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Thursday, July 15, 2010

हरेला: लाग हरिया्व, लाग दसैं, लाग बग्वाल, जी रये, जागि रये....

नवीन जोशी, नैनीताल। `लाग हरिया्व, लाग दसैं, लाग बग्वाल, जी रये, जागि रये, यो दिन यो मास भेटनैं रये, तिष्टिये, पनपिये, हिमाल में ह्यूं छन तक, गंग ज्यू में पांणि छन तक, अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये, स्याव कस बुद्धि हो, स्यों जस तराण हो, दुब जस पंगुरिये, सिल पिसी भात खाये, जाँठ टेकी झाड़ जाए...´ यानी 10वें दिन कटने वाला हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे,  बग्वाल तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीते रहो, जाग्रत रहो, यह शुभ दिन, माह तुम्हारी जिन्दगी में आते रहें, समृद्ध बनो, विकसित होवो, हिमालय में जब तक बर्फ है, गंगा में जब तक पानी है, आकाश की तरह ऊँचे हो जाओ, धरती की तरह चौड़े हो जाओ, सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, दूब घास की तरह फैलो, (इतनी अधिक उम्र जियो कि) भात भी पीस कर खावो..... यह वह आशीषें  हैं जो कुमाऊं अंचल में एक ऋतु व प्रकृति पर्व हरेला के अवसर पर घर के बड़े सदस्य सात अनाजों की पीली पत्तियों (हरेले के तिनड़ों) को बच्चों, युवाओं के सिर में रखते हुऐ देते हैं। इन ठेठ कुमाउनी आशीषों में त्रेता युग में देवर्षि विश्वामित्र द्वारा भगवान श्रीराम को दी गईं "आकाश की तरह ऊँचे होने और धरती की तरह चौड़े होने" की आशीषों का भाव भी है प्रियजन घर की बजाय दूर प्रवास पर सात समुद्र पार भी हों तो उन्हें हरेले के पीले तिनके चिटि्ठयों के जरिऐ भेजे जाते हैं, जिनका उन्हें भी वर्ष भर इन्तजार रहता है।
हरेला कुमाऊं में वर्ष में तीन बार, चैत्र माह के प्रथम दिन, श्रावण माह लगने से नौ दिन पूर्व आषाड़ माह में और आश्विन नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है, और इसी प्रकार नौ दिन बाद चैत्र माह की नवमी, श्रावण माह के प्रथम दिन और दशहरे के दिन काटा जाता है। श्रावण मॉस में मनाया जाने वाला हरेला बरसात के दिनों में पवित्र व शिव के माने जाने वाले श्रावण मास की संक्रांति को मनाया जाता है, इसी दिन सूर्यदेव दक्षिणायन तथा कर्क से मकर रेखा में प्रवेश करते हैं हरेले के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौं, मक्का, उड़द, सरसों, गहत, कौंड़ी, मादिरा, धान और भट्ट आदि के बीज घर के भीतर रिंगाल की टोकरियों अथवा लकड़ी के बक्सों में एक विशिष्ट पद्धति से पांच अथवा सात परतों में मिट्टी के साथ बोये जाते हैं, और प्रतिदिन नियमानुसार सुबह-शाम पूजा के बाद पानी दिया जाता है। धूप की रोशनी न मिलने के कारण यह पौधे पीले तिनकों के रूप में दिखते हैं। 10वें दिन यानी संक्रान्ति को इन्हें घर के बुजुर्ग अथवा महिलाऐं काटकर आशीषों के साथ पहले घर के मन्दिरों, फिर गांव के मन्दिरों, घर के द्वारों तथा बाद में बच्चों, युवाओं व बड़ों को एक विशेष  पद्धति से पांवों से शुरू करते हुऐ शिर में आशीषों  के साथ चढ़ाते हैं। माना जाता है कि जिस घर में हरेले के पौधे जितने बड़े होते हैं, उसके खेतों में उस वर्ष उतनी ही अच्छी फसल होती है। इस प्रकार इस पर्व से बिना सूर्य की रोशनी के दुरूह परिस्थितियों में पौधों को अधिक तेजी से उगाने की प्रेरणा भी मिलती है। इस त्योहार को उत्तम कृषि उपज, हरियाली, धनधान्य, सुख संपन्नता आदि से भी जोड़ा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शिव पत्नी सती को अपना कृष्ण वर्ण नहीं भाता था, इसलिऐ वह अनाज के पौधों, हरेले के रूप में गौरा रूप में अवतरित हुईं। इस पर्व को शिव विवाह से भी जोड़ा जाता है। इस दिन शिव पार्वती की पूजा का प्राविधान है।
डिकारों का भी है प्राविधान
हरेले की पूर्व संध्या को डिकारे बनाने का प्राविधान है। सामान्यतया लाल चिकनी मिट्टी से बिना किसी सांचे के शिव, गौरा एवं गणेश जी की मूर्तियां बनाई जाती हैं, जिन्हें डिकारे कहा जाता है। कई बार डिकारे केले के तने, भृंगराज आदि से भी बनाऐ जाते हैं। इनमें पहले चावल के आटे से श्वेत तथा फिर किलमोड़े, अखरोट, पांगर के छिलकों, कोयले तथा विभिन्न वनस्पतियों के प्राकृतिक रंगों से रंग कर चेहरे की आकृतियां बनाई जाती हैं। शिव सामान्यता नीले तथा गौरा सफेद बनाई जाती हैं। 
देश में अन्य जगह भी मनाऐ जाते हैं ऐसे ही ऋतु पर्व
 हरेला जैसे ही ऋतु पर्व देश के अन्य हिस्सों में कमोबेश समान एवं अलग तरीकों से मनाऐ जाते हैं। यहाँ उत्तराखंड के के गढ़वाल अंचल में हरियाला पर्व मनाया जाता है। इसके साथ ही झारखण्ड में बालिकाओं द्वारा अंकुरित बीजों के चारों ओर सामूहिक गायन के साथ इसी तरह का त्यौहार मनाया जाता है, राजस्थान में जौ के बीजों के साथ गणगौर पर्व, हिमाचल प्रदेश के लाहुल में शीत ऋतु में अंधेरे में जौं के पीले अंकुरों (यौरा) उगाने के रूप में, हरियाणा और पशिम बंगाल में दशहरे के दौरान तथा अरुणांचल  प्रदेश में भी ऐसे ही त्यौहार मनाऐ जाते हैं।

Monday, July 5, 2010

मेरा अमेरिका-मेरा भारत: मेरी नैनीताल से नैनी यात्रा


मैं कभी अमेरिका नहीं गया, पर अमेरिका में रह रहे प्रवासी भारतीयों के वतन वापसी के कई रोचक प्रसंग कहानियों अथवा फिल्मों के माध्यम से पढ़े-सुने-देखे हैं। यूं जीवन में मैंने कई यात्राऐं की हैं, किन्तु जिस हालिया यात्रा को मैं अपने जीवन की सबसे रोचक यात्रा मान सकता हूं वह महज 150 किमी के भीतर की होते हुए भी मेरे लिऐ अमेरिका से भारत की सी है, और इस यात्रा से मुझे कमोबेश कुछ उसी तरह की अनुभूति हुई है, जैसी शायद प्रवासी भारतीयों को अमेरिका से भारत आकर होती होगी। यह यात्रा 'छोटी बिलायत' यानी उत्तराखंड के कुमाऊं मण्डल व अपने ही नाम के जिले के मुख्यालय विश्व विख्यात पर्वतीय पर्यटन नगरी (सरोवर नगरी) 'नैनीताल' से अल्मोड़ा जनपद में जागेश्वर से आगे एक दूरस्थ पड़ाव 'नैनी' (चौगर्खा) की है। यह दोनों स्थान मेरे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। नैनीताल मेरी कर्मभूमि है, तो नैनी की मिट्टी में मेरा बचपन बीता है।


