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Tuesday, May 10, 2011

बदल रहा है भूगोल: दो साक्षात्कार

हर वर्ष दो सेमी तक ऊपर उठ रहे हैं हम: प्रो. वल्दिया 
एशिया को 54 मिमी प्रति वर्ष उत्तर की ओर धकेल रहा है भारत
नवीन जोशी, नैनीताल। शीर्षक पड़ कर हैरत में न पड़ें । बात हिमालय क्षेत्र के पहाड़ों की हो रही है। शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार प्राप्त प्रख्यात भू वैज्ञानिक पद्मश्री प्रो. केएस वाल्दिया का कहना है कि भारतीय प्रायद्वीप एशिया को 54 मिमी की दर से हर वर्ष उत्तर की आेर धकेल रहा है। इसके प्रभाव में हिमालय के पहाड़ प्रति वर्ष 18 मिमी तक ऊंचे होते जा रहे हैं।  
प्रो. वाल्दिया ने कहना है कि भारतीय प्रायद्वीपीय प्लेट 54 मिमी से चार मिमी कम या अधिक की दर से उत्तर दिशा की ओर सरक रही है, इसका दो तिहाई प्रभाव तो बाकी देश पर पड़ता है, लेकिन सवाधिक एक तिहाई प्रभाव यानी 18 मिमी से दो मिमी कम या अधिक हिमालयी क्षेत्र में पड़ता है। मुन्स्यारी से आगे तिब्बतन—हिमालयन थ्रस्ट पर भारतीय व तिब्बती प्लेटों का टकराव होता है। कहा कि यह बात जीपीएस सिस्टम से भी सिद्ध हो गई है। उत्तराखंड के बाबत उन्होंने कहा कि यहां यह दर 18 से 2 मिमी प्रति वर्ष की है। कहा कि न केवल हिमालय वरन शिवालिक पर्वत श्रृंखला की ऊंचाई भी बढ़ रही है। उन्होंने नेपाल के पहाड़ों के तीन से पांच मिमी तक ऊंचा उठने की बात कही। 
उत्तराखंड के बाबत उन्होंने बताया कि यहां मैदानों व शिवालिक के बीच हिमालयन फ्रंटल थ्रस्ट,  शिवालिक व मध्य हिमालय के बीच मेन बाउंड्री थ्रस्ट (एमबीटी), तथा मध्य हिमालय व उच्च हिमालय के बीच मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी) जैसे बड़े भ्रंस मौजूल हैं। इनके अलावा भी नैनीताल से अल्मोड़ा की ओर बढ़ते हुए रातीघाट के पास रामगढ़ थ्रस्ट, काकड़ीघाट के पास अल्मोड़ा थ्रस्ट सहित मुन्स्यारी के पास सैकड़ों की संख्या में सुप्त एवं जागृत भ्रंस मौजूद हैं। हिमालय की ओर आगे बढ़ते हुए यह भ्रंस संकरे होते चले जाते हैं।
लेकिन भू गर्भ में ऊर्जा आशंकाओं से कम
नैनीताल। प्रो. वाल्दिया का यह खुलासा पहाड़ वासियों के लिये बेहद सुकून पहुंचाने वाला हो सकता है। अब तक के अन्य वैज्ञानिकों के दावों से इतर प्रो. वाल्दिया का मानना है कि छोटे भूकंपों से भी पहाड़ में भूकंप की संभावना कम हो रही है। जबकि अन्य वैज्ञानिकों का दावा है कि 19३0 से हिमालय के पहाड़ों में कोई भूकंप न आने से भूगर्भ में इतनी अधिक मात्रा में ऊ र्जा का तनाव मौजूद है जो आठ से अधिक मैग्नीट्यूड के भूकंप से ही मुक्त हो सकता है। इसके विपरीत प्रो.वाल्दिया का कहना है कि हिमालय में सर्वाधिक भूकंप आते रहते हैं। इनकी तीव्रता भले कम हो, लेकिन इस कारण भूगर्भ से ऊर्जा निकलती जा रही है। इसलिये भूगर्भ में उतना तनाव नहीं है, जितना कहा जा रहा है। साथ ही उन्होंने कहा कि प्रकृति मां की तरह है, वह कभी किसी का नुकसान नहीं करती। भूकंप व भूस्खलन अनादि काल से आ रहे हैं। इधर जो नुकसान हो रहा है वह इसलिये नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं आबादी क्षेत्र में आ रही हैं, वरन मनुष्य ने आपदाओं के स्थान पर आबादी बसा ली हैं। कहा कि वैज्ञानिक व परंपरागत सोच के साथ ही निर्माण करें तो आपदाओं से बच सकते हैं। सड़कों के निर्माण में भू वैज्ञानिकों की रिपोर्ट न लिये जाने पर उन्होंने नाराजगी दिखाई।
अपरदन बढऩे का है खतरा 
नैनीताल। पहाड़ों के ऊंचे उठने के लाभ—हानि के बाबत पूछे जाने पर कुमाऊं विवि के भू विज्ञान विभागाध्यक्ष प्रो. चारु चंद्र पंत का कहना है कि इस कारण पहाड़ों पर अपरदन बढ़ेगा। यानी भू क्षरण व भूस्खलनों में बढ़ोत्तरी हो सकती है। पहाड़ों के ऊंचे उठते जाने से उनके भीतर हरकत होती रहेगी। वह बताते हैं कि इस कारण ही विश्व की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट की ऊंचाई 8,8४८ मीटर से दो मीटर बढ़कर 8,8५0 मीटर हो गई है। यह जलवायु परिवर्तन का भी कारक हो सकता है 

