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Friday, April 30, 2010

उत्तराखण्ड में 1400 वर्ष पुराना है श्रमिक आन्दोलनों का इतिहास

नवीन जोशी, नैनीताल। आन्दोलनों की परिणति स्वरुप ही बने उत्तराखण्ड राज्य में दिन-प्रतिदिन होने वाले कर्मचारी आन्दोलनों पर गाहे-बगाहे 'आन्दोलनकारी राज्य' होने की टिप्पणी की जाती है, लेकिन यह भी सच्चाई है कि राज्य के आन्दोलाओं का राज्यवाशियों पर विभिन्न काल खण्डों में हुए अत्याचारों के बराबर ही लम्बा व स्वर्णिम इतिहास रहा है. खासकर श्रमिक आन्दोलनों की बात की जाये तो यहाँ इनका इतिहास 1400 वर्ष से भी अधिक पुराना है। 'कुमाऊं केसरी' बद्री दत्त पाण्डे द्वारा लिखित पुस्तक `कुमाऊं का इतिहास´ के पृष्ठ संख्या २१२ के अनुसार यहां सातवीं शताब्दी में कत्यूर वंश के अत्याचारी व दुराचारी राजा वीर देव के शासनकाल में ही श्रमिक विरोध की शुरुआत हो गई थी। जिसके परिणाम स्वरुप ही कुमाऊं के लोकप्रिय गीत तथा अब लोक प्रियता के कारण कई कुमाउनीं गीतों का मुखड़ा बन चुके `तीलै धारू बोला´ के रूप में प्रदेश में श्रमिकों के विद्रोह के पहले स्वर फूटे थे। 
फोटो सौजन्य : माही सिंह मेहता 
  •  प्रसिद्ध कुमाउनीं लोकगीत `तीलै धारू बोला´ के रूप में फूटे थे विद्रोह के पहले स्वर 
  • श्रमिकों के कन्धों में हुकनुमा कीलें ठुकवा दी थीं अत्याचारी राजा वीर देव ने 
  • गोरखों के शासन  काल में जनता के शिर से बाल गायब हो गए थे
  • अंग्रेजों ने लादे थे कुली बेगार, कुली उतार व कुली बर्दाइश जैसे काले कानून