नैनीताल और नैनी में नाम की समानता के साथ और भी बहुत कुछ एक सा है, तो अन्य मामलों में अमेरिका व भारत जैसी वृहद असमानताऐं भी हैं। पहाड़ के यह दोनों स्थान प्राकृतिक रूप से अद्वितीय हैं। दोनों जगहों से हिमालय की उत्तुंग धवल चोटियां मनोहारी दिखती हैं। वरन, मुझे यह कहने में भी गुरेज नहीं कि यदि नैनीताल में ताल न होता तो शायद यह स्थान भी नैनी ही कहलाता, और `नैनी´ से कई मामलों में कमतर होता। नैनी में नैनीताल से कहीं अधिक विस्तृत गंगोलीहाट से लेकर पिथौरागढ़ की चोटियों तक व जागेश्वर-बृद्ध जागेश्वर के बाजांणी धूरों (बांज के घने जंगलों) तक साफ दिखता चौड़ा फलक, थोड़ा ऊपर चोटी से साफ सुनाई देता नीचे बहती सदानीरा सरयू नदी के साफ-स्वच्छ नीले जल का कल-कल निनाद औरं कभी न भुलाया जाने वाला चीड़ के जंगलों में चलती हवा की सरसराहट का संगीत। 
नैनी अंग्रेजों के जमाने में अल्मोड़ा-झूलाघाट पैदल मार्ग पर चर्चालीखान  (खान यानी पैदल यात्रा मार्ग के पड़ाव) की ऊंची चोटियों और सरयू नदी की घाटी के पास के न्योलीखान के मध्य स्थित एक पड़ाव था। यहां अंग्रेजों के जमाने का एक डांक बंगला आज भी बिना खास देखभाल के भी ठीक ठाक स्थिति में है। यहां न सर्दी अधिक पड़ती है, न गर्मी। अलबत्ता बचपन के दिनों में यहां सर्दियों में प्रकृति सफेद रुई के फाहों सी बर्फ का तोहफा एक-दो बार जरूर दे जाया करती थी। नैनी 1982 में सड़क आने के बाद तक भी पैदल यात्रा मार्ग का एक पड़ाव ही था, इसलिए यहां पहाड़ी घाटियों में उत्पादित होने वाले आम व केला जैसे फलों के साथ मध्यम ऊंचाई में होने वाले नींबू, सन्तरा, माल्टा, अमृत फल, जमीर व अधिक ऊंचाई में होने वाले आडूं, पुलम, खुमानी, अखरोट आदि फलों की बहार थी। पहाड़ी फल बेड़ू, तिमिल, काफल आदि भी बहुत मिलते थे। 
लेकिन मेरे बचपन के नैनी और युवावस्था के नैनीताल में शायद अमेरिका व भारत जैसा ही बड़ा अन्तर तब भी था, और कमोबेश आज भी बरकरार है। और यह अन्तर प्रकृति से इतर इन दोनों स्थानों के लोगों के बात-व्यवहार से लेकर मानव द्वारा बसाई बाहरी दुनिया का है। तब यहां न सड़क थी, और न बिजली, टेलीफोन जैसे कोई भी आधुनिक सुविधाऐं। सरकारी व्यवस्था के नाम पर एक-एक प्राइमरी पाठशाला व हाईस्कूल, एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, डाकखाना और पानी की एक टंकी, जिसमें यदि पानी न आ रहा हो तो कहीं शिकायत करने की जरूरत नहीं। लोग आपस में बेहद मिल-जुलकर रहते थे। पड़ाव के कुछ लोग स्वयं ही इकट्ठे होकर लगभग दो किमी दूर जल-श्रोत के गधेरे पाइप रिंच लेकर चल पड़ते और लाइन ठीक कर पानी जोड़ लाते। अन्य कार्यों में भी लोगों में आपस का मेल-जोल देखने लायक होता। किसी के घर में कुछ भी अच्छी चीज बनती, पेड़ पर फल लगते तो सभी में बंटते। बहुत जरूरी होने पर लेन-देन की पैंच कही जाने वाली व्यवस्था पर जीवन चलता था। खरीद-फरोख्त बेहद सीमित। पड़ाव में रहने वाले बाहरी लोगों को करीब एक रुपऐ लीटर दूध व 25 रुपऐ किग्रा के भाव घी मिल जाया करता था। फल-सब्जियां भी बेहद सस्ते थे। एक रुपऐ किलो आलू और एक रुपऐ बीसी (दर्जन की जगह बीस का भाव ही सामान्यतया बताया जाता था) केले मिलते थे। मुझे याद है बाद में जब दो रुपऐ बीसी केले हुऐ थे, तो पड़ाव में सभी ने कहा था, अब केले कौन खाऐगा ? कभी गोश्त खाने का मन हुआ तो पड़ाव के लोग एक बकरा ले आते थे, और उसके बिना तराजू बराबर हिस्से कर आपस में बांट लिऐ जाते थे। मुझे याद नहीं हमने कभी पांच रुपऐ धड़ी (पांच किलो) के भाव आलू के अलावा कभी कोई सब्जी खरीदी हो। वह तराजू का जमाना ही नहीं था। वहां बाहर से लोग आते तो उन्हें अतिथि देवता की तरह आदर-सम्मान दिया जाता था।
और इधर नैनीताल, जहां हर ओर तराजू और बाजार है। जहां रोज सैलानियों के रूप में हजारों अतिथि देवता आते तो हैं, पर उन्हें भूखे भेड़ियों की नज़रों से देखा जाता है। उन्हें हर कदम पर नोचा जाता है। सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी `झटके´ से काट दी जाती है, उसे `हलाल´ होने तक का मौका नहीं दिया जाता। होटल के नाम पर, घुमाने के नाम पर, बस बेवकूफ बनाने की प्रतिस्पर्धाऐं चलती रहती हैं। सैलानियों से ही नहीं, स्थाई रूप से रहने आऐ बाहरी लोगों को किराऐ पर कमरा देने से लेकर स्थानीय मूल वाशिन्दों से भी बाजार कोई मुरौबत नहीं करता। सब्जियां दुकान पर हफ्तों-पखवाड़ों सूखने-सड़ने के बाद फेंक दी जाती हैं, लेकिन गरीबों-भिखारियों को भी एक रुपऐ सस्ती नहीं दी जातीं। 
नैनी, मेरे बचपन का गांव, हमेशा से मेरे मन में बैठा, मुझे वापस बुलाने को जैसे पुकारता हुआ। लेकिन नैनीताल के बाजार में बैठा मैं, कभी फुरसत ही नहीं मिलती। लेकिन इस बार शायद आदेश ईश्वरीय था, और मैं  इस 21 जून की सुबह करीब पौने आठ बजे अपने अमेरिका से बच्चों को स्कूटर पर ही लेकर नैनी के लिए चल पड़ा अपने बचपन के भारत यानी नैनी की राह पर। स्कूटर इसलिए क्योंकि बच्चों को कार में पहाड़ी रास्तों पर उल्टियाँ होने की शिकायत है। उस जमाने की बसों की रफ्तार के हिसाब से अन्दाजा लगाया था कि शाम तक जागेश्वर धाम ही पहुंच पाऐंगे। वहां कुमाऊं मण्डल विकास निगम के रेस्ट हाउस में कमरा बुक किया था। योजना थी कि रात्रि वहीं विश्राम कर सुबह मन्दिर में पूजा-पाठ करेंगे और सुबह वहां से 17 किमी आगे नैनी जाकर शाम तक करीब 52 किमी वापस अल्मोड़ा लौट आऐंगे। लेकिन रास्ते में रुकते-सुस्ताते हुऐ भी हम दोपहर सवा बजे के करीब जागेश्वर पहुंच गऐ। कमरे में सामान रखा, थोड़ा सुस्ताऐ भी, अब क्या करें। यूं राह में पहले भी अन्दाजा हो गया था कि जागेश्वर जल्दी पहुंच रहे हैं, क्या सम्भव है कि शाम को ही सीधे नैनी भी चल पड़ें। मैं आखिरी बार 1985 में नैनी से लौटा था, सो मन में 25 वर्ष बाद अपने बचपन के भारत को देखने की भावनाऐं हिलोरें मार रही थीं। और हम चल पड़े। बच्चे भी मेरे सपनों में अक्सर आने वाले गांव को देखने की छटपटाहट को जैसे समझ रहे थे।
`देखो, हम बचपन में यहां ब्रह्मकुण्ड में सुबह-सुबह ठण्डे जल से स्नान कर जागनाथ जी के मन्दिर में दर्शन करने जाते थे। इसी के बगल की इस पगडण्डी से पैदल नैनी जाते थे´ मैं बच्चों को बताता चल रहा था, और बच्चे आश्चर्य में थे कि तब हम बच्चे कैसे 17 किमी पैदल जाते थे। उन्हें इस बात पर सहज विश्वास नहीं हुआ, और यह तो उनके लिए अकल्पनीय था कि हम पनुवानौला (जागेश्वर से करीब 10 किमी पहले का स्थान, कहते हैं यहां महाभारत काल में बना पाण्डवकालीन नौला यानी पानी का चश्मा है।) से शौकियाथल, बृद्ध जागेश्वर के घने बाघ-भालुओं युक्त वनों से होते हुऐ नैनी पैदल आते-जाते थे। 
