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Friday, April 30, 2010

उत्तराखण्ड में 1400 वर्ष पुराना है श्रमिक आन्दोलनों का इतिहास

नवीन जोशी, नैनीताल। आन्दोलनों की परिणति स्वरुप ही बने उत्तराखण्ड राज्य में दिन-प्रतिदिन होने वाले कर्मचारी आन्दोलनों पर गाहे-बगाहे 'आन्दोलनकारी राज्य' होने की टिप्पणी की जाती है, लेकिन यह भी सच्चाई है कि राज्य के आन्दोलाओं का राज्यवाशियों पर विभिन्न काल खण्डों में हुए अत्याचारों के बराबर ही लम्बा व स्वर्णिम इतिहास रहा है. खासकर श्रमिक आन्दोलनों की बात की जाये तो यहाँ इनका इतिहास 1400 वर्ष से भी अधिक पुराना है। 'कुमाऊं केसरी' बद्री दत्त पाण्डे द्वारा लिखित पुस्तक `कुमाऊं का इतिहास´ के पृष्ठ संख्या २१२ के अनुसार यहां सातवीं शताब्दी में कत्यूर वंश के अत्याचारी व दुराचारी राजा वीर देव के शासनकाल में ही श्रमिक विरोध की शुरुआत हो गई थी। जिसके परिणाम स्वरुप ही कुमाऊं के लोकप्रिय गीत तथा अब लोक प्रियता के कारण कई कुमाउनीं गीतों का मुखड़ा बन चुके `तीलै धारू बोला´ के रूप में प्रदेश में श्रमिकों के विद्रोह के पहले स्वर फूटे थे। 
फोटो सौजन्य : माही सिंह मेहता 
  •  प्रसिद्ध कुमाउनीं लोकगीत `तीलै धारू बोला´ के रूप में फूटे थे विद्रोह के पहले स्वर 
  • श्रमिकों के कन्धों में हुकनुमा कीलें ठुकवा दी थीं अत्याचारी राजा वीर देव ने 
  • गोरखों के शासन  काल में जनता के शिर से बाल गायब हो गए थे
  • अंग्रेजों ने लादे थे कुली बेगार, कुली उतार व कुली बर्दाइश जैसे काले कानून

`कुमाऊं का इतिहास´ पुस्तक के अनुसार अन्तिम कत्यूरी राजा वीर देव अपनी मामी तिलोत्तमा देवी उर्फ तिला पर कुदृष्टि रखता था। उसने तिला से जबरन विवाह भी किया। उन दिनों आवागमन का प्रमुख साधन डोली था, पहाड़ी पगडण्डियों में राजा के डोली हिंचकोले न खाऐ, केवल इसलिऐ उसने कहारों के कंधों में हुकनुमा कीलें ठुकवा दी थीं। आखिर जुल्मों से तंग आकर कहारों ने राजा को डोली सहित `धार´ यानी पहाड़ की चोटी से खाई में गिराकर मार डाला। और `तिलै धारो बोला´ गाते हुऐ रानी तिला को राजा के अत्याचारों से मुक्ति का शुभ समाचार सुनाया। इस विषय में शोध कर चुके कुमाऊं विवि के डा. भुवन शर्मा इसकी पुष्टि करते हैं। श्री शर्मा बताते हैं कि कत्यूरों के बाद वर्ष 1790 में उत्तराखंड के कुमाऊं एवं 1803-04 में गढ़वाल अंचलों पर गोरखों का आधिपत्य हो गया, इसके बाद राज्य में राजशाही की ज्यादतियां और ज्यादा बढीं। गोरखा राज के अत्याचारों  का उल्लेख कुमाउनीं के 'आदिकवि' कहे जाने वाले गुमानी पन्त की कविता `दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब शिब चूली में का बाल न एकै कैका´ में भी मिलता है। यानी सरकारी बोझ को धोने के कारण किसी के मध्य शिर में बाल ही नहीं होते थे.  अंग्रेजी शासनकाल आया तो यहाँ की जनता पर  कुली बेगार, कुली उतार व कुली बरदाइश जैसी कुप्रथाएं जबरन थोप दी गयीं, जिसका भी यहां समय-समय पर विरोध हुआ। परिपालन में जरा सी घी चूक पर राजद्रोह के अधियोग वाले इन काले कानूनों के विरोध में स्वयं श्री बद्री दत्त पाण्डे ने `कुमाऊं परिषद´ की स्थापना की। 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी के पर्व पर बागेश्वर में श्री पाण्डे, हरिगोविन्द पन्त तथा चिरंजीवी लाल आदि ने पवित्र सरयू नदी में ऐतिहासिक आन्दोलन के दौरान बेगार के रजिष्टर  बहा दिऐ तथा हाथों में पवित्र जल लेकर बेगार न देने की शपथ ली तथा इन कुप्रथाओं का अन्त कर दिया। गढ़वाल में 30 जनवरी 1921 को बैरिस्टर मुकुन्दी लाल के नेतृत्व में भी यही शपथ ली गई। आजादी के बाद भी प्रदेश में श्रमिक आन्दोलनों का सिलसिला नहीं थमा. 1947 48 में अस्कोट तथा टिहरी रियासतों में भी महत्वपूर्ण श्रमिक आन्दोलन हुऐ, जिनमें प्रदेश के प्रसिद्ध आन्दोलनकारी नागेन्द्र सकलानी शहीद हुऐ। अल्मोड़ा के झिरौली मैग्नेसाइट तथा रानीखेत ड्रग फैक्टरी में हुऐ श्रमिक आन्दोलनों में जनकवि गिरीश तिवारी `गिर्दा´ ने 'हम मेहनतकश इश दुनियां से जब अपना हिस्सा मांगेंगे, एक खेत नहीं, एक बाग़ नहीं, हम पूरा हिस्सा मांगेंगे' की तर्ज पर `हम कुली कभाड़ी ल्वार, ज दिन आपंण हक मागूंलो...´ तथा `जैन्ता एक दिन त आलो उ दिन य दुनी में´ जैसे लोकप्रिय गीतों की रचना की। स्वर्गीय बालम सिंह जनौटी की भी इन आन्दोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसके बाद प्रदेश में श्रमिक आन्दोलन भूमिहीनों द्वारा सरकारी भूमि पर कब्जा करने के रूप में परिवर्तित हुऐ। 1958 में टाण्डा के पास वन भूमि में 47 गांव बसे तथा प्रशासनिक कार्रवाई में आठ किसानों को जान गंवानी पड़ी। 1968 में गदरपुर तथा रुद्रपुर में सूदखोरों के खिलाफ श्रमिकों के बड़े आन्दोलन हुऐ। 13 अप्रैल 1978 को पन्तनगर में खेत मजदूरों पर पीएसी द्वारा गोलियां बरसाईं गई, जिसमें दो दर्जन जानें गईं। 1980 से 1990 तक बिन्दूखत्ता श्रेत्र में भूमिहीनों ने 10,452 एकड़ भूमि पर कब्जा कर लिया। यहाँ प्रशासन से कई बार उग्र झड़पों के बाद कई भूमिहीनों पर `मीसा´ नामक राजद्रोह कानून के उल्लंघन के आरोप लगे। 1994 के बाद हुऐ उत्तराखण्ड आन्दोलन में भी सरकारी कर्मचारियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही, जिसके परिणामस्वरूप अलग राज्य अस्तित्व में आया। वर्तमान में भी सरकारी कर्मचारी एवं सिडकुल आदि में लगे उद्योगों में श्रमिक आन्दोलनों के स्वर कभी धीमे तो कभी उग्र सुनाई ही देते हैं।