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Wednesday, February 28, 2018

इस साल की नयी होली : कुछ काम अब तो कर लो बलम...

‘कुछ काम अब तो कर लो बलम-2,

बंद करा क्यूं ग्यूं चावल हमरा, गुझिया हुंणी चीनी दिला दो बलम,

कुछ काम अब तो कर लो बलम..

खाली खजाना जेब भी खाली-करने वाले जेल चलें,

मुख पे मलो उनके कालो डीजल, भ्रष्टाचार की होरी जलें,

औरों पर तो बहुत चलाई, कुछ खुद पर भी तो चला दो कलम,

कुछ काम अब तो कर लो बलम....’

सब्बै इष्ट-मितुरन, संगी-साथी, नाना-ठुला भाई-भुला, दीदी-भुली, ब्वारिन-बोजिन सबन, सरकार में और सरकार से भ्यार-भितर वालों, कलम के सिपाहियों, घर-ऑफिस, अखबार वालों, फेसबुकिया, ट्विटरिया, ब्लॉगिया और ‘राष्ट्रीय सहारा’-‘नवीन समाचार’ के पाठकों  को होली की बहुत-बहुत बधाइयां... 

हो-हो-हो लख रे....गावैं, खेलैं, देवैं असीस, हो हो हो लख रे। बरस दिवाली-बरसै फाग, हो हो हो लख रे...। जो नर जीवैं, खेलें फाग, हो हो हो लख रे...।
नवीन जोशी, 'नवेंदु'

यह भी पढ़ें : सदियों पुरानी सांस्कृतिक विरासत है कुमाउनी शास्त्रीय होली

Thursday, May 15, 2014

बाखलीः पहाड़ की परंपरागत हाउसिंग कालोनी


एक बाखली में 100 परिवार तक रहते हैं, भीतर-भीतर ही रेल के डिब्बों की तरह एक से दूसरे घर में जाने का प्रबंध भी रहता है। 
नवीन जोशी, नैनीताल। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और वह समाज में एक साथ मिलकर रना पसंद करता है। आज के एकाकी व एकल परिवार के दौर में भी मनुष्य समाज के साथ एक तरह की सुविधाओं युक्त कालोनियों में रहना पसंद करता है। बीते दौर में भी मानव की यही प्रवृत्ति रही थी। खासकर उत्तराखंड के गांवों में घरों की लंबी श्रृंखला होती थी, जिसे बाखली (बाखई) कहा जाता है। पहाड़ में अनेक गांवों में ऐसी बाखली हैं, जिनमें सैकड़ों परिवार एक साथ रहा करते थे। आज के बदलते दौर में भी कई गांवों में ऐसी बाखली मौजूद हैं, जो सामाजिकता का संदेश देती हैं। इन्हें पहाड़ की परंपरागत हाउसिंग कालोनियां भी कहा जा सकता है।
नैनीताल जनपद के मौना क्षेत्र में शिमायल के पास कुमाटी नाम का एक गांव है, जहां स्थित बाखली में करीब 80 मवासे (परिवार) एक साथ रहते हैं। बाखली पहाड़ के घरों की एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें पहाड़ के परंपरागत पत्थर व मिट्टी के गारे से बने तथा चपटे पत्थरों (पाथरों) से छाये गए दर्जनों घर आपस में रेल के डिब्बों की तर बाहर ही नहीं भीतर से भी जुड़े रहते हैं, और इनमें घरों के बाहर आए बिना भी रेल के डिब्बों की तरह भीतर-भीतर ही एक से दूसरे घर में जाया जा सकता है। सामान्यतया घरों में बनने वाले व्यंजनों का आदान-प्रदान, एक-दूसरे के घरों में दुःख-तकलीफ तथा कामकाज में सहयोग और खासकर गांवों में रात्रि में बाघ आदि जंगली जानवरों के आने की स्थिति में घरों के भीतर-भीतर ही आने-जाने की यह व्यवस्था खासी कारगर साबित होती रही है। इससे गांव के लोगों में आपसी संबंध भी काफी मधुर रहते हैं, क्योंकि लोग एक-
दूसरे से अधिक गहराई तक जुड़े रहते हैं। इन घरों में जहां दरवाजे व खिड़कियों (द्वार-म्वाव) पर लकड़ी की नक्काशी पहाड़ की समृद्ध काष्ठ कला के दर्शन कराती है, वहीं निचली मंजिल में पशुओं के लिए गोठ, ऊपरी मंजिल में बाहरी कमरा-चाख (जहां चाख यानी अनाज पीसने के लिए हाथ से चलाई जाने वाली चक्की भी होती है), पीछे की ओर रसोई, बाहर की ओर पंछियों के लिए घोंसले, छत में पाथरों के बीच से धुंवे के बाहर निकलने और रोशनी के भीतर आने के प्रबंध तथा आंगन (पटांगण) में बैठने के लिए चौकोर पत्थरों (पटाल) के बीच धान कूटने की ओखली (ऊखल) आदि के प्रबंध भी होते थे। लाल मिट्टी व गोबर से लीपे इन घरों में पहाड़ की समृद्ध परंपरागत चित्रकारी-ऐपण भी देखने लायक होती हैं। बदलते दौर में जहां 1970 के दशक में आए वनाधिकारों के बाद गांवों में पत्थर, लकड़ी आदि वन सामग्री न मिलने की वजह से सीमेंट-कंक्रीट से घर बनने लगे, और पुराने घर भी उनमें रहने वाले लोगों के पलायन की वजह से खाली छूटने के कारण खंडहर में तब्दील होने लगे हैं। इसके बावजूद कुमाटी जैसे अनेक गांव हैं, जहां के ग्रामीणों ने आज भी अपनी विरासत को सहेज कर रखा हुआ है।