हम उस डामरीकृत परन्तु बुरी तरह से उखड़ी हुई सड़क पर आगे बढ़े, जो पहले कच्ची हुआ करती थी। देवदार के सुरम्य वन को पार कर चीढ़ के वनों की ऊंचाई पर पहुंचे। चीढ़ की चाहे जितनी बुराई होती हो, लेकिन न जाने क्यों अंग्रेजी, व्यवसायिक व पर्यावरण शत्रु के रूप में कुख्यात यह वृक्ष मुझे बचपन से ही मानव मित्र सा प्रतीत होता रहा है। शायद, इसलिऐ कि इसी की छांव तले नैनी में मेरा बचपन बीता। इसी की लकड़ियों पर हमारे घर का चूल्हा जलता था, और सैकड़ों स्थानीय लोगों का भी, जो `लिसुओं´ के रूप में इस पेड़ के तनों को एक खास तरह के बसूले (छोटा कुल्हाड़ा) से खोप-खोप कर लीसा निकालते थे। लीसे को पहले छोटे कुप्पों और फिर कनस्तरों में एकत्र किया जाता। इन्हें स्थानीय और बाहर स्थित टरपिनटाइन फैक्टरियों में भेजा जाता, जहां इससे रेजिन व तारपीन का तेल बनाया जाता। तब मैं बालक था, पर खूब प्रचलित `लीसा चोर´ जैसे शब्दों को सुना करता था। मुझे लगता था, कुछ लोग सरकारी व्यवस्था के इतर लीसे को अन्यत्र बेचते होंगे, और इसलिऐ चोर कहे जाते होंगे। `लीसा चोर सेठ हो गऐ हैं, चीड़ के पेड़ों को इमारती लकड़ी के लिए अवैध रूप से चोरी-छुपे बड़े स्तर पर काटा जा रहा है,´ यह भी सुना जाता था। इधर 1983 से सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के बाद 1000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर पेड़ काटने पर जो प्रतिबंध लगा, उसका असर, बल्कि बुरा असर कुछ हद तक इस बार मुझे जंगलों में दिखाई दिया। जंगलों में बूढ़े पेड़ अपनी उम्र पूरी कर ही गिर पा रहे हैं, इस कारण नई पौध व नऐ जंगल विकसित नहीं हो पा रहे हैं। लेकिन इन आरोपों की पुष्टि मुझे नहीं हुई कि चीड़ बांज एवं अन्य चौड़ी पत्ती के उपयोगी वनों में घुसपैठ और अतिक्रमण कर रहा है। जागेश्वर के पास ही मैंने देखा, नदी के एक ओर उत्तरी ढाल पर देवदार का घना सुरम्य वन और दूसरी ओर 25 वर्ष बाद भी वही बिखरा छंटा हुआ सा चीड़ का जंगल। यानी, चीड़ ने दूसरे वनों में अतिक्रमण नहीं किया। वह दूसरों को हटा कर प्रतिस्थापित नहीं हुआ।
हम आगे बढ़े। यह 'चमुवा' नाम का गांव था, जहां आकर मैं सुखद अनुभूति से भर उठा। रास्ते भर मैंने पानी के लिए कनस्तर, डिब्बे आदि लेकर घूमतीं महिलाओं, बच्चों को देखा था। लेकिन यहां जगह-जगह पानी के तालाब भरे हुऐ थे। यह वर्षा जल संग्रहण का व्यवस्थित प्रयास था, जिससे ग्रामीण खेतों में फसलें लहलहा रहे थे। यहां काफी संख्या में `पॉली हाउस´ भी मुझे दिखाई दिऐ। नैनी पहुंचने की जल्दी में मैं यहां रुककर और जानकारियां इकट्ठा नहीं कर पाया। सोचा, लौटते हुऐ रुकुंगा, लेकिन लौटते समय अंधेरा घिर जाने के कारण यह सम्भव न हो पाया। 
आगे 'भगरतोला' के पास हम बड़ा ऊंचा टावर देखकर चौंके। इसकी तो कल्पना ही नहीं की थी। शायद किसी मोबाइल कंपनी का टावर था। जमाना बदल रहा है, सोचते हुऐ हम आगे बढ़े। अगले मोड़ पर एक दुकान बन गई थी। यहां से नैनी की झलक दिख गई। मुझे विश्वास हो गया, अब नैनी पहुंच जाऐंगे। पता नहीं क्यों अब तक मुझे अपनी यादों में बसी इस जगह वापस पहुंच पाने का जैसे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था। अब मुझे 'चर्चालीखान' पहुंचने का इन्तजार था। इससे पहले ही एक स्थान, जहां बहुत कम धूप आने के कारण बेहद नमी रहती थी, इस कारण वहां सड़क भी बहुत दिन अपने निर्माण के दौर में अटकी रही, वहां गांव की प्रतीकात्मक लालटेनें लटकाऐ हुऐ आलीशान होटल बन रहा था। मुंह से निकला, जंगल में मंगल।
मेरे मन में बसा था 'चर्चाली', यहां बचपन में जी भर कर खाऐ पुलम, आढू, खुमानी जैसे फलों का स्वाद आज भी जैसे मेरी जिह्वा भूली नहीं है। लेकिन यह क्या, आज उस जमाने से भी अधिक उजड़ा हुआ था चर्चाली। वहां फलों का भी नामोनिशान नहीं था। मुझे अच्छा नहीं लगा। सामने सड़क पर एक जगह पर चीड़ की पत्तियों (पिरूल) की चादर बिछी हुई थी, हम आराम से वहां पसर गऐ। पत्नी ऐसे बैठने को चादर साथ लाना भूल गई थी, लेकिन यहां चादर बिछाने की जरूरत ही नहीं थी। बच्चे हमारे बचपन के खेल की तरह ही चार नुकीली पत्तियों वाला पिरूल ढूंढने में लग गऐ। सामान्यतया पिरूल में तीन पत्तियां एक साथ होती हैं, किन्तु कहा जाता है कि जिसे चार पत्तियों वाला पिरूल मिल जाता है, वह भाग्यशाली होता है। 
हम करीब तीन किमी आगे सैम मन्दिर पहुंचे। इस मन्दिर से मेरी कई यादें जुड़ी हुई थीं। यहां से थोड़ा आगे बढ़े तो पक्की सड़क कच्ची रह गई। सड़क के एक ओर मजदूरों द्वारा तोड़ कर ढेर लगाऐ गऐ 'डांसी' (खास तरह के मजबूत पत्थर) पत्थर ठीक उसी तरह दिखाई दिऐ, जैसे 25 वर्ष पूर्व दिखाई देते थे। यह पत्थर सड़क के डामरीकरण से पूर्व की तैयारी में सड़क पर बिछाने के लिए थे। यह सोचते सोचते मल्ला नैनी आ गया। तब ही की तरह केवल एक दुकान, हां वहां सरकारी सस्ता गल्ला विक्रेता का बोर्ड लटक गया था। सामने बुजुर्ग दुकानदार दिखाई दिऐ। चेहरा पहचाना हुआ सा, लेकिन नाम याद नहीं। मैंने प्रणाम कहते हुऐ स्कूटर रोक दिया। वह जैसे धन्य हो गऐ। बातें, पुराने परिचय का सिलसिला शुरू हो गया। वह रमेश भट्ट जी थे। कहने लगे, बस ढाई किमी सड़क पक्का होने से बची है। बस दो परतें और चढ़नी हैं और पूरी सड़क पक्की। मैंने कहा, यही 25 वर्ष पहले भी हम कहते थे। हां, 17 किमी में से 14.5 किमी सड़क जरूर पक्की हो गई। यह अलग बात है कि पूरी बनने से पहले कभी मरम्मत न होने के कारण काफी उखड़ भी गई। 
चर्चाली और पूरे क्षेत्र में फलों के खत्म होने की उन्होंने जानकारी दी। बताया, शायद जब से आप गऐ, तभी से फल खत्म हो गऐ, वो 'दो रुपऐ बीसी' वाले पहाड़ी केले अब किसी भाव उपलब्ध नहीं, अन्य फल भी गायब। कारण कुछ तो बाग मालिकों की पिछली पीढ़ी के दिवंगत होने के बाद नयी पीढ़ी द्वारा ध्यान न दिया जाना, और कुछ मौसम की बेरुखी। अब सब्जियां, फल, अनाज सब कुछ हल्द्वानी मण्डी से आता है। भट्ट जी ने बताया, `कई वर्षों से बर्फ नहीं पड़ रही, पानी बरसना भी लगातार कम होता जा रहा है। पहाड़ की खेती आसमानी मेहरबानी पर ही निर्भर ठैरी....´। सामने एक पेड़ में नाशपाती खूब लदी हुई थी। बोले, `15 रुपऐ कट्टे के भाव ठेकेदार ले जाता है। हल्द्वानी मण्डी में 150 के भाव बिकती है।´ नैनी अब अधिक दूर नहीं था। ढाई किमी बाद हम नैनी में थे। एक गधेरे पर मैंने बच्चों को बताया, यहां से हम पानी जोड़ने को आते थे। अगले `हेयर पिन´ मोड़ पर मैंने बताया, यहां तक नैनी के बच्चे बस को आता देख पीछे से लटकने को रोज ही दौड़े चले आते थे। कई चोटिल भी होते थे।