`कुमाऊं का इतिहास´ पुस्तक के अनुसार अन्तिम कत्यूरी राजा वीर देव अपनी मामी तिलोत्तमा देवी उर्फ तिला पर कुदृष्टि रखता था। उसने तिला से जबरन विवाह भी किया। उन दिनों आवागमन का प्रमुख साधन डोली था, पहाड़ी पगडण्डियों में राजा के डोली हिंचकोले न खाऐ, केवल इसलिऐ उसने कहारों के कंधों में हुकनुमा कीलें ठुकवा दी थीं। आखिर जुल्मों से तंग आकर कहारों ने राजा को डोली सहित `धार´ यानी पहाड़ की चोटी से खाई में गिराकर मार डाला। और `तिलै धारो बोला´ गाते हुऐ रानी तिला को राजा के अत्याचारों से मुक्ति का शुभ समाचार सुनाया। इस विषय में शोध कर चुके कुमाऊं विवि के डा. भुवन शर्मा इसकी पुष्टि करते हैं। श्री शर्मा बताते हैं कि कत्यूरों के बाद वर्ष 1790 में उत्तराखंड के कुमाऊं एवं 1803-04 में गढ़वाल अंचलों पर गोरखों का आधिपत्य हो गया, इसके बाद राज्य में राजशाही की ज्यादतियां और ज्यादा बढीं। गोरखा राज के अत्याचारों  का उल्लेख कुमाउनीं के 'आदिकवि' कहे जाने वाले गुमानी पन्त की कविता `दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब शिब चूली में का बाल न एकै कैका´ में भी मिलता है। यानी सरकारी बोझ को धोने के कारण किसी के मध्य शिर में बाल ही नहीं होते थे.  अंग्रेजी शासनकाल आया तो यहाँ की जनता पर  कुली बेगार, कुली उतार व कुली बरदाइश जैसी कुप्रथाएं जबरन थोप दी गयीं, जिसका भी यहां समय-समय पर विरोध हुआ। परिपालन में जरा सी घी चूक पर राजद्रोह के अधियोग वाले इन काले कानूनों के विरोध में स्वयं श्री बद्री दत्त पाण्डे ने `कुमाऊं परिषद´ की स्थापना की। 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी के पर्व पर बागेश्वर में श्री पाण्डे, हरिगोविन्द पन्त तथा चिरंजीवी लाल आदि ने पवित्र सरयू नदी में ऐतिहासिक आन्दोलन के दौरान बेगार के रजिष्टर  बहा दिऐ तथा हाथों में पवित्र जल लेकर बेगार न देने की शपथ ली तथा इन कुप्रथाओं का अन्त कर दिया। गढ़वाल में 30 जनवरी 1921 को बैरिस्टर मुकुन्दी लाल के नेतृत्व में भी यही शपथ ली गई। आजादी के बाद भी प्रदेश में श्रमिक आन्दोलनों का सिलसिला नहीं थमा. 1947 48 में अस्कोट तथा टिहरी रियासतों में भी महत्वपूर्ण श्रमिक आन्दोलन हुऐ, जिनमें प्रदेश के प्रसिद्ध आन्दोलनकारी नागेन्द्र सकलानी शहीद हुऐ। अल्मोड़ा के झिरौली मैग्नेसाइट तथा रानीखेत ड्रग फैक्टरी में हुऐ श्रमिक आन्दोलनों में जनकवि गिरीश तिवारी `गिर्दा´ ने 'हम मेहनतकश इश दुनियां से जब अपना हिस्सा मांगेंगे, एक खेत नहीं, एक बाग़ नहीं, हम पूरा हिस्सा मांगेंगे' की तर्ज पर `हम कुली कभाड़ी ल्वार, ज दिन आपंण हक मागूंलो...´ तथा `जैन्ता एक दिन त आलो उ दिन य दुनी में´ जैसे लोकप्रिय गीतों की रचना की। स्वर्गीय बालम सिंह जनौटी की भी इन आन्दोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसके बाद प्रदेश में श्रमिक आन्दोलन भूमिहीनों द्वारा सरकारी भूमि पर कब्जा करने के रूप में परिवर्तित हुऐ। 1958 में टाण्डा के पास वन भूमि में 47 गांव बसे तथा प्रशासनिक कार्रवाई में आठ किसानों को जान गंवानी पड़ी। 1968 में गदरपुर तथा रुद्रपुर में सूदखोरों के खिलाफ श्रमिकों के बड़े आन्दोलन हुऐ। 13 अप्रैल 1978 को पन्तनगर में खेत मजदूरों पर पीएसी द्वारा गोलियां बरसाईं गई, जिसमें दो दर्जन जानें गईं। 1980 से 1990 तक बिन्दूखत्ता श्रेत्र में भूमिहीनों ने 10,452 एकड़ भूमि पर कब्जा कर लिया। यहाँ प्रशासन से कई बार उग्र झड़पों के बाद कई भूमिहीनों पर `मीसा´ नामक राजद्रोह कानून के उल्लंघन के आरोप लगे। 1994 के बाद हुऐ उत्तराखण्ड आन्दोलन में भी सरकारी कर्मचारियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही, जिसके परिणामस्वरूप अलग राज्य अस्तित्व में आया। वर्तमान में भी सरकारी कर्मचारी एवं सिडकुल आदि में लगे उद्योगों में श्रमिक आन्दोलनों के स्वर कभी धीमे तो कभी उग्र सुनाई ही देते हैं। 

Tuesday, April 20, 2010

विश्व भर के पक्षियों का जैसे तीर्थ है नैनीताल






नवीन जोशी, नैनीताल। सरोवरनगरी नैनीताल की विश्व प्रसिद्ध पहचान पर्वतीय पर्यटन नगरी के रूप में ही की जाती है, इसकी स्थापना ही एक विदेशी सैलानी पीटर बैरन ने १८ नवम्बर १८४१ में की थी, और तभी से यह  नगर देश-विदेश के सैलानियों का स्वर्ग है. लेकिन इससे इतर इस नगर की एक और पहचान विश्व भर में है, जिसे बहुधा कम ही लोग शायद जानते हों. इस पहचान के लिए नगर को न तो कहीं बताने की जरूरत है, और नहीं महंगे विज्ञापन करने की. दरअसल यह पहचान मानव नहीं वरन पक्षियों के बीच है. पक्षी विशेषज्ञों के अनुसार देश भर में पाई जाने वाली 1100 पक्षी प्रजातियों में से 600 यहां मिलती हैं। प्रवासी पक्षियों या पर्यटन की भाषा में पक्षी सैलानियों की बात करें तो देश में कुल आने वाली 400 पक्षी प्रजातियों में से 200 से अधिक यहां आती हैं, जबकि 200 से अधिक पक्षी प्रजातियों का यहां प्राकृतिक आवास है। यही आकर्षण है कि देश दुनियां के पक्षी प्रेमी प्रति वर्ष बड़ी संख्या में केवल पक्षियों के दीदार को यहाँ पहुंचाते हैं. इस प्रकार नैनीताल को विश्व भर के पक्षियों का तीर्थ कहा जा सकता है