Thursday, March 27, 2014

उत्तराखंड में अनूठी है भाई-बहन के प्रेम की 'भिटौली' परंपरा

  • चैत्र माह में निभाई जाती है यह परंपरा, भाई देते हैं बहनों को सौगात
अनेक अनूठी परंपराओं के लिए पहचाने जाने वाले उत्तराखण्ड राज्य में भाई-बहन के प्रेम की एक अनूठी ‘भिटौली’ देने की प्राचीन परंपरा है। पहाड़ में सभी विवाहिता बहनों को जहां हर वर्ष चैत्र मास का इंतजार रहता है, वहीं भाई भी इस माह को याद रखते हैं और अपनी बहनों को ‘भिटौली’ देते हैं। 
घुघुती
'भिटौली' का शाब्दिक अर्थ भेंट देने से हैं। प्राचीन काल से चली आ रही यह परंपरा उस दौर में काफी महत्व रखती थी। इसके जरिए भाई-बहन का मिलन तो होता ही था, इसके जरिए उस संचार के साधन विहीन दौर में अधिकांशतया बहुत दूर होने वाले मायकों की विवाहिताओं की कुशल-क्षेम मिल जाती थी। भाई अपनी बहनों के लिए घर से हलवा-पूड़ी सहित अनेक परंपरागत व्यंजन तथा बहन के लिए वस्त्र एवं उपलब्ध होने पर आभूषण आदि भी लेकर जाता था। बाद के दौर में व्यंजनों के साथ ही गुड़, मिश्री व मिठाई जैसी वस्तुएं भी भिटौली के रूप में दी जाने लगीं। व्यंजनों को विवाहिता द्वारा अपने ससुराल के पूरे गांव में बांटा जाता था। भिटौली का विवाहिताओं को बेसब्री से इंतजार रहता था। भिटौली जल्दी आना बहुत अच्छा माना जाता था, जबकि भिटौली देर से मिली तो भी बहनों की खुशी का पारा-वार न होता था। आज के बदलते दौर में भिटौली की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में तो कमोबेश पुराने स्वरूप में ही जारी है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में भाइयों द्वारा ले जाए जाने वाले व्यंजनों का स्थान बाजार की मिठाइयों ने ले लिया है। भाई कई बार साथ में बहनों के लिए कपड़े ले जाते हैं, और कई बार इनके स्थान पर कुछ धनराशि देकर भी परंपरा का निर्वहन कर लिया जाता है।

लोकगीतों-दंतकथाओं में भी है भिटौली

भिटौली प्रदेश की लोक संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। इसके साथ कई दंतकथाएं और लोक गीत भी जुड़े हुए हैं। पहाड़ में चैत्र माह में यह लोकगीत काफी प्रचलित है- 
ओहो, रितु ऐगे हेरिफेरि रितु रणमणी, हेरि ऐछ फेरि रितु पलटी ऐछ।
ऊंचा डाना-कानान में कफुवा बासलो, गैला-मैला पातलों मे नेवलि बासलि।।
ओ, तु बासै कफुवा, म्यार मैति का देसा, इजु की नराई लागिया चेली, वासा।
छाजा बैठि धना आंसु वे ढबकाली, नालि-नालि नेतर ढावि आंचल भिजाली।
इजू, दयोराणि-जेठानी का भै आला भिटोई, मैं निरोलि को इजू को आलो भिटोई।।
इस लोकगीत का कहीं-कहीं यह रूप भी प्रचलित है-
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।
डाली में कफुवा वासो, खेत फुली दैणा।
कावा जो कणाण, आजि रते वयांण।
खुट को तल मेरी आज जो खजांण।
इजु मेरी भाई भेजली भिटौली दीणा।
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।
वीको बाटो मैं चैंरुलो।
दिन भरी देली मे भै रुंलो।
वैली रात देखछ मै लै स्वीणा।
आगन बटी कुनै ऊँनौछीयो -
कां हुनेली हो मेरी वैणा ?
रितु रैणा, ऐ गे रितु रैणा।
रितु ऐ गे रणा मणी, रितु ऐ रैणा।।
भावार्थ :-
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।
डाल पर 'कफुवा' पक्षी कूजने लगा, खेतों मे सरसों फूलने लगी।
आज तडके ही जब कौआ घर के आगे बोलने लगा।
जब मेरे तलवे खुजलाने लगे, तो मैं समझ गई कि -
माँ अब भाई को मेरे पास भिटौली देने के लिए भेजेगी।
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।
मैं अपने भाई की राह देखती रहूंगी।
दिन भर दरवाजे मे बैठी उसकी प्रतीक्षा करुँगी।
कल रात मैंने स्वप्न देखा था।
मेरा भाई आंगन से ही यह कहता आ रहा था -
कहाँ होगी मेरी बहिन ?
रुन झुन करती ऋतु आ गई है, ऋतु आ गई है रुन-झुन करती।।

वहीं ‘भै भुखो-मैं सिती’ नाम की दंतकथा भी काफी प्रचलित है। कहा जाता है कि एक बहन अपने भाई के भिटौली लेकर आने के इंतजार में पहले बिना सोए उसका इंतजार करती रही। लेकिन जब देर से भाई पहुंचा, तब तक उसे नींद आ गई और वह गहरी नींद में सो गई। भाई को लगा कि बहन काम के बोझ से थक कर सोई है, उसे जगाकर नींद में खलल न डाला जाए। उसने भिटौली की सामग्री बहन के पास रखी। अगले दिन शनिवार होने की वजह से वह परंपरा के अनुसार बहन के घर रुक नहीं सकता था, और आज की तरह के अन्य आवासीय प्रबंध नहीं थे, उसे रात्रि से पहले अपने गांव भी पहुंचना था, इसलिए उसने बहन को प्रणाम किया और घर लौट आया। बाद में जागने पर बहन को जब पता चला कि भाई भिटौली लेकर आया था। इतनी दूर से आने की वजह से वह भूखा भी होगा। मैं सोई रही और मैंने भाई को भूखे ही लौटा दिया। यह सोच-सोच कर वह इतनी दुखी हुई कि ‘भै भूखो-मैं सिती’ यानी भाई भूखा रहा, और मैं सोती रही, कहते हुए उसने प्राण ही त्याग दिए। कहते हैं कि वह बहन अगले जन्म में वह ‘घुघुती’ नाम की पक्षी बनी और हर वर्ष चैत्र माह में ‘भै भूखो-मैं सिती’ की टोर लगाती सुनाई पड़ती है। पहाड़ में घुघुती पक्षी को विवाहिताओं के लिए मायके की याद दिलाने वाला पक्षी भी माना जाता है। ‘घुर-घुर न घुर घुघुती चैत में, मकें याद उं आपणै मैत की’ जैसे गीत भी काफी लोकप्रिय हैं।

पिथौरागढ में भिटौली पर 'चैतोल' की परंपरा

कुमाऊं के पिथौरागढ़ जनपद क्षेत्र में चैत्र मास में भिटौली के साथ ही चैतोल पर्व मनाए जाने की एक अन्य परंपरा भी है। चैत्र मास के अन्तिम सप्ताह में मनाये जाने वाले इस त्योहार में पिथौरागढ के समीपवर्ती गांव चहर-चौसर से डोला यानी शोभायात्रा भी निकाली जाती है, जो कि निकट के 22 गांवों में घूमती है। चैतोल के डोले को भगवान शिव के देवलसमेत अवतार का प्रतीक बताया जाता है, डोला पैदल ही 22 गांवों में स्थित भगवती देवी के थानों यानी मंदिरों में भिटौली के अवसर पर पहुंचता है। मंदिरों में देवता किसी व्यक्ति के शरीर में अवतरित होकर उपस्थित लोगों व भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।

कुमाऊं के एक अन्य लोक पर्व 'फूलदेई' पर बच्चों 'द्वारा  पूजा' के दौरान गाया जाने वाला लोकगीत- 

" फूलदेई, छम्मा देई.…
जतुकै देला, उतुकै सही ।
देंणी द्वार, भर भकार,
सास ब्वारी, एक लकार,
यो देलि सौ नमस्कार ।
फूलदेई, छम्मा देई.…
जतुकै देला, उतुकै सही । "
प्रस्तुति: नवीन जोशी।

Thursday, March 13, 2014

होली छाई ऐसी झकझोर कुमूं में....