आखिर हम नैनी पहुंच गऐ। मेरा मन था, उस मिट्टी को चूम लूं। मैं यह सोच कर आया था कि उस जमाने के बहुत से लोग दुनिया छोड़ चुके होंगे। तब के बच्चे रहे मेरे साथी बड़े हो चुके होंगे। इसलिए कम ही लोग होंगे, जो पहचान पाऐंगे। इसलिए शुरू में रुके बिना सीधे ही पड़ाव का एक चक्कर लगा आया। लोग, खासकर बच्चे पड़ाव में आऐ स्कूटर को कुछ वैसे ही कौतूहल से देख रहे थे, जैसे तब शायद हम भी देखते होंगे। चक्कर लगा कर लौटे, तभी मेरे मोबाइल पर घंटी बजने लगी। यह सुखद था कि यहां मोबाइल के सिग्नल साफ आ रहे थे। मैं स्कूटर रोककर बात करने लगा, इस दौरान स्थानीय लोगों की मेरे प्रति जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। कई लोग पास आकर खड़े हो गऐ थे। मानो कोई अमेरिका से भारत आ गया हो। मुझे एक वृद्ध चेहरा पहचाना सा लगा। मैंने पुकार लिया, `अरे, सर्वजीत दा!´ उस बृद्ध ने भी तब तक मुझमें मेरे पिताजी की छवि भांप ली थी। `हां, बाब स्यैप....´ फिर तो बातों का सिलसिला चल पड़ा। कई परिचित मिलते चले गऐ। पुरानी स्मृतियों के कपाट खुलते चले गऐ। मेरी आंखें पुरानी चीजों को तलाश रही थीं, और मस्तिश्क छूट गऐ सवालों के जवाब तलाश रहा था। दुकानों में किसी भी बड़े नगर सी कोल्ड ड्रिंक, स्नैक्स, बिस्कुट इत्यादि दिख रहे थे। मुझे भारत में रहने वाले बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार मार्क टुली का स्मरण हो आया, जिन्होंने हाल ही में कहा है, `अब मुझे व मेरी पत्नी को इंग्लेण्ड से बड़ा बैग भरकर सामान नहीं लाना पड़ता, क्योंकि अब वहां के सभी सामान यहां के बाजारों में आसानी से मिल जाते हैं।´ यानी मेरा भारत भी इस मायने में अमेरिका बन गया था। और हां, कुछ मामलों में अभी भी वही ढाई दशक पुराना भारत ही था।
अपना स्कूल देखने की बड़ी इच्छा थी। मैं पुराने परिचित मोहन सिंह खनी जी को साथ लेकर बच्चों सहित पैदल पगडण्डी चढ़कर स्कूल पहुंच गया। वहां पुराना विद्यालय भवन तोड़ दिया गया था। 1980 के करीब कक्षों की कमी के कारण तत्कालीन प्रधानाचार्य व शिक्षकों द्वारा अपने प्रयासों से टिन की हल्की चादरों से बनवाया गया शिक्षक कक्ष तकरीबन तभी की स्थिति में था, लेकिन इस बीच बने विद्यालय भवन का लिंटर सहित प्लास्टर जगह-जगह से उखड़ रहा था। नींचे विद्यालय परिसर में पिताजी एवं अन्य शिक्षकों तथा बच्चों द्वारा रोपे गऐ नन्हे देवदार, बांज आदि के पौधे उस चीड़ के वन प्रदेश में बड़े होकर जंगल का आभाश करा रहे थे। स्कूल से लौटते दूर पहाड़ी पर बारिश की मोटी बून्दें उड़ती हुई दिखाई देने लगीं। मोहनदा ने चेता दिया, जल्दी चलें, भीग जाऐंगे। हम तेजी से चलकर भीगने से पहले ही पड़ाव में उतर आऐ। बाद में खूब बारिश हुई। इस बीच पुरानी खट-खट वाली चाय याद आ गई तो पीने की इच्छा जाग गई। लेकिन वह उपलब्ध नहीं हुई। उस चाय में क्या अलग स्वाद होता था। दिन-रात चूल्हे पर पत्ती पड़ा हुआ पानी खौलता रहता था। चाय बनाने पर उसे गिलास में डाला। दूध, चीनी मिलाकर अलग-अलग गिलासों में चम्मच से खास तरीके से खट-खटा दिया, और चाय तैयार। इस बार `टी स्टाल´ वाले ने कहा, `सर, वह दिन गऐ। अब तो यही पीनी पड़ेगी।´ 
इधर पड़ाव में हमारा तत्कालीन तीन मंजिला आवास जो कि तब भी कमोबेश जर्जर स्थिति में था, और अधिक बूढ़ा लग रहा था, लेकिन उसके अहाते में मेरे द्वारा लगाया गया कनेर के गुलाबी फूलों का पेड़ खिला महक रहा था। पड़ाव में बने नऐ भवनों में पुराने भवनों को पहचानना मुश्किल हो रहा था। पानी की टंकी के सटाकर भवन बन गऐ थे, शायद अतिक्रमण किया गया हो। पड़ाव में कई पुराने परिचित मिले। वह रात्रि यहीं रुकने का अनुरोध करने लगे। अगली बार रुकने का कार्यक्रम बनाकर ही आने का मैंने उनसे वादा किया। एक पांव से विकलांग दर्जी का कार्य करने वाले दलीप सिंह बोरा कार्की जी मिल गऐ, उन्हें हम `दुल्दा´ कहते थे। उन्होंने बैशाखी के सहारे दुकान की सीढ़ियां चढ़कर भी बच्चों को नां-नां कहते बिस्कुट पकड़ा दिऐ। बमुश्किल एक दुकान पर पहाड़ी खट्टे-मीठे आम मिल गऐ, जिन्हें उस स्थान का प्रसाद समझ हम वापस लौट आऐ। 
वापसी में दो उल्लेखनीय घटनाएं घटीं। पहली 'मल्ली नैनी' में सैम मंदिर के पास, जहाँ वर्षा के बाद आसमान में बेहद खूबसूरत 'इन्द्र धनुष' ताना हुआ थाइन्द्र धनुष मैंने नैनीताल के अपेक्षाकृत छोटे आकाशीय फलक में कभी नहीं देखा था। दूसरी घटना चमुआ के पास जंगल में हुईअंधेरा घिर आया था। एक मोड़ पर कुछ जंगली प्राणी देख बच्चे डर गऐ। हम ठिठक पड़े। वहां किसी जानवर के कुछ बच्चे एक और बड़ा जानवर था। हमें देखने के कुछ देर बाद बच्चे तो भाग गऐ, लेकिन बड़ा जानवर सड़क पर बैठा रहा। अंधेरे में वह बाघ सदृश लग रहा था। मैंने स्कूटर की लाइट जलाई, हार्न बजाया, किन्तु वह टस से मस नहीं हुआ। मेरी भी कुछ समझ में नहीं आया। आखिर कुछ देर बाद जब तक मैं कुछ सोच पाता, वह उठ खड़ा हुआ। तब पता चला कि वह वास्तव में लोमड़ी था। यह परेशानी तो गुजर गई, और मैं इस सोच में पड़ गया कि बेहद डरपोक मानी जाने वाली लोमड़ी इतनी निर्भीक कैसे हो गई। विचार अतीत तक चले गऐ, जहां कभी वन्य पशुओं द्वारा आज की तरह घरेलू जानवरों व मनुष्यों को निवाला बनाने की खबरें नहीं सुनी जाती थीं। मनुष्य जंगलों से अकेले पैदल यात्राऐं करता था, लेकिन बन्दर, लंगूर जैसे गैर नुकसानदेह वन्य जानवर भी नहीं दिखते थे। पिताजी, हम बच्चों को अकेले सुबह ब्रह्म मुहूर्त में तड़के उठाकर नैनी से करीब 10 मील दूर पनुवानौला ले जाते थे, और हम वहां से सुबह सात या आठ बजे पिथौरागढ़ से हल्द्वानी के लिए आने वाली इकलौती रोडवेज की बस पकड़ते थे। तब कभी हमें कोई जानवर दूर से तक नहीं दिखता था। लेकिन अब तो मेरे अमेरिका यानी नैनीताल में बीते दिनों हिंसक हुए बन्दरों, लंगूरों को गोली मारने तक की नौबत आई। मथुरा से उन्हें पकड़ने के लिए विशेषज्ञ बुलाने पड़े, और उन्होंने उन्हें ही काट डाला। 600 से अधिक बन्दर-लंगूर पकड़े गऐ, परन्तु एक माह बाद भी स्थिति फिर से यथावत हो गई।