कभी तिब्बत में होंगे हम: प्रो. पन्त 
5५ मिमी प्रति वर्ष की दर से तिब्बती प्लेट में धंस रही है भारतीय प्लेट
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां ! चौंकिए नहीं, ऐसा संभव है कि हम आज से कुछ हजार वर्ष बाद तिब्बत में हों। हालांकि इससे भी अधिक संभावना यह है कि तब तक कमजोर भारतीय प्लेट,मजबूत तिब्बती प्लेट के भीतर समा जाए और जहां आज उत्तराखंड व उत्तर भारत के बड़े-बड़े नगर बसे हुए हैं, तिब्बत इनके ऊपर चढ़ कर बैठ जाए। जीयोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय प्लेट 54 मिमी प्रति वर्ष की दर से तिब्बती प्लेट में समा रही है।
यहां तक तो यह बात रोमांचित करने वाली अथवा हवाई कल्पना सरीखी लग सकती है, लेकिन यह सामान्य प्रक्रिया है। प्रो. पन्त के अनुसार कुछ बिलियन वर्षों में उत्तराखंड सहित उत्तर भारत तिब्बत में समां जाएगा। यह आश्चर्यजनक लगे तो जान लें की जहाँ आज हिमालय है, वहां कभी टेथिस सागर था आज भी उत्तराखंड के पहाड़ों में समुद्री जीवाश्म इस बात की पुष्टि करते हैं। 
भारतीय प्लेट के तिब्बत में घुसाने की प्रक्रिया में उत्तराखंड व देश की राजधानी दिल्ली सहित समूचे उत्तर भारत मई कई बार भूगर्भीय हलचलों का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में सतर्क रहने की आवश्यकता है। कुमाऊं विवि के भू विज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो.चारु चंद्र पंत ने खुलासा किया कि जीएसआई की ताजा रिपोर्टों के आधार पर भारतीय प्लेट कश्मीर से लेकर अरुणांचल प्रदेश तक औसतन 54 मिमी प्रति वर्ष की दर से तिब्बती प्लेट में समा रही है। उन्होंने आशंका जताई 'संभव है कुछ मिलियन वर्षों में ग्वालियर तिब्बत पहुंच जाए। बताया कि पर्वत भूगर्भीय दृष्टिकोण से अपेक्षाकृत हल्के पदार्थों के बने होते हैं। हिमालय युवा पहाड़ कहलाते हैं, यहां अधिकतम 380 मिलियन वर्ष पुरानी चट्टानें पाई गई हैं। इधर मध्य हिमालय का क्षेत्र 56 मिलियन वर्ष पुराना है, जबकि एक अनोखी बात यहां दिखती है कि अपेक्षाकृत पुराने मध्य हिमालय अपने से नये केवल 15 मिलियन वर्ष पुराने शिवालिक पहाड़ों के ऊपर स्थित हैं। ऐसे में कठोर व कमजोर पहाड़ों का एक-दूसरे के अंदर समाना एक सतत प्रक्रिया है। समाने की यह प्रक्रिया धरती के भीतर लीथोस्फेेरिक व एेस्थेनोस्फियर परतों के बीच होती है। इससे भू गर्भ में अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा एकत्र होती है, जो ज्वालामुखी तथा भूकंपों के रूप में बाहर निकलती है। चूंकि भारतीय व तिब्बती प्लेटें उत्तराखंड के करीब से एक-दूसरे में समा रही हैं, इसलिये यहां भूकंपों का खतरा अधिक बढ़ जाता है। इधर यह खतरा इसलिये भी बढ़ता जा रहा है कि बीते 20 वर्षों में वर्ष 19५ के कांगड़ा व 19३४ के 'ग्रेट आसाम अर्थक्वेक' के बाद के 1१५ वर्षों में यहां आठ मैग्नीट्यूड से अधिक के भूकंप नहीं आये हैं, लिहाजा धरती के भीतर बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा बाहर निकलने को प्रयासरत है।
देश में अब पांच नहीं चार ही साइस्मिक जोन
भू वैज्ञानिक प्रो. चारु चंद्र पंत ने बताया कि पूर्व में दक्षिण भारत को भूकंपों के दृष्टिकोण से बेहद सुरक्षित माना जाता था, और इसे जोन एक में रखा गया था। लेकिन बीते वर्षों में कोयना सहित वहां भी भूकंपों के आने के बाद अब जोन एक को जोन दो में समाहित कर लिया गया है। इस प्रकार देश में अब जोन एक में कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार अब देश में केवल दो, तीन, चार व पांच यानी केवल चार भी भूकंपीय जोन हैं। उत्तराखंड जोन चार व पांच में आता है।
प्राकृतिक आपदाओं से 8 फीसद गरीब मरते हैं
प्रो. पंत के अनुसार प्राकृतिक आपदाओं से 8 फीसद गरीब और केवल 2 फीसद ही मध्य व उच्च वर्गीय लोग मारे जाते हैं। वह बताते हैं कि वास्तव में प्राकृतिक आपदायें हमेशा से आती रही हैं, और अब भी इनकी गति नहीं बढ़ रही है, लेकिन मनुष्य के आपदा प्रभावित क्षेत्रों में बस जाने के कारण मानवीय नुकसान अधिक हो रहा है। ऐसे में इनसे बचने के लिये दीर्घकालीन योजनायें  बनाने, भूकंपरोधी घर बनाने, जिलों से भी नीचे की इकाइयों के डाटा बैंक व वहां स्वयं सेवकों की टास्क फोर्स बनाने की जरूरत है, जो आपदा के दौरान बचाव कार्यों में अपना योगदान दे सकें।

