारत इस पर हस्ताक्षर नहीं कर रहा है. 

यह भी पढ़ें: 

Monday, January 28, 2013

राहुल की 'साफगोई' के मायने


Rs 3/kg: Rahul Gandhi Lands in a Potatoe Soup

यपुर में कांग्रेस पार्टी की चिंतन बैठक में चाहे जो और जितना नाटकीय तरीके से हुआ हो, लेकिन काफी कुछ हुआ वही, जिसकी उम्मीद कमोबेश हर कांग्रेसी कर रहा था, और बाकी देशवासियों को भी उसका अंदाजा था। यानी राहुल गांधी को पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी मिलना, और उन्हें उपाध्यक्ष बना भी दिया गया। चिंतन शिविर से यही सबसे बड़ी खबर आई, यानी चिंतिन शिविर आयोजित ही इस लिए किया गया था कि इसके बाद राहुल को पार्टी का नंबर दो यानी सोनिया गांधी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया जाए। 
राहुल को उपाध्यक्ष घोषित कर दिया गया, किंतु यह भी बहुत बड़ी घटना नहीं क्योंकि वह पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रहते हुए भी गांधी-नेहरू परिवार से होने और सोनिया गांधी के पुत्र होने के नाते पार्टी के नंबर दो तथा सोनिया के निर्विवाद तौर पर उत्तराधिकारी ही थे। लेकिन इससे बड़ी बात यह है कि नई जिम्मेदारी देने के साथ यह संदेश साफ कर देने की कोशिश की गई है कि वह आगामी लोक सभा चुनावों में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे। 
गौर कीजिए, राहुल और सोनिया गांधी दोनों इस बात को मानते हैं, इसलिए ‘पार्टी’ की एक बड़ी जिम्मेदारी मिलने पर दोनों के मन में पार्टी से पहले ‘सत्ता’ का खयाल आता है। यह खयाल आते ही सोनिया बेहद डर जाती हैं। वह रात्रि में ही राहुल के कक्ष में जाती हैं, और पुत्र को गले लगाकर रोते हुए याद दिलाती है, सत्ता जहर है। इस जहर ने उनकी ‘आइरन लेडी’ कही जाने वाली दादी और मजबूत पिता को उनसे छीन लिया। पुत्र को भी डर सताता है, उनके साथ बैडमिंटन खेलने वाले दो पुलिस कर्मी कैसे गोलियों से भूनकर उनकी दादी की हत्या कर देते हैं। यहां किस पर विश्वास किया जाए, किस पर नहीं ! कहीं सत्ता उन्हें भी.....! भगवान करे ऐसा कभी ना हो।
बहरहाल, टीवी पर आने वाले एक विज्ञापन की तर्ज पर डर सभी को लगता है, गला सभी का सूखता है। मां-पुत्र भी इसके अपवाद नहीं हो सकते। दोनों बेहद डरे हुए हैं। लेकिन उनके समक्ष क्या मजबूरी है सत्ता रूपी जहर को पीने की। यह जहर उनके परिवार को इतने बड़े घाव पहले ही दे चुका है, तो उसे जानते-बूझते फिर से क्यों गटका जाए। किसी और के लिए हो सकता है, पर गांधी-नेहरू परिवार के लिए तो सत्ता कभी ‘शादी के लड्डू’ की तरह अनजानी वस्तु भी नहीं हो सकती कि उसे बिना खाए पछताने से बेहतर एक बार खा ही लिया जाए। उनके लिए यह स्वाद कोई नया नही। 
फिर क्या मजबूरी है कि राहुल अपने इस डर को पार्टी की भरी चिंतन सभा में उजागर कर देते हैं। क्या केवल ‘साफगोई’ का तमगा हासिल करने के लिए। और यह भी ‘साफ’ किए बगैर कि आखिर उनके समक्ष इतने बड़े डर के बावजूद विषपान करने की इतनी बड़ी मजबूरी क्या है। क्या वह पार्टी की चिंतन बैठक में देशवासियों के दुःखों पर चिंता कर रहे हैं, और देशवासियों के दुःख उनसे देखे नहीं जा रहे और वह उनके दुःखों को दूर करने के लिए उनके हिस्से के ‘विष’ को पीकर ‘शिव’ बनना चाहते हैं। ऐसा ही मौका सोनिया के पास भी तो आया था, और उन्होंने यह विष क्या पी न लिया होता, यदि उन पर ‘विदेशी’ होने का दाग न लग गया होता। 
राहुल जानते हैं, वह नेहरू-गांधी परिवार के चश्मो-चिराग हैं, जिसका नाम अपने नाम से जोड़ देने भर से उन्हें बिना किसी अन्य विशेषता के मां से उत्तराधिकार में कांग्रेस के नंबर दो की कुर्सी के साथ ही आगे पार्टी को सत्ता मिलने पर देश की नंबर एक की कुर्सी भी कमोबेस बिना प्रयास के मिलनी तय है। वह देश की सत्ता के इतने बड़े नाम हैं कि चाहें तो विपक्षी पार्टियों की सत्ता रहते भी लोकहित के जो मर्जी कार्य करवा सकते हैं। फिर क्या मजबूरी है कि वह सत्ता को जहर होने के बावजूद भी पीना ही चाहते हैं।
यहां राहुल के एक वक्तव्य से दो चीजें हो जाती हैं। एक, देश का भावी प्रधानमंत्री होने के बावजूद वह इस कथित ‘साफगोई’ के फेर में स्वयं के डर के साथ अपनी कमजोरी भी प्रकट कर देते हैं। दूसरे, ‘पालने’ से ही सत्ता शीर्ष पर होने के बावजूद स्वयं का जहर जैसी सत्ता से न छूट पा रहा मोह भी उनकी इस ‘साफगोई’ से उजागर हो जाता है।
