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Saturday, April 17, 2010

लीजिये इतिहास हुई गदर के जमाने की अनूठी `गांधी पुलिस'



नवीन जोशी, नैनीताल। अंग्रेजों के जमाने की और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सिद्धान्तों पर आधारित देश की एक अनूठी व्यवस्था 150 से अधिक वर्षों तक सफलता के साथ चलने के बाद बीती 30 मार्च से तकरीबन इतिहास बन गई है। पूरे देश से इतर उत्तराखण्ड राज्य के केवल पहाड़ी अंचलों में कानून व्यवस्था को कमोबेश सफलता से निभाते हुऐ सामान्यतया `गांधी पुलिस´ कही जाने वाली राजस्व पुलिस यानी पटवारी व्यवस्था को आगे जारी रखने की आखिरी उम्मीद भी इसके साथ तकरीबन टूट गई है। पटवारी व कानूनगो तो बीते लंबे समय से इसका बहिस्कार किऐ ही हुऐ थे, अब नायब तहसीलदारों ने भी इससे तौबा कर ली है।
  • नायब तहसीलदारों ने किया प्रदेश भर में पुलिस कार्यों का बहिस्कार 
  • 1857 के गदर के जमाने से चल रही पटवारी व्यवस्था से पटवारी व कानूनगो पहले ही हैं विरत
  • पहले आधुनिक संसाधनों के लिए थे आन्दोलित, सरकार के उदासीन रवैये के बाद अब कोई मांग नहीं, राजस्व पुलिस भत्ता भी त्यागा
हाथ में बिना लाठी डण्डे के तकरीबन गांधी जी की ही तरह गांधी पुलिस के जवान देश आजाद होने और राज्य अलग होने के बाद भी अब तक उत्तराखण्ड राज्य के पर्वतीय भू भाग में शान्ति व्यवस्था का दायित्व सम्भाले हुऐ थे। लेकिन इधर अपराधों के बढने के साथ बदले हालातों में राजस्व पुलिस के जवानों ने व्यवस्था और वर्तमान दौर से तंग आकर स्वयं इस दायित्व का परित्याग कर दिया है। 1857 में जब देश का पहला स्वतन्त्राता संग्राम यानी गदर लड़ा जा रहा था, तत्कालीन हुक्मरान अंग्रेजों को पहली बार देश में कानून व्यवस्था और शान्ति व्यवस्था बनाने की सूझी थी। अमूमन पूरे देश में उसी दौर में पुलिस व्यवस्था की शुरूआत हुई। इसके इतर उत्तराखण्ड के पहाड़ों के लोगों की शान्ति प्रियता, सादगी और अपराधों से दूरी ने अंग्रेजों को अत्यधिक प्रभावित किया था, सम्भवतया इसी कारण अंग्रेजों ने 1861 में यहां अलग से "कुमाऊँ रूल्स" के तहत पूरे देश से इतर `बिना शस्त्रों वाली´ गांधी जी की ही तरह केवल लाठी से संचालित `राजस्व पुलिस व्यवस्था शुरू की, जो बाद में देश में `गांधी पुलिस व्यवस्था´ के रूप में भी जानी गई। इस व्यवस्था के तहत पहाड़ के इस भूभाग में पुलिस के कार्य भूमि के राजस्व सम्बंधी कार्य करने वाले राजस्व लेखपालों को पटवारी का नाम देकर ही सोंप दिऐ गऐ। पटवारी, और उनके ऊपर के कानूनगो व नायब तहसीलदार जैसे अधिकारी भी बिना लाठी डण्डे के ही यहां पुलिस का कार्य सम्भाले रहे। गांवों में उनका काफी प्रभाव होता था, और उन्हें सम्मान से अहिंसावादी गांधी पुलिस भी कहा जाता था। कहा जाता था कि यदि पटवारी क्या उसका चपरासी यानी सटवारी भी यदि गांव का रुख कर ले तो कोशों दूर गांव में खबर लग जाती थी, और ग्रामीण डर से थर-थरा उठते थे। 
एक किंवदन्ती के अनुसार कानूनगो के रूप में प्रोन्नत हुऐ पुत्र ने नई नियुक्ति पर जाने से पूर्व अपनी मां के चरण छूकर आशीर्वाद मांगा तो मां ने कह दिया, `बेटा, भगवान चाहेंगे तो तू फिर पटवारी ही हो जाएगा´। यह किंवदन्ती पटवारी के प्रभाव को इंगित करती है। लेकिन बदले हालातों और हर वर्ग के सरकारी कर्मचारियों के कार्य से अधिक मांगों पर अड़ने के चलन में पटवारी भी कई दशकों तक बेहतर संसाधनों की मांगों के साथ आन्दोलित रहे। उनका कहना था कि वर्तमान ब-सजय़ते और गांवों तक हाई-टेक होते अपराधों के दौर में उन्हें भी पुलिस की तरह बेहतर संसाधन चाहिऐ, लेकिन सरकार ने कुछ पटवारी चौकियां बनाने के अतिरिक्त उनकी एक नहीं सुनी। यहाँ तक कि वह 1947 की बनी हथकड़ियों से ही दुर्दांत अपराधियों को भी गिरफ्त में लेने को मजबूर थे इधर 40-40 जिप्सियां व मोटर साईकिलें मिलीं भी तो अधिकाँश पर कमिश्नर-डीएम जैसे अधिकारियों ने तक कब्ज़ा जमा लिया। 