Wednesday, June 2, 2010

बच्चों ने खोल कर रख दी उत्तराखण्ड के सरकारी स्कूलों की पोल

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नवीन जोशी, नैनीताल। देश में जहां कमोबेश `सर्वशिक्षा अभियान´ की असफलता के बाद `शिक्षा का अधिकार´  का नया `शिगूफा´ लागू करने की सरकारी कवायद शुरू होने जा रही है, वहीं देश के सर्वाधिक शिक्षित राज्यों में शुमार उत्तराखण्ड के नौनिहालों ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी है। साफ बता दिया है कि शिक्षा का दोगलापन अमीरी व गरीबी की खाई की तरह चौड़ा होता जा रहा है। प्रदेश के कभी शिक्षा नगर माने जाने वाले नैनीताल व देहरादून नगरों का उत्तराखण्ड बोर्ड की हाईस्कूल व इंटरमीडिऐट की 25 रैंकिंग सूची से कोई नाम लेवा तक नहीं है। बल्कि यह समूचे जिले तक सूची में दिखाई नहीं दे रहे। वहीं कभी देश में बड़ा नाम माने जाने वाले जीआईसी अल्मोड़ा की नाक केवल एक बच्चे ने बचाई है। हां, आज भी अधिकांशत: बिजली बिना मिट्टी तेल की ढिबरियों व चीढ़ के छिलकों के सहारे बच्चों को पढ़ाने वाला प्रदेश का दूरस्थ सीमावर्ती बागेश्वर जिला हाईस्कूल व इंटरमीडिऐट दोनों में प्रदेश में सिरमौर रहा है।
  • पुराने शिक्षा `हब´ नैनीताल व देहरादून का सूपड़ा साफ
  • हाईस्कूल के 35 व इंटर की 68 की मेरिट सूची में से केवल 11-11 बच्चे ही सरकारी स्कूलों के
  • इनमें से भी केवल छह व तीन बच्चे ही शहरी सरकारी स्कूलों के
  • सर्वसुविधा संपन्न मैदानी जिलों व शहरों की अपेक्षा पर्वतीय और वहां भी ग्रामीण और अशासकीय विद्यालयों के रहे बेहतर परिणाम
  • प्रदेश के शिक्षा मंत्री का गृहजनपद हाईस्कूल में रहा फिसड्डी, जबकि हाईस्कूल-इंटर दोनों में सर्वाधिक पिछड़े जिलों में शुमार बागेश्वर बना शिरमौर 
उत्तराखण्ड बोर्ड ने हाईस्कूल व इंटरमीडिऐट बोर्ड के परीक्षाफल में 25वीं रैंक तक की सूची जारी की है, जिसमें हाईस्कूल के 35 व इंटर के 68 बच्चे शामिल हैं। पहले बात इंटरमीडिऐट की, सूची में शामिल 35 मेधावी बच्चों में से केवल 11 ही राजकीय बालक अथवा बालिका इंटर कालेजों के विद्यार्थी रहे हैं, जबकि शेष अशासकीय विद्यालयों के हैं। इन 11 राजकीय स्कूलों के विद्यार्थियों में से भी केवल पांच राइंका श्रीनगर, गोपेश्वर, अल्मोड़ा, रुद्रप्रयाग, पटेलनगर देहरादून `नगरों´ के हैं, जहां पोस्टिंग पाने की शिक्षकों में होड़ मची रहती है, और यहां आवश्यकता से अधिक शिक्षक तैनात भी हैं। जबकि शेष आठ ग्रामीण क्षेत्रों के हैं, जहां स्कूलों में न तो शिक्षक हैं, और न ही आवश्यक सुविधाऐं ही। यानी बच्चों ने जो किया है, अपनी मेहनत से। शेष 57 मेधावी उन अशासकीय विद्यालयों के हैं, जिनके शिक्षकों को केवल वेतन और `वर्ग विशेष´ के छात्रों को छात्रवृत्तियां देकर सरकार अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेती है, और वह चॉक, डस्टर जैसे स्टेशनरी के जरूरी सामानों के लिऐ तक तरसते रहते हैं। सूची को अधिक गहनता से देखें तो इसमें देहरादून जिले का केवल एक, अल्मोड़ा जिले के दो और नैनीताल जिले के केवल चार बच्चे हैं। नैनीताल जिले के जो चार बच्चे हैं, वे सभी कुसुमखेड़ा हल्द्वानी के हरगोविन्द सुयाल सरस्वती विद्या मन्दिर इंका के हैं, जहां अभावग्रस्त शिक्षक एक वक्त खाकर भी ज्ञान के यज्ञ में अपनी आहुति दे रहे हैं। इन्हें यदि हटा लें तो मानना होगा कि जिले के एक भी विद्यालय के शिक्षक अपने वेतन-सुविधाओं को सर्वश्रेश्ठ बनाने के लिए कमोबेश हर महीने किऐ जाने वाले धरना-प्रदर्शनों, आन्दोलनों से बच्चों की पढ़ाई के लिए इतना समय नहीं निकाल पाऐ कि वह श्रेश्ठता सूची में आ सकें। 
यही वरन इससे भी बुरा हाल हाईस्कूल के परिणामों में दिखता है जहां 25 रैंकिंग के 68 मेधावी बच्चों में से महज 11 बच्चे राजकीय स्कूलों से हैं, जिनमें से आठ ग्रामीण क्षेत्रों के जबकि महज तीन राइंका चौखुटिया, राजा आनन्द सिंह राइंका अल्मोड़ा नगरों के हैं। सूची में नैनीताल नगर तो छोड़िऐ समूचे जनपद का नाम लेवा तक नहीं है। देहरादून नगर का भी यही हाल है, हां विकासनगर, ऋषिकेश व डोईवाला के तीन स्कूलों के पांच बच्चों ने इज्जत रख दी है। अल्मोड़ा नगर के विवेकानन्द इंटर कालेज के नौ बच्चों के कमाल को थोड़ी देर के हटा दें तो यहां भी नगर के राजा आनन्द सिंह इंका की एक छात्रा दिव्या तिवारी ही मैरिट में स्थान बना पायी। 
चलिऐ अब मैरिट की बात छोड़ केवल उत्तीर्ण हुऐ बच्चों की ही बात करते हैं। यहां भी परीक्षा परिणाम नयी कहानी बयां कर रहे हैं । नैनीताल, देहरादून, हरिद्वार व ऊधमसिंह नगर जैसे सुविधासंपन्न एवं मैदानी नगरों पर पहाड़ के बागेश्वर, रुद्रप्रयाग, टिहरी व चंपावत जैसे जनपदों के विद्यार्थियों ने बेहतर परिणाम दिऐ हैं। हाईस्कूल में प्रदेश के शिक्षा राज्यमंत्री गोविन्द सिंह बिष्ट का गृहजनपद नैनीताल फिसड्डी रहा है। यहां के महज 55.71 फीसद विद्यार्थी ही उत्तीर्ण हुऐ। इस कड़ी हरिद्वार में 59.65, चंपावत में 62.67, चमोली में 62.79, देहरादून में 63.52, अल्मोड़ा में 64.4, उत्तरकाशी में 66.25, ऊधमसिंह नगर में 69.32, पिथौरागढ़ में 69.58, टिहरी में 71.2, रुद्रप्रयाग में 71.34 जबकि आज भी बिजली बिना ढिबरियों के सहारे बच्चों को पढ़ाने वाले बागेश्वर जनपद में सर्वाधिक 71.99 फीसद विद्यार्थी उत्तीर्ण हुऐ। इसी तरह इंटरमीडिऐट की बोर्ड परीक्षा में हरिद्वार 58 फीसद के साथ फिसड्डी तो बागेश्वर 84 फीसद के साथ सबसे आगे रहा है। वहीं देहरादून का परीक्षा परिणाम 65.13 फीसद, पिथौरागढ़ का 70.06 फीसद, ऊधमसिंह नगर का 71.23 फीसद, नैनीताल का 71.43, उत्तरकाशी को 72.62, अल्मोड़ा का 72.64, चमोली का 74.69, टिहरी का 76.78, पौड़ी का 77.19, चंपावत का 82.56 तथा रुद्रप्रयाग का 83.92 फीसद रहा है। 
साफ है कि सुविधासंपन्न नगरों व विद्यालयों का परिणाम बदतर और सुविधाहीनों का बेहतर रहा है। माना जा सकता है कि जुगाड़ लगाकर सुविधा संपन्न नगरों में आने के बावजूद सर्वाधिक कुशल शिक्षक बच्चों पर अपेक्षित मेहनत नहीं कर रहे। दूसरे सरकारी स्कूलों से मोहभंग होते-होते यह नौबत आ पहुंची है कि सरकारी स्कूलों के शिक्षक भी अब अपने बच्चों को यहां पढ़ाना छोड़ उपलब्ध होने पर निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। सरकारी स्कूलों में केवल बेहद निम्न आय वर्ग के बच्चे ही आ रहे हैं, जिनके घरों में पढ़ाई का माहौल ही नहीं है, जो स्कूल में आकर पढ़ते हैं, और वापस लौटकर माता-पिता के साथ जीविकोपार्जन के कार्यों में हाथ बंटाने जुट जाते हैं। उन्होंने इसके बावजूद यदि कमाल किया है तो इसमें उनकी मेहनत को पूरे अंक दिऐ जाने चाहिऐ। जरूरत है कि ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मैरिट सूची में आऐ नौनिहालों को सरकार आगे कोचिंग जैसी सुविधाऐं दे और उनकी ऊर्जा को देश के विकास में लगाने में योगदान दे।