राहुल की यह ‘साफगोई’ अनायास नहीं है, वरन सोची समझी रणनीति के तहत हैं। वह अभी भी अपना ‘चेहरा’ विकसित करने के दौर में ही हैं। कभी दाड़ी वाले बेफुरसत युवा, कभी यूपी की चुनावी सभा में पर्चा फाड़ते एंग्री यंग मैन तो कभी गरीब की झोपड़ी में रात बिताते गरीब-गुरबा के मसीहा, और अब साफगोई दिखाते, देश के दिलों को छूते नेता। उनकी पार्टी यूपी, गुजरात जैसे राज्य हारते जा रही है। उत्तर पूर्व के तीन राज्यों में भी उनकी पार्टी के लिए जीत की कम ही संभावनाएं हैं। 2014 भागा हुआ आ रहा है। जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, सब्सिडी वापस लिए जाने, डीजल-पेट्रोल को तेल कंपनियों के हाथ में दे दिए जाने, जन लोकपाल, बलात्कार पर कड़े कानून बनाने का शोर मचाए हुए है। वह क्या करें, कौन सा रूप धरें। कौन सा चमत्कार करें कि इस सबके बावजूद सत्ता वापस कदमों में आ जाए। यह बड़ी चिंता है। उनकी भी, कांग्रेस के नेताओं की भी, जिन्हें पता है कि यही नेहरू-गांधी का नाम है जिसके बल पर वह जनता को तमाम अन्य मुद्दे भुलाकर सत्ता हासिल कर सकते हैं। और मां सोनिया की भी, बेटे के लिए दुल्हन भी तलाशें तो पूछते हैं, लड़का करता क्या है। सचमुच बड़ी मजबूरी है। 
लेकिन राहुल को घबराने या जल्दबाजी की जरूरत नहीं, उन्हें समझना होगा, वह अकेले दौड़ने के बाद भी पार्टी के ‘नंबर दो’ बने हैं। इस पद के लिए उनके अलावा कोई और दूसरा प्रत्याशी नहीं है। वह कभी देश के प्रधानमंत्री भी बनेंगे तो ऐसी ही स्थिति में, जहां कोई दूसरा उनका प्रतिद्वंद्वी नहीं होगा या ऐसी स्थितियां बना दी जाएंगी कि कोई दूसरा उनके बराबर मंे खड़ा ही नहीं हो सकता। उन्हें यह प्रमोशन तब मिला है, जबकि उनके नेतृत्व में लड़े राज्यों में भी कांग्रेस लगातार हारती रही है। उनका ‘नेता बनो या नेता चुनो’ का मॉडल युवा कांग्रेस में भी फेल हो चुका है। वह न पार्टी की युवा ब्रिगेड को सुधार पाए हैं, और न ही अपनी पार्टी को अपने दम पर किसी राज्य में ही जीत दिला पाए हैं। 
बावजूद वह जानते हैं, कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के बाद एक वे ही हैं, जिनकी छांव तले कांग्रेसी एक छत के तले खड़े हो सकते हैं। राहुल भले कहें कि उन्हें नहीं पता कि कांग्रेस में आज के कारपोरेट प्रबंधन के दौर में भी (कमोबेस देश की तरह ही) कोई सिस्टम ही नहीं हैं, बावजूद (देश की तरह भगवान भरोसे नहीं) विपक्षी दलों की राजनीतिक अपरिपक्वता और राजनीतिक दांवपेंच में कहीं न ठहरने जैसे अनेक कारणों से वह चुनाव जीत ही जाते हैं। 
तो क्या, यह जल्दबाजी, यह विषपान की मजबूरी इसलिए है कि उन्हें लगने लगा है, गांधी-नेहरू जाति नाम भले कांग्रेस पार्टी में अब भी चलता हो पर देश में यह तिलिस्म लगातार टूटता जा रहा है। युवा कांग्रेस के साथ ही यूपी में ‘बदलाव’ की कोशिश कर वह थक हार चुके हैं। उनके हाथों में युवा कांग्रेस की कमान थी। उन्होंने वहां जमीनी स्तर से ‘नेता बनो या नेता चुनो’ का नारा दिया, लेकिन वह नारा भी नहीं चल पाया। कमोबेश सभी जगह वही युवा आगे आ पाए, जिनके पिता या गुट के नेता मुख्य पार्टी में बड़े ओहदे पर थे। जो भी जीता, उसने नीचे से लेकर ऊपर तक कार्यकर्ताओं को मैनेज किया। अपने सदस्य बनाए, फिर अपने लोगों को जितवाया और आखिर में अपने पक्ष में लॉबिंग की। लेकिन राहुल की सोच के मुताबिक ऐसा कुछ नहीं हुआ कि अनजान चेहरे युकां के प्रदेश अध्यक्ष बन गए।
तो क्या राहुल अपनी इस साफगोई से मात्र पार्टी जनों को भावनात्मक रूप से जोड़े रखने का ही प्रयास नहीं कर रहे हैं। इसके साथ ही कहीं वह कार्यकर्ताओं को स्वयं शीर्ष पर जगह बनाने के बाद परोक्ष तौर पर चेतावनी तो नहीं दे रहे कि यह बहुत खतरनाक जगह है। यहां आने की भी न सोचें। हम बहुत बड़ी कुरबानी देने वाले लोग हैं, इसलिए यहां हैं। 
इससे बेहतर क्या यह न होता कि वह अपना डर दिखाने के बजाए देश की बड़ी समस्याओं, भ्रष्टाचार, महंगाई, सब्सिडी को खत्म करने, जन लोकपाल, पदोन्नति में आरक्षण जैसे विषयों पर बोलने का साहस दिखाते। देश की जनता की नब्ज, उसकी समस्याओं को समझते, और अपनी युवा ऊर्जा का इस्तेमाल पर उनका स्थाई समाधान तलाशते। 
राहुल को जानना होगा उन्हें प्रधानमंत्री बनना है तो उन्हें केवल कांग्रेस पार्टी का नहीं पूरे देश का नेता बनना होगा। और ऐसा केवल भावनात्मक तरीके के बजाए कुछ करके बेहतर किया सकता है। उन्हें इस पद पर आरूढ़ होने से पूर्व कुछ और समय लेना होगा। प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने की जल्दबाजी उनके कॅरियर पर भी भारी पड़ सकती है। इस पद के लिए स्वयं को तैयार भी करना होगा। उन्हें स्वयं में गंभीरता लानी होगी। केवल कांग्रेस के गैर गांधी प्रधानमंत्रियों की तरह ‘मौनी बाबा’ बनने अथवा अपने पिता के ‘हमने देखा है, हम देखेंगे’ की तरह ही ऐसा या वैसा होना चाहिए के बजाय कुछ करके दिखाने का साहस और होंसला स्वयं में विकसित करना होगा। अभी वह युवा हैं, उनकी उम्र भागी नहीं जा रही। निस्संदेह उन्हें एक न एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनना है। 

