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Monday, December 24, 2012

आखिर क्यों छोटे कपडे पहनती हैं महिलायें ?

कहीं ग्‍लोबलाइजेशन ने महिलाओं को छोटे वस्‍त्रों का गुलाम तो नहीं बना डाला है ?
दिल्ली में छात्रा से गेंग रेप की घटना के बाद दो स्तरों पर बहस चल रही है। पहला, बलात्कारियों को फांसी या और भी कोई कड़ी सजा दी जानी चाहिए और दूसरे महिलाओं के वस्त्रों को लेकर..., मेरा मानना है-'महिलायें क्या पहनें और क्या नहीं' की बहस में पड़ने से पहले जरा पीछे मुड़ें, सिर्फ लड़कियों को न समझाने लगें कि वह क्या पहनें और क्या नहीं.....।
हमारे यहाँ 'पहनने' को लेकर दो बातें कही गयी हैं, पहला 'जैसा देश-वैसा भेष', और दूसरा 'खाना अपनी और पहनना दूसरों की पसंद का होना चाहिए'। यानी हम चाहे महिला हों या पुरुष, उस क्षेत्र विशेष में प्रचलित पोशाक पहनें, और वह पहनें जो दूसरों को ठीक लगे...। 
यानी यदि हम गोवा या किसी पश्चिमी देश में, या बाथरूम में हों तो वहां 'नग्न' या केवल अंत वस्त्रों में रहेंगे तो भी कोई कुछ नहीं कहेगा, वैसे भी 'हमाम' में तो सभी नंगे होते ही हैं। लेकिन जब भारत में हों, या दुनियां में कहीं भी मंदिर-मस्जिद, गुरूद्वारे या चर्च जाएँ तो पूरे शरीर के साथ ही शिर भी ढक कर ही आने की इजाजत मिलती है...। हम मनुष्यों की दुनियां में खाने-पहनने के सामान्य नियम सभी देशों-धर्मों में कमोबेश एक जैसे होते हैं। हाँ, उस क्षेत्र के भूगोल के हिसाब से जरूर बदलाव आता है। गर्म देशों में कम और सर्द देशों में अधिक कपडे पहने जाते हैं। इसी तरह भोजन में भी फर्क आ जाता है।
और जहाँ तक महिलाओं के वस्त्रों की बात है, शालीनता उनका गहना कही जाती है। उन्हें किसी और से प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं कि वह किन वस्त्रों में शालीन लगती हैं, और किन में भड़काऊ। और उन्हें यह भी खूब पता होता है कि वह कोई वस्त्र स्वयं को क्या प्रदर्शित करने (शालीन या भड़काऊ) के लिए पहन रही हैं, और वह इतनी नादान भी नहीं होतीं और दूसरों, खासकर पुरुषों की अपनी ओर उठ रही नज़रों को पहली नजर में ही न भांप पायें, जिसकी वह ईश्वरीय शक्ति रखती हैं। बस शायद यह गड़बड़ हो जाती है कि जब वह 'किसी खास' को 'भड़काने' निकलती हैं तो उस ख़ास की जगह दूसरों के भड़कने का खतरा अधिक रहता है।
नैनीताल में घूमते सैलानी 
एक और तथा सबसे बड़ी गड़बड़ इस वैश्वीकरण (Globalization) और खास तौर पर पश्चिमीकरण ने कर डाली है, देश-दुनिया के खासकर शहरी लोगों में मन के रास्ते घुसकर वैश्वीकरण ने हमारे तन को भी गुलाम बना डाला है। इसकी पहली पहचान होती हैं-लोगों द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र। दुनिया भर के लोगों को एक जैसे वस्त्र पहनाकर आज निश्चित ही वैश्वीकरण इतर रहा होगा। और हम, खासकर लड़कियां इसका सर्वाधिक दंस झेल रही हैं. नैनीताल जैसे पर्वतीय नगर में कड़ाके की सर्दी में युवतियों को कम वस्त्रों में ठिठुरते और इस वैश्वीकरण का दंस झेलते हुए आराम से देखा जा सकता है। ऐसे कम वस्त्रों में वह कुछ 'मानसिक और आत्मिक तौर पर कमजोर पुरुषों' को भड़का ही दें तो इसमें उनका कितना दोष ?
नैनीताल में घूमते सैलानी 
इधर कुछ समय से कहा जा रहा है की महिलाओं पर बचपन से ही स्वयं को पुरुषों के समक्ष आकर्षक बनाये रखने का तनाव बढ़ रहा है। मैं इस बारे में पूरे विश्वास से कुछ नहीं कह सकता, अलबत्ता यह भी वैश्वीकरण का एक और दुष्परिणाम हो सकता है...।
लिहाजा मेरा मानना है कि किसी समस्या की एकतरफा समीक्षा करने की जगह तस्वीर के दूसरे (हो सके तो सभी) पहलुओं को देख लेना चाहिए। दिल्ली जैसी घटनाएं रोकनी हैं, तो बसों से काली फ़िल्में हटाकर, बलात्कारियों को फांसी या उन्हें नपुंसक बना देने, पुलिस को कितना भी चुस्त-दुरुस्त बना देने से कोई हल निकने वाला नहीं है.. यदि समस्या का उपचार करना है तो इलाज सड़ रहे पेड़ के तने या पत्तियों से नहीं जड़ से करना होगा..देश की भावी पीढ़ियों-लडके-लड़कियों दोनों को बचपन से, घर से, स्कूल से संस्कारों की घुट्टी पिलानी होगी, जरूरी मानी जाये तो एक उम्र में आकर यौन शिक्षा और अपना भला-बुरा समझने की शिक्षा भी देनी होगी..।
यह भी पढ़ें: विदेशी वेबसाइटें बोल रहीं युवा पीढ़ी पर अश्लीलता का हमला
दिल्ली गेंग रेप केस: क्या सिर्फ बोलना काफी है......?

Thursday, December 20, 2012

दिल्ली गेंग रेप केस: क्या सिर्फ बोलने से रुक जायेंगे बलात्कार ?



दिल्ली में पैरा मेडिकल की छात्रा के साथ चलती बस में हुए गैंग रेप जैसे अमानवीय कृत्य के बाद आज हर कोई कह रहा है, बलात्कारियों को फांसी दो। सिने कलाकार अमिताभ बच्चन ने कहा है, आरोपियों को नपुंसक बना दो। मैं भी, आप भी, यह भी, वह भी, समाज का हर व्यक्ति, पुरुष, महिला, युवा, लड़के-लड़कियां, माता, पिता, भाई, बहन, बृद्ध, अधेड़ों के साथ अबोध बच्चे भी। पुलिस, प्रशासन, शिक्षक, मीडिया, फिल्मों के लोग भी, और अब तो स्वयं आरोपी भी कह चुके हैं कि उन्हें फांसी दे दो।

और हास्यास्पद कि, संसद में बैठे सांसद भी कह रहे हैं, ऐसे बलात्कारियों को फांसी दी जानी चाहिए। हास्यास्पद है, क्या उन्हें नहीं मालूम कि देश में बलात्कारियों को फांसी की सजा का प्राविधान नहीं है। और ऐसा प्राविधान, कानून में संसोधन केवल वही कर सकते हैं। और एसा कहने वाले लोग भी केवल कहने से आगे कुछ कर सकते हैं, क्या नहीं....?

दूसरी बात, कोई नहीं कह सकता कि दिल्ली की यह वारदात अपनी तरह की पहली या आखिरी वारदात है। यह भी कोई पूरे विश्वास से नहीं कह सकेगा कि बलात्कार पर फांसी या नपुंसक बनाने की सजा का प्राविधान हो जाए तो बलात्कार की घटनाओं पर रोक लग जाएगी। जैसे हत्या पर फांसी की सजा का प्राविधान है, लेकिन इस सजा से क्या हत्याओं पर रोक लग गई है ?

ऐसे में अच्छा न हो कि हम सब केवल बातें करने से इतर ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए अपनी ओर से भी कुछ योगदान दें। ऐसी समस्या के मूल कारण तलाशें। हम माता, पिता, भाई-बहन या शिक्षक हैं तो अपने बच्चों को अच्छी नैतिक, चारित्रिक व संस्कारवान शिक्षा दें। मीडिया, फिल्मों, टीवी वाले या युवा लड़के, लड़कियां हैं तो अश्लीलता, उत्श्रृखलता से बचें, वस्त्रों, बात-व्यवहार में शालीनता बरतें। पुलिस, प्रशासन में हैं तो ऐसे आरोपियों को कड़ी सजा (मौजूदा कानूनों के कड़ाई से पालन से भी) दिलाएं। संसद में हैं तो ऐसे कड़े कानून बनाएं। और क्या-क्या कर सकते हैं, आप क्या सोचते हैं ?