Monday, May 17, 2010

तो उत्तराखण्ड ने सीख लिया नौकरशाहों पर लगाम लगाना !


  • `कमीशंड´ आईएएस अधिकारियों की जगह `प्रमोटेड´ अधिकारियों को दी `फील्ड´ की कमान
  • दोनों मण्डलों के आयुक्तों सहित आठ जिलों के डीएम व नौ के एसपी `उपकृत´ नौकरशाह
  • कभी मण्डल में आईसीएस अधिकारी होते थे तैनात, अब पीसीएस का दौर शुरू
नवीन जोशी, नैनीताल। नवोदित राज्य उत्तराखण्ड के राजनेताओं पर राज्य को नौकरशाहों के हाथों में सोंपने और उनके हाथों में खेलने के आरोप लगते रहते हैं। लेकिन लगता है राज्य के राजनेताओं ने इस समस्या का निदान ढूंढ लिया है। परेशानी सीधे आऐ `कमीशंड´ आईएएस अधिकारियों के सामने कम ज्ञान के राजनेताओं की `न चलने´ से थी, सो राज्य को देश का `भाल´ बनाने में जुटी राज्य की निशंक सरकार ने इसके तोड़ में प्रशासनिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण राज्य के `फील्ड´ के पद पहले से `उपकृत´ प्रमोटेड आईएएस अधिकारियों को सोंप दिऐ हैं। इसे  जनता से सीधे जुड़े प्रशासन व पुलिस के कार्य अनुभवी हाथों को देने की नयी पहल बताया जा रहा है। प्रदेश के 13 जिलों व दो मण्डलों के 30 सर्वोच्च पदों में से केवल नौ पद सीधे कमीशन से चुने गऐ नौकरशाहों के हाथ में हैं, जबकि शेष 20 पद अनुभवी पदोन्नत अधिकारियों के हाथ में दिऐ गऐ हैं। कुमाऊं मण्डल में तो हालात यह हैं कि यहाँ पुलिस व प्रशाशन के 14 पदों में से 12 पर पदोन्नत अधिकारी तैनात किये गए हैं. 
कुमाऊं के मण्डल मुख्यालय से ही बात शुरू करें तो आजादी से पूर्व तक यहां जिले की जिम्मेदारी भी `डिप्टी कमिश्नर´ यानी उपायुक्त को सोंपी जाती थी, जो आइसीएस (भारतीय सिविल सेवा) अधिकारी होते थे। नैनीताल जिले आईसीएस अधिकारी डब्लू ई बाब्स 1927 में पहले डिप्टी कमिश्नर थे। देश की आजादी यानी 1947 तक यहां आईसीएस अधिकारी ही कार्यरत रहे। एमए कुरैशी जिले के 15वें डिप्टी कमिश्नर के रूप में आखिरी आईसीएस अधिकारी थे। 1948 में आरिफ अली शाह से यहां आईएएस (भारतीय प्रशासनिक सेवा के)अधिकारियों के आने का सिलसिला शुरू हुआ जो वर्तमान में 58 जिलाधिकारियों तक चल रहा है। इसी तरह मण्डलायुक्त पद की बात करें तो 1952 तक आईसीएस अधिकारी ही यहां आयुक्त के पद पर कार्यरत रहे। केएल मेहता आजादी के बाद मण्डल के पहले आयुक्त थे, जो 1948 तक रहे, उनके बाद 1952 तक रहने वाले आरटी शिवदासानी दूसरे आईसीएस आयुक्त थे। तीसरे आयुक्त राम रूप सिंह से यहां आईएएस अधिकारियों के आने का सिलसिला शुरू हुआ जो मण्डल के 35वें आयुक्त एस राजू तक जारी रहा। इधर 1994 बैच के प्रोन्नत आईएएस अधिकारी कुणाल शर्मा को मण्डल के 36वें आयुक्त की जिम्मेदारी मिली है। श्री शर्मा 1976 बैच के पीसीएस अधिकारी हैं। मंडल के ही दूसरे पुलिस के सर्वोच्च पद I.G. कुमाऊं जीवन चन्द्र पाण्डेय भी प्रमोटेड I.A.S. अधिकारी ही हैं.  अब बात जिलों की। मण्डल में नैनीताल डीएम शैलेश बगौली एवं अल्मोड़ा के एसपी वीके कृष्णकुमार के अतिरिक्त सभी जिलों में डीएम एवं एसपी, एसएसपी पदोन्नत आईएएस अथवा आईपीएस अधिकारी हैं। उधर ढ़वाल मण्डल के आयुक्त की जिम्मेदारी भी कुमाऊं आयुक्त 1994 बैच के आईएएस अधिकारी अजय नबियाल को मिली है, जबकि मण्डल के देहरादून, उत्तरकाशी, चमोली व टिहरी जिलों के डीएम तथा रुद्रप्रयाग, पौड़ी एवं हरिद्वार जिलों के पुलिस अधीक्षक भी पदोन्नत पुलिस अधिकारी ही हैं। 
इस सब के पीछे यह माना जा रहा है कि एक तो पदोन्नत आईएएस अधिकारी सरकार की कृपा पर ही पदोन्नत होते हैं, इसलिए वह सीधे आऐ आईएएस अधिकारियों की तरह सरकार से अलग नहीं जा पाते। उनके तेवरों में भी काफी अन्तर होता है। सत्ता पक्ष के राजनेता उनसे वह काम करा सकते हैं, जिन्हें आईएएस अधिकारियों से कराना अक्सर `टेढ़ी खीर´ साबित होता है। परंपरा रही है कि सीधे आऐ तेजतर्रार आईएएस अधिकारियों को ही `फील्ड´ के डीएम व आयुक्त जैसे पद दिऐ जाऐं, जबकि सचिवालय में अधिक गम्भीरता से निर्णय लेने के लिए `दीर्घकालीन योजनाकारों´ के रूप में पदोन्नत आईएएस अधिकारियों को सचिवालय में रखा जाता है। लेकिन इधर सीधे आऐ आईएएस अधिकारियों को परंपरा से उलट सचिवालय के कम महत्वपूर्ण विभागों के `आइसोलेशन´ में डाल दिया गया है। इस नई कवायद को राज्य में ताकतवर मानी जाने वाली `आईएएस लॉबी´ के `पेट में लात' माना जा रहा सो जल्द उनके 'पेट में दर्द´ शुरू हो सकता है। इस बाबत सत्तारुड़ दल के नेताओं की सुनें तो उनका कहना है कि पदोन्नत अधिकारी अपने राज्य के हैं, सो वह जनता के दुःख-दर्द अधिक दूर कर सकते हैं, जबकि विपक्षी नेताओं का कहना है कि यह सत्तारुड़ों के लिए वसूली अच्छी करते हैं, साथ ही जैसे चाहो हंक जाते हैं, I.A.S. अधिकारियों की तरह 'दुलत्ती' नहीं मारते।  बहरहाल, आगे राजनेताओं व नौकरशाहों के इस `द्वन्द्व´ को खुलकर मैदान में आते देखना रोचक हो सकता है। इस बाबत राज्य के एक वरिष्ठ I.A.S. का कहना था कि राज्य सरकार की यह कवायद भाजपा सरकार के 'मिशन 2012' का हिस्सा है। सरकार को लगता है कि पदोन्नत अधिकारियों को अपने तरीके से हांक कर मां मांफिक कार्य करवा लिए जाएँ. अधिकारी भाजपाईयों की सुनें. लेकिन इसी अधिकारी का कहना था कि सरकार का यह दांव शर्तिया उलटा पड़ने वाला है। जिलों व मंडलों के  I.A.S. अधिकारी अपने प्रभाव से शासन में बैठे अपने से कमोबेश कम वरिष्ठ इन मूलतः पीसीएस  अधिकारियों से करा लिया करते थे, किन्तु अब स्थिति उल्टी होने से जिले व मंडल बेहद कमजोर हो जायेंगे, और उनके कार्य शासन में अटके रहेंगे। अपनी उपेक्षा से क्षुब्ध होने के कारण भी वे 'बिशन' (सिंह चुफाल-भाजपा अध्यक्ष) के  'मिशन 2012' को कभी सफल न होने देने की कसमें खा रहे हैं।