Saturday, January 29, 2011

उत्तराखंड विचार: कुछ खट्टा-कुछ मीठा

पहाड़ के बच्चे नहीं मना पाते गणतन्त्र दिवस 
शीतकालीन विद्यालय रहते हैं बन्द, अधिकांश बच्चों को नहीं पता कैसे मनाते हैं गणतन्त्र दिवस
नवीन जोशी, नैनीताल। देश की युवा पीढी यानी बच्चों के बिना गणतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती, पर उत्तराखंड में ऐसा हो रहा है. प्रदेश के पहाडी  अंचलों में अधिकांश बच्चों को गणतन्त्र दिवस मनाने के बारे में जानकारी नहीं है। कारण,  उनके विद्यालय गणतन्त्र दिवस के दौरान शीतकालीन अवकाश के  लिए बन्द होते हैं, इसलिए न स्कूलों में गणतन्त्र दिवस का आयोजन होता है, और न ही बच्चों को देश के गणतन्त्र के इस मान राष्ट्रीय पर्व के आयोजन की जानकारी हो पाती है। 
उल्लेखनीय है कि गणतन्त्र दिवस देश की आजादी का वास्तविक पर्व है। इसी दिन से राष्ट्र में अपने संविधान के साथ अपना राज कायम हुआ था। देश भर में यह आयोजन खासकर विद्यालयों में बेहद हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लेकिन नैनीताल जनपद से ही बात शुरू करें तो यहाँ कुल 96 प्राथमिक विद्यालयों में से 2 तथा जूनियर हाईस्कूल से इंटरमीडिएट तक के 9 सरकारी, मुख्यालय का एक स्थानीय निकाय संचालित नगर पालिका नर्सरी स्कूल एवं तीन अर्धशासकीय विद्यालयों भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय, सीआरएसटी इंटर कालेज व मोहन लाल साह बालिका विद्या मन्दिर के साथ ही सभी निजी पब्लिक स्कूलों में इन दिनों शीतकालीन अवकाश होने के कारण गणतन्त्र दिवस का आयोजन नहीं होता है। मुख्यालय में जहाँ अन्य राष्ट्रीय पर्वों पर सुबह प्रभात फेरी से लेकर अपराह्न तक कार्यक्रम बच्चों से ही गुलजार रहते हैं, वहीँ गणतन्त्र दिवस में बच्चे नहीं होते तो अन्य लोग भी कमोबेश इस राष्ट्रीय पर्व को औपचारिक ही मनाते हैं। शिक्षक अन्य संस्थानों में उपस्थिति दर्ज कराकर औपचारिकता निभा लेते हैं। वर्षों से ऐसा परिपाटी के रूप में हो रहा है। इसका एक नुकसान यह भी है कि बच्चों को गणतन्त्र दिवस के  इस महत्वपूर्ण आयोजन की जानकारी भी नहीं हो पाती है, या तब हो पाती है, जब वह ग्रीष्मकालीन अवकाश वाले विद्यालयों में जाते हैं। इसका निदान क्या हो यह एक विचारणीय प्रश्न हो सकता है।

पाकिस्तान का स्वंत्रता दिवस मनाया जाता है यहाँ !
यह आम बात है कि ख़ास कर निजी महंगे पब्लिक स्कूलों में त्योहारों के दिन अवकाश होने के कारण इन्हें पहले दिन ही मन लिया जाता है। गणतंत्र दिवस 25 जनवरी को तथा गांधी जयन्ती एक अक्टूबर को मनाकर औपचारिकता निभा ली जाती है। इन तिथियों के अखबार उठा कर देख लें पुष्टि हो जायेगी । यहाँ तक तो गलती कुछ हद तक माफी योग्य शायद हो भी, लेकिन यदि देश के भविष्य को तैयार महंगी फीस लेकर तैयार करने वाले यह स्कूल स्वतंत्रता दिवस को भी एक दिन पहले यानी 14 अगस्त को मना लें तो इसे क्या कहेंगे ? जान लें 14 अगस्त हमारा नहीं हमारे पड़ोसी दुश्मन राष्ट्र पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस है। आसपास नजर डालिए, कहीं आपके बच्चे के स्कूल में भी तो ऐसा नहीं हो रहा ? नैनीताल के तो अधिकाँश पब्लिक स्कूलों में ऐसा वर्षों से हो रहा है ।


....क्योंकि हमने अपनी `ताकतों´ को अपनी `कमजोरी´ बना लिया है ! 