  • देश की 1100 पक्षी प्रजातियों में से 600 हैं यहां
  • देश में आने वाली 400 प्रवासी प्रजातियों में से 200 से अधिक भी आती हैं यहां
  • स्थाई रूप से 200 प्रजातियों का प्राकृतिक आवास भी है नैनीताल
  • आखिरी बार 'माउनटेन क्वेल' को भी नैनीताल में ही देखा गया था 
नैनीताल में पक्षियों की संख्या के बारे में यह दावे केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी पार्क भरतपुर राजस्थान के मशहूर पक्षी गाइड बच्चू सिंह ने किऐ हैं।वह गत दिनों ताईवान के लगभग १०० पक्षी प्रेमियों को जयपुर की संस्था इण्डिविजुअल एण्ड ग्रुप टूर्स के मनोज वर्धन के निर्देशन में यहाँ लाये थे. इस दौरान ताईवान के पक्षी प्रेमी जैसे ही यहाँ पहुंचे, उन्हें अपने देश की ग्रे हैरौन एवं चीन, मंगोलिया की शोवलर, पिनटेल, पोचर्ड, मलार्ड व गार्गनी टेल जैसी कुछ चिड़ियाऐं तो होटल परिसर के आसपास की पहाड़ियों पर ही जैसे उनके इन्तजार में ही बैठी हुई मिल गईं। उन्हें यहां रूफस सिबिया, बारटेल ट्री क्रीपर, चेसनेट टेल मिल्ला आदि भी मिलीं। मनोज वर्धन के अनुसार वह कई दशकों से यहाँ विदेशी दलों को पक्षी दिखाने ला रहे हैं. यहां मंगोली, बजून, पंगोट, सातताल व नैनीझील एवं कूड़ा खड्ड पक्षियों के जैसे तीर्थ ही हैं। उनका मानना है कि अगर देश-विदेश में नैनीताल का इस रूप में प्रचार किया जाऐ तो यहां अनंत संभावनायें हैं। अब गाइड बच्चू सिंह की बात करते हैं। वह बताते हैं जिम कार्बेट पार्क, तुमड़िया जलाशय, नानक सागर आदि का भी ऐसा आकर्षण है कि हर प्रवासी पक्षी अपने जीवन में एक बार यहां जरूर आता है।वह प्रवासी पक्षियों का रूट बताते हैं। गर्मियों में लगभग 20 प्रकार की बतखें, तीन प्रकार की क्रेन सहित सैकड़ों प्रजातियों के पक्षी साइबेरिया के कुनावात प्रान्त स्थित ओका नदी में प्रजनन करते हैं। यहां सितम्बर माह में सर्दी बढ़ने पर और बच्चों के उड़ने लायक हो जाने पर यह कजाकिस्तान-साइबेरिया की सीमा में कुछ दिन रुकते हैं और फिर उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान व पाकिस्तान होते हुए भारत आते हैं। इनमें से लगभग 600 पक्षी प्रजातियां लगभग एक से डेड़ माह की उड़ान के बाद भारत पहुंचती हैं, जिनमें से 200 से अधिक उत्तराखण्ड के पहाड़ों और खास तौर पर अक्टूबर से नवंबर अन्त तक नैनीताल पहुँच जाते हैं। इनके उपग्रह एवं ट्रांसमीटर की मदद से भी रूट परीक्षण किए गऐ हैं। 
इस प्रकार दुनियां की कुल साढ़े दस हजार पक्षी प्रजातियों में से देश में जो 1100 प्रजातियां भारत में हैं उनमें से 600 से अधिक प्रजातियां नैनीताल में पाई जाती हैं। यहां उन्हें अपनी आवश्यकतानुसार दलदली, रुके या चलते पानी और जंगल में अपने खाने योग्य कीड़े मकोड़े और अन्य खाद्य वनस्पतियां आसानी से मिल जाती हैं। नैनीताल की "शेर-का-डांडा" पहाडी में ही १८७६ में दुनिया में आख़िरी बार 'माउंटेन क्वेल' यानि "काला तीतर" देखने के भी दावे किये जाते हैं.

