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Wednesday, June 26, 2013

देवभूमि को आपदा से बचा सकता है "नैनीताल मॉडल"

वर्ष 1880 के भूस्खलन ने बदल दिया था सरोवरनगरी का नक्शा, तभी बने नालों की वजह से बचा है कमजोर भूगर्भीय संरचना का यह शहर 
इसी तरह से अन्यत्र भी हों प्रबंध तो बच सकते हैं दैवीय आपदाओं से 
पहाड़ का परंपरागत मॉडल भी उपयोगी 
नवीन जोशी, नैनीताल। कहते हैं कि आपदा और कष्ट मनुष्य की परीक्षा लेते हैं और समझदार मनुष्य उनसे सबक लेकर भावी और बड़े कष्टों से स्वयं को बचाने की तैयारी कर लेते हैं। ऐसी ही एक बड़ी आपदा नैनीताल में 18 सितंबर 1880 को आई थी, जिसने तब केवल ढाई हजार की जनसंख्या वाले इस शहर के 151 लोगों और नगर के प्राचीन नयना देवी मंदिर को लीलने के साथ नगर का नक्शा ही बदल दिया था, लेकिन उस समय उठाए गए कदमों का ही असर है कि यह बेहद कमजोर भौगोलिक संरचना का नगर आज तक सुरक्षित है। इसी तरह पहाड़ के ऊंचाई के अन्य गांव भी बारिश की आपदा से सुरक्षित रहते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि नैनीताल और पहाड़ के परंपरागत मॉडल केदारघाटी व चारधाम यात्रा क्षेत्र से भी भविष्य की आपदाओं की आशंका को कम कर सकते हैं। 
1841 में स्थापित नैनीताल में वर्ष 1867 में बड़ा भूस्खलन हुआ था, और भी कई भूस्खलन आते रहते थे, इसी कारण यहाँ राजभवन को कई जगह स्थानांतरित करना पढ़ा था। लेकिन 18 सितम्बर 1880 की तिथि नगर के लिए कभी न भुलाने वाली तिथि है। तब 16 से 18 सितम्बर तक 40 घंटों में 20 से 25 इंच तक बारिश हुई थी। इसके कारण आई आपदा को लिखते हुए अंग्रेज लेखक एटकिंसन भी सिहर उठे थे। लेकिन उसी आपदा के बाद लिये गये सबक से सरोवर नगरी आज तक बची है और तब से नगर में कोई बड़ा भूस्खलन भी नहीं हुआ है। उस दुर्घटना से सबक लेते हुए तत्कालीन अंग्रेज नियंताओं ने पहले चरण में नगर के सबसे खतरनाक शेर-का-डंडा, चीना (वर्तमान नैना), अयारपाटा, लेक बेसिन व बड़ा नाला (बलिया नाला) में नालों का निर्माण कराया। बाद में 1890 में नगर पालिका ने रुपये से अन्य नाले बनवाए। 23 सितम्बर 1898 को इंजीनियर वाइल्ड ब्लड्स द्वारा बनाए नक्शों के आधार पर 35 से अधिक नाले बनाए गए। वर्ष 1901 तक कैचपिट युक्त 50 नालों (लम्बाई 77,292 फीट) और 100 शाखाओं का निर्माण (लंबाई 1,06,499 फीट) कर लिया गया। बारिश में कैच पिटों में भरा मलबा हटा लिया जाता था। अंग्रेजों ने ही नगर के आधार बलिया नाले में भी सुरक्षा कार्य करवाए जो आज भी बिना एक इंच हिले नगर को थामे हुए हैं। यह अलग बात है कि इधर कुछ वर्ष पूर्व ही हमारे इंजीनियरों द्वारा बलिया नाला में कराये गए कार्य कमोबेश पूरी तरह दरक गये हैं। बहरहाल, बाद के वर्षो में और खासकर इधर 1984 में अल्मोड़ा से लेकर हल्द्वानी और 2010 में पूरा अल्मोड़ा एनएच कोसी की बाढ़ में बहने के साथ ही बेतालघाट और ओखलकांडा क्षेत्रों में जल-प्रलय जैसे ही नजारे रहे, लेकिन नैनीताल कमोबेश पूरी तरह सुरक्षित रहा। ऐसे में भूवैज्ञानिकों का मानना है ऐसी भौगोलिक संरचना में बसे प्रदेश के शहरों को "नैनीताल मॉडल" का उपयोग कर आपदा से बचाया जा सकता है। कुमाऊं विवि के विज्ञान संकायाध्यक्ष एवं भू-वैज्ञानिक प्रो. सीसी पंत एवं यूजीसी वैज्ञानिक प्रो. बीएस कोटलिया का कहना है कि नैनीताल मॉडल के सुरक्षित 'ड्रेनेज सिस्टम' के साथ ही पहाड़ के परंपरागत सिस्टम का उपयोग कर प्रदेश को आपदा से काफी हद तक बचाया जा सकता है। इसके लिए पहाड़ के परंपरागत गांवों की तरह नदियों के किनारे की भूमि पर खेतों (सेरों) और उसके ऊपर ही मकान बनाने का मॉडल कड़ाई से पालन करना जरूरी है। प्रो. कोटलिया का कहना है कि मानसून में नदियों के अधिकतम स्तर से 60 फीट की ऊंचाई तक किसी भी प्रकार के निर्माण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