हते हैं `पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं´, लेकिन `पालने´ की उम्र से बहुत पहले बाहर निकलकर 10 वर्ष के 'किशोर' होने जा रहे उत्तराखण्ड के `पांव´ कहां जा रहे हैं, यह कहना अभी भी मुश्किल ही बना हुआ है। इस उम्र तक आने में इसके `पालनहारों´ ने इसे कई दिशाओं में चलाने के दावे-वादे किऐ हैं, लेकिन यह कहीं पहुंचना तो दूर शायद अभी ठीक से चलना भी प्रारंभ नहीं कर पाया है। इसकी इस `गत´ का कारण एक से अधिक नावों का सवार होना भी माना जा सकता है, लेकिन असल कारण यह है कि इस अत्यधिक संभावनाओं वाले राज्य ने अपनी ताकतों को अपनी कमजोरी बना लिया है। हमने अपने संसाधनों का सदुपयोग करना दूर, उन पर पाबन्दियां लगा कर उन्हें निरुपयोगी बना दिया है। दरवाजे बन्द कर दिऐ हैं। हम ढांचागत सुविधाऐं बढ़ाने जैसे कार्य नहीं कर रहे हैं, कर रहे हैं तो बिना सोचे-समझे, और बेहद जल्दबाजी में, बिना गहन अध्ययन के दूसरों के ज्ञान को बिना पड़ताल किऐ आत्मसात करने के। ऐसे में एक कदम आगे बढ़ाते हैं तो दो कदम पीछे लौटने को मजबूर होते हैं।