Saturday, April 17, 2010

लीजिये इतिहास हुई गदर के जमाने की अनूठी `गांधी पुलिस'



नवीन जोशी, नैनीताल। अंग्रेजों के जमाने की और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सिद्धान्तों पर आधारित देश की एक अनूठी व्यवस्था 150 से अधिक वर्षों तक सफलता के साथ चलने के बाद बीती 30 मार्च से तकरीबन इतिहास बन गई है। पूरे देश से इतर उत्तराखण्ड राज्य के केवल पहाड़ी अंचलों में कानून व्यवस्था को कमोबेश सफलता से निभाते हुऐ सामान्यतया `गांधी पुलिस´ कही जाने वाली राजस्व पुलिस यानी पटवारी व्यवस्था को आगे जारी रखने की आखिरी उम्मीद भी इसके साथ तकरीबन टूट गई है। पटवारी व कानूनगो तो बीते लंबे समय से इसका बहिस्कार किऐ ही हुऐ थे, अब नायब तहसीलदारों ने भी इससे तौबा कर ली है।
  • नायब तहसीलदारों ने किया प्रदेश भर में पुलिस कार्यों का बहिस्कार 
  • 1857 के गदर के जमाने से चल रही पटवारी व्यवस्था से पटवारी व कानूनगो पहले ही हैं विरत
  • पहले आधुनिक संसाधनों के लिए थे आन्दोलित, सरकार के उदासीन रवैये के बाद अब कोई मांग नहीं, राजस्व पुलिस भत्ता भी त्यागा
हाथ में बिना लाठी डण्डे के तकरीबन गांधी जी की ही तरह गांधी पुलिस के जवान देश आजाद होने और राज्य अलग होने के बाद भी अब तक उत्तराखण्ड राज्य के पर्वतीय भू भाग में शान्ति व्यवस्था का दायित्व सम्भाले हुऐ थे। लेकिन इधर अपराधों के बढने के साथ बदले हालातों में राजस्व पुलिस के जवानों ने व्यवस्था और वर्तमान दौर से तंग आकर स्वयं इस दायित्व का परित्याग कर दिया है। 1857 में जब देश का पहला स्वतन्त्राता संग्राम यानी गदर लड़ा जा रहा था, तत्कालीन हुक्मरान अंग्रेजों को पहली बार देश में कानून व्यवस्था और शान्ति व्यवस्था बनाने की सूझी थी। अमूमन पूरे देश में उसी दौर में पुलिस व्यवस्था की शुरूआत हुई। इसके इतर उत्तराखण्ड के पहाड़ों के लोगों की शान्ति प्रियता, सादगी और अपराधों से दूरी ने अंग्रेजों को अत्यधिक प्रभावित किया था, सम्भवतया इसी कारण अंग्रेजों ने 1861 में यहां अलग से "कुमाऊँ रूल्स" के तहत पूरे देश से इतर `बिना शस्त्रों वाली´ गांधी जी की ही तरह केवल लाठी से संचालित `राजस्व पुलिस व्यवस्था शुरू की, जो बाद में देश में `गांधी पुलिस व्यवस्था´ के रूप में भी जानी गई। इस व्यवस्था के तहत पहाड़ के इस भूभाग में पुलिस के कार्य भूमि के राजस्व सम्बंधी कार्य करने वाले राजस्व लेखपालों को पटवारी का नाम देकर ही सोंप दिऐ गऐ। पटवारी, और उनके ऊपर के कानूनगो व नायब तहसीलदार जैसे अधिकारी भी बिना लाठी डण्डे के ही यहां पुलिस का कार्य सम्भाले रहे। गांवों में उनका काफी प्रभाव होता था, और उन्हें सम्मान से अहिंसावादी गांधी पुलिस भी कहा जाता था। कहा जाता था कि यदि पटवारी क्या उसका चपरासी यानी सटवारी भी यदि गांव का रुख कर ले तो कोशों दूर गांव में खबर लग जाती थी, और ग्रामीण डर से थर-थरा उठते थे। 
एक किंवदन्ती के अनुसार कानूनगो के रूप में प्रोन्नत हुऐ पुत्र ने नई नियुक्ति पर जाने से पूर्व अपनी मां के चरण छूकर आशीर्वाद मांगा तो मां ने कह दिया, `बेटा, भगवान चाहेंगे तो तू फिर पटवारी ही हो जाएगा´। यह किंवदन्ती पटवारी के प्रभाव को इंगित करती है। लेकिन बदले हालातों और हर वर्ग के सरकारी कर्मचारियों के कार्य से अधिक मांगों पर अड़ने के चलन में पटवारी भी कई दशकों तक बेहतर संसाधनों की मांगों के साथ आन्दोलित रहे। उनका कहना था कि वर्तमान ब-सजय़ते और गांवों तक हाई-टेक होते अपराधों के दौर में उन्हें भी पुलिस की तरह बेहतर संसाधन चाहिऐ, लेकिन सरकार ने कुछ पटवारी चौकियां बनाने के अतिरिक्त उनकी एक नहीं सुनी। यहाँ तक कि वह 1947 की बनी हथकड़ियों से ही दुर्दांत अपराधियों को भी गिरफ्त में लेने को मजबूर थे इधर 40-40 जिप्सियां व मोटर साईकिलें मिलीं भी तो अधिकाँश पर कमिश्नर-डीएम जैसे अधिकारियों ने तक कब्ज़ा जमा लिया। 