Monday, September 24, 2012

कौन हैं दो देवियाँ, मां नंदा-सुनंदा

एक शताब्दी से पुराना और अपने 112वें वर्ष में प्रवेश कर रहा सरोवरनगरी का नंदा महोत्सव आज अपने चरम पर है। पिछली शताब्दी और इधर तेजी से आ रहे सांस्कृतिक शून्यता की ओर जाते दौर में भी यह महोत्सव न केवल अपनी पहचान कायम रखने में सफल रहा है, वरन इसने सर्वधर्म संभाव की मिशाल भी पेश की है। पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी यह देता है, और उत्तराखंड राज्य के कुमाऊं व गढ़वाल अंचलों को भी एकाकार करता है। यहीं से प्रेरणा लेकर कुमाऊं के विभिन्न अंचलों में फैले मां नंदा के इस महापर्व ने देश के साथ विदेश में भी अपनी पहचान स्थापित कर ली है। 
इस मौके पर मां नंदा सुनंदा के बारे में फैले भ्रम और किंवदंतियों को जान लेना आवश्यक है। विद्वानों के इस बारे में अलग अलग मत हैं, लेकिन इतना तय है कि नंदादेवी, नंदगिरि व नंदाकोट की धरती देवभूमि को एक सूत्र में पिरोने वाली शक्तिस्वरूपा मां नंदा ही हैं। यहां सवाल उठता है कि नंदा महोत्सव के दौरान कदली वृक्ष से बनने वाली एक प्रतिमा तो मां नंदा की है, लेकिन दूसरी प्रतिमा किनकी है। सुनंदा, सुनयना अथवा गौरा-पार्वती की। एक दंतकथा के अनुसार मां नंदा को द्वापर युग में नंद यशोदा की पुत्री महामाया भी बताया जाता है जिसे दुष्ट कंश ने शिला पर पटक दिया था, लेकिन वह अष्टभुजाकार देवी के रूप में प्रकट हुई थीं। त्रेता युग में नवदुर्गा रूप में प्रकट हुई माता भी वह ही थी। यही नंद पुत्री महामाया नवदुर्गा कलयुग में चंद वंशीय राजा के घर नंदा रूप में प्रकट हुईं, और उनके जन्म के कुछ समय बाद ही सुनंदा प्रकट हुईं। राज्यद्रोही शडयंत्रकारियों ने उन्हें कुटिल नीति अपनाकर भैंसे से कुचलवा दिया था। भैंसे से बचने के लिये उन्होंने कदली वृक्ष की ओट में छिपने का प्रयास किया था लेकिन इस बीच एक बकरे ने केले के पत्ते खाकर उन्हें भैंसे के सामने कर दिया था। बाद में यही कन्याएं पुर्नजन्म लेते हुए पुनः नंदा-सुनंदा के रूप में अवतरित हुईं और राज्यद्रोहियों के विनाश का कारण बनीं। इसीलिए कहा जाता है कि सुनंदा अब भी चंदवंशीय राजपरिवार के किसी सदस्य के शरीर में प्रकट होती हैं। इस प्रकार दो प्रतिमाओं में एक नंदा और दूसरी सुनंदा हैं। कहीं-कहीं इनके लिये नयना और सुनयना नाम भी प्रयुक्त किये जाते हैं, लेकिन इतना तय है कि नैनीताल में जिन नयना देवी का मंदिर है, उनमें और नंदा देवी में साम्य नहीं है। वरन नयना की नगरी में हर वर्ष सप्ताह भर के लिये नंदा-सुनंदा कदली दलों के रूप में आती हैं, उनकी पर्वताकार सुंदर मूर्तियां बनाई जाती हैं, और आखिर में भव्य शोभायात्रा निकालकर मूर्तियों का नैनी सरोवर में विसर्जन कर दिया जाता है। 
बहरहाल, एक अन्य किंवदंती के अनुसार एक मूर्ति हिमालय क्षेत्र की आराध्य देवी पर्वत पुत्री नंदा एवं दूसरी गौरा पार्वती की हैं। इसीलिए प्रतिमाओं को पर्वताकार बनाने का प्रचलन है। माना जाता है कि नंदा का जन्म गढ़वाल की सीमा पर अल्मोड़ा जनपद के ऊंचे नंदगिरि पर्वत पर हुआ था। गढ़वाल के राजा उन्हें अपनी कुलदेवी के रूप में ले आऐ थे, और अपने गढ़ में स्थापित कर लिया था। इधर कुमाऊं में उन दिनों चंदवंशीय राजाओं का राज्य था। 1563 में चंद वंश की राजधानी चंपावत से अल्मोड़ा स्थानांतरित की गई। इस दौरान 1673 में चंद राजा कुमाऊं नरेश बाज बहादुर चंद (1638 से 1678) ने गढ़वाल के जूनागढ़ किले पर विजय प्राप्त की और वह विजयस्वरूप मां नंदा की मूर्ति को डोले के साथ कुमाऊं ले आए। कहा जाता है कि इस बीच रास्ते में राजा का काफिला गरुड़ के पास स्थित झालामाली गांव में रात्रि विश्राम के लिए रुका। दूसरी सुबह जब काफिला अल्मोड़ा के लिए चलने लगा तो मां नंदा की मूर्ति आश्चर्यजनक रूप से नहीं हिल पायी, (एक अन्य मान्यता के अनुसार दो भागों में विभक्त हो गई।) इस पर राजा ने मूर्ति के एक हिस्से (अथवा मूर्ति के न हिलने की स्थिति में पूरी मूर्ति को ही) स्थानीय पंडितों के परामर्श से पास ही स्थित भ्रामरी के मंदिर में रख दिया। भ्रामरी कत्यूर वंश में पूज्य देवी थीं, और उनका मंदिर कत्यूरी जमाने के किले यानी कोट में स्थित था। मंदिर में भ्रामरी शिला के रूप में विराजमान थीं। ‘कोट भ्रामरी’ मंदिर में अब भी भ्रामरी की शिला और नंदा देवी की मूर्ति अवस्थित है, यहां नंदा अब ‘कोट की माई’ के नाम से जानी जाती हैं। कहते हैं कि अल्मोड़ा लाई गई दूसरी मूर्ति को अल्मोड़ा के मल्ला महल स्थित देवालय (वर्तमान जिलाधिकारी कार्यालय) के बांऐ प्रकोष्ठ में स्थापित की गई। 
इस प्रकार विद्वानों के अनुसार मां नंदा चंद वंशीय राजाओं के साथ संपूर्ण उत्तराखंड की विजय देवी थीं। हालांकि  कुछ विद्वान उन्हें राज्य की कुलदेवी की बजाय शक्तिस्वरूपा माता पराम्बा के रूप में भी मानते हैं। उनका कहना है कि चंदवंशीय राजाओं की पहली राजधानी में मां नंदा का कोई मंदिर न होना सिद्ध करता है कि वह उनकी कुलदेवी नहीं थीं वरन विजय देवी व आध्यात्मिक दृष्टि से आराध्य देवी थीं। चंदवंशीय राजाओं की कुलदेवी मां गौरा-पार्वती को माना जाता है। कहते हैं कि जिस प्रकार गढ़वाल नरेशों की राजगद्दी भगवान बदरीनाथ को समर्पित थी, उसी प्रकार कुमाऊं नरेश चंदों की राजगद्दी भगवान शिव को समर्पित थी, इसलिए चंदवंशीय नरेशों को ‘गिरिराज चक्र चूढ़ामणि’ की उपाधि भी प्राप्त थी। इस प्रकार गौरा उनकी कुलदेवी थीं, और उन्होंने अपने मंदिरों में बाद में जीतकर लाई गई नंदा और गौरा को राजमंदिर में साथ-साथ स्थापित किया। 
वर्तमान नंदा महोत्सवों के आयोजन के बारे में कहा जाता है कि पहले यह आयोजन चंद वंशीय राजाओं की अल्मोड़ा शाखा द्वारा होता था, किंतु 1938 में इस वंश के अंतिम राजा आनंद चंद के कोई पुत्र न होने के कारण तब से यह आयोजन इस वंश की काशीपुर शाखा द्वारा आयोजित किया जाता है, जिसका प्रतिनिधित्व वर्तमान में नैनीताल सांसद केसी सिंह बाबा करते हैं। नैनीताल में वर्तमान नयना देवी मंदिर को स्थापित करने वाले मोती राम शाह ने ही 1903 में अल्मोड़ा से लाकर नंदा देवी महोत्सव मनाने की शुरुआत की थी। शुरुआत में यह आयोजन मंदिर समिति द्वारा ही आयोजित होता था। 1926 से यह आयोजन नगर की सबसे पुरानी धार्मिक सामाजिक संस्था श्रीराम सेवक सभा को दे दिया गया, जो तभी से लगातार दो विश्व युद्धों के दौरान भी बिना रुके सफलता से और नए आयाम स्थापित करते हुए यह आयोजन कर रही है। यहीं से प्रेरणा लेकर अब कुमाऊं के कई अन्य स्थानों पर भी नंदा महोत्सव के आयोजन होने लगे हैं।  

Monday, September 17, 2012

त्रासदियों से नहीं लिए आजाद देश के हुक्मरानों ने सबक

नवीन जोशी नैनीताल। 18 की तिथि सरोवरनगरी के लिये बेहद महत्वपूर्ण है। 18 नवम्बर 1841 को ही इस नगर को वर्तमान स्वरूप में बसाने वाले पीटर बैरन के नगर में आगमन की बात कही जाती है, वहीं सितम्बर माह की 18 तारीख को132 वर्ष पूर्व नगर में जो हुआ, उसे याद कर नैनीतालवासियों की रूह आज भी कांप उठती है। 1880 में इस तिथि को हुए हादसे से तत्कालीन हुक्मरानों ने सबक लेकर जो किया, उससे यह नगर आज भी कई विकराल परिस्थितियों के बावजूद पूरी तरह सुरक्षित है लेकिन चिंताजनक बात यह है कि आजाद देश के हुक्मरान और जनता दोनों मानो इन सबकों को याद करने को तैयार नहीं हैं। नतीजा, घटना की पुनरावृत्ति के रूप में सामने न आये, इसकी दुआ ही की जा सकती है। 
अंग्रेज लेखक एटकिंसन के अनुसार 18 सितम्बर 1880 को काले शनिवार के दिन नगर में आल्मा पहाड़ी की ओर से आये महाविनाशकारी भूस्खलन ने नगर का भूगोल ही परिवर्तित कर दिया था। उस दौर का एशिया का सबसे बड़ा होटल बताया जाने वाला विक्टोरिया होटल, वर्तमान बोट हाउस क्लब के पास स्थित प्राचीन नयना देवी मंदिर और मिस्टर बेल की बिसातखाने की दुकान जमींदोज होकर धमाके के साथ पलक झपकते ही नैनी झील में समा गई थी। इस दुर्घटना में 43 यूरोपीय व यूरेशियन लोगों के साथ ही स्थानीय निवासियों को मिलाकर 151 लोग जिंदा दफन हो गये थे, जबकि तब नगर की जनसंख्या केवल ढाई हजार के करीब थी। तब 16 सितम्बर की दोपहर से बारिश शुरू हो गई थी, और 17 की रात्रि तक करीब नौ इंच और 18 सितम्बर तब 40 घंटों में 20 से 25 इंच तक बारिश हुई थी। इससे पूर्व भी नगर में 1867 में बड़ा भूस्खलन हुआ था। बहरहाल इस दुर्घटना से सबक लेते हुऐ तत्कालीन अंग्रेज नियंताओं ने पहले चरण में सबसे खतरनाक शेर-का-डंडा, चीना (वर्तमान नैना), अयारपाटा, लेक बेसिन व बड़ा नाला (बलिया नाला) का दो लाख रुपये से निर्माण किया। बाद में 80 के अंतिम व 90 के शुरूआती दशक में नगर पालिका ने तीन लाख रुपये से अन्य नाले बनाए। 1898 में आयी तेज बारिश ने लोंग्डेल व इंडक्लिफ क्षेत्र में ताजा बने नालों को नुकसान पहुंचाया, जिसके बाद यह कार्य पालिका से हटाकर पीडब्लूडी को दे दिए गए। 23 सितम्बर 1898 को इंजीनियर वाइल्ड ब्लड्स द्वारा बनाए नक्शों से 35 से अधिक नाले बनाए गए। 1901 तक कैचपिट युक्त 50 नालों (लम्बाई 77,292 फीट) व 100 शाखाओं का निर्माण (कुल लम्बाई 1,06,499 फीट) कर लिया गया। बारिश में भरते ही कैच पिटों में भरा मलवा हटा लिया जाता था। 
अंग्रेजों ने ही नगर के आधार बलियानाले में सुरक्षा कार्य करवाए, जो आज भी बिना एक इंच हिले नगर को थामे हुऐ हैं, जबकि इधर कुछ वर्ष पूर्व ही हमारे इंजीनियरों द्वारा बलियानाला में कराये गए कार्य कमोबेश पूरी तरह दरक गये हैं। नालों में बने कैचपिट अब एकाध जगह देखने भर को मिलते हैं। उनकी सफाई हो-हल्ला मचने पर ही होती है। करोड़ों रुपये की परियोजनाऐं चलने के बावजूद लोनिवि हमेशा नालों की सफाई के लिये बजट न होने का रोना रोता है। नगर पालिका से नालों से कूड़ा व मलवा हटाने को लेकर हमेशा विवाद रहता है। दूसरी ओर नगर वासी निर्माणों के मलवे को नालों के किनारे बारिश होने के इंतजार में रहते हैं, और बारिश होते ही उड़ेल देते हैं। 
बहरहाल, 1880 के बाद विगत वर्ष 2010 में ठीक 18 सितंबर और 2011 में भी सितंबर माह में प्रदेश व निकटवर्ती क्षेत्रों में जल पल्रय जैसे हालात आये। 2010 में नगर की सामान्य 248 सेमी से करीब दोगुनी 413 सेमी बारिश रिकार्ड की गई, बावजूद नगर पूरी तरह सुरक्षित रहा। नगर के बुजुर्ग, आम जन, अधिकारी हर कोई इस बात को स्वीकार करते हैं, लेकिन कोई इस घटना से सबक लेता नहीं दिखता। 