कुमाऊं में है अनूठी बैठकी, खड़ी, धूम व महिला होलियों की परंपरा
देवभूमि उत्तराखंड प्रदेश के कुमाऊं अंचल में रामलीलाओं की तरह राग व फाग का त्योहार होली भी अलग वैशिष्ट्य के साथ मनाई जाती हैं। यूं कुमाऊं में होली के दो प्रमुख रूप मिलते हैं, बैठकी व खड़ी होली, परन्तु अब दोनों के मिश्रण के रूप में तीसरा रूप भी उभर कर आ रहा है। इसे धूम की होली कहा जाता है। इसके साथ ही महिला होलियां भी अपना अलग स्वरूप बनाऐ हुऐ हैं।
कुमाऊं में बैठकी होली की शुरुआत होली के पूर्वाभ्यास के रूप में पौष माह के पहले रविवार से विष्णुपदी होली गीतों से होती है। माना जाता है कि प्राचीनकाल में यहां के राजदरबारों में बाहर के गायकों के आने से यह होली गीत यहां आऐ हैं। इनमें शाष्त्रीयता का अधिक महत्व होने के कारण इन्हें शाष्त्रीय होली भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रहरों में अलग अलग शाष्त्रीय रागों पर आधारित होलियां गाई जाती हैं। शुरुआत बहुधा धमार राग से होती है, और फिर सर्वाधिक काफी व पीलू राग में तथा जंगला काफी, सहाना, बिहाग, जैजैवन्ती, जोगिया, झिंझोटी, भीमपलासी, खमाज व बागेश्वरी सहित अनेक रागों में भी बैठकी होलियां विभिन्न पारंपरिक वाद्य यंत्रो के साथ गाई जाती हैं। 
होली की शुरुआत बसन्त के स्वागत के गीतों से होती है, जिसमें प्रथम पूज्य गणेश, राम, कृष्ण व शिव सहित कई देवी देवताओं की स्तुतियां व उन पर आधारित होली गीत गाऐ जाते हैं। बसन्त पंचमी के आते आते होली गायकी में क्षृंगारिकता बढ़ने लगती है तथा 
`आयो नवल बसन्त सखी ऋतुराज कहायो, पुष्प कली सब फूलन लागी, फूल ही फूल सुहायो´ 
के अलावा जंगला काफी राग में
`राधे नन्द कुंवर समझाय रही, होरी खेलो फागुन ऋतु आइ रही´ 
व झिंझोटी राग में 
`आहो मोहन क्षृंगार करूं में तेरा, मोतियन मांग भरूं´
तथा राग बागेश्वरी में
`अजरा पकड़ लीन्हो नन्द के छैयलवा अबके होरिन में...´
आदि होलियां गाई जाती हैं। इसके साथ ही महाशिवरात्रि पर्व तक के लिए होली बैठकों का आयोजन शुरू हो जाता है। शिवरात्रि के अवसर पर शिव के भजन जैसे
`जय जय जय शिव शंकर योगी´ 
आदि होली के रूप में गाऐ जाते हैं। इसके पश्चात कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों में होलिका एकादशी से लेकर पूर्णमासी तक खड़ी होली गीत जैसे 
`शिव के मन मांहि बसे काशी´, `जल कैसे भरूं जमुना गहरी´`सिद्धि ´को दाता विघ्न विनाशन, होरी खेलें गिरिजापति नन्दन´ आदि होलियां गाई जाती हैं। सामान्यतया खड़ी होलियां कुमाऊं की लोक परंपरा के अधिक निकट मानी जाती हैं और यहां की पारंपरिक होलियां कही जाती हैं। यह होलियां ढोल व मंजीरों के साथ बैठकर व विशिष्ट तरीके से पद संचालन करते हुऐ खड़े होकर गाई जाती हैं। इन दिनों होली में राधा-कृष्ण की छेड़छाड़ के साथ क्षृंगार की प्रधानता हो जाती है, यह होलियां प्राय: पीलू राग में गाई जाती हैं। 
इधर कुमाउनीं होली में बैठकी व खड़ी होली के मिश्रण के रूप में तीसरा रूप भी उभर रहा है, इसे धूम की होली कहा जाता है। यह `छलड़ी´ के आस पास गाई जाती है। इसमें कई जगह कुछ वर्जनाऐं भी टूट जाती हैं, तथा स्वांग का प्रयोग भी किया जाता है। महिलाओं में भी होली का यह रूप प्रचलित है। 