1982 से पटवारियों को प्रभारी पुलिस थानाध्यक्ष की तरह राजस्व पुलिस चौकी प्रभारी बना दिया गया, लेकिन वेतन तब भी पुलिस के सिपाही से भी कम था। अभी हाल तक वह केवल एक हजार रुपऐ के पुलिस भत्ते के साथ अपने इस दायित्व को अंजाम दे रहे थे। उनकी संख्या भी बेहद कम थी। स्थिति यह थी कि प्रदेश के समस्त पर्वतीय अंचलों के राजस्व क्षेत्रों की जिम्मेदारी केवल 1250 पटवारी, उनके इतने ही अनुसेवक, 150 राजस्व निरीक्षक यानी कानूनगो और इतने ही चेनमैन सहित कुल 2813 राजस्व कर्मी सम्भाल रहे थे। इस पर पटवारियों ने मई 2008 से पुलिस भत्ते सहित अपने पुलिस के दायित्वों का स्वयं परित्याग कर दिया। इसके बाद थोड़ा बहुत काम चला रहे कानूनगो के बाद बीती 30 मार्च से प्रदेश के रहे सहे नायब तहसीलदारों ने भी पुलिस कार्यों का परित्याग कर दिया है। पर्वतीय नायब तहसीलदार संघ के कुमाऊं मण्डल अध्यक्ष नन्दन सिंह रौतेला के हवाले से धारी के नायब तहसीलदार दामोदर पाण्डे ने बताया कि गढवाल मण्डल में इस बाबत पहले ही निर्णय ले लिया गया था, जबकि कुमाऊं के नायब तहसीलदारों ने बीती 28 मार्च 2010 को अल्मोड़ा में हुई बैठक में यह निर्णय लिया। लिहाजा प्रदेश के समस्त नायब तहसीलदारों ने 30 मार्च से पुलिस कार्य त्याग दिऐ हैं। उल्लेखनीय है कि राजस्व पुलिस व्यवस्था में अब ऐसा कोई पद संवर्ग नहीं बचा है, जो पुलिस कार्य करने को राजी है। ऐसे में नायब तहसीलदारों के भी पुलिस कार्यों के परित्याग से पहाड़ी गांवों में होने वाले अपराधों का खुलासा और ग्रामीणों की सुरक्षा भगवान भरोसे ही रह गई है।इधर प्रदेश के शासन प्रशासन ने पटवारियों के बाद नायब तहसीलदारों के भी पुलिसिंग कार्यों का बहिस्कार करने पर कड़ा रवैया अपनाया है। प्रदेश के मुख्य सचिव, राजस्व आयुक्त, कुमाऊं आयुक्त एवं जिलों में जिलाधिकारियों ने नायब तहसीलदारों से 30 अप्रैल तक कार्य पर लौटने का अल्टीमेटम दिया है। उनका कहना है कि अधिकतर आन्दोलित नायब तहसीलदार मूलत: पटवारी ही हैं। पटवारियों के पुलिस कार्यों का परित्याग करने पर पुलिस कार्य कराने के उद्देश्य से उन्हें प्रभारी नायब तहसीलदार बनाया गया था। वास्तविक नायब तहसीलदारों को पुलिस के अधिकार ही नहीं होते हैं। ऐसे में प्रभारी नायब तहसीलदारों के द्वारा पुलिस कार्यों का परित्याग करना कर्मचारी संहिता के तहत निरुद्ध है। ऐसे में उनके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। उन्हें मूल पद पर पदावनत भी किया जा सकता है। इधर 11 अप्रैल को नैनीताल में नायब तहसीलदारों की प्रदेश अध्यक्ष धीरज सिंह आर्य की अध्यक्षता में हुई बैठक में सरकार की धमकी के आगे न झुकने का ऐलान किया गया, साथ ही उत्पीड़न या जोर जबर्दस्ती होने पर आन्दोलन की धमकी भी दी गई।इस बाबत पूछे जाने पर उत्तराखंड के प्रमुख सचिव-राजस्व सुभाष कुमार ने एक मुलाकात में साफगोई से कहा कि पूरे प्रदेश में राजस्व पुलिस व्यवस्था पर केवल 1.5 करोड़ रुपये खर्च होते हैं, जबकि इसकी जगह यदि नागरिक पुलिस लगाई जाए तो 400 करोड़ रुपये खर्च होंगे