इधर आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण केंद्र (डीएमएमसी) के अध्ययन "स्लोप इनस्टेबिलिटी एंड जियो-एन्वायरमेंटल इश्यूज ऑफ द एरिया अराउंड नैनीताल" के मुताबिक नैनीताल को 1880 से लेकर 1893, 1898, 1924, 1989, 1998 में भूस्खलन का दंश झेलना पड़ा। 18 सितम्बर 1880 में हुए भूस्खलन में 151 व 17 अगस्त 1898 में 28 लोगों की जान गई थी। इन भयावह प्राकृतिक आपदाओं से सबक लेते हुए अंग्रेजों ने शहर के आसपास की पहाड़ियों के ढलानों पर होने वाले भूधंसाव, बारिश और झील से होने वाले जल रिसाव और उसके जल स्तर के साथ ही कई धारों (प्राकृतिक जलस्रेत) के जलस्रव की दर आदि की नियमित मॉनीटरिंग करने व आंकड़े जमा करने की व्यवस्था की थी। यही नहीं प्राकृतिक रूप से संवेदनशील स्थानों को मानवीय हस्तक्षेप से मुक्त रखने के लिए कई कड़े नियम कानून बनाए थे। मगर आजादी के बाद यह सब ठंडे बस्ते में चला गया। शहर कंक्रीट का जंगल होने लगा। पिछले पांच वर्षो में ही झील व आस-पास के वन क्षेत्रों में खूब भू-उपयोग परिवर्तन हुआ है और इंसानी दखल बढ़ा है। नैनीझील के आसपास की संवेदनशील पहाड़ियों के ढालों से आपदा के मानकों की धज्जियां उड़ाते हुए गंभीर छेड़छाड़ की जा रही है। पहाड़ के मलबों को पहाड़ी ढालों से निकलने वाले पानी की निकासी करने वाले प्राकृतिक नालों को मलबे से पाटा जा रहा है। नैनी झील के जल संग्रहण क्षेत्रों तक में अवैध कब्जे हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद सरोवरनगरी में अवैध निर्माण कार्य अबाध गति से जारी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इन क्षेत्रों में हुए सूक्ष्म बदलाव भी नैनी झील के वजूद के लिए खतरा बन सकते हैं।