होलियों के दौरान युवक, युवतियों और वृद्ध सभी को होली के गीतों में सराबोर देखा जा सकता है। खासकर ग्रामीण अंचलों में तबले, मंजीरे और हारमोनियम के सुर में होलियां गाई जाती हैं, इस दौरान ऐसा लगता है मानो हर होल्यार शास्त्रीय गायक हो गया हो। नैनीताल, अल्मोड़ा और चंपावत की होलियां खास मानी जाती हैं, जबकि बागेश्वर, गंगोलीहाट, लोहाघाट व पिथौरागढ़ में तबले की थाप, मंजीरे की छन-छन और हारमोनियम के मधुर सुरों पर जब ‘ऐसे चटक रंग डारो कन्हैया’ जैसी होलियां गाते हैं। बैठकी होली पौष माह के पहले रविवार से ही शुरू हो जाती हैं, और फाल्गुन तक गाई जाती है। पौष से बसंत पंचमी तक अध्यात्मिक, बसंत पंचमी से शिवरात्रि तक अर्ध श्रृंगारिक और उसके बाद श्रृंगार रस में डूबी होलियाँ गाई जाती हैं. इनमें भक्ति, वैराग्य, विरह, कृष्ण-गोपियों की हंसी-ठिठोली, प्रेमी प्रेमिका की अनबन, देवर-भाभी की छेड़छाड़ के साथ ही वात्सल्य, श्रृंगार, भक्ति जैसे सभी रस मिलते हैं। बैठकी होली अपने समृद्ध लोक संगीत की वजह से यहाँ की संस्कृति में रच बस गई है, खास बात यह भी है कि कुछ को छोड़कर अधिकांश होलियों की भाषा कुमाऊंनी न होकर ब्रज है। सभी बंदिशें राग-रागनियों में गाई जाती है, और यह काफी हद तक शास्त्रीय गायन है। इनमें एकल और समूह गायन का भी निराला अंदाज दिखाई देता है। लेकिन यह न तो सामूहिक गायन है न ही शास्त्रीय होली की तरह एकल गायन। महफिल में मौजूद कोई भी व्यक्ति बंदिश का मुखड़ा गा सकता है, जिसे स्थानीय भाषा में भाग लगाना कहते हैं। खड़ी होली होली में होल्यार दिन में ढोल-मंजीरों के साथ गोल घेरे में पग संचालन और भाव प्रदर्शन के साथ गाते हैं, और रात में यही होली बैठकर गाई जाती है। शिवरात्रि से होलिकाअष्टमी तक बिना रंग के ही होली गाई जाती है। होलिका अष्टमी को मंदिरों में आंवला एकादशी को गाँव मोहल्ले के निर्धारित स्थान पर चीर बंधन होता है और रंग डाला जाता है। 

इधर शहरी क्षेत्रों में हर त्योहार की तरह होली में भी कमी आने लगी है। लोग केवल छलड़ी के दि नही रंग लेकर निकलते हैं, और एक-दूसरे को रंग लगाते हुए गुजिया खिलाते हैं। गांवों में भांग का प्रचलन भी है। 
 कुमाउनीं होली में चीर व निशान की विशिष्ट परम्परायें 
कुमाऊं में चीर व निशान बंधन की भी अलग विशिष्ट परंपरायें  हैं। इनका कुमाउनीं होली में विशेश महत्व माना जाता है। होलिकाष्टमी के दिन ही कुमाऊं में कहीं कहीं मन्दिरों में `चीन बंधन´ का प्रचलन है। पर अधिकांशतया गांवों, शहरों में सार्वजनिक स्थानों में एकादशी को मुहूर्त देखकर चीर बंधन किया जाता है। इसके लिए गांव के प्रत्येक घर से एक एक नऐ कपड़े के रंग बिरंगे टुकड़े `चीर´ के रूप में लंबे लटठे पर बांधे जाते हैं। इस अवसर पर `कैलै बांधी चीर हो रघुनन्दन राजा...सिद्धि को दाता गणपति बांधी चीर हो...´ जैसी होलियां गाई जाती हैं। इस होली में गणपति के साथ सभी देवताओं के नाम लिऐ जाते हैं। कुमाऊं में `चीर हरण´ का भी प्रचलन है। गांव में चीर को दूसरे गांव वालों की पहुंच से बचाने के लिए दिन रात पहरा दिया जाता है। चीर चोरी चले जाने पर अगली होली से गांव की चीर बांधने की परंपरा समाप्त हो जाती है। कुछ गांवों में चीर की जगह लाल रंग के झण्डे `निशान´ का भी प्रचलन है, जो यहां की शादियों में प्रयोग होने वाले लाल सफेद `निशानों´ की तरह कुमाऊं में प्राचीन समय में रही राजशाही की निशानी माना जाता है। बताते हैं कि कुछ गांवों को तत्कालीन राजाओं से यह `निशान´ मिले हैं, वह ही परंपरागत रूप से होलियों में `निशान´ का प्रयोग करते हैं। सभी घरों में होली गायन के पश्चात घर के सबसे सयाने सदस्य से  शुरू कर सबसे छोटे पुरुष  सदस्य का नाम लेकर `जीवें लाख बरीस...हो हो होलक रे...´ कह आशीष देने की भी यहां अनूठी परंपरा है।

Tuesday, January 14, 2014

कुमाऊं का ऋतु पर्व ही नहीं ऐतिहासिक व लोक सांस्कृतिक पर्व भी है उत्तरायणी


-1921 में इसी त्योहार के दौरान बागेश्वर में हुई रक्तहीन क्रांति, कुली बेगार प्रथा से मिली थी निजात
-घुघुतिया के नाम से है पहचान, काले कौआ कह कर न्यौते जाते हैं कौए और परोसे जाते हैं पकवान

नवीन जोशी, नैनीताल। दुनिया को रोशनी के साथ ऊष्मा और ऊर्जा के रूप में जीवन देने के कारण साक्षात देवता कहे जाने वाले सूर्यदेव के धनु से मकर राशि में यानी दक्षिणी से उत्तरी गोलार्ध में आने का पर्व पूरे देश में अलग-अलग प्रकार से मनाया जाता है। पूर्वी भारत में यह बीहू, पश्चिमी भारत (पंजाब) में लोहणी और दक्षिणी भारत (कर्नाटक, तमिलनाडु आदि) में पोंगल तथा उत्तर भारत में मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाने वाला  यह पर्व देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में उत्तरायणी के रूप में मनाया जाता है।उत्तरायणी पर्व कुमाऊं का न केवल मौसम परिवर्तन के लिहाज से एक ऋतु पर्व वरन बड़ा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पर्व भी है। 