Monday, August 1, 2011

नैनीताल हाईकोर्ट ने सीबीआई की यूं की बोलती बंद


स्वामी रामदेव के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण द्वारा गिरफ्तारी पर रोक लगाने के लिए दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए नैनीताल उच्च न्यायालय ने 'टॉर्चर' के जरिये लोगों की बंद जुबान खोलने में माहिर सीबीआई की बोलती बंद कर दी। न्यायालय ने अंतरिम आदेश जारी करते हुए बालकृष्ण की गिरफ्तारी पर तो रोक लगाई ही, यह भी बेपर्दा कर दिया कि सीबीआई किसके हाथों की कठपुतली है। 
मालूम हो कि बीती २९ जुलाई को मामले की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति तरुण अग्रवाल की एकल खंडपीठ ने बालकृष्ण को 3 अगस्त को सीबीआई के सम्मुख अपना पक्ष रखने और 5 अगस्त तक अपना पासपोर्ट हाईकोर्ट के रजिस्टार जनरल के यहां जमा करने के भी आदेश दिए हैं साथ ही एक सप्ताह के भीतर अपने साक्ष्य पेश करने को भी कहा है, साथ ही सीबीआई को भी तीन सप्ताह के भीतर काउंटर पेश करने के आदेश दिए हैं। मामले की अगली सुनवाई अब 29 अगस्त को होगी। उच्च न्यायालय में क्या हुआ, इसका लब्बो-लुआब कुछ इस तरह रहा


न्यायमूर्ति ने सीबीआई से पूछा: बालकृष्ण कहाँ रहते हैं ?
सीबीआई : हरिद्वार, उत्तराखंड. 
न्यायालय: उत्तराखंड में कोई सरकार या पुलिस है या नहीं ?
सीबीआई: है....
न्यायालय: तो आप कहाँ से टपक पड़े....यहाँ की सरकार से शिकायत क्यों नहीं की ?  संवैधानिक मर्यादाओं/बाध्यताओं का पालन करते हुए सहयोग क्यों नहीं लिया गया .....(हजार बार मांग करने, धरना-प्रदर्शन करने पर भी सीबीआई की जांच नहीं होती है...)
सीबीआई: चुप.... 
न्यायालय: पासपोर्ट एक्ट के Section-10 के तहत केंद्र से कानूनी कार्रवाई की अनुमति क्यों नहीं ली...
सीबीआई: चुप...
सीबीआई: बालकृष्ण नेपाली नागरिक है...
न्यायालय: तो क्या इनका दादूबाग हरिद्वार में जन्म का सर्टिफिकेट फर्जी है ? है तो Registration of Birth Certificate Act के तहत कार्रवाई क्यों नहीं की ?
सीबीआई: लेकिन बालकृष्ण विदेशी नागरिक है, इसलिए उसे भारत का पासपोर्ट नहीं दिया जा सकता...
न्यायालय: लेकिन इसी उत्तराखंड उच्च न्यायालय के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश केन्या के निवासी थे, उनके पास भी तो भारत का पासपोर्ट है....
सीबीआई: चुप....
न्यायालय: इनका वोटर लिस्ट में भी नाम है, गैस कनेक्शन है, उसकी शिकायत क्यों नहीं की ?
न्यायालय: पासपोर्ट १९९७ में बना और २००७ में रिन्यू हुआ, क्या तब जन्म प्रमाण पत्र  की जांच नहीं हुयी ?
सीबीआई: चुप...
न्यायालय: इनके नेपाली नागरिक होने का कोई दस्तावेज है ?
सीबीआई: पहले चुप...फिर...नेपाली मूल का होने का दस्तावेज नहीं हैं लेकिन एफआईआर में आरोप लगाए गए हैं।
न्यायालय: तो क्या, आरोपों/ कयासों पर किसी के खिलाफ कार्रवाई करेंगे...आप तो देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी हैं, बिना जांच के कार्रवाई करेंगे ? ... जाइए, तीन सप्ताह में दस्तावेज लाइए...

(यहां उल्लेखनीय है कि आचार्य प्रमोद कृष्णम् नाम के एक अनाम व्यक्ति ने सीधे राष्ट्रपति को भेजे शिकायती पत्र में बालकृष्ण के आयु व शिक्षा प्रमाण पत्रों को फर्जी बताते हुए जांच की मांग की थी। राष्ट्रपति भवन से मामले को प्रधानमंत्री कार्यालय को संदर्भित किया गया। प्रधानमंत्री ने तुरंत मामला केन्द्रीय गोपन विभाग को भेजा और गोपन विभाग ने बिना कोई देरी किये व राज्य सरकार से परामर्श किये बिना मामले की जांच सीबीआई को सौंपने की सिफारिस कर दी। सीबीआई ने प्राथमिक जांच के आधार पर ही बालकृष्ण के खिलाफ आपराधिक षडयंत्र की धारा १२०बी ,धोखाधड़ी की 420 व फर्जी कागजातों के लिए I .P.C . की संबंधित दर्जन भर धाराओं में मामला दर्ज कर दिया। फर्जी पासपोर्ट को लेकर भी एफआईआर दर्ज की गई। ) 
सीबीआई बालकृष्ण को पूछताछ करने के लिए बुलाकर गिरफ्तार करने की कोशिश में थी, जिसके खिलाफ बालकृष्ण द्वारा उच्च न्यायालय में दायर याचिका में कहा था कि मामला राजनीति से प्रेरित है, बाबा रामदेव  के सहयोगी होने के चलते  सीबीआई उन्हें झूठे मुकदमें में गिरफ्तार करना चाहती है।
यह भी पढ़ें:
1.कांग्रेस के नाम खुला पत्र: कांग्रेसी आन्दोलन क्या जानें....
2. यह युग परिवर्तन की भविष्यवाणी के सच होने का समय तो नहीं ?
3. अमेरिका, विश्व बैंक, प्रधानमंत्री जी और ग्रेडिंग प्रणाली
4. जनकवि 'गिर्दा' की दो एक्सक्लूसिव कवितायें
5. कौन हैं अन्ना हजारे ? क्या है जन लोकपाल विधेयक ?
6. नीरो सरकार जाये, जनता जनार्दन आती है

Monday, June 6, 2011

कांग्रेस के नाम खुला पत्र: कांग्रेसी आन्दोलन क्या जानें....