Sunday, September 9, 2012

हिमालय सा व्यक्तित्व और दिल में बसता था पहाड़

लखनऊ, दिल्ली की रसोई में भी कुमाऊंनी भोजन बनता था 

पर्वतीय लोगों से अपनी बोली- भाषा में करते थे बात 
नवीन जोशी नैनीताल। देश की आजादी के संग्राम और आजादी के बाद देश को संवारने में अपना अप्रतिम योगदान देने वाले उत्तराखंड के लाल भारतरत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत का व्यक्तित्व हिमालय जैसा विशाल था। वह राष्ट्रीय फलक पर सोचते थे, लेकिन दिल में पहाड़ ही बसता था। उन्हें पहाड़ और पहाड़वासियों से अपार स्नेह था। पंत आज के नेताओं के लिए भी मिसाल हैं। वे महान ऊंचाइयों तक पहुंचने के बावजूद अपनी जड़ों से हमेशा जुड़े रहे और स्वार्थ की भावना से कहीं ऊपर उठकर अपने घर से विकास की शुरूआत की। उनके घर में आम कुमाऊंनी रसोई की तरह ही भोजन बनता था और आम पर्वतीय ब्राह्मणों की तरह वे जमीन पर बैठकर ही भोजन करते थे। पं. पंत के करीबी रहे नगर के वयोवृद्ध किशन लाल साह ‘कोनी’ ने 125वीं जयंती की पूर्व संध्या पर पं. पंत के नैनीताल नगर से जुड़ी यादों को से साझा किया। 
श्री साह 1952 में युवा कांग्रेस का गठन होते ही नैनीताल संयुक्त जनपद के पहले जिला अध्यक्ष बने। श्री साह बताते हैं कि 1945 से पूर्व संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री (प्रीमियर) रहने के दौरान तक पं. पंत तल्लीताल नया बाजार क्षेत्र में रहते थे। यहां वर्तमान क्लार्क होटल उस समय उनकी संपत्ति था। यहीं रहकर उनके पुत्र केसी पंत ने नगर के सेंट जोसफ कालेज से पढ़ाई की। वह अक्सर यहां तत्कालीन विधायक श्याम लाल वर्मा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल, दलीप सिंह कप्तान आदि के साथ बी. दास, श्याम लाल एंड सन्स, इंद्रा फाम्रेसी, मल्लीताल तुला राम आदि दुकानों में बैठते और आजादी के आंदोलन और देश के हालातों व विकास पर लोगों की राय सुनते, सुझाव लेते, र्चचा करते और सुझावों का पालन भी करते थे।
बाद में वह फांसी गधेरा स्थित जनरल वाली कोठी में रहने लगे। यहीं से केसी पंत का विवाह बेहद सादगी से नगर के बिड़ला विद्या मंदिर में बर्शर के पद पर कार्यरत गोंविद बल्लभ पांडे ‘गोविंदा’ की पुत्री इला से हुआ। केसी पूरी तरह कुमाऊंनी तरीके से सिर पर मुकुट लगाकर और डोली में बैठकर दुल्हन के द्वार पहुंचे थे। इस मौके पर आजाद हिंद फौज के सेनानी रहे कैप्टन राम सिंह ने बैंड वादन किया था। आजादी के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए वे पंत सदन (वर्तमान उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का आवास) में रहे, जोकि मूलत: रामपुर के नवाब की संपत्ति था और इसे अंग्रेजों ने अधिग्रहीत किया था। साह बताते हैं कि वह जब भी उनके घर जाते, उनकी माताजी पर्वतीय दालों भट, गहत आदि लाने के बारे में पूछतीं और हर बार रस- भात बनाकर खिलाती थीं।
उनके लखनऊ के बदेरियाबाग स्थित आवास पर पहाड़ से जो लोग भी पहुंचते, पंत उनके भोजन व आवास की स्वयं व्यवस्था कराते थे और उनसे कुमाऊंनी में ही बात करते थे। उनका मानना था कि पहाड़ी बोली हमारी पहचान है। वह अन्य लोगों से भी अपनी बोली-भाषा में बात करने को कहते थे। साह पं. पंत की वर्तमान राजनेताओं से तुलना करते हुए कहते हैं कि पं. पंत के दिल में जनता के प्रति दर्द था, जबकि आज के नेता नितांत स्वार्थी हो गये हैं। पंत में सादगी थी, वह लोगों के दुख-दर्द सुनते और उनका निदान करते थे। वह राष्ट्रीय स्तर के नेता होने के बावजूद अपनी जड़ों से जुड़े हुए थे। उन्होंने नैनीताल जनपद में ही पंतनगर कृषि विवि की स्थापना और तराई में पाकिस्तान से आये पंजाबी विस्थापितों को बसाकर पहाड़ के आँगन को हरित क्रांति से लहलहाने सहित अनेक दूरगामी महत्व के कार्य किये। 

पन्त के जीवन के कुछ अनछुवे पहलू 

राष्ट्रीय नेता होने के बावजूद पं. पंत अपने क्षेत्र-कुमाऊं, नैनीताल से जुड़े रहे। केंद्रीय गृह मंत्री और संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री रहते हुई भी वह स्थानीय इकाइयों से जुड़े रहे। उनकी पहचान बचपन से लेकर ताउम्र कैसी भी विपरीत परिस्थितियों में सबको समझा-बुझाकर साथ लेकर चलने की रही। कहते हैं कि बचपन में वह मोटे बालक थे, वह कोई खेल भी नहीं खेलते थे, एक स्थान पर ही बैठे रहते थे, इसलिए बचपन में वह 'थपुवा" कहे जाते थे। लेकिन वे पढ़ाई में होशियार थे। कहते हैं कि गणित के एक शिक्षक ने कक्षा में प्रश्न पूछा था कि 30 गज कपड़े को यदि हर रोज एक मीटर काटा जाए तो यह कितने दिन में कट जाएगा, जिस पर केवल उन्होंने ही सही जवाब दिया था-29 दिन, जबकि अन्य बच्चे 30 दिन बता रहे थे। अलबत्ता, इस दौरान उनका काम खेल में लड़ने वाले बालकों का झगड़ा निपटाने का रहता था। उनकी यह पहचान बाद में गोपाल कृष्ण गोखले की तरह तमाम विवादों को निपटाने की रही। संयुक्त प्रांत का प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते वह रफी अहमद किदवई सरीखे अपने आलोचकों और अनेक जाति-धर्मों में बंटे इस बड़े प्रांत को संभाले रहे और यहां तक कि केंद्रीय गृह मंत्री रहते 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौर में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने चीनी समकक्ष चाऊ तिल लाई से बात नहीं कर पा रहे थे, तब पं पंत ही थे, जिन्होंने चाऊलाई को काबू में किया था। इस पर चाऊलाई ने उनके लिए कहा था-भारत के इस सपूत को समझ पाना बड़ा मुश्किल है। अलबत्ता, वह कुछ गलत होने पर विरोध करने से भी नहीं हिचकते थे। कहते हैं कि उन्होंने न्यायाधीश से विवाद हो जाने की वजह से अल्मोड़ा में वकालत छोड़ी और पहले रानीखेत व फिर काशीपुर चले गए। इस दौरान एक मामले में निचली अदालत में जीतने के बावजूद उन्होंने सेशन कोर्ट में अपने मुवक्किल का मुकदमा लड़ने से इसलिए इंकार कर दिया था कि उसने उन्हें गलत सूचना दी थी, जबकि वह दोषी था।
राजनीति और संपन्नता उन्हें विरासत में मिली थी। उनके नाना बद्री दत्त जोशी तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर सर हेनरी रैमजे के अत्यधिक निकटस्थ सदर अमीन के पद पर कार्यरत थे, और उनके दादा घनानंद पंत टी-स्टेट नौकुचियाताल में मैनेजर थे। कुमाऊं परिषद की स्थापना 1916 में उनके नैनीताल के घर में ही हुई थी। प्रदेश के नया वाद, वनांदोलन, असहयोग व व्यक्तिगत सत्याग्रह सहित तत्कालीन समस्त आंदोलनों में वह शामिल रहे थे। अलबत्ता कुली बेगार आंदोलन में उनका शामिल न होना अनेक सवाल खड़ा करता है। इसी तरह उन्होंने गृह मंत्री रहते देश की आजादी के बाद के पहले राज्य पुर्नगठन संबंधी पानीकर आयोग की रिपोर्ट के खिलाफ जाते हुए हिमांचल प्रदेश को संस्कृति व बोली-भाषा का हवाला देते हुए अलग राज्य बनवा दिया, लेकिन वर्तमान में कुमाऊं आयुक्त अवनेंद्र सिंह नयाल के पिता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल के इसी तर्ज पर उत्तराखंड को भी अलग राज्य बनाने के प्रस्ताव पर बुरी तरह से यह कहते हुए डपट दिया था कि ऐसा वह अपने जीवन काल में नहीं होने देंगे। आलोचक कहते हैं कि बाद में पंडित नारायण दत्त तिवारी (जिन्होंने भी उत्तराखंड मेरी लाश पर बनेगा कहा था) की तरह वह भी नहीं चाहते थे कि उन्हें एक अपेक्षाकृत बहुत छोटे राज्य के मुख्यमंत्री के बारे में इतिहास में याद किया जाए।  1927 में साइमन कमीशन के विरोध में उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को बचाकर लाठियां खाई थीं। इस पर भी आलोचकों का कहना है कि ऐसा उन्होंने नेहरू के करीब आने और ऊंचा पद प्राप्त करने के लिए किया। 1929 में वारदोली आंदोलन में शामिल होकर महात्मा गांधी के निकटस्थ बनने तथा 1925 में काकोरी कांड के भारतीय आरोपितों के मुकदमे कोर्ट में लड़ने जैसे बड़े कार्यों से भी उनका कद बढ़ा था।