    भैया, यह का फल है ? जी यह 'काफल' ही है .

    नवीन जोशी, नैनीताल। दिल्ली की गर्मी से बचकर नैनीताल आऐ सैलानी दिवाकर शर्मा सरोवरनगरी पहुंचे। बस से उतरते ही झील के किनारे बिकते एक नऐ से फल को देख बच्चे उसे लेने की जिद करने लगे। शर्मा जी ने पूछ लिया, भय्या यह का फल है ? टोकरी में फल लेकर बेच रहे विक्रेता प्रकाश ने जवाब दिया `काफल´ है। शर्मा जी की समझ में कुछ न आया, पुन: फल का नाम पूछा लेकिन फिर वही जवाब। आखिर शर्मा जी के एक स्थानीय मित्र ने स्थिति स्पष्ट की, भाई साहब, इस फल का नाम ही काफल है। दाम पूछे तो जवाब मिला, 150 रुपऐ किलो। आखिर कागज की शंकु के अकार की पुड़िया दस रुपऐ में ली, लेकिन स्वाद लाजबाब था, सो एक से काम न चला। सब के लिए अलग अलग ली। अधिक लेने की इच्छा भी जताई, तो दुकानदार बोला, बाबूजी यह पहाड़ का फल है। बस, चखने भर को ही उपलब्ध है।