Monday, September 17, 2012

त्रासदियों से नहीं लिए आजाद देश के हुक्मरानों ने सबक

नवीन जोशी नैनीताल। 18 की तिथि सरोवरनगरी के लिये बेहद महत्वपूर्ण है। 18 नवम्बर 1841 को ही इस नगर को वर्तमान स्वरूप में बसाने वाले पीटर बैरन के नगर में आगमन की बात कही जाती है, वहीं सितम्बर माह की 18 तारीख को132 वर्ष पूर्व नगर में जो हुआ, उसे याद कर नैनीतालवासियों की रूह आज भी कांप उठती है। 1880 में इस तिथि को हुए हादसे से तत्कालीन हुक्मरानों ने सबक लेकर जो किया, उससे यह नगर आज भी कई विकराल परिस्थितियों के बावजूद पूरी तरह सुरक्षित है लेकिन चिंताजनक बात यह है कि आजाद देश के हुक्मरान और जनता दोनों मानो इन सबकों को याद करने को तैयार नहीं हैं। नतीजा, घटना की पुनरावृत्ति के रूप में सामने न आये, इसकी दुआ ही की जा सकती है। 
अंग्रेज लेखक एटकिंसन के अनुसार 18 सितम्बर 1880 को काले शनिवार के दिन नगर में आल्मा पहाड़ी की ओर से आये महाविनाशकारी भूस्खलन ने नगर का भूगोल ही परिवर्तित कर दिया था। उस दौर का एशिया का सबसे बड़ा होटल बताया जाने वाला विक्टोरिया होटल, वर्तमान बोट हाउस क्लब के पास स्थित प्राचीन नयना देवी मंदिर और मिस्टर बेल की बिसातखाने की दुकान जमींदोज होकर धमाके के साथ पलक झपकते ही नैनी झील में समा गई थी। इस दुर्घटना में 43 यूरोपीय व यूरेशियन लोगों के साथ ही स्थानीय निवासियों को मिलाकर 151 लोग जिंदा दफन हो गये थे, जबकि तब नगर की जनसंख्या केवल ढाई हजार के करीब थी। तब 16 सितम्बर की दोपहर से बारिश शुरू हो गई थी, और 17 की रात्रि तक करीब नौ इंच और 18 सितम्बर तब 40 घंटों में 20 से 25 इंच तक बारिश हुई थी। इससे पूर्व भी नगर में 1867 में बड़ा भूस्खलन हुआ था। बहरहाल इस दुर्घटना से सबक लेते हुऐ तत्कालीन अंग्रेज नियंताओं ने पहले चरण में सबसे खतरनाक शेर-का-डंडा, चीना (वर्तमान नैना), अयारपाटा, लेक बेसिन व बड़ा नाला (बलिया नाला) का दो लाख रुपये से निर्माण किया। बाद में 80 के अंतिम व 90 के शुरूआती दशक में नगर पालिका ने तीन लाख रुपये से अन्य नाले बनाए। 1898 में आयी तेज बारिश ने लोंग्डेल व इंडक्लिफ क्षेत्र में ताजा बने नालों को नुकसान पहुंचाया, जिसके बाद यह कार्य पालिका से हटाकर पीडब्लूडी को दे दिए गए। 23 सितम्बर 1898 को इंजीनियर वाइल्ड ब्लड्स द्वारा बनाए नक्शों से 35 से अधिक नाले बनाए गए। 1901 तक कैचपिट युक्त 50 नालों (लम्बाई 77,292 फीट) व 100 शाखाओं का निर्माण (कुल लम्बाई 1,06,499 फीट) कर लिया गया। बारिश में भरते ही कैच पिटों में भरा मलवा हटा लिया जाता था। 
अंग्रेजों ने ही नगर के आधार बलियानाले में सुरक्षा कार्य करवाए, जो आज भी बिना एक इंच हिले नगर को थामे हुऐ हैं, जबकि इधर कुछ वर्ष पूर्व ही हमारे इंजीनियरों द्वारा बलियानाला में कराये गए कार्य कमोबेश पूरी तरह दरक गये हैं। नालों में बने कैचपिट अब एकाध जगह देखने भर को मिलते हैं। उनकी सफाई हो-हल्ला मचने पर ही होती है। करोड़ों रुपये की परियोजनाऐं चलने के बावजूद लोनिवि हमेशा नालों की सफाई के लिये बजट न होने का रोना रोता है। नगर पालिका से नालों से कूड़ा व मलवा हटाने को लेकर हमेशा विवाद रहता है। दूसरी ओर नगर वासी निर्माणों के मलवे को नालों के किनारे बारिश होने के इंतजार में रहते हैं, और बारिश होते ही उड़ेल देते हैं। 
बहरहाल, 1880 के बाद विगत वर्ष 2010 में ठीक 18 सितंबर और 2011 में भी सितंबर माह में प्रदेश व निकटवर्ती क्षेत्रों में जल पल्रय जैसे हालात आये। 2010 में नगर की सामान्य 248 सेमी से करीब दोगुनी 413 सेमी बारिश रिकार्ड की गई, बावजूद नगर पूरी तरह सुरक्षित रहा। नगर के बुजुर्ग, आम जन, अधिकारी हर कोई इस बात को स्वीकार करते हैं, लेकिन कोई इस घटना से सबक लेता नहीं दिखता।