बात कहीं से भी शुरू कर लीजिऐ। उत्तराखण्ड को पर्यटन प्रदेश कहा गया। लेकिन सैलानियों की जरूरतों का खयाल नहीं रखा गया। पर्यटक स्थलों में ढांचागत सुविधाओं को बढ़ाना व सुधारना तो दूर 10 वर्ष बाद भी पर्यटन विभाग का ढांचा ही नहीं बनाया गया। हालत यह है कि राज्य की पर्यटन राजधानी नैनीताल में विभाग के नाम पर केवल तीन कर्मचारी हैं। राज्य में बाहर से आवागमन की सुविधाऐं नहीं बढ़ाई गईं। जो सैलानी पहुंचते भी हैं, उन्हें अपेक्षित मौज मस्ती के अवसर देने से हमारी संस्कृति पर दाग लग जाते हैं। लिहाजा हमने उनसे प्रकृति के अलावा अपनी संस्कृति सहित सब कुछ छुपाकर रखा है। हम उन्हें अच्छी शराब तक नहीं दे सकते। शराब कहने सुनने में शायद बुरा लग रहा हो, (इस पर यह साफ़ करते हुए कि में स्वयं व मेरे परिवार में कोई शराब नहीं पीता, और मैं शराब समर्थक भी नहीं हूँ) याद रखना होगा कि हमें अपने यहां पर्यटन विस्तार के लिए गोवा, मारीशश व सिंगापुर आदि सस्ते और `सर्वसुविधा´ वाले पर्यटक स्थलों से मुकाबला करना है, तभी हम पर्यटन प्रदेश बन सकते हैं। लेकिन जाहिर है, हम ऐसा नहीं कर सकते। कोई भी व्यक्ति जब जीवन के बेहद तनाव भरे क्षणों से बमुश्किल छुटि्टयां निकालकर घर से बाहर निकलता है तो स्वच्छन्दता चाहता है, और उसे हम अपने यहां स्वच्छन्दता तो हरगिज नहीं दे सकते। हां, आते ही उनका स्वागत हमारे `मित्र पुलिस´ के परेशानहाल जवान `यहां पार्किंग ही नहीं है तो इतनी बड़ी गाड़ियां लेकर आते ही क्यों हो´ सरीखी फब्तियां कस कर करते हैं। हम पर्वतारोहण कराकर ही देश-दुनिया के सैलानियों को आकर्षित कर सकते थे, लेकिन हमने 40 हजार रुपऐ से अधिक शुल्क नियत कर इस ओर भी रास्ते जैसे बन्द कर दिऐ हैं। 
बात वापस शराब पर मोड़ते हैं। `सूर्य अस्त...´ के रूप में अभिशप्त हमारे पहाड़ के जहां हजारों घर शराब की भेंट चढ़ रहे हैं, वहीं यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि करों के बाद शराब ही हमारे राज्य की तिजोरी की सर्वाधिक `सेहत´ सुधार रही है। बावजूद हमारे `तारणहार´ मुंह में 'शराब पर राज्य की तिजारी की निर्भरता खत्म करेंगे´ का `राम´ बोलते हुऐ बगल में `हर वर्ष शराब विक्रेताओं के लक्ष्य 10 से 25 फीसद तक बढ़ाकर´ छुरियां भांज रहे होते हैं। बावजूद शराब के शौकीनों के अनुसार उत्तराखण्ड की शराब देश में सर्वाधिक महंगी और गुणवत्ता में घटिया है। राज्य की सेहत सुधार रही शराब सैलानियों को पिलाकर हम अपनी आर्थिकी भी सुधार सकते थे, किन्तु हमने शराब का काम करने वाले लोगों को `शराब माफिया´ शब्द दे दिया है, इसलिए हम खुद यह काम नहीं कर सकते, भले इस शब्द का लोकलाज भय दिखाकर बाहर के लोग हमें शराब पिलाकर मार डालें, और खुद `फिल्म निर्माता´ और इस लायक तक हो जाऐं कि सरकारों को बदल डालें।
हमने अपनी वन संपदा, चिड़ियां, जैव संपदा बचाई है, जिसे दिखाकर भी हम सैलानियों से लाखों कमा सकते हैं। राज्य की आर्थिकी की प्रमुख धुरी जल, जंगल, जमीन और जवानी भी हो सकते हैं। बात राज्य के 65 फीसद से अधिक भूभाग पर फैले वनों की करें तो इन से रोजगार की भी प्रचुर संभावनाऐं हो सकती थीं। लेकिन हमारे यहां जो भी वन संपदा संबंधी कार्य करेगा, उनके लिए हमने `वन माफिया´ शब्द मानो `पेटेंट´ कर रखा है। चीड़, यूकेलिप्टस, पापुलर जैसे पेड़ जो हमारी आर्थिकी का मजबूत आधार हो सकते हैं, उन्हें हमने `विदेशी´, `पर्यावरण  शत्रु´ और बांज के जंगलों के `घुसपैठिऐ´ आदि  शब्द दे डाले हैं। लीसा खोप कर हमारे यहां हजारों लोगों के घरों में चूल्हा जलता था, हमारी पिछली पीढ़ी लीसे के छिलकों से पढ़कर ही आगे बढ़ी, लेकिन लीसे का कारोबार जो करे वह `लीसाचोर´, लिहाजा इस क्षेत्र में कारोबार करने के रास्ते भी हमारे लिऐ बन्द। भले बाहर के लोग सारे जंगल तबाह कर डालें। इसी प्रकार हमारे यहां की खड़िया, रेता, बजरी आदि का कारोबार करने वाले `खनन माफिया´, सो हम अपने खेतों से पत्थर भी नहीं उठा सकते। भले अपनी उपजाऊ जमीनों पर हम खाईयां खुदवाकर अथवा खनन सामग्री के ढेर लगाकर उन्हें हमेशा के लिए बंजर बना दें। भले हमारी जीवनदायिनी नदियां, जमीनें कौड़ियों के भाव बाहर वालों को सालों, दशकों के लिए लीज पर दे दी जाऐं। हम पूरे एशिया को अकेले `प्राणवायु-आक्सीजन´ देने की क्षमता वाले अपने वनों को अपने `विकास की बलि देकर´ बचाने वाले गांवों को बदले में `कार्बन क्रेडिट´ लेकर सड़क की बजाय सीधे सस्ती या मुफ्त `रोप वे´ अथवा `हवाई सेवा´ दे सकते थे, पर ऐसी सोच सोचने में ही शायद अभी हमें वर्षों लगें।
`जल´ की बात करें तो हमें अपने पानी के उपयोग पर सख्त आपत्ति है। बड़े बांधों का हम विरोध करेंगे, छोटे हम बनाऐंगे नहीं। कोई हम जल विद्युत परियोजनाओं का विरोध करने वालों से पूछे तो सही कि हममें से कुछ को छोड़कर अन्य ने खुद कितना पानी बचाया। हम पर्यावरणप्रेमियों ने अखबारों में अपने प्रचार के लिए छपने में खर्च किऐ कागज से अधिक कितना पर्यावरण बचाया है। क्या हम दावे से कह सकते हैं कि जिन सड़कों का हमने विरोध किया, वैसी सड़कें हमने अपने घर तक भी नहीं बनने दीं। पर्यावरण बचाने के लिए क्या हमने अपनी लंबी गाड़ियां लेने से परहेज किया। हम कब तक `छद्मविद्´ बने रहेंगे। हमने अपने पनघट बन्द कर हमने गांव गांव तक डीजल चालित आटा चक्कियां बना लीं। जल संरक्षण के परंपरागत प्रबंध `बज्या´ दिऐ। गांवों के पुश्तैनी कार्य करने में हमें शर्म आती है। सड़कें हमारे गांव में आईं तो समृद्धि को करीब लाने के बजाय हमारे लिए `पलायन´ का रास्ता खोलने वाली साबित हुईं। हमारी सिंचाई विभाग की अरबों की परिसंपत्तियों पर यूपी आज भी कब्जा जमाऐ बैठा है। कुल मिलाकर हम अपनी करोड़ों रुपऐ की आय दे सकने वाली जल संपदा से कोई लाभ लेने का तैयार नहीं।
बात `जवानी´ की करें तो हमारे पढ़े-लिखे युवा जो अपनी दुरूह भौगोलिक व कठिनतम् प्राकृतिक परिस्थितियों से कम मेहनत के भी अच्छे एथलीट, कवि, लेखक, कलाकारखिलाड़ी, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी व प्रशासनिक अधिकारी के रूप में प्रदेश ही नहीं देश के लिए विश्वसनीय मानवशक्ति हो सकते हैं आज भी राज्य बनने से पूर्व की ही तरह `पलायन´ करने को मजबूर हैं। जो यहां बचते हैं, उन्हें भी राज्य `पेट पालने लायक´ रोजगार नहीं दिला पा रहा। लिहाजा वह नशे की अंधेरी खाई में बढ़ रहे हैं। वरन उनमें राष्ट्रविरोधी विचारधारा से प्रभावित होने का खतरा भी बेहद बढ़ गया है। कोई स्वरोजगार करने की सोचे भी तो सरकारी योजनाऐं उसे बेरोजगार से `कर्जदार´ बनाने पर तुली हुई हैं।