देश की आजादी के बाद अधिकतम समय सत्ता में  रहने वाले कांग्रेस पार्टी के लोग आन्दोलन क्या जानें, उन्होंने  तो हमेशा आन्दोलन को कुचलना सीखा है, उन्हें कभी आन्दोलन करना पड़े तो तब देखिये इनकी हालत, अभी भट्टा-परसौल के मामले में राहुल गाँधी और मुंह में कोई (?) बुरी चीज लेकर बोलने वाले उनके बडबोले चापलूस महासचिव दिग्विजय सिंह की नौटंकी को जनता अभी भूली नहीं है. 

कांग्रेसी तो गांधी जी के सत्याग्रह को भी भूल गए हैं, कोई इनसे पूछे कि क्या राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी कभी निर्धारित संख्या  की इजाजत लेकर किसी स्थान पर सत्याग्रह  करते थे....क्या उन्हें कभी अंग्रेजों ने इसी तरह एक रात भी आन्दोलन पर नहीं टिकने देने के लिए इस प्रकार का दुष्चक्र (वह भी आधी रात्रि  को) रचा....(या कि तब अंग्रेजों के राज में रात्रि ही नहीं होती थी, और अब आपके राज में दिन ही नहीं होता ?) ?????


हमें याद है, आपने ऐसा ही कुछ 2 अक्टूबर 1994 को (मुजफ्फरनगर-मुरादाबाद से अपमानित और बचकर) दिल्ली में लालकिले के पीछे वाले मैदान में पहुंचे उत्तराखंडियों के साथ भी यही किया था, जहाँ आप के ही एक व्यक्ति (उसकी व उसके आका की पहचान सबको पता है) ने पहले भीड़ की और से एक पत्थर उछाला और फिर दिल्ली पुलिस ने लाठियां भांज कर भीड़ को तितर-बितर कर दिया...
और 23 -24 सितम्बर 2006 को नैनीताल में आयोजित कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के सम्मलेन के पहले (इस सम्मलेन में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी भी शामिल हुई थीं) कई दिनों से आमरण अनशन पर बैठे राज्य आंदोलकारियों को आधी रात को इसी तरह मल्लीताल पन्त पार्क से उठवा दिया था...तत्कालीन कुमाऊँ आयुक्त ने आन्दोलनकारियों को लिखित आश्वाशन दिए थे, जिन पर आज तक अमल नहीं हुआ है.....


.....लेकिन इसके उलट बीते मई माह में ही आपकी पार्टी ने अध्यक्ष के नेतृत्व में यहाँ उत्तराखंड में "सत्याग्रह" आन्दोलन किया था, और उसके 'फ्लॉप' होने का दोष आपकी ही पार्टी के सांसद प्रदीप  टम्टा और विधायक रणजीत रावत ने 'नाच न जाने आँगन टेड़ा' की तर्ज पर जनता के शिर यह कह कर फोड़ने की कोशिश की थी की इन दिनों खेती और शादी-ब्याह जैसे काम-काज होने के कारण भीड़ नहीं जुटी. सत्याग्रह का समय तय करने में रणनीतिक चूक हुई,  इसके बाद दिल्ली में रामदेव पर बरसने वाले टम्टा को इस बात का जवाब भी देना चाहिए की उनका बरसना इस कारण तो नहीं था कि  इन्हीं दिनों रामदेव ने इतनी भीड़ कैसे जुटा ली....

आपने तो अब उसी लोकतंत्र को भीड़तंत्र कहना शुरू कर दिया है, जिसके बल पर आप यहाँ हैं........ शायद आपकी और इनकी (अन्ना व रामदेव की) भीड़ में यह फर्क हो गया है कि आप की भीड़ नोट लेकर इकठ्ठा होती और वोट देती है, और उनकी स्वतः स्फूर्त आती है.
लोकतंत्र का अर्थ गांधी परिवार की सत्ता का राजशाही की तरह अनवरत चलते जाना नहीं है, वरन लोकतंत्र में कोइ भी सत्तानशीं हो सकता है, एक साधु भी....सुदामा भी, तो अन्ना या रामदेव क्यूँ नहीं ?? चाणक्य के इस देश और "यदा-यदा ही धर्मस्यः, ग्लानिर भवति भारतः.... " का सन्देश देने वाली गीता की कसम खाने वाले भारतवासियों में यह विश्वास भी पक्का है की जब हद हो जायेगी, युग परिवर्तन होगा और लगता हैं कि युग परिवर्तन की दुन्दुभी बज चुकी है. क्या नहीं ????


शायद नहीं....शायद हमें देश का धन लूटकर विदेशों में जमा करने वाले लुटेरों-डकैतों की आदत पड़ गयी है, इसलिए साधु-संतों को हमारे यहाँ राजनीति करने का अधिकार नहीं... शायद वो जमाने बीत गये जब देश को चाणक्य जैसे राजनीतिज्ञ चलाते थे.....

सच कहें तो कांग्रेस को विरोध गंवारा ही नहीं है.....आप उनके (कांग्रेस के) खिलाफ आन्दोलन नहीं कर सकते, खुद को नुक्सान पहुंचाते हुए राष्ट्रपिता की राह पर चलकर "सत्याग्रह" नहीं कर सकते....जूता उछाल या दिखा नहीं सकते...कांग्रेस, आप खुद ही बता दें, कोई आपका विरोध करे तो  कैसे  करे ?....

या कि जो भी आपका विरोध करेगा उसे आप कुचल देंगे, चाहे वह अन्ना  हो या  रामदेव, या फिर कोई भी और...

कोई आपको छुए भी तो आप फट  पड़ेंगे, और कोई फट पड़े तो आप उसका मजाक और मखौल उड़ायेंगे...
खैर आप कुछ भी अलग नहीं कर रहे हैं, उन सत्ता के मद में चूर लोगों से, जो हिटलरशाही की राह पर होते हैं....

कितनी अजीब बात है कि बीती छह  जून 2011 को अंग्रेजों के देश (उन्हीं अंग्रेजों, जिन्हें भारतीयों ने सत्याग्रह के जरिये ही देश से भगाया था)  इंग्लैंड में बाबा रामदेव के समर्थन  में (सही मायने में आपके भ्रष्टाचार के खिलाफ) हजारों लोगों ने जुलूस निकाला और उन्हें किसी ने नहीं रोका, और यहाँ आप (काले अंग्रेजों) ने  देश में चार जून की (काले शनिवार की) रात क्या किया ....