घुघुते 
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में मकर संक्रांति यानी उत्तरायणी को लोक सांस्कृतिक पर्व घुघुतिया के रूप में मनाए जाने की विशिष्ट परंपरा रही है। यहाँ 14 जनवरी 1921 को इसी त्योहार के दिन हुए एक बड़े घटनाक्रम को कुमाऊं की ‘रक्तहीन क्रांति’ की संज्ञा दी जाती है, इस दिन कुमाऊं परिषद के अगुवा कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे के नेतृत्व में सैकड़ों क्रांतिकारियों ने कुमाऊं की काशी कहे जाने वाले बागेश्वर के सरयू बगड़ में सरयू नदी का जल हाथों में लेकर बेहद दमनकारी गोर्खा और अंग्रेजी राज के सदियों पुराने 'कुली बेगार' नाम के काले कानून संबंधी दस्तावेजों को नदी में बहाकर हमेशा के लिए तोड़ डाला था। यह परंपरा बागेश्वर में राजनीतिक दलों के सरयू बगड़ में पंडाल लगने और राजनीतिक हुंकार भरने के रूप में अब भी कायम है। इस त्योहार से कुमाऊं के लोकप्रिय कत्यूरी शासकों की एक अन्य परंपरा भी जुड़ी हुई है, जिसके तहत आज भी कत्यूरी राजाओं के वंशज नैनीताल जिले के रानीबाग में गार्गी (गौला) नदी के तट पर उत्तरायणी के दिन रानी जिया का जागर लगाते व परंपरागत पूजा-अर्चना करते हैं। वहीं एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार कुमाऊं के अन्य लोकप्रिय चंदवंशीय राजवंश के राजा कल्याण चंद को बागेश्वर में भगवान बागनाथ की तपस्या के उपरांत राज्य का इकलौता वारिस निर्भय चंद प्राप्त हुआ, जिसे रानी प्यार से घुघुती कहती थी। राजा का मंत्री राज्य प्राप्त करने की नीयत से एक बार घुघुतिया को शड्यंत्र रच कर चुपचाप उठा ले गया। इस दौरान एक कौए ने घुघुतिया के गले में पड़ी मोतियों की माला ले ली, और उसे राजमल में छोड़ आया, इससे रानी को पुत्र की कुशल मिली। उसने कौए को तरह-तरह के पकवान खाने को दिए और अपने पुत्र का पता जाना। तभी से कुमाऊं में घुघुतिया के दिन आटे में गुड़ मिलाकर पक्षी की तरह के घुघुती कहे जाने वाले और पूड़ी नुमा ढाल, तलवार, डमरू, अनार आदि के आकार के स्वादिष्ट पकवानों से घुघुतिया माला तैयार करने और कौओं को पुकारने की प्रथा प्रचलित है। बच्चे उत्तरायणी के दिन गले में घुघुतों की माला डालकर कौओं को ‘काले कौआ काले घुघुति माला खाले, 
ले कौआ पूरी, मकै दे सुनकि छुरी, ले कौआ ढाल, मकैं दे सुनक थाल, ले कौआ बड़, मकैं दे सुनल घड़...’ पुकार कर कोओं को आकर्षित करते हैं, और प्रसाद स्वरूप स्वयं भी घुघुते ग्रहण करते हैं। कौओं को इस तरह बुलाने और पकवान खिलाने की परंपरा त्रेता युग में भगवान श्रीराम की पत्नी सीता से भी जोड़ी जाती है। कहते हैं कि देवताओं के राजा इंद्र का पुत्र जयेंद्र सीता के रूप-सौंदर्य पर मोहित होकर कौए के वेश में उनके करीब जाता है। राम कुश के एक तिनके से जयेंद्र की दांयी आंख पर प्रहार कर डालते हैं, जिससे कौओं की एक आंख हमेशा के लिए खराब हो जाती है। बाद में राम ने ही कौओं को प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के दिन पवित्र नदियों में स्नान कर पश्चाताप करने का उपाय सुझाया था।
इसके साथ ही कुमाऊं में उत्तरायणी के दिन सरयू, रामगंगा, काली, गोरी व गार्गी (गौला) आदि नदियों में कड़ाके की सर्दी के बावजूद सुबह स्नान-ध्यान कर सूर्य का अर्घ्य च़ाकर सूर्य आराधना की जाती है, जो इस त्योहार के कुमाऊं में भी देश भर की तरह सूर्य उपासना से जु़ड़े होने का प्रमाण है। तात्कालीन राज व्यवस्था के कारण कुमाऊं में इस पर्व को सरयू नदी के पार और वार अलग- अलग दिनों में मनाने की परंपरा है। सरयू पार के लोग पौष मासांत के दिन घुघुते तैयार करते हैं, और अगले दिन कौओं को चढ़ाते हैं। जबकि वार के लोग माघ मास की सक्रांति यानि एक दिन बाद पकवान तैयार करते हैं, और अगले दिन कौओं को न्यौतते हुए यह पर्व मनाते हैं।

Sunday, March 17, 2013

इस साल समय पर खिला राज्य वृक्ष बुरांश, क्या ख़त्म हुआ 'ग्लोबलवार्मिंग' का असर ?


नवीन जोशी, नैनीताल। राज्य वृक्ष बुरांश का छायावाद के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत ने अपनी मातृभाषा कुमाऊंनी में लिखी एकमात्र कविता में कुछ इस तरह वर्णन किया है 
‘सार जंगल में त्वि ज क्वे नहां रे क्वे नहां
फुलन छे के बुरूंश जंगल जस जलि जां।
सल्ल छ, दयार छ, पईं छ अयांर छ, 
पै त्वि में दिलैकि आग, 
त्वि में छ ज्वानिक फाग।
(बुरांश तुझ सा सारे जंगल में कोई नहीं है। जब तू फूलता है, सारा जंगल मानो जल उठता है। जंगल में और भी कई तरह के वृक्ष हैं पर एकमात्र तुझमें ही दिल की आग और यौवन का फाग भी मौजूद है।) 
कवि की कल्पना से बाहर निकलें, तो भी बुरांश में राज्य की आर्थिकी, स्वास्थ्य और पर्यावरण सहित अनेक आयाम समाहित हैं। अच्छी बात है कि इस वर्ष बुरांश अपने निश्चित समय यानी चैत्र माह के करीब खिला है, इससे इस वृक्ष पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव पड़ने की चिंताओं पर भी कुछ हद तक विराम लगा है। प्रदेश में 1,200 से 4,800 मीटर तक की ऊंचाई वाले करीब एक लाख हैक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में सामान्यतया लाल के साथ ही गुलाबी, बैंगनी और सफेद रंगों में मिलने वाला और चैत्र (मार्च-अप्रैल) में खिलने वाला बुरांश बीते वर्षों में पौष-माघ (जनवरी-फरवरी) में भी खिलने लगा था। इस आधार पर इस पर ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का सर्वाधिक असर पड़ने को लेकर चिंता जताई जाने लगी थी। हालांकि कोई वृहद एवं विषय केंद्रित शोध न होने के कारण इस पर दावे के साथ कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती, लेकिन डीएफओ डा. पराग मधुकर धकाते कहते हैं कि हर फूल को खिलने के लिए एक विशेष ‘फोटो पीरियड’ यानी एक खास रोशनी और तापमान की जरूरत पड़ती है। यदि किसी पुष्प वृक्ष को कृत्रिम रूप से भी यह जरूरी रोशनी व तापमान दिया जाए तो वह समय से पूर्व खिल सकता है। 