उपजाऊ जमीनें हमारे यहां शुरू से कम थीं, लेकिन ताकत के तौर पर जो तराई-भावर की उपजाऊ कृषि भूमि थी, उस पर हमने फसलों के बजाय उद्योग उगा लिऐ। जो कब `कट´ जाऐं, कुछ भरोसा नहीं। तब तक इन्हें बेचकर `उजड़े´ किसान भी खेती भूल, कीमत खर्च कर, चाकरी करने शहर जा चुके होंगे।
लोक संस्कृति के रूप में हम समृद्ध थे, किन्तु हमने अपनी पहचान नाड़ा बाहर लटके धारीदार `घोड़िया´ पैजामा, फटा कुर्ता और टेढ़ी बदबूदार टोपी पहने 'जोकर नुमा' व्यक्ति के रूप में बना ली। अपनी `दुदबोली´ को बोलने में `शरम´ की, और मानो किस्मत फोड़ ली। उसे लिखने, पढ़ने की बात तो बहुत दूर की ठैरी। स्वयं की पहचान, स्वयं में अपनी पहाड़ी होने की `शिनाख्त´ के निशानों को छुपाने में हमारा कोई सानी नहीं। `धौनी´ से लेकर हमारा आम पहाड़ी अपनी पहचान बताने में आख़िरी दम तक संकोच नहीं छोड़ता। अपने धुर पहाड़ी गांव में `डीजे´ पर `बोलो तारा रा रा´ पर `भांगड़ा´ करने में हम `माडर्न लुक´ देने वाले ठैरे। कैसेट में हमारी बहनें रंग्वाली पिछौड़ा पहनकर घास काटने और अपने परदेश गऐ `हीरो´ के लिए हिन्दी फिल्मी गीतों की पहाड़ी `पैरोडी´ गाने वाली ठैरीं।
इसी तरह हम जड़ी बूटी, आयुर्वेद, ऊर्जा, शिक्षा आदि प्रदेश बनने के दावे भी कर रहे हैं, पर उनकी तैयारी भी हमारी कितनी और कैसी है, जरा सोचें तो खुद समझ में आ जाता है। ऐसे में `जब जागें, तभी सवेरा´ मानकर हम स्वयं और अपनी क्षमताओं को पहचान व निखारकर समिन्वत रूप में सर्वोत्तम योगदान देने की कोशिश करें, और दूसरों की तिजोरियां भरने के बजाय अपने `घर´ को सजाऐं।
                                                                  (नैनीताल, 11 अगस्त, 2010)

....फिर क्या हो ? (दिवंगत गिर्दा को श्रद्धांजलि के साथ)



girda3.JPG........ऐसे में यह सोचना जरूरी हो जाता है कि जब हम अपने संसाधनों (मूलतः पानी, जवानी और जंगलों) का उपयोग नहीं होने देना चाहते, (इसलिए कि सरकारें उनका सदुपयोग या उपयोग करने की बजाय शोषण करने पर तुली हुई हैं) ऐसे में यह भी सच्चाई है कि हमारा भविष्य बेरोजगारी, मुफलिसी से भरा होने वाला है, ऐसा न हो, इससे बचने के लिए क्या करें ? 
हम 'भोले-भाले' पहाड़ियों को हमेशा ही सबने छला है। पहले दूसरे छलते थे, और अब अपने छल रहे हैं हमने देश-दुनिया के अनूठे 'चिपको आन्दोलन' वाला वनान्दोलन लड़ा, इसमें हमें कहने को जीत मिली, लेकिन सच्चाई गिर्दा बताते थे गिर्दा को वनान्दोलन के परिणामस्वरूप पूरे देश के लिए बने वन अधिनियम से हमारे हकूक और अधिक पाबंदियां आयद कर दिए जाने की गहरी टीस थी इसी तरह हमने राज्य आन्दोलन से अपना नयां राज्य तो हासिल कर लिया पर राज्य बनने से बकौल गिर्दा ही,"कुछ नहीं बदला कैसे कहूँ,  दो बार नाम बदला-अदला, चार-चार मुख्यमंत्री बदले", पर नहीं बदला तो हमारा मुकद्दर, और उसे बदलने की कोशिश तो हुई ही नहीं बकौल गिर्दा, हमने गैरसैण राजधानी इसलिए माँगी थी ताकि अपनी 'औकात' के हिसाब से राजधानी बनाएं, छोटी सी 'डिबिया सी' राजधानी, हाई स्कूल के कमरे जितनी 'काले पाथर' के छत वाली विधान सभा, जिसमें हेड मास्टर की जगह विधान सभा अध्यक्ष और बच्चों की जगह आगे मंत्री और पीछे विधायक बैठते, इंटर कोलेज जैसी विधान परिषद्, प्रिंसिपल साहब के आवास जैसे राजभवन तथा मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के आवास पहाड़ पर राजधानी बनाने के का एक लाभ यह भी कि बाहर के असामाजिक तत्व, चोर, भ्रष्टाचारी वहां गाड़ियों में उल्टी होने की डर से ही न आ पायें, और आ जाएँ तो भ्रष्टाचार कर वहाँ की सीमित सड़कों से भागने से पहले ही पकडे जा सकें गिर्दा कहते थे कि अगर गैरसैण राजधानी ले जाकर वहां भी देहरादून जैसी ही 'रौकात' करनी है तो अच्छा है कि उत्तराखंड की राजधानी लखनऊ से भी कहीं दूर ले जाओ यह कहते हुए वह खास तौर पर 'औकात' और 'रौकात' पर ख़ास जोर देते थे खैर...., बात शुरू हुई थी, फिर करें क्या से, पर गिर्दा मन-मस्तिष्क में ऐसे बैठे हैं कि... 