उलटे आपने अच्छा मौका ढूढ़ लिया, जो भी आपका विरोध करे, उसे आप फासिस्ट...आरएसएस का मुखौटा कह दें... रामदेव को तो कह दें, चल जाएगा..अन्ना को भी ???

यानी समाजवादियों...बसपाइयों...राजद..तेलगू देशम, माकपा, भाकपा...... जो भी रामदेव का समर्थन कर रहा है वह आरएसएस का मुखौटा हो गया..... यानी आप कह रहे हैं कि आपका विरोध कर रहा पूरा देश आरएसएस का मुखौटा हो गया है.... ऐसे में कहीं आप यह तो नहीं कह रहे हैं कि पूरा  देश आरएसएस के रंग में रंगता जा रहा है.......


लेकिन शायद ऐसा नहीं है...सच यह है कि आज देश (यहाँ तक की आपस में धुर विरोधी दक्षिण और बाम पंथ भी एक साथ आकर) आपके भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट हो रहा है... इस बात को जल्दी समझ जाइए...वरना बहुत देर हो जायेगी....

यह भी पढ़ें:


Friday, April 8, 2011

कौन हैं अन्ना हजारे ? क्या है जन लोकपाल विधेयक ?

देश में आजादी के बाद से ही लगातार सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते जा रहे भ्रष्टाचार के हद से अधिक गुजर जाने के बाद युगपरिवर्तन की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है ऐसे में बाबा रामदेव के बाद किसी धूमकेतु की तरह अचानक किशन बाबूराव हज़ारे  (अन्ना हजारे) परिदृश्य में अवतरित हुए हैदिल्ली में पहले चार अप्रेल से जंतर-मंतर पर पांच दिन और अब १६ अगस्त से रामलीला मैदान में "जन लोकपाल विधेयक" की मांग पर अनशन पर बैठे अन्ना की पहल पर ही पूर्व में देश में आज के दौर का सर्वाधिक चर्चित "सूचना का अधिकार-2005" आया था . आइये अन्ना और उनके द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल विधेयक के बारे में कुछ और जानते हैं। 
अन्ना का जन्म 15 जून 1938 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के रालेगाँव सिद्धी नाम के गाँव में एक कृषक परिवार में हुआ था। परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण अन्ना पढ़ नहीं पाए। 1963 में भारत-चीन युद्ध के दौरान वह भारतीय सेना में एक ड्राइवर के रूप में शामिल हुए। कहते हैं की 1965 में खेमकरण सेक्टर में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में भारतीय सैनिकों के शहीद होते देख वे बड़े व्यथित हुए, इसी दौरान उन्होंने स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी व आचार्य विनोबा भावे के बारे में अध्ययन किया और बेहद प्रभावित हुए।  1975 में वह सेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर अपने गाँव लौट आये और वहां ग्रामीणों को नहर और बाँध बनाकर पानी का संग्रह करने की प्रेरणा दी उन्होंने साक्षरता कार्यक्रम भी चलाये, जिनसे वह देश भर में मशहूर हुए। उन्होंने पहला आन्दोलन महाराष्ट्र के वन विभाग के खिलाफ किया व सफल रहे। पूर्व में वह 10 बार आमरण अनशन कर चुके हैं। आगे 1991 में उन्होंने "भ्रष्टाचार विरोधी जन आन्दोलन" का गठन किया, 97 में सूचना का अधिकार माँगते हुए आन्दोलन चलाया, जिस पर पहले महाराष्ट्र और फिर 2005 में केंद्र सरकार को "सूचना का अधिकार" लाना पढ़ा। 

- इस कानून के तहत केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा।
- यह संस्था चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायलय की तरह सरकार से स्वतंत्र होगी।
- किसी भी मुकदमे की जांच एक साल के भीतर पूरी होगी। ट्रायल अगले एक साल में पूरा होगा।
- भ्रष्ट नेता, अधिकारी या न्यायाधीश को 2 साल के भीतर जेल भेजा जाएगा।
- भ्रष्टाचार की वजह से सरकार को जो नुकसान हुआ है अपराध साबित होने पर उसे दोषी से वसूला जाएगा।
- अगर किसी नागरिक का काम तय समय में नहीं होता तो लोकपाल दोषी अफसर पर जुर्माना लगाएगा जो शिकायतकर्ता को मुआवजे के तौर पर मिलेगा।
- लोकपाल के सदस्यों का चयन न्यायाधीश, नागरिक और संवैधानिक संस्थाएं मिलकर करेंगी। नेताओं का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।
- लोकपाल/ लोक आयुक्तों का काम पूरी तरह पारदर्शी होगा। लोकपाल के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत आने पर उसकी जांच 2 महीने में पूरी कर उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा।
- सीवीसी, विजिलेंस विभाग और सीबीआई के ऐंटी- करप्शन विभाग का लोकपाल में विलय हो जाएगा।
- लोकपाल को किसी न्यायाधीश, नेता या अफसर के खिलाफ जांच करने और मुकदमा चलाने के लिए पूरी शक्ति और व्यवस्था होगी।
-यह बिल जस्टिस संतोष हेगड़े, प्रशांत भूषण, सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल ने जनता के साथ विचार विमर्श के बाद तैयार किया है।
लोकपाल का विस्तृत ड्राफ्ट देखने को यहाँ क्लिक करें.
यहाँ  क्लिक करके भी देख सकते हैं. 