Wednesday, May 12, 2010

देश की 196 भाषाओं के साथ कुमाउनीं व गढ़वाली भी खतरे की जद में

नवीन जोशी, नैनीताल। भाषाओं को न केवल संवाद का माध्यम वरन संस्कृतियों का संवाहक भी माना जाता है। किसी देश की शक्ति उसकी भाषा की प्राचीनता के साथ ही उसके बोलने वाले लोगों की संख्या से भी आंकी जाती है, लेकिन `ग्लोबलाइजेशन´ के वर्तमान दौर में दुनिया भर की भाषाऐं स्वयं को खोकर अन्य में समाती जा रही हैं। इसमें भी भारत के लिए अधिक चिंताजनक बात यह है कि गंगा जैसी सदानीरा नदियों के साथ ही संस्कृतियों के उदगम स्थल कहे जाने वाले हिमालयी राज्यों में भाषाएँ सर्वाधिक तेजी से असुरक्षित होती जा रही हैं.  देश का `भाल´ उत्तराखंड भी इसमें अपवाद नहीं है. बात उत्तराखंड से ही शुरू की जाए तो यहाँ यह पक्ष भी उजागर होता हैं कि भले यह प्रदेश अपने संवाद के प्रमुख माध्यम कुमाउनीं व गढ़वाली को `बोलियों´ से ऊपर `भाषा´ मानने तक को भले तैयार न हो, किन्तु सात समुन्दर पार संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन यानी 'यूनेस्को' ने इन भाषाओं के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। यूनेस्को ने राज्य की कुमाउनीं, गढ़वाली के साथ ही रांग्पो भाषाओं को `वलनरेबले´ यानी भेद्य श्रेणी में रखा है, जिसका अर्थ यह हुआ कि इन भाषाओं पर ख़त्म होने का सर्वाधिक खतरा है। इसके पीछे संभवतया यह कारण प्रमुख हो कि इन भाषाओं के बोलने वाले इन्हें छोड़कर अन्य भाषाओं के प्रति अधिक आसानी से आकर्षित हो सकते हैं. इनके साथ ही राज्य की दारमा व ब्योंग्सी भाषाओं को `निश्चित खतरे´ तथा वांगनी को `अति गम्भीर खतरे´ वाली भाषाओं की श्रेणी में रखा गया है।
  • हिमालयी राज्यों की भाषाओं को है अधिक खतरा
  • यूनेस्को ने उत्तराखण्ड की 'रांग्पो' को भेद्य तथा 'दारमा' व 'ब्योंग्सी' को निश्चित व 'वांगनी' को अति गम्भीर खतरे में माना
यूनेस्को द्वारा अपनी वेबसाइट पर ताजा अपडेट की गई जानकारी के अनुसार कुमाउनीं भाषा 23 लाख 60 हजार लोगों द्वारा बोली जाती है। इस भाषा को बोलने वाले लोग उत्तराखण्ड के अलाव उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आसाम, बिहार और पड़ोसी देश नेपाल में भी हैं। यानी यनेस्को के सवेक्षण के दौरान इन क्षेत्रों के लोगों ने भी स्वयं को कुमाउनीं भाषा भाषी बताया है। मालूम हो कि कुमाउनी चन्द शासनकाल में राजभाषा रही है। इसकी शब्द सामर्थ्य दुनिया की समृध्हतम भ्हषाओं से भी अधिक है. उदाहरनार्थ अंगरेजी में केवल शब्द के लिए हिंदी में बू,  खुसबू व बदबू आदि शब्द हैं तो कुमाउनी में अलग-अलग 'बू' के लिए किडैनी, हन्तरैनी, स्योंतैनी, बॉस, चुरैनी जैसे दर्जनों शब्द मौजूद है.  इसके अलावा यूनेस्को ने गढ़वाली भाषा बोलने वालों की संख्या 22 लाख 67 हजार 314 आंकी गई है। `भेद्य´ श्रेणी  में ही प्रदेश के चमोली जनपद में आठ हजार लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा रॉग्पो को भी रखा गया है, देश की कुल 82 भाषाऐं भी इस श्रेणी में हैं। इसके अतिरिक्त देश की 62 भाषाएँ  `डेफिनिटली इनडेंजर्ड´ यानी `निश्चित खतरे´ की श्रेणी में रखी गई हैं, जिनमें उत्तराखण्ड की अल्मोड़ा व पिथौरागढ़ जिलों तथा नेपाल के दार्चूला  जिले में बोली जाने वाली `दारमा´ एवं महाकाली नदी घाटी क्षेत्रा में बोली जाने वाली भाषा `ब्योंसी´ को रखा गया है, जिसके बोलने वालो की संख्या क्रमश: 1,761 व 1,734 बताई गई है। इससे आगे की श्रेणी `अति गम्भीर´ में भी देश की 41 भाषाओं के साथ गढ़वाल मण्डल की `वांगनी´ को रखा गया है, जिसे बोलने वालों की संख्या 12 हजार आंकी गई है। अन्तिम श्रेणी `विलुप्त´ हो चुकी भाषाओं की है। इसमें देश की पांच भाषाऐं पूर्वोत्तर की अहोम, अण्डरो व सेंगमाई के साथ उत्तराखण्ड की तोहचा व रंगकास भी शामिल हैं। 
श्रीलंका सबसे भाग्यशाली
भाषाओं के खतरे में न जाने के मामले में भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वाधिक परिवर्तन भारत में ही हुऐ हैं। यहां 196 भाषाओं पर खतरे की छाया पड़ी है, जबकि श्रीलंका स्वयं की भाषाओं को बचाने में सर्वाधिक भाग्यशाली रहा है। यहां की केवल एक भाषा इस जद में है। जबकि पड़ोसी देशों पाकिस्तान की 27 व नेपाल की 71 भाषाऐं विभिन्न श्रेणियों में खतरे में है। उधर अपनी भाषा को सर्वाधिक महत्व देने के लिए पहचाने जाने वाले जापान की केवल आठ भाषाऐं ही इस श्रेणी में हैं। 
खास बात यह है कि देश की जिन कुल 196 भाषाओं को इन विभिन्न श्रेणियों में रखा गया है, उनमें दक्षिण भारत की तकरीबन केवल एक दर्जन भाषाओं के अतिरिक्त कुछ उड़ीसा तथा शेष  तकरीबन 85 फीसद पूर्वोत्तर के सात राज्यों सहित उत्तराखण्ड, हिमांचल, जम्मू व कश्मीर तथा सिक्किम आदि हिमालयी राज्यों की हैं। यानी हिमालयी राज्यों से ही अधिकांश भाषाऐं खतरे की जद में जाती जा रही हैं। विशेशज्ञों की मानें तो अभी हाल तक इन्हीं राज्यों ने अपनी मूल भाषाओं को सम्भाल कर रखा था, किन्तु बीते दशक में यही भाषाओं के संक्रमणकाल में सर्वाधिक प्रभावित हुऐ और अपनी भाषाओं को बचाऐ न रख सके, जबकि अन्य राज्यों में भाषाओं का किसी एक भाषा में सिमटना पहले ही हो चुका था। 
यह कर सकते हैं:-
देश-प्रदेश में 'भारतीय जनगणना २०११'  चल रही है. इसमें अपनी मातृ-भाषा गढ़वाली / कुमाऊंनी लिखी जा सकती है. इस तरह और कुछ नहीं तो अपनी दुदबोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूचि में स्थान दिलाया जा सकता है. 
(अधिक जानकारी यहाँ देखें: http://www.facebook.com/pages/garhavali-kumaunni-ko-matr-bhasa-ke-rupa-mem-likhembharatiya-janaganana-2011-mem-l/113347272038036?ref=mf)