वास्तव में 30 अगस्त है पं. पंत का जन्म दिवस 
नैनीताल। पं. पंत का जन्म दिन हालांकि हर वर्ष 10 सितम्बर को मनाया जाता है, लेकिन वास्तव में उनका जन्म 30 अगस्त 1887 को अल्मोड़ा जिले के खूंट गांव में हुआ था। वह अनंत चतुर्दशी का दिन था। प्रारंभ में वह अंग्रेजी माह के बजाय हर वर्ष अनंत चतुर्दशी को अपना जन्म दिन मनाते थे। 1946 में अनंत चतुर्दशी यानी जन्म दिन के मौके पर ही वह संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री बने थे, यह 10 सितम्बर का दिन था। इसके बाद उन्होंने हर वर्ष 10 सितम्बर को अपना जन्म दिन मनाना प्रारंभ किया।
भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत के बारे में और अधिक जानकारी यहाँ भी पढ़ सकते हैं।  

Saturday, September 8, 2012

फिर भी ’हिमालय‘ सा अडिग है हिमालय


जन्म से गतिशीलता के बावजूद खड़ा है मजबूती से 

मौसम, आक्रमणकारियों से सुरक्षा तथा ‘वाटर टावर ऑफ एशिया’ के रूप में बड़ी भूमिका  

नवीन जोशी नैनीताल। किसी व्यक्ति के अडिग होने की तुलना हिमालय से की जाती है। उस हिमालय से जो अपने जन्म से ही गतिशील रहा है। 6.5 करोड़ वर्ष की आयु के बावजूद हिमालय दुनिया के युवा पहाड़ों में गिना जाता है। यह ‘वाटर टावर’ पूरे एशिया को पानी देता है। पूरे भारतीय उप महाद्वीप की साइबेरिया की ठंडी हवाओं और चीन, मंगोलिया जैसे उत्तरी आक्रमणकारियों से सुरक्षा के साथ ही यहां मानसून के जरिये अच्छी वष्रा कराकर मिट्टी में सोना उगा देता है। इसकी जैव विविधता का कोई सानी नहीं है।  
हिमालय की महिमा युग-युगों से गाई गई है। महाकवि कालीदास ने अपनी कालजयी रचना कुमारसंभव में इसे नगाधिराज यानी पर्वतों का राजा बताया है। कुमाऊं विवि के विज्ञान संकायाध्यक्ष प्रो. चारु चंद्र पंत बताते हैं कि हिमालय का जन्म तत्कालीन टेंथिस सागर में 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व एशियाई एवं भारतीय टेक्टोनिक प्लेट के टकराव से हुआ। भारतीय प्लेट आज भी हर वर्ष 55 मिमी प्रति वर्ष की दर से उत्तर की ओर गतिमान है। लिहाजा इसमें तीन स्तरों टेंथियन हिमालय, ट्रांस हिमालय, उच्च हिमालय, मध्य हिमालय एवं सब हिमालय यानी शिवालिक के बीच क्रमश: आईटीएसजेड, एमसीटी यानी मेन सेंट्रल थ्रस्ट व एमबीटी यानी मेन बाउंड्री थ्रस्ट के आसपास धरती की सतह पर भूस्खलन, भूकंप आदि के बड़े खतरे विद्यमान हैं। ये सभी थ्रस्त अरुणाचल से कश्मीर तक जाते हैं, और उत्तराखंड में ये सभी मौजूद हैं। गतिशीलता के कारण एक ओर पहाड़ ऊंचे उठते जा रहे हैं, वहीं पानी इसके ठीक उलट अपने प्राकृतिक प्रवाह के जरिये पहाड़ों को काटकर सागर में बहाकर ले जाने पर आमादा है। इसके बावजूद हिमालय ‘हिमालय’ की तरह ही सीना तान कर हर तरह के खतरे को झेलने को तैयार रहता है। प्रो. पंत हिमालय की भूमिका पर कहते हैं कि यदि हिमालय न होता तो भारतीय उप महाद्वीप में मानसून ही न होता। साथ ही साइबेरिया की ठंडी हवाएं यहां भी पहुंचतीं और यहां जीवन अत्यधिक कठिन होता। इसी के कारण मंगोलिया व चीन की ओर से कभी आक्रमणकारी इस ओर रुख नहीं कर पाये। लिहाजा हिमालय की भूमिका को समझते हुए इसके संरक्षण के लिये पूरे देश और भारतीय प्रायद्वीप के देशों को प्रयास करने चाहिए। 

गजब की जैव विविधता है हिमालय में  

नैनीताल। हिमालय क्षेत्र में गजब की जैव विविधता के दर्शन होते हैं। हिमालय पर शोध कर चुके गोविंद बल्लभ पंत पर्यावरण संस्थान कुल्लू मनाली के प्रभारी वैज्ञानिक डा. एसएस सामंत के हवाले से कुमाऊं विवि के वनस्पति विज्ञान के प्रो. ललित तिवारी बताते हैं कि हिमालय में सर्वाधिक 1,748 औषधीय पौधों, 300 स्तनधारी, 1000 चिड़ियों, 175 सरीसृपों, 105 उभयचरों, 270 मछलियों, 816 वृक्षों, 675 जंगली फलों, 750 आर्किड आदि की प्रजातियां विद्यमान हैं। यहां दुनिया के दूसरे सबसे बड़े ग्लेशियर सियाचिन सहित 1,500 ग्लेशियर ओर दुनिया की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट भी स्थित है। प्रो. तिवारी के अनुसार 300 वृक्ष, 350 फर्न एवं 600 मॉश प्रजातियां उत्तराखंड के हिमालय में मिलती हैं।  

Tuesday, September 4, 2012

इस बार ‘रिफ्रेश’ नहीं हो पाएगी नैनी झील !


नहीं खुल पाये झील के गेट, अभी भी तीन फीट कम है नैनी का जलस्तर 

नवीन जोशी नैनीताल। किसी भी जल राशि के लिए 'पानी बदल' कर 'रिफ्रेश' यानी तरोताजा होना जरूरी होता है। मूतातः पूरी तरह बारिश पर निर्भर नैनी झील को तरोताजा होने का मौका वर्ष में केवल वर्षा काल में मिलता है। इस वर्ष सावन के बाद भादौ माह भी बीतने को है, बावजूद अभी झील का जलस्तर आठ फीट भी नहीं पहुंचा है, जो कि इस माह की जरूरत के स्तर 11 फीट से तीन फीट से अधिक कम है। इधर जिस तरह बारिश का मौसम थमने का इशारा कर रहा है, ऐसे में चिंता जताई जाने लगी है कि इस वर्ष झील के गेट नहीं खोले जा सकेंगे। परिणामस्वरूप झील ‘रिफ्रेश’ नहीं हो पायेगी। भू वैज्ञानिक प्रो. सीसी पंत के अनुसार नैनी झील का निर्माण करीब 40 हजार वर्ष पूर्व तब की एक नदी के बीचों-बीच फाल्ट उभरने के कारण वर्तमान शेर का डांडा पहाड़ी के अयारपाटा की ओर की पहाड़ी के सापेक्ष ऊपर उठ जाने से तल्लीताल डांठ की जगह पर नदी का प्रवाह रुक जाने से हुआ था। इस प्रकार नैनी झील हमेशा से बारिश के दौरान भरती और इसी दौरान एक निर्धारित से अधिक जल स्तर होने पर अतिरिक्त पानी के बाहर बलियानाला में निकलने से साफ व तरोताजा होती है। अंग्रेजी दौर में तल्लीताल में झील के शिरे पर गेट लगाकर झील के पानी को नियंत्रित करने का प्रबंध हुआ, जिसे स्थानीय तौर पर डांठ कहा जाता है। गेट कब खोले जाऐंगे, इसका बकायदा कलेंडर बना, जिसका आज भी पालन किया जाता है। इसके अनुसार जून में 7.5, जुलाई में 8.5, सितंबर में 11 तथा 15 अक्टूबर तक 12 फीट जल स्तर होने पर ही गेट खोले जाते हैं। गत वर्ष 2011 से बात शुरू करें तो इस वर्ष नगर में सर्वाधिक रिकार्ड 4,183 मिमी बारिश हुई थी। झील का जल स्तर तीन मई से एक जुलाई के बीच शून्य से नीचे रहा था, और 29  जुलाई को ही जल स्तर 8.7 फीट पहुंच गया था, जिस कारण गेट खोलने पड़े थे। इसके बाद 16 सितंबर तक कमोबेश लगातार गेट अधिकतम 15 इंच तक भी (15 अगस्त को) खोले गये। जबकि इस वर्ष गर्मियों में 30 अप्रेल से 17 जुलाई तक जल स्तर शून्य से नीचे (अधिकतम माइनस 2.6 फीट तक) रहा था, जिसका प्रभाव अब भी देखने को मिल रहा है। अब तक नगर में 2,863.85 मिमी बारिश हो चुकी है, जो कि नगर की औसत वर्षा 2500 मिमी से अधिक ही है, बावजूद चार सितंबर तक जल स्तर 7.8 फीट ही पहुंच पाया है। स्पष्ट है कि गेट खोले जाने के लिये अभी भी इस माह की 15 तारीख तक 3.2 फीट और 15 अक्टूबर तक 4.2 फीट की जरूरत है, जो वर्तमान हालातों में आसान नहीं लगता। साफ है कि झील का इस वर्ष ‘रिफ्रेश’ होना मुश्किल है। नैनी झील पर शोधरत कुमाऊं विवि के प्रो.पीके गुप्ता भी झील से पानी निकाले जाने को महत्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार झील के गेट खुलते हैं तो इससे झील की एक तरह से ‘फ्लशिंग’ हो जाती है। झील से काफी मात्रा में प्रदूषण के कारक ‘न्यूट्रिएंट्स’  निकल जाते हैं। वहीं राज्य मौसम विज्ञान केंद्र के आनंद शर्मा मानते हैं कि हालांकि मानसून अभी वापस नहीं लौटा है, पर आगे बारिश की संभावनाऐं कम ही हैं। छत्तीसगढ़ व उड़ीसा में एक कुछ हद तक बड़ा वायुमंडलीय दबाव का क्षेत्र बना तो है, पर उसका यहां तक पहुंचना पछुआ हवाओं पर निर्भर करेगा। उन्होंने बताया कि नैनीताल जनपद में इस वर्ष औसत 1,227 मिमी बारिश हुई है जो कि औसत 1,152 मिमी से छह फीसद ही कम है, और अधिक चिंता की बात नहीं है।
सूखाताल झील भरने के बाद सूखी  
नैनीताल। ईईआरसी, इंदिरा गांधी इंस्टिटय़ूट फार डेवलपमेंटल रिसर्च मुंबई की 2002 की रिपोर्ट के अनुसार नगर की सूखाताल झील नैनी झील को प्रति वर्ष 19.86 लाख यानी करीब 42.8 फीसद पानी उपलब्ध कराती है, लेकिन इस वर्ष यह झील अगस्त के पहले पखवाड़े में काफी हद तक भरने के बाद वापस सूख चुकी है। झील के पास नैना पीक सहित अन्य पहाड़ियों पर इस बार जल श्रोत भी नहीं फूट पाये। नगर में घरों में पिछली बार की तरह सीलन भी इस वर्ष नहीं है। बहरहाल, सूखाताल झील का सूखना आगे वर्ष भर नैनी झील के प्रति चिंताजनक संकेत दे रहा है।