संसद में कई बार पेश हो चुका है लोकपाल बिल

पूर्व में लोकपाल बिल कई बार संसद में पेश किया जा चका है, लेकिन कभी पास नहीं हो सका। 2004 में भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वादा किया था कि जल्द ही लोकपाल बिल संसद में पेश किया जाएगा, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात रहा और आखिरकार अन्ना हजारे को आमरण अनशन पर बैठना पड़ा।
भारत सरकार ने भ्रष्टाचार से निपटने और इस पर कड़ी निगरानी रखने के लिए 1969 में लोकपाल विधेयक नाम से एक बिल पारित किया। यह बिल लोकसभा में तो पारित हो गया लेकिन राज्यसभा में पास नहीं हो पाया। लोकपाल बिल 1971, 1977, 1985 1989, 1996,1998, 2001 और 2005 में राज्य सभा में रखा गया लेकिन पास नहीं हो सका। पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल के कार्यकाल में एक बार 1996 और अटल बिहारी वाजपेयी के समय दो बार 1998 और 2001 में इसे लोकसभा में लाया गया। लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।
क्या सभी समस्याओं का हल साबित होगा लोकपाल बिल ? 
अन्ना हजारे की नजर में भ्रष्टाचार एक कानूनी समस्या है। वे इसके लिए मनमाफिक जन लोकपाल बिल चाहते हैं। अब जबकि सरकार ने अन्ना की जन लोकपाल विधेयक की मांग मान ली है, इसके बावजूद सवाल उठता है की क्या संसद इसी रूप में इस विधेयक को पारित कर देगी, जबकी उसी के सदस्यों और इसका ड्राफ्ट बनाने वाले नौकरशाहों पर ही इसकी चोट पड़ने वाली है ?  यदि विधेयक बन ही गया, तो क्या इससे भ्रष्टाचार समाप्त अथवा कम हो पाएगा ? क्या लोकपाल को कानूनी शक्तियाँ दे दी जाएंगी तो भ्रष्टाचार रूक जाएगा ? क्या भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जन लोकपाल बिल काफी है ? हमारे यहाँ तो कितना भी अच्छा पटाखा आये, जल्द फुस्स हो जाता है. बड़े-बड़े चमकीले तारे भी जल्द ही टिमटिमा कर बुझ जाते हैं.  किसी भी कानून के आने के साथ ही उसमे छेद बना लिए जाते हैं, ऐसे में हजारे और जन लोकपाल विधेयक के सामने इन सबसे अलग होने की सबसे बड़ी चुनौती होगी। याद रखना होगा की अन्ना के आन्दोलन को मिला जनता का अभूतपूर्व समर्थन "जन लोकपाल बिल " से अधिक केंद्र सरकार के भ्रष्टाचार की अटूट श्रंखला, और हर स्तर पर उसे (जनता को) झेलने पढ़ रहे इसके दंश की प्रतिक्रिया था। बिल से भ्रष्टाचार ख़तम होगा या नहीं, यह तो तय नहीं, पर इतना भरोसे से कहा जा सकता है के अन्ना के आन्दोलन को समर्थन देने वाले लोग ही यदि स्वयं को भ्रष्टाचार से अलग कर लें तो देश का काफी भला जरूर हो जाएगा


"भ्रष्‍टाचार का महारोग देश की सेहत को नुकसान पहुंचा रहा है। राजधानी से गांव तक और संसद से पंचायत तक सभी क्षेत्रों में भ्रष्‍टाचार ने अपनी जड़ें मजबूत कर ली है। आम आदमी परेशान है। हमारे समक्ष नैतिक बल से संपन्‍न ऐसे आदर्श की कमी है जो भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध जन-जागरण कर सकें, ऐसे में 72 साल के वयोवृद्ध समाजसेवी अन्‍ना हजारे ने इस मुद्दे पर सरकार को ललकारा है। लोकपाल बिल 2010 अभी संसद के पास विचाराधीन है। इस बिल में प्रधानमंत्री और दूसरे मंत्रियों के खिलाफ शिकायत करने का प्रावधान है। श्री हजारे के अनुसार बिल का वर्तमान ड्राफ्ट प्रभावहीन है और उन्होंने एक वैकल्पिक ड्राफ्ट सुझाया है। आइए, हम भी आर्थिक शुचिता के पक्षधर बनें, इस मसले पर जनजागरण करें और भ्रष्‍टाचारमुक्‍त समाज व शासन सुनिश्चित करने का संकल्‍प लें।"
यदि आप भी अन्ना की मुहिम में जुड़ना चाहते हैं तो यहाँ क्लिक करें. 




यह भी पढ़ें:

Sunday, October 10, 2010

अमेरिका, विश्व बैंक, प्रधानमंत्री जी और ग्रेडिंग प्रणाली


हाल में आयी एक खबर में कहा गया है 'विश्व बैंक ने भारत को अधिक से अधिक बच्चों को शिक्षा सुविधाएं मुहैया कराने के लिए एक अरब पांच करोड़ डॉलर यानी 5,250 करोड़ रुपये से अधिक के ऋण की मंजूरी दे दी है। यह ऋण सरकार द्वारा चलाए जा रहे सर्व शिक्षा अभियान की सहायता के लिए दिया जाएगा।' यह शिक्षा के क्षेत्र में विश्व बैंक का अब तक का सबसे बड़ा निवेश तो है ही, साथ ही यह कार्यक्रम विश्व में अपनी तरह का सबसे बड़ा कार्यक्रम है। 


इसके इतर दूसरी ओर  इससे भी बड़ी परन्तु दब गयी खबर यह है कि भारत सरकार देश भर के स्कूलों में परंपरागत आंकिक परीक्षा प्रणाली को ख़त्म करना चाहती है, वरन देश के कई राज्यों की मनाही के बावजूद सी.बी.एस.ई. में इस की जगह 'ग्रेडिंग प्रणाली' लागू कर दी गयी है 

तीसरे कोण पर जाएँ तो अमेरिका भारतीय पेशेवरों से परेशान है. कुछ दशक पहले नौकरी करने अमेरिका गए भारतीय अब वहां नौकरियां देने लगे हैं अमेरिका की जनसँख्या के महज एक फीसद से कुछ अधिक भारतीयों ने अमेरिका की 'सिलिकोन सिटी' के 15 फीसद से अधिक हिस्सेदारी अपने नाम कर ली हैउसे भारतीय युवाओं की दुनिया की सर्वश्रेष्ठ ऊर्जा तो चाहिए, पर नौकरों के रूप में, नौकरी देने वाले बुद्धिमानों के रूप में नहीं

आश्चर्य नहीं इस स्थिति के उपचार को अमेरिका ने अपने यहाँ आने भारतीयों के लिए H 1 B व L1 बीजा के शुल्क में इतनी बढ़ोत्तरी कर ली है अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की गत दिनों हुई भारत यात्रा में भी यह मुख्य मुद्दा रहा 