गिर्दा भी बड़े बांधों के विरोधी थे, उनका मानना था के हमें पारंपरिक घट-आफर जैसे अपने पुश्तैनी धंधों की ओर लौटना होगा यह वन अधिनियम के बाद और आज के बदले हालातों में शायद पहले की तरह संभव न हो, ऐसे में सरकारों व राजनीतिक दलों को सत्ता की हिस्सेदारी से ऊपर उठाकर राज्य की अवधारण पर कार्य करना होगा। हमारे यहाँ सड़कें इसलिए न बनें कि वह बेरोजगारों के लिए पलायन के द्वार खोलें, वरन घर पर रोजगार के अवसर ले कर आयें हमारा पानी बिजली बनकर महानगरों को ही न चमकाए व ए.सी. ही न चलाये, वरन हमारे पनघटों, चरागाहों को भी 'हरा' रखे हमारी जवानी परदेश में खटने की बजाये अपनी ऊर्जा से अपना 'घर' सजाये हमारे जंगल पूरे एशिया को 'प्राणवायु' देने के साथ ही हमें कुछ नहीं तो जलौनी लकड़ी, मकान बनाने के लिए 'बांसे', हल, दनेला, जुआ बनाने के काम तो आयें हमारे पत्थर टूट-बिखर कर रेत बन अमीरों की कोठियों में पुतने से पहले हमारे घरों में पाथर, घटों के पाट, चाख, जातर या पटांगड़ में बिछाने के काम तो आयें हम अपने साथ ही देश-दुनियां के पर्यावरण के लिए बेहद नुक्सानदेह पनबिजली परियोजनाओ से अधिक तो दुनियां को अपने धामों, अनछुए प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर स्थलों को पर्यटन केंद्र बना कर ही और अपनी 'संजीवनी बूटी' सरीखी जड़ी-बूटियों से ही कमा लेंगे हम अपने मानस को खोल अपनी जड़ों को भी पकड़ लेंगे, तो लताओं की तरह भी बहुत ऊंचे चले जायेंगे.......
                                                                        (नैनीताल, 24 अगस्त, 2010)

वनान्दोलन से ठगे जाने की टीस थी दिवंगत 'गिर्दा' को



पहाड़ के छोटे से भूभाग का आन्दोलन बना था देश भर के लिए वन अधिनियम 1980 का प्रणेता, लेकिन इससे पहाड़ वासियों को मिला कुछ नहीं उल्टे हक हुकूक छिन गऐ 
1972 से शुरू हुऐ पहाड़ के एक छोटे से भूभाग का वन आन्दोलन, चिपको जैसे विश्व प्रसिद्ध आन्दोलन के साथ ही पूरे देश के लिए वन अधिनियम 1980 का प्रणेता भी रहा। लेकिन यह सफलता भी आन्दोलनकारियों की विफलता बन गई। दरअसल शासन सत्ता ने आन्दोलनकारियों के कंधे का इस्तेमाल कर अपने हक हुकूक के लिए आन्दोलन में साथ दे रहे पहाड़वासियों से उल्टे उनके हक हुकूक और बुरी तरह छीन लिऐ थे। आन्दोलनकारियों को अपने ही लोगों के बीच गुनाहगार की तरह खड़ा कर दिया था। आन्दोलनकारियों में यह टीस आज भी है।वनान्दोलन से गहरे जुड़े जनकवि गिरीश तिवारी `गिर्दा´ से जब वनान्दोलन की बात चलते हुऐ वन अधिनियम 1980 की सफलता तक पहुंचती है, उनके भीतर की टीस बाहर निकल आती है। वह खोलते हैं, 1972 में वनान्दोलन शुरू होने के पीछे लोगों की मंशा अपने हक हुकूकों को बेहतरी से प्राप्त करने की थी। यह वनों से जीवन यापन के लिए अधिकार की लड़ाई थी। सरकार स्टार पेपर मिल सहारनपुर को कौड़ियों के भाव यहां की वन संपदा लुटा रही थी। इसके खिलाफ ऐतिहासिक वन आन्दोलन हुआ, लेकिन जो वन अधिनियम मिला, उसने स्थितियों को और अधिक बदतर कर दिया है। इससे जनभावनाऐं साकार नहीं हुईं। जनता की स्थिति यथावत बनी हुई है। तत्कालीन पतरौलशाही के खिलाफ जो आक्रोश था, वह आज भी है। औपनिवेशिक व्यवस्था ने जन के जंगल के साथ जल भी हड़प लिया। वन अधिनियम से वनों का कटना नहीं रुका, उल्टे वन विभाग का उपक्रम वन निगम ही और विल्डर वनों को बेदर्दी से काटने लगे। साथ ही ग्रामीण भी परिस्थितियों के वशीभूत ऐसा करने को मजबूर हो गऐ। अधिनियम का पालन करते वह अपनी भूमि के व्यक्तिगत पेड़ों तक को नहीं काट सकते थे। उन्हें हक हुकूक के नाम पर गिनी चुनी लकड़ी भी मीलों दूर मिलती। इससे उनका अपने वनों से आत्मीयता का रिश्ता खत्म हो गया। वन जैसे उनके दुश्मन हो गऐ, जिनसे उन्हें अपनी व्यक्तिगत जरूरतों की चीजें तो मिलती नहीं, उल्टे वन्यजीव उनकी फसलों और उन्हें नुकसान पहुंचा जाते हैं। इसलिऐ अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ग्रामीण महिलाऐं वनाधिकारियों की नज़रों से बचने के फेर में बड़े पेड़ों की टहनियों को काटने की बजाय छोटे पेड़ों को जल्द काट गट्ठर बना उनके निसान तक छुपा देती हैं। इससे वनों की नई पौध पैदा ही नहीं हो रही। पेड़ पौधों का चक्र समाप्त हो गया है। अब आप गांव में अपना नया घर बनाना दूर उनकी मरम्मत तक नहीं कर सकते। आपका न अपने निकट के पत्थरों, न लकड़ी की `दुन्दार´, न `बांस´ और न छत के लिऐ चौडे़ `पाथरों´ पर ही हक रह गया है। पास के श्रोत का पानी भी आप गांव में अपनी मर्जी से नहीं ला सकते। अधिनियम ने गांवों के सामूहिक गौचरों, पनघटों आदि से भी ग्रामीणों का हक समाप्त करने का शडयन्त्र कर दिया। उनके चीड़ के बगेटों से जलने वाले आफर, हल, जुऐ, नहड़, दनेले बनाने की ग्रामीण काष्ठशालाऐं, पहाड़ के तांबे के जैसे परंपरागत कारोबार बन्द हो गऐ। लोग वनों से झाड़ू, रस्सी को `बाबीला´ घास तक अनुमति बिना नहीं ला सकते। यहां तक कि पहाड़ की चिकित्सा व्यवस्था का मजबूत आधार रहे वैद्यों के औशधालय भी जड़ी बूटियों के दोहन पर लगी रोक के कारण बन्द हो गऐ। दूसरी ओर वन, पानी, खनिज के रूप में धरती का सोना बाहर के लोग ले जा रहे हैं, और गांव के असली मालिक देखते ही रह जा रहे हैं। इसके साथ ही गिर्दा वन अधिनियम के नाम पर पहाड़ के विकास को बाधित करने से भी चिन्तित हैं। उनका मानना है कि विकास की राह में अधिनियम के नाम पर जो अवरोध खड़े किऐ जाते हैं उनमें वास्तविक अड़चन की बजाय छल व प्रपंच अधिक होता है। जिस सड़क के निर्माण से राजनीतिक हित न सध रहे हों, वहां अधिनियम का अड़ंगा लगा दिया जाता है।
                                      (गिर्दा से 20 अप्रैल, 2010 को हुए साक्षात्कार के आधार पर)