Wednesday, August 15, 2012

नैनीताल में ऐसे मनाया गया था 15 अगस्त 1947 को पहला स्वतंत्रता दिवस


अब वतन आजाद है....
रिमझिम वर्षा के बीच हजारों लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था माल रोड पर
पेड़ों पर भी चढ़े थे लोग आजादी की नई-नवेली सांसें लेने
नवीन जोशी, नैनीताल। अंग्रेजों के द्वारा बसाये गये और अनुशासन के साथ सहेजे गये नैनीताल नगर में आजाद भारत के पहले दिन यानी 15 अगस्त 1947 को नगर वासियों के उत्साह का कोई सानी नहीं था। लोग नाच-गा  रहे थे। 14 अगस्त की पूरी रात्रि मशाल जुलूस निकालने के साथ ही जश्न होता रहा था, बावजूद 15 की सुबह तड़के से ही माल रोड पर जुलूस की शक्ल में निकल पड़े थे। कहीं तिल रखने तक को भी जगह नहीं थी। 100 वर्षों की गुलामी और हजारों लोगों के प्राणोत्सर्ग के फलस्वरूप उम्मीदों के नये सूरज की नई किरणों के साथ हवाऐं भी आज मानो बदली-बदली लग रही थीं, और प्रकृति मानो रिमझिम बारिश के साथ आजादी का स्वागत कते हुऐ देशवासियों के आनंद में स्वयं भी शामिल हो रही थी। लोगों में जश्न का जुनून शब्दों की सीमा से परे था। हर कहीं लोग कह रहे थे-अब वतन आजाद है...।
वर्तमान मंडल मुख्यालय सरोवरनगरी उस दौर में तत्कालीन उत्तर प्रांत की राजधानी था। अंग्रेजों के ग्रीष्मकालीन गवर्नमेंट हाउस व  सेकरेटरियेट यहीं थे. इस शहर को अंग्रेजों ने ही बसाया था, इसलिये इस शहर के वाशिंदों को उनके अनुशासन और ऊलजुलूल आदेशों के अनुपालन में ज्यादतियों से कुछ ज्यादा ही जलील होना पढ़ता था। अपर माल रोड पर भारतीय चल नहीं सकते थे। नगर के एकमात्र सार्वजनिक खेल के फ्लेट  मैदान में बच्चे खेल नहीं सकते थे। शरदोत्सव जैसे ‘मीट्स’ और ‘वीक्स’ जैसे कार्यक्रमों में भारतीयों की भूमिका बस ताली बजाने की होती थी। भारतीय अधिकारियों को तक खेलों व नाचघरों में होने वाले मनोरंजन कार्यक्रमों में अंग्रेजों के साथ शामिल होने की अनुमति नहीं  होती थी। 
15 अगस्त 1947 को मल्लीताल पन्त मूर्ति पर उमड़ा लोगों का हुजूम  
ऐसे में 14 अगस्त 1947 को दिल्ली से तत्कालीन वर्तमान पर्दाधारा के पास स्थित म्युनिसिपल कार्यालय में फोन पर आये आजादी मिलाने के संदेश से जैसे नगर वासियों में भारी जोश भर दिया था। सीआरएसटी इंटर कालेज के पूर्व अध्यापक व राष्ट्रीय धावक रहे केसी पंत ने बताया, "लोग कुछ दिन पूर्व तक नगर में हो रहे सांप्रदायिक तनावपूर्ण माहौल को भूलकर जोश में मदहोश हो रहे थे। एक समुदाय विशेस के लोग पाकिस्तान के अलग देश बनने, न बनने को लेकर आशंकित था, उन्होंने तल्लीताल से माल रोड होते हुए मौन जुलूस भी निकाला था। इन्हीं दिनों नगर में (शायद पहले व आखिरी) सांप्रदायिक दंगे भी हुऐ थे, जिसमें राजा आवागढ़ की कोठी (वर्तमान वेल्वेडियर होटल) भी फूंक डाला गया था। 
बावजूद 15 अगस्त को नगर में  हर जाति-मजहब के लोगों का उत्साह देखते भी बनता था। स्कूल के प्रधानाचार्य पीडी सनवाल ने पहले दिन ही बच्चों को कह दिया था, देश आजाद होने जा रहा है, कल सारे बच्चे साफ कपडे पहन कर आयेंगे"। 
दूसरे दिन बच्चों ने सुबह तल्लीताल गवर्नमेंट हाईस्कूल (वर्तमान जीआईसी) तक जुलूस निकाला, वहां के हेड मास्टर हरीश चंद्र पंत ने स्मृति स्वरूप सभी बच्चों को 15 अगस्त 1947 लिखा पीतल का राष्ट्रीय ध्वज तथा टेबल पर दो तरफ से देखने योग्य राष्ट्रीय ध्वज व उस दिन की महान तिथि अंकित फोल्डर प्रदान किया था। उन्होंने भाषण दिया, "अब वतन आजाद है। हम अंग्रेजों की दासता से आजाद हो गये हैं, पर अब देश को जाति-धर्म के बंधनों से ऊपर उठकर एक रखने व नव निर्माण की जिम्मेदारी और अधिक बढ़ गई है"। इस ध्वज को श्री पंत आज तक सहेजे हुऐ हैं। वहीँ वयोवृद्ध शिक्षाविद् प्यारे लाल साह के अनुसार 14 अगस्त की रात्रि ढाई-तीन बज तक जश्न चलता रहा था। लोगों ने रात्रि में ही मशाल जुलूस निकाला। देर रात्रि फ्लेट्स मैदान में आतिशबाजी भी की गई। सुबह म्युनिसिपालिटी में चेयरमैन रायबहादुर जसौंत सिंह बिष्ट की अध्यक्षता में बैठक हुई। तत्कालीन म्युनिसिपल कमिश्नर (सभासद) बांके लाल कंसल ने उपाध्यक्ष खान बहादुर अब्दुल कय्यूम को देश की गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल पेश करते हुए पीतल का तिरंगा बैच के रूप में लगाया। 
15 अगस्त 1947 को फ्लेट्स मैदान में परेड की सलामी लेते तत्कालीन एडीएम आरिफ अली शाह  
चेयरमैन ने यूनियन जैक तारकर तिरंगा फहरा दिया। इधर फ्लेट्स मैदान में तत्कालीन एडीएम आरिफ अली शाह ने परेड की सलामी ली। उनके साथ पूर्व चेयरमैन मनोर लाल साह, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्याम लाल वर्मा व सीतावर पंत सहित बढ़ी संख्या में गणमान्य लोग मौजूद थे। उधर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डुंगर सिंह बिष्ट के अनुसार उनके नेतृत्व में हजारों लोगों ने जनपद के दूरस्थ आगर हाईस्कूल टांडी से आईवीआरआई मुक्तेश्वर तक जुलूस निकाला था। बिष्ट कहते हैं, "उस दिन मानो पहाड़ के गाड़-गधेरों व जंगलों में भी जलसे हो रहे थे"।

Friday, April 27, 2012

इतिहास बन जायेंगे कुमाऊँ-गढ़वाल



पुलिस के कुमाऊं-गढ़वाल परिक्षेत्र समाप्त होने के बाद अब दोनों कमिश्नरी समाप्त किये जाने के लगाए जा रहे कयास