1982 से पटवारियों को प्रभारी पुलिस थानाध्यक्ष की तरह राजस्व पुलिस चौकी प्रभारी बना दिया गया, लेकिन वेतन तब भी पुलिस के सिपाही से भी कम था। अभी हाल तक वह केवल एक हजार रुपऐ के पुलिस भत्ते के साथ अपने इस दायित्व को अंजाम दे रहे थे। उनकी संख्या भी बेहद कम थी। स्थिति यह थी कि प्रदेश के समस्त पर्वतीय अंचलों के राजस्व क्षेत्रों की जिम्मेदारी केवल 1250 पटवारी, उनके इतने ही अनुसेवक, 150 राजस्व निरीक्षक यानी कानूनगो और इतने ही चेनमैन सहित कुल 2813 राजस्व कर्मी सम्भाल रहे थे। इस पर पटवारियों ने मई 2008 से पुलिस भत्ते सहित अपने पुलिस के दायित्वों का स्वयं परित्याग कर दिया। इसके बाद थोड़ा बहुत काम चला रहे कानूनगो के बाद बीती 30 मार्च से प्रदेश के रहे सहे नायब तहसीलदारों ने भी पुलिस कार्यों का परित्याग कर दिया है। पर्वतीय नायब तहसीलदार संघ के कुमाऊं मण्डल अध्यक्ष नन्दन सिंह रौतेला के हवाले से धारी के नायब तहसीलदार दामोदर पाण्डे ने बताया कि गढवाल मण्डल में इस बाबत पहले ही निर्णय ले लिया गया था, जबकि कुमाऊं के नायब तहसीलदारों ने बीती 28 मार्च 2010 को अल्मोड़ा में हुई बैठक में यह निर्णय लिया। लिहाजा प्रदेश के समस्त नायब तहसीलदारों ने 30 मार्च से पुलिस कार्य त्याग दिऐ हैं। उल्लेखनीय है कि राजस्व पुलिस व्यवस्था में अब ऐसा कोई पद संवर्ग नहीं बचा है, जो पुलिस कार्य करने को राजी है। ऐसे में नायब तहसीलदारों के भी पुलिस कार्यों के परित्याग से पहाड़ी गांवों में होने वाले अपराधों का खुलासा और ग्रामीणों की सुरक्षा भगवान भरोसे ही रह गई है।इधर प्रदेश के शासन प्रशासन ने पटवारियों के बाद नायब तहसीलदारों के भी पुलिसिंग कार्यों का बहिस्कार करने पर कड़ा रवैया अपनाया है। प्रदेश के मुख्य सचिव, राजस्व आयुक्त, कुमाऊं आयुक्त एवं जिलों में जिलाधिकारियों ने नायब तहसीलदारों से 30 अप्रैल तक कार्य पर लौटने का अल्टीमेटम दिया है। उनका कहना है कि अधिकतर आन्दोलित नायब तहसीलदार मूलत: पटवारी ही हैं। पटवारियों के पुलिस कार्यों का परित्याग करने पर पुलिस कार्य कराने के उद्देश्य से उन्हें प्रभारी नायब तहसीलदार बनाया गया था। वास्तविक नायब तहसीलदारों को पुलिस के अधिकार ही नहीं होते हैं। ऐसे में प्रभारी नायब तहसीलदारों के द्वारा पुलिस कार्यों का परित्याग करना कर्मचारी संहिता के तहत निरुद्ध है। ऐसे में उनके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। उन्हें मूल पद पर पदावनत भी किया जा सकता है। इधर 11 अप्रैल को नैनीताल में नायब तहसीलदारों की प्रदेश अध्यक्ष धीरज सिंह आर्य की अध्यक्षता में हुई बैठक में सरकार की धमकी के आगे न झुकने का ऐलान किया गया, साथ ही उत्पीड़न या जोर जबर्दस्ती होने पर आन्दोलन की धमकी भी दी गई।इस बाबत पूछे जाने पर उत्तराखंड के प्रमुख सचिव-राजस्व सुभाष कुमार ने एक मुलाकात में साफगोई से कहा कि पूरे प्रदेश में राजस्व पुलिस व्यवस्था पर केवल 1.5 करोड़ रुपये खर्च होते हैं, जबकि इसकी जगह यदि नागरिक पुलिस लगाई जाए तो 400 करोड़ रुपये खर्च होंगे