बहुगुणी है बुरांश: बुरांश राज्य के मध्य एवं उच्च मिालयी क्षेत्रों में ग्रामीणों के लिए जलौनी लकड़ी व पालतू पशुओं को सर्दी से बचाने के लिए बिछौने व चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है, वहीं मानव स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इसके फूलों का रस शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी को दूर करने वाला, लौह तत्व की वृद्धि करने वाला तथा हृदय रोगों एवं उच्च रक्तचाप में लाभदायक होता है। इस प्रकार इसके जूस का भी अच्छा-खासा कारोबार होता है। अकेले नैनीताल के फल प्रसंस्कण केंद्र में प्रति वर्ष करीब 1,500 लीटर जबकि प्रदेश में करीब 2 हजार लीटर तक जूस निकाला जाता है। हालिया वर्षों में सड़कों के विस्तार व गैस के मूल्यों में वृद्धि के साथ ग्रामीणों की जलौनी लकड़ी पर बड़ी निर्भरता के साथ इसके बहुमूल्य वृक्षों के अवैध कटान की खबरें भी आम हैं।

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Sunday, September 9, 2012

हिमालय सा व्यक्तित्व और दिल में बसता था पहाड़

लखनऊ, दिल्ली की रसोई में भी कुमाऊंनी भोजन बनता था 

पर्वतीय लोगों से अपनी बोली- भाषा में करते थे बात 
नवीन जोशी नैनीताल। देश की आजादी के संग्राम और आजादी के बाद देश को संवारने में अपना अप्रतिम योगदान देने वाले उत्तराखंड के लाल भारतरत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत का व्यक्तित्व हिमालय जैसा विशाल था। वह राष्ट्रीय फलक पर सोचते थे, लेकिन दिल में पहाड़ ही बसता था। उन्हें पहाड़ और पहाड़वासियों से अपार स्नेह था। पंत आज के नेताओं के लिए भी मिसाल हैं। वे महान ऊंचाइयों तक पहुंचने के बावजूद अपनी जड़ों से हमेशा जुड़े रहे और स्वार्थ की भावना से कहीं ऊपर उठकर अपने घर से विकास की शुरूआत की। उनके घर में आम कुमाऊंनी रसोई की तरह ही भोजन बनता था और आम पर्वतीय ब्राह्मणों की तरह वे जमीन पर बैठकर ही भोजन करते थे। पं. पंत के करीबी रहे नगर के वयोवृद्ध किशन लाल साह ‘कोनी’ ने 125वीं जयंती की पूर्व संध्या पर पं. पंत के नैनीताल नगर से जुड़ी यादों को से साझा किया। 
श्री साह 1952 में युवा कांग्रेस का गठन होते ही नैनीताल संयुक्त जनपद के पहले जिला अध्यक्ष बने। श्री साह बताते हैं कि 1945 से पूर्व संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री (प्रीमियर) रहने के दौरान तक पं. पंत तल्लीताल नया बाजार क्षेत्र में रहते थे। यहां वर्तमान क्लार्क होटल उस समय उनकी संपत्ति था। यहीं रहकर उनके पुत्र केसी पंत ने नगर के सेंट जोसफ कालेज से पढ़ाई की। वह अक्सर यहां तत्कालीन विधायक श्याम लाल वर्मा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल, दलीप सिंह कप्तान आदि के साथ बी. दास, श्याम लाल एंड सन्स, इंद्रा फाम्रेसी, मल्लीताल तुला राम आदि दुकानों में बैठते और आजादी के आंदोलन और देश के हालातों व विकास पर लोगों की राय सुनते, सुझाव लेते, र्चचा करते और सुझावों का पालन भी करते थे।
बाद में वह फांसी गधेरा स्थित जनरल वाली कोठी में रहने लगे। यहीं से केसी पंत का विवाह बेहद सादगी से नगर के बिड़ला विद्या मंदिर में बर्शर के पद पर कार्यरत गोंविद बल्लभ पांडे ‘गोविंदा’ की पुत्री इला से हुआ। केसी पूरी तरह कुमाऊंनी तरीके से सिर पर मुकुट लगाकर और डोली में बैठकर दुल्हन के द्वार पहुंचे थे। इस मौके पर आजाद हिंद फौज के सेनानी रहे कैप्टन राम सिंह ने बैंड वादन किया था। आजादी के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए वे पंत सदन (वर्तमान उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का आवास) में रहे, जोकि मूलत: रामपुर के नवाब की संपत्ति था और इसे अंग्रेजों ने अधिग्रहीत किया था। साह बताते हैं कि वह जब भी उनके घर जाते, उनकी माताजी पर्वतीय दालों भट, गहत आदि लाने के बारे में पूछतीं और हर बार रस- भात बनाकर खिलाती थीं।
उनके लखनऊ के बदेरियाबाग स्थित आवास पर पहाड़ से जो लोग भी पहुंचते, पंत उनके भोजन व आवास की स्वयं व्यवस्था कराते थे और उनसे कुमाऊंनी में ही बात करते थे। उनका मानना था कि पहाड़ी बोली हमारी पहचान है। वह अन्य लोगों से भी अपनी बोली-भाषा में बात करने को कहते थे। साह पं. पंत की वर्तमान राजनेताओं से तुलना करते हुए कहते हैं कि पं. पंत के दिल में जनता के प्रति दर्द था, जबकि आज के नेता नितांत स्वार्थी हो गये हैं। पंत में सादगी थी, वह लोगों के दुख-दर्द सुनते और उनका निदान करते थे। वह राष्ट्रीय स्तर के नेता होने के बावजूद अपनी जड़ों से जुड़े हुए थे। उन्होंने नैनीताल जनपद में ही पंतनगर कृषि विवि की स्थापना और तराई में पाकिस्तान से आये पंजाबी विस्थापितों को बसाकर पहाड़ के आँगन को हरित क्रांति से लहलहाने सहित अनेक दूरगामी महत्व के कार्य किये। 