नवीन जोशी नैनीताल। प्रदेश के प्राचीन ऐतिहांसिक पृष्ठभूमि वाले कुमाऊं व गढ़वाल मंडल  इतिहांस में दर्ज हो सकते हैं। प्रदेश सरकार ने राजनीतिक लाभ-हानि के लिहाज से अभी तक गढ़वाल और कुमाऊं परिक्षेत्र को समाप्त करने की अधिसूचना जारी नहीं की है मगर दोनों रेंजों को दो-दो हिस्सों में बांट दिया है, और दोनों रेंजों से आईजी स्तर के अधिकारियों को वापस राजधानी बुला लिया है। इस तरह राज्य की नई पुलिस व्यवस्था के लिहाज से गढ़वाल के बाद कुमाऊं परिक्षेत्र भी समाप्त हो गया है। अब प्रशासनिक विकेंद्रीकरण के नाम पर इन मंडलों की कमिश्नरी के टूटने के कयास लगाये जा रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि  प्रदेश के कुमाऊं व गढ़वाल अंचलों की अंग्रेजों से भी पूर्व भी ऐतिहासिक पहचान रही है।  कुमाऊं में अंग्रेजों से पूर्व कत्यूर, चंद, गोर्खा व गढ़वाल में पाल शासकों के दौर से अपनी ऐतिहांसिक पचान रही  है। कुमाऊं की ही बात karen तो यहाँ मंडल मुख्यालय नैनीताल से 1816  से ‘कुमाऊं किस्मत’ कही जाने वाली कुमाऊं कमिश्नरी की प्रशासनिक व्यवस्था देखी जाती थी। ‘कुमाऊं किस्मत’ के पास वर्तमान कुमाऊं अंचल के साथ ही अल्मोड़ा जिले के अधीन रहे गढ़वाल की अलकनंदा नदी के इस ओर के हिस्से की जिम्मेदारी भी थी। ब्रिटिश शासनकाल में डिप्टी कमिश्नर नैनीताल इस पूरे क्षेत्र की प्रशासनिक व्यवस्था देखते थे। आजादी के बाद 1957 तक यहां प्रभारी उपायुक्त व्यवस्था संभालते रहे। 1964 से नैनीताल में ही पर्वतीय परिक्षेत्र का मुख्यालय था। इसके अधीन पूरा वर्तमान उत्तराखंड यानी प्रदेश के दोनों कुमाऊं व गढ़वाल मंडल आते थे। एक जुलाई 1976 से पर्वतीय परिक्षेत्र से टूटकर कुमाऊं परिक्षेत्र अस्तित्व में आया। यह व्यवस्था अब समाप्त कर दी गई है। इसके साथ ही नैनीताल शहर से पूरे कुमाऊं मंडल का मुख्यालय होने का ताज छिनने की आशंका है। इससे लोगों में खासी बेचैनी है। नगर पालिका अध्यक्ष मुकेश जोशी का कहना है कि इससे निसंदेह मुख्यालय का महत्व घट जायगा। अब मंडल वासियों को मंडल स्तर के कार्य करने के लिए देहरादून जाना पड़ेगा, क्योंकि वरिष्ठ अधिकारी वहीं बैठेंगे। वरिष्ठ पत्रकार व राज्य आंदोलनकारी राजीव लोचन साह का कहना है कि वह छोटे से प्रदेश में मंडल या पुलिस जोन की व्यवस्था के ही खिलाफ हैं। नये मंडल केवल नौकरशाहों को खपाने के लिए बनाये जा रहे हैं।  
बहरहाल, खामोशी से कुमाऊँ व गढ़वाल मंडलों को तोड़ कर सरकार ने वही दोहराया है सियासतदां समस्याओं का निदान किस तरह से करते हैं। मर्ज को दूर करने के बजाय नये मर्ज दे दिये जाते हैं, ताकि पुराने मर्जों के दर्द लोग खुद-ब-खुद भूल जाऐं।

Wednesday, March 14, 2012

उक्रांद ने दोहराया ‘गलतियों का इतिहास’

पार्टी के बिन मांगे कांग्रेस को समर्थन देने से आश्चर्यचकित नहीं राज्य आंदोलनकारी
भाजपा-कांग्रेस की तरह ही कुर्सी प्रेमी साबित हुई उक्रांद
नवीन जोशी, नैनीताल। कहते हैं इतिहास स्वयं को दोराता है, साथ ही यह ही एक सच्चाई है कि इतिहास से मिले सबकों से कोई सबक नहीं सीखता। राज्य के एकमात्र क्षेत्रीय दल बताये जाने वाले उत्तराखंड क्रांति दल यानी उक्रांद ने इतिहास को इसी रूप में सही साबित करते हुऐ अपनी गलती का इतिहास दोहरा दिया है। ऐसे में ऐसी कल्पना तक की जाने लगी है कि पिछली बार की तरह सरकार को समर्थन देने वाला उक्रांद इस बार भी एक दिन सरकार से समर्थन वापस लेगा और सत्ता सुख भोग रहे उसके एकमात्र विधायक पिछली सरकार के दो विधायकों की तरह इस फैसले को अस्वीकार करते  हुऐ अलग उक्रांद बना लेंगे और फिर अगले चुनावों में कांग्रेस के चुनाव पर टिकट ल़कर इस बार पार्टी का अस्तित्व ही शून्य कर देंगे।
यह आशंकाऐं उक्रांद के कांग्रेस सरकार को बिना मांगे और बिना अपनी शर्तें बताऐ समर्थन देने के बाद उठ खड़ी हुई हैं। और बसपा के भी सरकार को समर्थन की घोषणा करने  के बाद तो सरकार बनने से पले ही उक्रांद की स्थिति सरकार को समर्थन दे रहे निर्दल विधायकों से भी बदतर होने की चर्चाऐं होने लगी हैं। ऐसा लगने लगा है कि अपने हालिया राजनीतिक निर्णयों से उक्रांद ने न केवल राज्य की जनता वरन राज्य की आंदोलनकारी शक्तियों का विश्वास भी खो दिया है। राज्य आंदोलन से गहरे जु़ड़े वरिष्ठ रंगकर्मी जहूर आलम कहते हैं, उन्हें उक्रांद के हालिया कदमों से कोई आश्चर्य नहीं हुआ है। इस पार्टी ने राज्य बनने से पूर्व ही प्रदेश की सबसे बड़ी दुश्मन बताई जाने वाली सपा से सांठ-गांठ कर अपने कुर्सी से जु़ड़े रहने के मंसूबे जाहिर कर दिये थे। यही उसके दो विधायकों ने पिछली भाजपा सरकार को और अब जनता से और भी बुरी तरह ठुकराये जाने के बाद एकमात्र विधायक के भरोसे कांग्रेस सरकार को अपनी अस्मिता को भुलाते हुऐ समर्थन देकर प्रदर्शित किया है। उक्रांद को यदि समर्थन देना ही था तो राज्य की अवधारणा से जु़ड़े मुद्दों को शर्तों में आगे रखना चाहिऐ था। उन्होंने कहा कि वास्तव में अब उक्रांद किसी राजनीतिक विचारधारा वाला दल नहीं वरन कुछ सत्ता लोलुप लोगों का जेबी संगठन बनकर रह गया है। राज्य आंदोलनकारी एवं गत विस चुनावों में उक्रांद क¢ स्टार प्रचारक घोषित किये गये वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक समालोचक राजीव लोचन साह की राय भी इससे जुदा नहीं है। उनका कहना है बसपा के समर्थन देने से पूर्व उक्रांद के पास एकमात्र विधायक होने के बावजूद अपनी मांगें रखने का बेहतरीन मौका था। उक्रांद के कदम को बेहद दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए उन्होंने कहा कि जो पिछली बार दिवाकर भट्ट या तत्कालीन अध्यक्ष ने जो किया था, वही इस बार त्रिवेंद्र पंवार ने कर दिया। पूरी आशंका है कि इतिहास स्वयं को दोहराये और उक्राद अपनी शक्ति तीन विधायकों से एक करने के बाद आगे शून्य न हो जाऐ। इससे बेतहर होता कि वह आगामी पंचायत तथा अन्य चुनावों के साथ अपने संगठन और शक्ति का विस्तार करता। पद्मश्री शेखर पाठक ने भी उक्रांद  के हालिया कदम को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुऐ कहा कि उक्रांद ने अपने इन कदमों से स्वयं के साथ ही उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी व उत्तराखंड रक्षा मोर्चा जैसे से जैसे अन्य क्षेत्रीय दलों की भी जनता के बीच विश्वसनीयता क्षींण कर दी है। उन्होंने कहा कि पहले दिवाकर भट्ट ने उत्तराखंड की जनता से दगा किया, और अब फिर यही दोहराया गया है। बेहतर होता कि वह अगले पांच वर्ष मेहनत कर भाजपा-कांग्रेस से स्वयं को बेहतर विकल्प बनाने की शक्ति हासिल करते।

अपने गठन से गलती दर गलती करता रहा है उक्रांद 
नैनीताल। उक्रांद में वर्तमान राजनीति के लिहाज से राजनीतिक चातुर्य या तिक़ड़मों की कमी मानें या कुछ और पर सच्चाई यह है कि वह अपने गठन से ही गलतियों पर गलतियां करता जा रहा है, और इन्हीं गलतियों का ही परिणाम कहा जाऐगा कि वह प्रदेश का एकमात्र क्षेत्रीय दल होने के बावजूद अब निर्दलीयों की भांति एक विधायक पर सिमट गया है। इसके अलावा केवल एक अन्य सीट द्वाराहाट में ही व मुख्य मुकाबले में रहा, जबकि उसके पूर्व  केंद्रीय अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी व डा. नारायण सिंह जंतवाल चौथे स्थान पर रहे। 25 जुलाई 1979 को अलग उत्तराखंड राज्य की अवधारणा के साथ कुमाऊं विवि के संस्थापक कुलपति प्रो. डीडी पंत, उत्तराखंड के गांधी कहे जाने वाले इंद्रमणि बड़ौनी व विपिन त्रिपाठी सरीखे नेताओं द्वारा स्थापित इस दल ने 1994 में विस चुनावों का बहिस्कार कर अपनी पहली राजनीतिक गलती की थी। राज्य गठन के पूर्व उक्रांद के नेता सपा से सांठ-गांठ करते दिखे और अलग राज्य का विरोध कर रहे कांग्रेस-भाजपा जैसी राज्य विरोधी ताकतों को संघर्ष समिति की कमान सोंपकर हावी होने का मौका दिया। शायद यही कारण रहे कि राज्य बनने के बाद वह लगातार अपनी शक्ति खोता रहा। 2002 के पहले विस चुनावों में उसे चार सीटें मिलीं, जो 2007 में तीन और 2012 में मात्र एक रह गई है। 2007 में उसने भाजपा सरकार को समर्थन दिया और फिर समर्थन वापस लेकर अपनी राजनीतिक अनुभव हीनता का ही परिचय दिया। इस कवायद में दल दो टुकड़े भी हो गया। इस के बावजूद उसने पिछली गलती से सबक न लेकर एक बार फिर आत्मघाती कदम ही उठाया है। ऐसे ही अतिवादी रवैये के कारण वह 1995 में भी टूटा, और लगातार टूटना ही शायद उसकी नियति बन गया है।

राज्य के राजनीतिक दल की मान्यता खो देगा उक्रांद
नैनीताल। भारत निर्वाचन आयोग के नये प्राविधानों के अनुसार किसी पार्टी के लिये किसी राज्य की राज्य स्तरीय राजनीतिक पार्टी होने के लिये हर 3 सीटों में से एक सीट जीतनी आवश्यक है तथा प्रदेश में पड़े कुल वैध मतों का छः फीसद हिस्सा भी उसे हासिल होना चाहिऐ। इस आधार पर 70 विस सीटों वाले उत्तराखंड में किसी राजनीतिक दल को राज्य स्तरीय पार्टी का दर्जा हासिल करने के लिये दो से अधिक यानी तीन विधायक जीतने चाहिऐ। जो उक्रांद नहीं कर पाया है। इस आधार पर उससे राज्य की राजनीतिक पार्टी का तमगा छिनना कमोबेश तय है।

Tuesday, March 13, 2012

अब तो बस यह देखिये कि बहुगुणा के लिए 13 का अंक शुभ होता है या नहीं....