Saturday, October 23, 2010

जनकवि 'गिर्दा' की दो एक्सक्लूसिव कवितायें

उत्तराखंड के दिवंगत जनकवि गिरीश तिवाड़ी 'गिर्दा' (जन्म: 09 सितंबर 1945, निधन: 22 अगस्त 2010) की दो एक्सक्लूसिव कवितायें: 
1. 'ये जूता किसका जूता है'
 यह कविता गिर्दा ने मई 2009 में, केन्द्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम पर दैनिक जागरण के पत्रकार जरनैल सिंह द्वारा जूता मारने से प्रेरित होकर लिखी थी, और 3 मई 2009 को मेरे द्वारा आयोजित 'राष्ट्रीय सहारा' के कार्यक्रम "सही नेता चुने जनता" में पहली बार प्रस्तुत की थी इस कविता में कुमाउनी शब्द "भन्काया" पर गिर्दा का विशेष जोर देकर कहना था कि 'जूता मारा नहीं वरन गुस्से की पराकाष्ठा के साथ मारा है, जरूरी नहीं कि वह सामने वाले को छुवे ही, पर उसका असर होना अवश्यंभावी है ' 

ये जूता किसका जूता है, ये जूता किस पर जूता है ?
ये जूता खाली जूता है, या जूते के ऊपर जूता है ?
जिस पर यह जूता फैंका क्या, उस पर ही क्या यह जूता फेंका है ?
जिसने यह जूता फेंका आखिर, उसने क्यों कर फेंका है ?
क्या नालायक नेताओं की यह साजिश सोची समझी है ?
या नेताओं पर लोगों के गुस्से की यह अभिव्यक्ती है।
जूते की यात्रा लंबी है, जूते का मतलब गहरा है,
आखिर क्यों लोगों का गुस्सा, जूता `भनका´ कर निकला है ?
इन मुद्दों पर सोचो यारो, वर्ना हालत नाजुक होगी,
आगे यह स्थिति लोकतन्त्र के लिए बहुत घातक होगी।

2. `फिर चुनाव की रितु आने वाली है बल'
'संभवतया' जैसा अर्थ देने वाले व कुमाउनी में तकिया कलाम की तरह बोले जाने वाले शब्द 'बल' का ख़ास तरीके से हिंदी में प्रयोग करते हुए यह कविता गिर्दा ने वर्ष 2009 की होलियों में राज्य में हो रहे त्रि-स्तरीय पंचायत चुनावों के दौरान लिखी थी इसे वह ठीक-ठाक कर ही रहे थे कि मैंने इसे मांग लिया, और उन्होंने सहर्ष दे भी दी थी

फिर चुनाव की रितु आने वाली है बल, 
घर घर में तूफान मचाने वाली है बल,
हर दल में `मैं´`मैं´ का दलदल गहराया, 
यह `मैं´ जाने क्या कर जाने वाली है बल, 
सौ बीमारो को एक अनार दिखला, 
हो सके जहां तक मतकाने वाली है बल, 
संसद में नोटों का करतब दिखा चुके, 
अब `रैली´ में `थैली´ आने वाली है बल, 
फिर भी लगता अपने बल चलने वाली, 
कोई सरकार नहीं आने वाली है बल,
मिली जुली सरकारों का फिर स्वांग रचा, 
जाने कब तक ठग खाने वाली है बल, 
पर सब को ही नाच नचाने वाली है बल, 
जाने क्या क्या स्वांग दिखाने वाली है बल, 
फिर चुनाव की रितु आने वाली है बल´