अब एक और कोण, 1991 में भारत के रिजर्व बैंक में विदेशी मुद्रा भण्डार इस हद तक कम हो जाने दिया गया कि सरकार दो सप्ताह के आयात के बिल चुकाने में भी सक्षम नहीं थी। यही मौका था जब अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान संकट मोचक का छद्म वेश धारण करके सामने आये । देश आर्थिक संकट से तो जूझ रहा था पर विश्व बैंक और अन्तराष्ट्रीय मुद्राकोष को पता था कि भारत कंगाल नहीं हुआ है, और वह इस स्थिति का फायदा उठा सकते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के सुझाव पर भारतीय रिजर्व बैंक ने अपने भण्डार में रखा हुआ 48 टन सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा एकत्र की।  उदारवाद के मोहपाश में बंधे तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी सरकार और अन्तराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे। यही वह समय था जब सरकार हर सलाह के लिये विश्व बैंक - आईएमएफ की ओर ताक रही थी। हर नीति और भविष्य के विकास की रूपरेखा वाशिंगटन में तैयार होने लगी थी। याद कर लें, वाशिंगटन केवल अमेरिका की राजधानी नहीं है बल्कि यह विश्व बैंक का मुख्यालय भी है।  

अब वापस इस तथ्य को साथ लेकर लौटते हैं कि आज "1991 के तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह" भारत के प्रधानमंत्री हैं उन्होंने देश भर में ग्रेडिंग प्रणाली लागू करने का खाका खींच लिया है, वरन सी.बी.एस.ई. में (निदेशक विनीत जोशी की काफी हद तक अनिच्छा के बावजूद) इसे लागू भी कर दिया है इसके पीछे कारण प्रचारित किया जा रहा है कि आंकिक परीक्षा प्रणाली में बच्चों पर काफी मानसिक दबाव व तनाव रहता है, जिस कारण हर वर्ष कई बच्चे आत्महत्या तक कर बैठते हैं (यह नजर अंदाज करते हुए कि "survival of the fittest" का अंग्रेज़ी सिद्धांत भी कहता है कि पीढ़ियों को बेहतर बनाने के लिए कमजोर अंगों का टूटकर गिर जाना ही बेहतर होता है जो खुद को युवा कहने वाले जीवन की प्रारम्भिक छोटी-मोटी परीक्षाओं से घबराकर श्रृष्टि के सबसे बड़े उपहार "जीवन की डोर" को तोड़ने से गुरेज नहीं करते, उन्हें बचाने के लिए क्या आने वाली मजबूत पीढ़ियों की कुर्बानी दी जानी चाहिए

यह भी कहा जाता है कि फ़्रांस के एक अखबार ने चुनाव से पहले ही वर्ष २००० में सिंह के देश का अगला वित्त मंत्री बनाने की भविष्यवाणी कर दी थी....(यानी जिस दल की भी सरकार बनती, 'मनमोहन' नाम के मोहरे को अमेरिका और विश्व बैंक भारत का वित्त मंत्री बना देते)

कोई आश्चर्य नहीं, यहाँ "दो और लो (Give and Take)" के बहुत सामान्य से नियम का ही पालन किया जा रहा है  अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान कर्ज एवं अनुदान दे रहे हैं, इसलिये स्वाभाविक है कि शर्ते भी उन्हीं की चलेंगी। लिहाजा हमारे प्रधानमंत्री जी पर अमेरिका का भारी दबाव है, "तुम्हारी (दुनियां की सबसे बड़ी बौद्धिक शक्ति वाली) युवा ब्रिगेड ने हमारे लोगों के लिए बेरोजगारी की  समस्या खड़ी कर दी है, विश्व बेंक के 1.05 अरब डॉलर पकड़ो, और इन्हें यहाँ आने से रोको, भेजो भी तो हमारे इशारों पर काम करने वाले कामगार....हमारी छाती पर मूंग दलने वाले होशियार नहीं...समझे....", और प्रधानमंत्री जी ठीक सोनिया जी के सामने शिर झुकाने की अभ्यस्त मुद्रा में 'यस सर' कहते है, और विश्व बैंक के दबाव में ग्रेडिंग प्रणाली लागू कर रहे हैं

उनके इस कदम से देश के युवाओं में बचपन से एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिद्वंद्विता की भावना और "self motivation" की प्रेरणा दम तोड़ने जा रही है देश की आने वाली पीढियां पंगु होने जा रही हैं अब उन्हें कक्षा में प्रथम आने, अधिक प्रतिशतता के अंक लाने और यहाँ तक कि पास होने की भी कोई चिंता नहीं रही शिक्षकों के हाथ से छड़ी पहले ही छीन चुकी सरकार ने अब अभिभावकों के लिए भी गुंजाइस नहीं छोडी कि वह बच्चों को न पढ़ने, पास न होने या अच्छी परसेंटेज न आने पर डपटें भी