"चिंता न करें, जल्द मान जाऊँगा..." शायद यही कह रहे हैं हरीश रावत, उत्तराखंड के सीएम विजय बहुगुणा से  
दोस्तो आश्चर्य न करें, कांग्रेस पार्टी में बिना पारिवारिक पृष्ठभूमि के कोई नेता मुख्यमंत्री बनना दूर आगे भी नहीं बढ़ सकता...बहुगुणा की ताजपोशी पहले से ही तय थी, बस माहौल बनाया जा रहा था.... 

विजय बहुगुणा को उत्तराखंड का सीएम बनाना कांग्रेस हाईकमान ने चुनावों से पहले ही तय कर लिया था. इसकी शुरुवात तब के पराजित भाजपा सांसद प्रत्यासी रहे अंतर्राष्ट्रीय निशानेबाज जसपाल राणा को कांग्रेस में शामिल कराया गया था, ताकि बहुगुणा को सीएम बनाये जाने पर पौड़ी सीट खली हो तो वहां से जसपाल को चुनाव लड़ाया जा सके. तब इसलिए उनका नाम घोषित नहीं किया गया कि पार्टी के अन्य क्षत्रप पहले ही (अब की तरह) न बिदक जाएँ. 6 मार्च को चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद भी नाम घोषित नहीं किया, ताकि सीएम पद का ख्वाब पाल रहे दावेदार बहुमत के लिए जरूरी निर्दलीयों व उक्रांद का समर्थन हासिल कर लायें.  क्षत्रप 36 का आंकड़ा तो हासिल कर लाये, पर यहाँ पर एक गड़बड़ हो गयी. निर्दलीय अपने आकाओं को सीएम बनाने की मांग उठा कर एक तरह से हाईकमान को आँख दिखाने लगे, इस पर हाईकमान को एक बार फिर बहुगुणा को सीएम बनाने की घोषणा टालनी पडी. अब प्रयास हुए बसपा का समर्थन हासिल करने की, बसपा के कथित तौर पर दो विधायक कांग्रेस में आने को आतुर थे, ऐसे में तीसरा भी क्यों रीते हाथ बैठता. ऐसे में बसपाई 12 मार्च को राजभवन जा कर कमोबेश बिन मांगे कांग्रेस को समर्थन का पत्र सौंप आये. अब क्या था, तत्काल ही कांग्रेस हाईकमान ने बहुगुणा के नाम की घोषणा कर दी. इसके तुरंत बाद हरीश रावत गुट ने दिल्ली में जो किया, उससे कांग्रेस में बीते सात दिनों से 'आतंरिक लोकतंत्र' के नाम पर चल रहे विधायकों की राय पूछने के ड्रामे की पोल-पट्टी खुल गयी.  

सच्चाई है कि कांग्रेस हाईकमान के विजय बहुगुणा को सीएम घोषित करने का एकमात्र कारण था उनका पूर्व सीएम हेमवती नंदन बहुगुणा का पुत्र होना. स्वयं परिवारवाद पर चल रहे कांग्रेस हाईकमान के लिए अपनी इस मानसिकता से बाहर निकलना आसान न था, रावत समर्थक सांसद प्रदीप टम्टा कह चुके हैं की बहुगुणा को कांग्रेस के बड़े नेता किशोर उपाध्याय को निर्दलीय दिनेश धने के हाथों हराकर पार्टी की 'पीठ में छुरा भौकने' का इनाम मिला है, जबकि रावत कांग्रेस की 'छाती में वार' करने चले थे. सो आगे उनका 'कोर्टमार्शल' होना तय है, कब होगा-इतिहास बतायेगा.     हरीश रावत और उनके समर्थक नेता इस बात को जितना जल्दी समझ लें बेहतर होगा.. 

किसी भ्रम में न रहें, कुछ भी आश्चर्यजनक या अनपेक्षित नहीं होने जा रहा है, बन्दर घुड़की दिखाने के बाद दोनों रावत (हरीश-हरक) व टम्टा आदि हाईकमान की 'दहाड़' के बाद चुप होकर फैसले को स्वीकार कर लेंगे, किसी शौक से नहीं वरन इस फैसले को ही नियति मानकर, आखिर उनका इस पार्टी के इतर अपना कोई वजूद भी तो नहीं है.  

अब तो बस यह देखिये कि 13 मार्च को प्रदेश के सीएम पद की शपथ ग्रहण करने वाले बहुगुणा के लिए 13 का अंक पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी की तरह पूर्व मान्यताओं के इतर शुभ होता है या नहीं....बहरहाल खंडूडी के बाद उनके ममेरे भाई में प्रदेश की जनता एक धीर-गंभीर मुख्यमंत्री देख रही है..

Tuesday, March 6, 2012

उत्तराखंड विधान सभा चुनाव की समीक्षा

उत्तराखंड में हुए विधान सभा चुनावों के परिणाम कई बातें साफ़ करने वाले हैं. पहली नजर में इन चुनावों में प्रदेश में न तो भ्रष्टाचार का मुद्दा चला है, और न ही अन्ना फैक्टर. लेकिन ऐसा नहीं है. असल में इस चुनाव मैं कुछ अपवादों को छोड़कर पार्टियों के जनाधार के साथ ही नेताओं की व्यक्तिगत छवि की भी परीक्षा हुयी है, और जनता ने उपलब्ध विकल्पों में से बेहतर को चुनने की कोशिश की है. इस प्रकार यह चुनाव काफी हद तक नेताओं को अपनी असल हैसियत बताने वाले साबित हुए हैं. और उम्मेंद की जा सकती है की भावी विधानसभा अपने पूर्व के स्वरुप से काफी बेहतर हो सकती है. 



मेरी इस मान्यता का सिरा इस तथ्य से भी जुदा है की परिणामों में भाजपा-कांग्रेस उमींदों के विपरीत केवल एक सीट के अंतर पर हैं, और दोनों में से कोई एक पूरी कोशिश के बावजूद ३६ के जादुई आंकड़े से बहुत आगे नहीं निकल सकता है, यानी विपक्ष भी मजबूत रहने वाला है. इसका अर्थ यह भी हुआ कि सरकार को अधिक सतर्कता से कार्य करना होगा. दूसरे चुनाव परिणाम इस तरह आये हैं कि दोनों प्रमुख दलों के पास सीमित विकल्प रह गए हैं. जिसकी भी सरकार बनेगी, उसे खुद से ज्यादा समर्थक दल अथवा निर्दलीयों को मंत्रिमंडल तथा सरकार में महत्व  देना होगा, तो भी सरकार की स्थिरता आशकाओं में घिरी होगी. कुछ दिन बात एक एंग्लो-इंडियन विधायक के मनोनयन के बाद स्थिति थोड़ी सहज हो सकती है. इसके साथ ही दोनों पार्टियों के लिए विधायकों में से ही किसी को मुख्यमंत्री बनाने की मजबूरी भी होगी. 

चुनावों में 'जनरल' काफी हद तक अपनी पार्टी को तो जंग जिता गए पर 'खंडूड़ी' खुद के लिए 'जनरल' साबित नहीं हो पाए और अपनी बाजी हार गए.  'खंडूड़ी है जरूरी' का नारा जितना प्रदेश और खासकर मैदानी जिलों में चला, उतना उनकी सीट कोटद्वार में नहीं चल पाया, ऐसे में यहाँ तक कहा जाने लगा कि शायद खंडूड़ी के पहले कार्यकाल में बजी 'सारंगी' को पूरा प्रदेश न सुन पाया हो पर कोटद्वार ने सुन लिया हो. उनकी हार से यहाँ तक कहा जाने लगा है-'खंडूड़ी नहीं रहे जरूरी', वहीँ निशंक पर लगे कुम्भ घोटाले के 'दागों' को डोईवाला की जनता ने माँनो 'दाग अच्छे हैं' कह दिया है. यह निशंक के कुशल राजनीतिक प्रबंधन का परिणाम भी कहा जा सकता है. 

कुमाऊँ में केवल सात विधानसभा क्षेत्रों, सोमेश्वर से अजय टम्टा, डीडीहाट से भाजपा के बिशन सिंह चुफाल, काशीपुर से भाजपा के हरभजन सिंह चीमा, जसपुर से कांग्रेस के शैलेंद्र मोहन सिंघल, अल्मोड़ा से मनोज तिवारी, बागेश्वर से चंदनराम दास एवं जागेश्वर से कांग्रेस के गोविंद सिंह कुंजवाल फिर जीत का शेहरा बंधा पाए। यहाँ 15 सीटों पर भाजपा कब्जा करने में सफल रही, जबकि कांग्रेस ने दस सीटों का आंकड़ा तेरह पर पहुंचाया है, लेकिन दिलचस्प बात यह रही कि वह भी अपनी पांच सीटों को बचा नहीं सकी। पहाड़ पर कांग्रेस और मैदान में भाजपा मजबूत हुई. 

राज्य के दूसरे चुनावों में भाजपा व कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर रही हैं और त्रिशंकु विधानसभा उभर कर आई है। सत्तारूढ़ दल भाजपा को 31 और कांग्रेस को 32 सीटें मिली हैं, और दोनों दल ३६ के जादुई आंकड़े से कुछ दूर रह गए हैं। भाजपा के लिए पंजाब व गोवा में सरकार बनाने का बहुमत मिलाने के साथ ही उत्तराखंड में 'एंटी इनकम्बेंसी' के बीच उम्मींद से बेहतर प्रदर्शन करने का संतोष होगा तो कांग्रेस मणिपुर के इतर एनी सभी राज्यों में हुए 'बज्रपात' जैसी स्थितियों से इतर यहाँ यूपी (28) से अधिक 32  सीटें प्राप्त कर एक सीट के अंतर से ही सही राज्य का सबसे बड़ा दल बनकर उभरी है.  700  से अधिक में से प्रदेश में जीते तीन निर्दलीय विधायक कांग्रेस के बागी हैं, लेकिन चुनाव में टिकट न देने वाली पार्टी के लिए उन्हें सत्ता हथियाने के लिए अपनाना 'थूक कर चाटने' जैसा होगा, लेकिन राजनीति में इसे 'सब चलता है' कहा जाता है. 