(देश-दुनिया की असुरक्षित भाषाओं के बारे में अधिक जानकारी यहाँ देखें: http://www.unesco.org/culture/ich/index.php?pg=00206)

Saturday, May 8, 2010

क्या निशंक सरकार की चला-चली की बेला आ गयी....

नवीन जोशी, नैनीताल। क्या 10 वर्ष के उत्तराखंड में जल्द छठा मुख्यमंत्री आने जा रहा है... क्या जल विद्युत परियोजनाओं का दूसरी बार सर उठाने वाला विवाद मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल `निशंक´ की सत्ता ले डूबेगा...? निशंक का बीती 6 मई को नैनीताल का संक्षिप्त दौरा नगर में ऐसी ही चर्चाओं का तूफान छोड़ गया है। मुख्यमंत्री यहाँ जिले के ही दो-दो मंत्रियों के होते हुए ओर नयों को छोड़ दो 'बीत राग' पूर्व अध्यक्षों पूर्व पार्टी अध्यक्ष बची सिंह रावत व भाजयुमो के पूर्व अध्यक्ष पुश्कर सिंह धामी के साथ हैलीकॉप्टर से आऐ और थोड़ी देर में ही लौट भी गऐ, लेकिन अगले दिन पूरे दिन हुई बारिश के कारण घरों से बाहर न निकल पाऐ लोग इसी मुद्दे पर चर्चा करते देखे गऐ। खासकर सत्तारूढ़ दलों के लोग भी चटखारे लेने में पीछे नहीं रहे।
डा. निशंक के सम्बंध यूं पार्टी संगठन के `नऐ´ नेताओं से भी मधुर ही बताऐ जाते हैं, वर्तमान बुरे दौर में पार्टी संगठन की चुप्पी के बीच उनके विरुद्ध मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे एक मंत्री और कुछ उपकृत दयित्व्धारी उनके पक्ष में बोल भी रहे हैं, परन्तु उनके नैनीताल के छोटे से दौरे ने बड़ी चर्चाओं को हवा दे दी है. दो `पुराने´ नेताओं के साथ उनके नैनीताल आगमन की पृष्ठभूमि में पार्टी के दो पूर्व मुख्यमन्त्रियों कोश्यारी व खण्डूड़ी के बीच पक रही खिचड़ी की चर्चाओं को आधार बताया जा रहा है। निशंक की ताजपोशी का आधार बने इन पूर्व मुख्यमन्त्रियों के बीच की जंग जगजाहिर है, लेकिन इधर चर्चाओं पर यकीन किया जाऐ तो दोनों वरिष्ठ  नेताओं की तलवारें न केवल म्यान में वापस जा चुकी हैं, वरन दोनों `एक´ हो साथ बैठकर उस `शकुनि´ का भी पता लगा चुके हैं, जिसके कारण आज वह एक तरह से राजनीति के हाशिये पर पहुंच गऐ हैं। दोनों इस बात पर भी सर धुन चुके हैं कि आखिर उनके बीच विवाद था क्या, और इस बात का गुणा भाग भी कर चुके हैं कि आपसी जंग से दोनों को क्या मिला। ऐसे में अब वह `एक´ हो चुके हैं।  कोश्यारी के 'राष्ट्रीय उपाध्यक्ष' बनाने में खंडूरी का सहयोग भी जाहिर हो चूका है. इधर जल विद्युत परियोजनाओं के मुद्दे पर विपक्ष के वार को एक बार जाया कर चुके मुख्यमंत्री डा. निशंक पर इस बार पार्टी के भीतर से हुआ यह दूसरा वार इस `एका´ से भी जोड़ा जा रहा है। इस बार पार्टी के ही समर्थित टिहरी जिला पंचायत अध्यक्ष ने मुख्यमंत्री  पर सीधा हमला बोलते हुए जल विद्युत् परियोजना के ऐवज में पार्टी फंड में एक करोड़ रुपये देने का सनसनीखेज आरोप लगाया है. इधर बताया जा रहा है हाईकमान के पास `निशंक´ के कार्यकाल में पार्टी की हालत और अधिक पतली होने की `फीड´ भी पहुंच चुकी है, खासकर इन आरोपों को हाई कमान ने बेहद गंभीरता से लिया है, और आरोप सही पाए जाने पर कार्रवाई करने का संकेत दिया है। जाहिर है पार्टी में अदनी सी हैसियत रखने वाले गुनसोला ने अपने दम आवेश में आकर तो आरोप नहीं ही लगाए होंगे. इधर भाजपा की हालत दिन-प्रतिदिन पतली होती जा रही है. भ्रष्टाचार रहित शासन देने का भाजपा का शिगूफा जनता खंडूरी के शासन काल में ही समझ चुकी है. जनता समझ चुकी है कि कोंग्रेस की इमानदारी खुद भी खाने और दूसरों को भी खिला कर राज्य को मिल-बाँट कर ख़त्म कर देने की है, जबकि भाजपा की इमानदारी केवल दूसरों के लिए है, यानी वह खुद अकेले खाने पर विश्वास करते हैं, मूल भावना दोनों की ही राज्य को चट कर जाने की है.  इधर विगत माह पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र के मुख्यालय आगमन पर उनके समक्ष पड़ा कार्यकर्ताओं का टोटा, दूसरे उपाध्यक्ष कोश्यारी के आगमन पर दिल्ली रैली के लिऐ कराऐ गऐ 10 हजार हस्ताक्षरों को झुठलाते चंद कार्यकर्ताओं के उठे हाथों ने पार्टी की स्थिति की चुगली खुद कर दी थी। पुराने पार्टी कार्यकर्ता पूरी तरह से पार्टी के कार्यक्रमों से किनारा कर रहे हैं। वह मुख्यमंत्री के कार्यक्रम में भी नहीं पहुंचे. ऐसे में मुख्यमंत्री का मुख्यालय आना और दो पूर्व नेताओं को साथ लाना चर्चाओं को हवा दे गया है। उल्लेखनीय है कि बचदा को खण्डूड़ी और धामी को कोश्यारी का नजदीकी माना जाता है। कहा जा रहा है कि निशंक  मुख्यमंत्रीखण्डूड़ी और  को वर्तमान विपरीत परिस्थितियों में भी अपने `साथ´ होने का सन्देश देने के लिए इन्हें साथ लेकर आऐ। लेकिन जो होता है, उसे न दिखाने और जो नहीं होता, उसे दिखाने को ही आज के दौर में `राजनीति´ कहा जाता है। वैसे भी स्वयं को मूलतः पत्रकार बताने वाले डा. निशंक दिखावे की कला खूब जानते है, लेकिन यहाँ लगता है कि वह, वह दिखा गए, जो छुपाना चाहते थे....