    • नैनीताल की बाजार में पहुंचा काफल, तो हाथों हाथ लिया सैलानियों ने 
    • फिर न कहिऐगा, `काफल पाको मैंल न चाखो´, केवल चखने भर को हैं उपलब्ध
    पहाड़ में `काफल पाको मैंल न चाखो´ व `उतुकै पोथी पुरै पुरै´ जैसी कई कहानियां व प्रशिद्ध  कुमाउनी गीत 'बेडू पाको बारों मासा' भी (अगली पंक्ति 'ओ नरैन काफल पाको चैता') `काफल´ के इर्द गिर्द ही घूमते हैं। कहा जाता है कि आज भी पहाड़ के जंगलों में दो अलग अलग पक्षी गर्मियों के इस मौसम में इस तरह की ध्वनियां निकालते हैं। एक कहानी के अनुसार यह पक्षी पूर्व जन्म में मां-बेटी थे, बेटी को मां ने काफलों के पहरे में लगाया था। धूप के कारण काफल सूख कर कम दिखने लगे, जिस पर मां ने बेटी पर काफलों को खाने का आरोप लगाया। चूंकि वह काफल का स्वाद भी नहीं ले पाई थी, इसलिऐ इस दु:ख में उसकी मृत्यु हो गई और वह अगले जन्म में पक्षी बन कर `काफल पाको मैंल न चाखो´ यानी काफल पक गऐ किन्तु मैं नहीं चख पायी की टोर लगाती रहती है। उधर, शाम को काफल पुन: नम होकर पूर्व की ही मात्रा में दिखने लगे। पुत्री की मौत के लिए स्वयं को दोषी मानते हुऐ मां की भी मृत्यु हो गई और वह अगले जन्म में `उतुकै पोथी पुरै-पुरै´ यानी पुत्री काफल पूरे ही हैं की टोर लगाने वाली चिड़िया बन गई। आज भी पहाड़ी जंगलों में गर्मियों के मौसम में ऐसी टोर लगाने वाले दो पक्षियों की उदास सी आवाजें खूब सुनाई पड़ती हैं। गर्मियों में होने वाले इस फल का यह नाम कैसे पड़ा, इसके पीछे भी सैलानी शर्मा जी व दुकानदार प्रकाश के बीच जैसा वार्तालाप ही आधार बताया जाता है। कहा जाता है कि किसी जमाने में एक अंग्रेज द्वारा इसका नाम इसी तरह `का फल है ?' पूछने पर ही इसका यह नाम पड़ा। पकने पर लाल एवं फिर काले से रंग वाली 'जंगली बेरी' सरीखे फल की प्रवृत्ति शीतलता प्रदान करने वाली है। कब्ज दूर करने या पेट साफ़ करने में तो यह अचूक माना ही जाता है, इसे हृदय सम्बंधी रोगों में भी लाभदायक बताया जाता है। बीते वर्षों में काफल  'काफल पाको चैता' के अनुसार चैत्र यानी मार्च-अप्रैल की बजाय दो माह पूर्व माघ यानी जनवरी-फरवरी माह में ही बाजार में आकर वनस्पति विज्ञानियों का भी चौंका रहा था, किन्तु इस वर्ष यह ठीक समय पर बाजार में आया था। गत दिनों 200 रुपऐ किग्रा तक बिकने के बाद इन दिनों यह कुछ सस्ता 150 रुपऐ तक में बिक रहा है। लेकिन बाजार में इसकी आमद बेहद सीमित है, और दाम इससे कम होने के भी कोई संभावनायें नहीं हैं। केवल गिने-चुने कुछ स्थानीय लोग ही इसे बेच रहे हैं। इसलिए यदि आप भी इस रसीले फल का स्वाद लेना चाहें तो आपको जल्द पहाड़ आना होगा।

    Wednesday, April 14, 2010

    ज़िन्दा रहने के मौसम बहुत हैं मगर......

    नवीन जोशी, नैनीताल। परिजनों के एमसीए कराने के स्वप्न से इतर उसके मन में कुमाऊं रेजीमेंट में रहकर देश के लिए तीन लड़ाइयां लड़ने वाले दादाजी और बड़े चाचा से संस्कारों में मिले बोल `ज़िन्दा रहने के मौसम बहुत हैं मगर, जान देने की रुत रोज आती नहीं....´ गूंज रहे थे, ऐसे में हाईस्कूल व इंटर में अपने कालेज को टॉप कर बीएससी कर रहा वह होनहार मौका मिलते ही सीआरपीएफ की ओर मुड़ गया। आज वह अपनी बूढ़ी मां की आंखिरी उम्मीदों और पत्नी को हाथों की हजार उम्मीदों की गीली मेंहदी को सूखने से पहले ही एक पल में झटक छोड़ चला है। वह तो शायद देश के लिए उसकी कुर्बानी से अपना मन मना भी लें, लेकिन उसका क्या जिसका भाग्य अभी मां की कोख में शायद विधाता ठीक से लिख भी न पाऐ हों, और उस अजन्मा आत्मा ने अपने भाग्य विधाता को ही खो दिया है।