वर्तमान विधानसभा में तीसरी ताकत के रूप में मौजूद बहुजन समाज पार्टी व क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति दल को मतदाताओं ने नकार दिया है। बसपा को पांच सीटें गंवानी पड़ीं, जबकि यूकेडी के हाथ से दो सीटें छिटक गई। विधानसभा चुनाव 2007 में बसपा को आठ व उक्रांद को तीन सीटें मिली थीं, जबकि इस बार उक्रार्द का एक धड़ा-डी अस्तित्व विहीन हो गया है, जबकि दूसरे-पी ने केवल एक सीट जीतकर पार्टी का नामोनिशान मिटने से बचाया है. 

भाजपा सरकार के मुख्यमंती सहित पांच मंत्री मातबर सिंह कंडारी, त्रिवेंद्र सिंह रावत, प्रकाश पंत, दिवाकर भट्ट, बलवंत सिंह भौंर्याल  चुनावी रन में खेत रहे हैं हो  कांग्रेस  के तिलकराज बेहड़,  पूर्व मंत्री शूरवीर सिंह सजवाण, किशोर उपाध्याय, जोत सिंह गुनसोला, काजी निजामुद्दीन जैसे पांच दिग्गजों ने शिकस्त खाई है. वहीँ बसपा के मोहम्मद शहजाद व नारायण पाल, उक्रांद-पी के काशी सिंह ऐड़ी व पुष्पेश त्रिपाठी, रक्षा मोर्चा के टीपीएस रावत, केदार सिंह फोनिया, उत्तराखंड जनवादी पार्टी के मुन्ना सिंह चौहान और निर्दलीय यशपाल बेनाम को हार का सामना करना पड़ा है। उक्रांद के दूसरे धड़े 'डी' यानी डेमोक्रेटिक की 'पतंग' उड़ने से पहले ही कट गयी है. वहीँ 'पी' के कद्दावर नेता ऐड़ी मुख्य मुकाबले से बाहर तीसरे स्थान पर रह गए. विधान सभा अध्यक्ष हरबंश कपूर ने लगातार सातवी बार जीत का रिकार्ड कायम किया है.

कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी अपने खास प्रकाश जोशी को कालाढूंगी से नहीं जिता पाए तो विकास  पुरुष कहे जाने वाले 'एनडी' अपनी 'निरंतर विकास समिति' को कांग्रेस के हाथो 'बेचकर खरीदी गयी' तीन में से दो सीटें नहीं जीत पाए. उनके भतीजे मनीषी तिवारी गदरपुर में चौथे स्थान पर 'धकिया' दिए गए तो दून से हैदराबाद तक उनके हाथों 'मनपसंदों का विकास' कराने वाले पूर्व ओएसडी आर्येन्द्र शर्मा को भी मुंह की खानी पडी है.  अपने निजी हितों के आगे एनडी कितने 'बौने' हो सकते थे, यह इस चुनाव ने प्रदर्शित किया. चर्चा तो यह भी थी कि कांग्रेस कि सत्ता आने पर 'दो-ढाई वर्ष सीएम' बनाने की घोषणा कर चुके एनडी मनीषी से इस्तीफ़ा दिलाकर खुद चुनाव लड़ने की भी सोच रहे थे. 

कांग्रेस के बडबोले (छोटे से प्रदेश में डिप्टी सीएम का राग अलापने वाले) व हैट्रिक का सपना देख रहे बेहड़ की हार की पटकथा तो खैर अहिंसा दिवस के दिन रुद्रपुर में फ़ैली हिंसा के दौरान ही लिख दी गयी थी. बसपा के बड़ा ख्वाब देख रहे नारायण पाल का अपने भाई मोहन पाल के साथ विधान सभा पहुँचाने का ख्वाब भी जनता ने तोड़ दिया. वहीँ टिकट वितरण में सबको पछाड़ने वाले हरीश रावत पर अपनी वह सफलता अब आफत बन गयी है. वह अपने पुराने (अल्मोड़ा-भाजपा,कांग्रेस 3-3  सीटें) और नए (हरिद्वार-भाजपा 5, कांग्रेस-बसपा 3-3) दोनों राजनीतिक घरों में अपने प्रत्यासियों को चुनाव नहीं जिता पाए हैं.वर्तमान हालातों में उनका भी सीएम बनाने का ख्वाब टूट ही गया लगता है.

स्त्रीलिंगी गृह 'शुक्र' के राज वाले नए विक्रमी संवत ( शुक्र ही नए वर्ष के राजा और मंत्री हैं, लिहाजा महिलाओं को राजनीतिक सत्ता दिला सकते हैं) में अकेले नैनीताल जनपद से कांग्रेस की 'तीन देवियाँ' इंदिरा हृदयेश, अमृता रावत व सरिता आर्य विजय रही हैं, उनके साथ ही शैलारानी रावत कांग्रेस से तथा भाजपा से पूर्व मंत्री विजय लक्ष्मी बडथ्वाल भी जीती हैं, और पहली बार राज्य में महिला विधायको की संख्या एक बढ़कर पांच पहुंची है. इंदिरा ने तो 42,627 वोट प्राप्त कर रिकार्ड 23,583 मतों के अंतर से जीत दर्ज की है. वहीँ सरिता ने आजादी के बाद नैनीताल की पहली महिला विधायक और राज्य की पहली अनुसूचित वर्ग की महिला विधायक चुनकर इतिहास रच दिया है. अलबत्ता अमृता की जीत में उनके पति 'महाराज' का भी योगदान है. आगे इनमें से कोई महिला सत्ता शीर्ष पर पहुँच जाए तो आश्चर्य न कीजियेगा.

गोविन्द सिंह बिष्ट व खजान दास को भाजपा द्वारा विधान सभा का टिकट ही न दिए जाने और अब मातबर सिंह कन्दरे के अपने साधू भाई से अनपेक्षित चुनाव हार जाने के बाद प्रदेश में किसी भी शिक्षा मंत्री के चुनाव न जीत पाने का मिथक बरकरार रहा है. अब गंगोत्री में कांग्रेस प्रत्यासी विजय पाल सिंह सजवाण की जीत के बाद उन्हीं की पार्टी की सरकार बनाने का मिथक देखना बाकी है.

Monday, February 13, 2012

वैलेंटाइन डे पर इतिहास रचने की दहलीज पर नैनीताल


जल्द गुर्राएंगे नैनीताल जू में रॉयल बंगाल टाइगर के शावक
देश में पहली बार किसी चिड़ियाघर में होगा इस तरह कारनामा
नवीन जोशी, नैनीताल। नैनीताल स्थित गोविंद बल्लभ पंत उच्च स्थलीय प्राणि उद्यान इतिहास रचने की दहलीज पर है। यह देश में पहली बार होगा जब जंगल के प्राकृतिक वास स्थल से इतर, किसी चिड़ियाघर में बाघों का जोड़ा मानवीय हस्तक्षेप के बीच अपनी नयी संतति को जन्म देगा। इसके साथ ही नैनीताल चिड़ियाघर देश में केवल 1411 बाघ ही बचे होने की दुश्चिंताओं के बीच चल रही ‘बाघ बचाओ मुहिम’ का अनूठे अंदाज में हिस्सा बनने जा रहा है। 
जनपद के जिम काब्रेट पार्क स्थित बिजरानी क्षेत्र के 10 वर्षीय नर रॉयल बंगाल टाइगर और सांवल्दे की उसी नस्ल की मादा टाइगर के बच्चे पैदा होने हैं। नर के बारे आशंका थी चार फरवरी 2009 को काब्रेट पार्क के सर्पदुली रेंज के ढिकुली गांव में भगवती देवी नाम की महिला को उसी ने मारा था। एक पखवाड़े बाद बमुश्किल उसे घायलावस्था में पकड़कर नैनीताल चिड़ियाघर उपचार के लिए लाया गया। इसी दौरान सांवल्दे क्षेत्र में रॉयल बंगाल टाइगर नस्ल की मादा वन विभाग के अधिकारियों को घायल अवस्था में मिल गई। उसे भी उपचार के लिए यहां लाया गया। इसी बीच नैनीताल चिड़ियाघर प्रशासन के मन में उनके बीच ‘वाइल्ड ब्रीडिंग’ कराने का विचार आया, लेकिन यह आसान नहीं था। एक-दूसरे के करीब आने का मौका देने व सहवास की सहमति देने के मामले में वन्य प्राणी मानव से भी कहीं अधिक उग्र माने जाते हैं। बाघों की मादाएं तो इस बारे में बदनाम ही हैं कि वह ऐसी कोशिश करने वाले अनजान नरों को संघर्ष में मार ही डालती हैं। यहां ऐसा नहीं हुआ। चिड़ियाघर प्रशासन मई माह में दोनों को एक बाड़े में ही मोटी लोहे की जाली के इधर-उधर रखने में सफल हुआ। दोनों के बीच उम्मीद से कहीं पहले प्रेम के अंकुर फूटने लगे। इस तरह चिड़ियाघर प्रबंधन दोनों के बीच गत 16 नवंबर को सहवास (मेटिंग) कराने में सफल हो गया, वरिष्ठ पशु चिकित्साधिकारी डा. योगेश भारद्वाज ने मादा रॉयल बंगाल टाइगर के गर्भवती होने की पुष्टि कर दी है। उन्होंने बताया कि देखने से वह करीब तीन माह की गर्भवती लग रही है। इस नस्ल की मादा 93 से 111 दिनों में शावकों को जन्म देती है। एक बार में सामान्यतया दो से तीन तक शावक जन्म लेते हैं। उम्मीद की जा रही है कि जल्द ही चिड़ियाघर में रॉयल बंगाल टाइगर के इस जोड़े के घर में नन्हे शावकों की गुर्राहट गूंजेंगी। इस लिहाह से वैलेंटाइन डे पर मादा बाघ को गर्ववती हुए 92 दिन हो गए हैं, और वह कभी भी खुशखबरी दे सकती है  चिड़ियाघर के निदेशक डा. पराग मधुकर धकाते भी चिड़ियाघर के नाम दर्ज होने जा रही इस सफलता के प्रति खासे उत्साहित हैं। उन्होंने बताया कि प्राकृतिक वास स्थल से इतर बाघों की चिड़ियाघर में ‘वाइल्ड ब्रीडिंग’ होने का देश में यह पहला मौका होगा। 
नरभक्षी नहीं नर...
नैनीताल चिड़ियाघर में जल्द पिता बनने जा रहे नर रॉयल बंगाल टाइगर के नरभक्षी होने की आशंका जताई जा रही थी, लेकिन चिड़ियाघर के पूर्व निदेशक बीजू लाल टीआर इस आशंका को सही नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि इसके ‘केनन’ यानी शिकारी दांत इसे यहां लाने के दौरान बिल्कुल सही स्थिति में थे और इसे किसी प्रकार की चोट भी नहीं लगी थी।