Sunday, September 26, 2010

`पहाड़´ टूट गया, पर नहीं टूटे तो `नेता जी´


 प्रभावितों की मदद को जहां हर कोई हरसम्भव मदद कर रहा था, वहीं `नेता जी´ सिर्फ आश्वासन भर दे लौटे
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां, इसमें बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं। कभी मात्र नैनीताल के लिऐ काला दिवस रहा 18 सितम्बर (1880 में 151 लोगों को ज़िन्दा दफन किया था) जब इस वर्ष पूरे प्रदेश के लिए काला दिवस साबित हो रहा था। समूचा `पहाड़´ और पहाड़ के लोग `टूट´ चुके थे। आसमानी बारिश से निकला सैलाब आंखों से बहते `नीर´ से छोटा लगने लगा था। हर कोई प्रभावितों के लिए अपनी ओर से हर सम्भव मदद करने में जुटा हुआ था, वहीं एक ऐसा वर्ग भी था, जो अपनी फितरत बदलने से बाज नहीं आया। चुनावों की तरह भीख मांगने की अपनी आदत न बदल सका, और उसने कुछ दिया जो `आश्वासन´। 
1880 की ही तरह एक बुरे संयोग के साथ इस वर्ष भी एक और `काले शनिवार´ ने नैनीताल जनपद के ओखलकाण्डा विकास खण्ड अन्तर्गत रमैला गांव के डुंगर सिंह रमौला से घर की तीन बेटियों के रूप में `लक्ष्मी´ छीन लीं। एक मां-पिता पर टूटे इस पहाड़ पर मानो पहाड़ भी बिलख उठा जिला प्रशासन, गांव वालों, जिससे जो हो पड़ा, डुंगर की मदद की। लेकिन ऐसे में भी एक व्यक्ति उसे केवल आश्वासन का झुनझुना थमा कर चला आया। स्वयं समझ लीजिऐ, जी हां, वह एक नेता था। और केवल एक नेता ही नहीं, क्षेत्र का केवल विधायक भी नहीं, अभी हाल ही में अपना कद बड़ा कर लौटा प्रदेश का काबीना मंत्री था।
बीती 18 सितम्बर की सुबह सवा नौ बजे केवल 20 सेकेण्ड के अन्तराल में ओखलकाण्डा ब्लाक में मोरनौला-मझौला मोटर मार्ग का मलवा बहता हुआ नाले के रूप में करीब डेढ़ किमी नीचे रमैला गांव के लिए जल प्रलय लेकर आया। गांव से बाहर गया डुंगर सिंह रमौला तो बच गया, पर उसकी पत्नी हंसी घर पर आते सैलाब को जब तक समझ पाती, उसकी तीन बेटियां पूनम (आठ), बबीता (पांच) व दुधमुंही आठ माह की दीपा व दो वर्षीय बेटा दीपक सैलाब की चपेट में आ गईं। चीख सुनकर पड़ोस का नारायण सिंह बच्चियों को बचाने अपनी जान की परवाह किऐ बिना नाले में कूद पड़ा। हाथ में आ सके दीपक को उसने झाड़ियों की ओर फेंककर बमुश्किल बचाया, लेकिन बच्चियां बहती चली गईं। नारायण सिंह करीब 30 मीटर और हंसी भी दूर तलक बही। तीनों बच्चियों के शरीरों को आज तक नहीं खोजा जा सका है, जबकि उसी दिन बहे गांव के ही पूर्व प्रधान 83 वर्षीय बुजुर्ग देव सिंह का शव दो दिन पूर्व बरामद हो सका। इस दुर्घटना के दूसरे दिन डीएम शैलेश बगौली के निर्देशों पर एसडीएम के नेतृत्व में प्रशासनिक दल मौके पर पहुंचा, और शासकीय प्राविधानों पर मानवीय संवेदनाओं को ऊपर रखते हुऐ बच्चियों की मृत्यु मानते हुऐ परिजनों को राहत राशि दे दी। नियमों से बाहर जाकर दो कुंटल चावल व एक कुंटल आटा सहित अन्य खाद्य सामग्री भी बेघर हुऐ डुंगर को दी गई। गांव के अन्य प्रभावितों लाल सिंह व दीवान सिंह रमैला को भी राहत राशि दी गई, लेकिन उन्होंने स्वयं को समर्थ बताते हुऐ अपने हिस्से की राहत राशि भी डुंगर सिंह को दे दी। हल्द्वानी के नायब तहसीलदार भुवन कफिल्टया ने भी तीन-तीन बोरे आटा व चावल अपनी ओर से देकर प्रभावित परिवारों की मदद की। और लोगों ने भी आसरे और जीवन को वापस पटरी पर लाने में मदद की। 
यह तो हुई प्रशासनिक व व्यक्तिगत मदद की बात, अब बात नेताओं की। घटना के करीब एक सप्ताह बाद पूर्व विधायक व उत्तराखंड क्रांति दल के पूर्व केन्द्रीय अध्यक्ष डा. नारायण सिंह जन्तवाल मौके पर पहुंचे और प्रभावित परिवार को संवेदना व्यक्त कर और कुछ फोटो लेकर मदद का आश्वासन देते हुऐ लौट आऐ। वहीं आज घटना के नौ दिन बाद काबीना मंत्री गोविन्द सिंह बिष्ट मौके पर पहुंचे तो रमौला निवासी व शिक्षा विभाग कर्मी दीवान सिंह रमौला के अनुसार केवल आश्वासन भर देकर लौट आऐ। वहीं दौरे में साथ चल रहे भाजपा नेता प्रदीप बिष्ट ने भी यह स्वीकारते हुऐ बताया कि आज ही उन्होंने अक्सौड़ा पदमपुरी में अपनी पत्नी व माता को खोने वाले हरेन्द्र सिंह को घर व जमीन की सुरक्षा के लिए विधायक निधि से मदद का आश्वासन दिया। ऐसे में मंत्री जी का दो समान दुर्घटनाओं में विभेद समझ से परे है। (बताया जा रहा है कि हरेन्द्र सिंह उनकी पार्टी के कार्यकर्ता हैं, जबकि डुंगर सिंह नहीं हैं.) 
ऐसा हो भी क्यों नहीं। मंत्री जी के नेतृत्व और प्रदेश के अन्य नेताओं की फितरत भी देख लिऐ। राज्य का सत्तारूढ व विपक्षी दल दोनों इस दैवीय आपदा में अपने-अपने `मिशन 2012´ देख रहे हैं। 5,574 करोड़ की वर्षीक योजना वाले राज्य के मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल `निशंक´ केन्द्र से आपदा की क्षति का आंकड़ा 21 हजार करोड़ तक खींच चुके हैं। कांग्रेस के स्वयं को `भावी मुख्यमंत्री' मान रहे केन्द्रीय मंत्री हरीश रावत केन्द्र से मिले `500 करोड़´ को ही `केन्द्र की बहुत बड़ी कृपा´ साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानो केन्द्र `जनता की जेब से भरे खजाने´ से इतर अपनी 'गाँठ' से कुछ दे रहा हो, और राज्य सरकार मानो जनता के दु:ख दर्दों के प्रति इतनी ही सजग हो गई हो। बहरहाल, इन दावों की असलियत तब सामने आती है, जब आपदा के तुरन्त बाद अपने क्षेत्रों में जनता के दु:ख-दर्दों में हाथ बंटाने के बजाय हैलीकॉप्टर से राजधानी उड़े राज्य के अन्य विधायकों के साथ नैनीताल विधायक खड़क सिंह बोहरा हफ्ते भर बाद लौटकर विभिन्न सामाजिक संगठनों, व्यापारिक संगठनों और यहां तक कि छात्र संघ के आगे मदद के लिए हाथ पसारते दिखाई दिऐ।
आपदा की कुछ और फोटो देखें: http://www.facebook.com/album.php?aid=36832&id=100000067377967