    • पिता की मौत के आंसू पोंछ, एमसीए छोड़ सीआरपीएफ में भर्ती हुआ था मनोज नौंगाई
    •  मां की इकलौती उम्मीद एवं पत्नी के हाथों की गीली मेंहदी के साथ कोख के अजन्मे शिशु के सपने भी तोड़ गया शहीद
    देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखण्ड की एक और पहचान है। यहां आजादी के पूर्व से अब तक यह परंपरा अनवरत जारी है कि हर घर में कम से कम एक व्यक्ति जरूर फौज में रहकर देश की सेवा करता है। लेकिन प्रकृति के स्वर्ग कहे जाने वाले नैनीताल जनपद के भीमताल कस्बे के निकट सांगुड़ीगांव में रहने वाले एक परिवार के एक नहीं दो लोगों ने कुमाऊं रेजीमेंट में रहकर देश की सेवा की। दादाजी भैरव दत्त नौगाई ने पाकिस्तान व चीन से देश की तीन लड़ाइयां लड़ीं तो पिता के चचेरे भाई यानी बड़े चाचा लक्ष्मी दत्त नौगांई ने भी केआरसी की 20वीं बटालियन में रहकर देश की लंबी सेवा की। यह दोनों ही हमेशा मनोज के आदर्श रहे। 


    मनोज में गजब की इच्छा शक्ति थी। वह बेहद मेधावी होने के बावजूद किसी कारण हाईस्कूल में गणित में कम अंक आने के कारण फेल हो गया था, लेकिन इस ठोकर को उसने अपने पथ का पाथेय बना लिया। अगले वर्ष ही हाईस्कूल में उसने अपने कालेज एलपी इंटर कालेज को टॉप कर दिया, 11वीं में पढ़ने के दौरान 2001 में विधाता ने उसके सिर से पिता भुवन नौगांई का साया छीन लिया था, बावजूद इंटर में भी उसने कालेज टॉप किया। 2003 में उसने कुमाऊं विवि के डीएसबी परिसर में बीएससी प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया ही था, कि देहरादून में सीआरपीएफ के साक्षात्कार का `कॉल´ आ गया। भाई की मौत के सदमे से उबर न पाऐ बिड़ला संस्थान में चालक के पद से परिवार की गाड़ी चला रहे चाचा विनोद नौगांई ने मना किया, कहा "इस खतरे की नौकरी में न जा, मैं जमीन बेचकर भी तुझे एमसीए कराउंगा"। लेकिन वह न माना। परीक्षा दी और उत्तीर्ण हो खुशी खुशी `ज़िन्दा रहने के मौसम.....´ गुनगुनाता नौकरी पर चला गया। 
    इधर गत वर्ष वेलेंटाइन डे 14 फरवरी 09 के दिन उसने हल्द्वानी की मात्र 21 साल की सोनिका भगत को अपनी वेलेंटाइन के साथ ही पत्नी बनाया था। बीते माह ही वह सीआरपीएफ में उपनिरीक्षक पद की परीक्षा उत्तीर्ण कर पदोन्नत हुआ था। यूँ, सीआरपीएफ की नौकरी में रहते कई बार उसका मौत से सामना हुआ था। प्रशिक्षण के दौरान एक मित्रा ने तो उसकी गोद में ही दम तोड़ दिया था, बावजूद देश सेवा की रह में बड़ी से बड़ी दुश्वारियां उसे डिगा नहीं पाई थीं। लेकिन बीती छह अप्रैल मंगलवार को छत्तीसगढ़ के दन्तेवाड़ा में हुऐ `अमंगल´ में वह दिलेर भी अपने 83 साथियों के साथ धोखे का शिकार हो गया। आज उसके परिवार को उसकी शहादत पर गर्व है। बावजूद दुखों का पारावार भी नहीं। मां व पत्नी की सूनी मांग और आंखों से झरते आंसू सूखने का नाम नहीं ले रहे। उसके पार्थिव शरीर को देखने की बेताबी में कोख के अजन्मे शिशु को लेकर पत्नी सोनिका दूसरी मंजिल से कूद कर घायल हो गई। उसका पांव जल्द ठीक हो जाऐगा, किन्तु उसकी आत्मा के घाव को भरने और आगे ऐसा दूसरी किसी सोनिका के साथ न होगा, इस हेतु क्या कुछ किया जाऐगा, यह बड़ा अनुत्तरित सवाल है। 
    उसके दादा, दोनों चाचा, मित्रा और जीजा ललित फुलारा...सबकी मानें तो नक्सली समस्या का हल भी आतंकवाद की तरह बिना फौजी कार्रवाई के सम्भव नहीं है। वह कहते हैं "सेना को चढ़ जाने दीजिऐ। देश की आन्तरिक व बाह्य सुरक्षा के मसले पर राजनीति बन्द कीजिऐ।"
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