पन्त के जीवन के कुछ अनछुवे पहलू 

राष्ट्रीय नेता होने के बावजूद पं. पंत अपने क्षेत्र-कुमाऊं, नैनीताल से जुड़े रहे। केंद्रीय गृह मंत्री और संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री रहते हुई भी वह स्थानीय इकाइयों से जुड़े रहे। उनकी पहचान बचपन से लेकर ताउम्र कैसी भी विपरीत परिस्थितियों में सबको समझा-बुझाकर साथ लेकर चलने की रही। कहते हैं कि बचपन में वह मोटे बालक थे, वह कोई खेल भी नहीं खेलते थे, एक स्थान पर ही बैठे रहते थे, इसलिए बचपन में वह 'थपुवा" कहे जाते थे। लेकिन वे पढ़ाई में होशियार थे। कहते हैं कि गणित के एक शिक्षक ने कक्षा में प्रश्न पूछा था कि 30 गज कपड़े को यदि हर रोज एक मीटर काटा जाए तो यह कितने दिन में कट जाएगा, जिस पर केवल उन्होंने ही सही जवाब दिया था-29 दिन, जबकि अन्य बच्चे 30 दिन बता रहे थे। अलबत्ता, इस दौरान उनका काम खेल में लड़ने वाले बालकों का झगड़ा निपटाने का रहता था। उनकी यह पहचान बाद में गोपाल कृष्ण गोखले की तरह तमाम विवादों को निपटाने की रही। संयुक्त प्रांत का प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते वह रफी अहमद किदवई सरीखे अपने आलोचकों और अनेक जाति-धर्मों में बंटे इस बड़े प्रांत को संभाले रहे और यहां तक कि केंद्रीय गृह मंत्री रहते 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौर में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने चीनी समकक्ष चाऊ तिल लाई से बात नहीं कर पा रहे थे, तब पं पंत ही थे, जिन्होंने चाऊलाई को काबू में किया था। इस पर चाऊलाई ने उनके लिए कहा था-भारत के इस सपूत को समझ पाना बड़ा मुश्किल है। अलबत्ता, वह कुछ गलत होने पर विरोध करने से भी नहीं हिचकते थे। कहते हैं कि उन्होंने न्यायाधीश से विवाद हो जाने की वजह से अल्मोड़ा में वकालत छोड़ी और पहले रानीखेत व फिर काशीपुर चले गए। इस दौरान एक मामले में निचली अदालत में जीतने के बावजूद उन्होंने सेशन कोर्ट में अपने मुवक्किल का मुकदमा लड़ने से इसलिए इंकार कर दिया था कि उसने उन्हें गलत सूचना दी थी, जबकि वह दोषी था।
राजनीति और संपन्नता उन्हें विरासत में मिली थी। उनके नाना बद्री दत्त जोशी तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर सर हेनरी रैमजे के अत्यधिक निकटस्थ सदर अमीन के पद पर कार्यरत थे, और उनके दादा घनानंद पंत टी-स्टेट नौकुचियाताल में मैनेजर थे। कुमाऊं परिषद की स्थापना 1916 में उनके नैनीताल के घर में ही हुई थी। प्रदेश के नया वाद, वनांदोलन, असहयोग व व्यक्तिगत सत्याग्रह सहित तत्कालीन समस्त आंदोलनों में वह शामिल रहे थे। अलबत्ता कुली बेगार आंदोलन में उनका शामिल न होना अनेक सवाल खड़ा करता है। इसी तरह उन्होंने गृह मंत्री रहते देश की आजादी के बाद के पहले राज्य पुर्नगठन संबंधी पानीकर आयोग की रिपोर्ट के खिलाफ जाते हुए हिमांचल प्रदेश को संस्कृति व बोली-भाषा का हवाला देते हुए अलग राज्य बनवा दिया, लेकिन वर्तमान में कुमाऊं आयुक्त अवनेंद्र सिंह नयाल के पिता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल के इसी तर्ज पर उत्तराखंड को भी अलग राज्य बनाने के प्रस्ताव पर बुरी तरह से यह कहते हुए डपट दिया था कि ऐसा वह अपने जीवन काल में नहीं होने देंगे। आलोचक कहते हैं कि बाद में पंडित नारायण दत्त तिवारी (जिन्होंने भी उत्तराखंड मेरी लाश पर बनेगा कहा था) की तरह वह भी नहीं चाहते थे कि उन्हें एक अपेक्षाकृत बहुत छोटे राज्य के मुख्यमंत्री के बारे में इतिहास में याद किया जाए।  1927 में साइमन कमीशन के विरोध में उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को बचाकर लाठियां खाई थीं। इस पर भी आलोचकों का कहना है कि ऐसा उन्होंने नेहरू के करीब आने और ऊंचा पद प्राप्त करने के लिए किया। 1929 में वारदोली आंदोलन में शामिल होकर महात्मा गांधी के निकटस्थ बनने तथा 1925 में काकोरी कांड के भारतीय आरोपितों के मुकदमे कोर्ट में लड़ने जैसे बड़े कार्यों से भी उनका कद बढ़ा था।

वास्तव में 30 अगस्त है पं. पंत का जन्म दिवस 
नैनीताल। पं. पंत का जन्म दिन हालांकि हर वर्ष 10 सितम्बर को मनाया जाता है, लेकिन वास्तव में उनका जन्म 30 अगस्त 1887 को अल्मोड़ा जिले के खूंट गांव में हुआ था। वह अनंत चतुर्दशी का दिन था। प्रारंभ में वह अंग्रेजी माह के बजाय हर वर्ष अनंत चतुर्दशी को अपना जन्म दिन मनाते थे। 1946 में अनंत चतुर्दशी यानी जन्म दिन के मौके पर ही वह संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री बने थे, यह 10 सितम्बर का दिन था। इसके बाद उन्होंने हर वर्ष 10 सितम्बर को अपना जन्म दिन मनाना प्रारंभ किया।
भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत के बारे में और अधिक जानकारी यहाँ भी पढ़ सकते हैं।  

Wednesday, May 12, 2010

देश की 196 भाषाओं के साथ कुमाउनीं व गढ़वाली भी खतरे की जद में

नवीन जोशी, नैनीताल। भाषाओं को न केवल संवाद का माध्यम वरन संस्कृतियों का संवाहक भी माना जाता है। किसी देश की शक्ति उसकी भाषा की प्राचीनता के साथ ही उसके बोलने वाले लोगों की संख्या से भी आंकी जाती है, लेकिन `ग्लोबलाइजेशन´ के वर्तमान दौर में दुनिया भर की भाषाऐं स्वयं को खोकर अन्य में समाती जा रही हैं। इसमें भी भारत के लिए अधिक चिंताजनक बात यह है कि गंगा जैसी सदानीरा नदियों के साथ ही संस्कृतियों के उदगम स्थल कहे जाने वाले हिमालयी राज्यों में भाषाएँ सर्वाधिक तेजी से असुरक्षित होती जा रही हैं.  देश का `भाल´ उत्तराखंड भी इसमें अपवाद नहीं है. बात उत्तराखंड से ही शुरू की जाए तो यहाँ यह पक्ष भी उजागर होता हैं कि भले यह प्रदेश अपने संवाद के प्रमुख माध्यम कुमाउनीं व गढ़वाली को `बोलियों´ से ऊपर `भाषा´ मानने तक को भले तैयार न हो, किन्तु सात समुन्दर पार संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन यानी 'यूनेस्को' ने इन भाषाओं के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। यूनेस्को ने राज्य की कुमाउनीं, गढ़वाली के साथ ही रांग्पो भाषाओं को `वलनरेबले´ यानी भेद्य श्रेणी में रखा है, जिसका अर्थ यह हुआ कि इन भाषाओं पर ख़त्म होने का सर्वाधिक खतरा है। इसके पीछे संभवतया यह कारण प्रमुख हो कि इन भाषाओं के बोलने वाले इन्हें छोड़कर अन्य भाषाओं के प्रति अधिक आसानी से आकर्षित हो सकते हैं. इनके साथ ही राज्य की दारमा व ब्योंग्सी भाषाओं को `निश्चित खतरे´ तथा वांगनी को `अति गम्भीर खतरे´ वाली भाषाओं की श्रेणी में रखा गया है।
  • हिमालयी राज्यों की भाषाओं को है अधिक खतरा
  • यूनेस्को ने उत्तराखण्ड की 'रांग्पो' को भेद्य तथा 'दारमा' व 'ब्योंग्सी' को निश्चित व 'वांगनी' को अति गम्भीर खतरे में माना
यूनेस्को द्वारा अपनी वेबसाइट पर ताजा अपडेट की गई जानकारी के अनुसार कुमाउनीं भाषा 23 लाख 60 हजार लोगों द्वारा बोली जाती है। इस भाषा को बोलने वाले लोग उत्तराखण्ड के अलाव उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आसाम, बिहार और पड़ोसी देश नेपाल में भी हैं। यानी यनेस्को के सवेक्षण के दौरान इन क्षेत्रों के लोगों ने भी स्वयं को कुमाउनीं भाषा भाषी बताया है। मालूम हो कि कुमाउनी चन्द शासनकाल में राजभाषा रही है। इसकी शब्द सामर्थ्य दुनिया की समृध्हतम भ्हषाओं से भी अधिक है. उदाहरनार्थ अंगरेजी में केवल शब्द के लिए हिंदी में बू,  खुसबू व बदबू आदि शब्द हैं तो कुमाउनी में अलग-अलग 'बू' के लिए किडैनी, हन्तरैनी, स्योंतैनी, बॉस, चुरैनी जैसे दर्जनों शब्द मौजूद है.  इसके अलावा यूनेस्को ने गढ़वाली भाषा बोलने वालों की संख्या 22 लाख 67 हजार 314 आंकी गई है। `भेद्य´ श्रेणी  में ही प्रदेश के चमोली जनपद में आठ हजार लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा रॉग्पो को भी रखा गया है, देश की कुल 82 भाषाऐं भी इस श्रेणी में हैं। इसके अतिरिक्त देश की 62 भाषाएँ  `डेफिनिटली इनडेंजर्ड´ यानी `निश्चित खतरे´ की श्रेणी में रखी गई हैं, जिनमें उत्तराखण्ड की अल्मोड़ा व पिथौरागढ़ जिलों तथा नेपाल के दार्चूला  जिले में बोली जाने वाली `दारमा´ एवं महाकाली नदी घाटी क्षेत्रा में बोली जाने वाली भाषा `ब्योंसी´ को रखा गया है, जिसके बोलने वालो की संख्या क्रमश: 1,761 व 1,734 बताई गई है। इससे आगे की श्रेणी `अति गम्भीर´ में भी देश की 41 भाषाओं के साथ गढ़वाल मण्डल की `वांगनी´ को रखा गया है, जिसे बोलने वालों की संख्या 12 हजार आंकी गई है। अन्तिम श्रेणी `विलुप्त´ हो चुकी भाषाओं की है। इसमें देश की पांच भाषाऐं पूर्वोत्तर की अहोम, अण्डरो व सेंगमाई के साथ उत्तराखण्ड की तोहचा व रंगकास भी शामिल हैं। 
श्रीलंका सबसे भाग्यशाली
भाषाओं के खतरे में न जाने के मामले में भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वाधिक परिवर्तन भारत में ही हुऐ हैं। यहां 196 भाषाओं पर खतरे की छाया पड़ी है, जबकि श्रीलंका स्वयं की भाषाओं को बचाने में सर्वाधिक भाग्यशाली रहा है। यहां की केवल एक भाषा इस जद में है। जबकि पड़ोसी देशों पाकिस्तान की 27 व नेपाल की 71 भाषाऐं विभिन्न श्रेणियों में खतरे में है। उधर अपनी भाषा को सर्वाधिक महत्व देने के लिए पहचाने जाने वाले जापान की केवल आठ भाषाऐं ही इस श्रेणी में हैं। 
खास बात यह है कि देश की जिन कुल 196 भाषाओं को इन विभिन्न श्रेणियों में रखा गया है, उनमें दक्षिण भारत की तकरीबन केवल एक दर्जन भाषाओं के अतिरिक्त कुछ उड़ीसा तथा शेष  तकरीबन 85 फीसद पूर्वोत्तर के सात राज्यों सहित उत्तराखण्ड, हिमांचल, जम्मू व कश्मीर तथा सिक्किम आदि हिमालयी राज्यों की हैं। यानी हिमालयी राज्यों से ही अधिकांश भाषाऐं खतरे की जद में जाती जा रही हैं। विशेशज्ञों की मानें तो अभी हाल तक इन्हीं राज्यों ने अपनी मूल भाषाओं को सम्भाल कर रखा था, किन्तु बीते दशक में यही भाषाओं के संक्रमणकाल में सर्वाधिक प्रभावित हुऐ और अपनी भाषाओं को बचाऐ न रख सके, जबकि अन्य राज्यों में भाषाओं का किसी एक भाषा में सिमटना पहले ही हो चुका था। 
यह कर सकते हैं:-
देश-प्रदेश में 'भारतीय जनगणना २०११'  चल रही है. इसमें अपनी मातृ-भाषा गढ़वाली / कुमाऊंनी लिखी जा सकती है. इस तरह और कुछ नहीं तो अपनी दुदबोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूचि में स्थान दिलाया जा सकता है. 
(अधिक जानकारी यहाँ देखें: http://www.facebook.com/pages/garhavali-kumaunni-ko-matr-bhasa-ke-rupa-mem-likhembharatiya-janaganana-2011-mem-l/113347272038036?ref=mf)


(देश-दुनिया की असुरक्षित भाषाओं के बारे में अधिक जानकारी यहाँ देखें: http://www.unesco.org/culture/ich/index.php?pg=00206)