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Monday, March 3, 2014

मुरली मनोहर जोशी और एनडी तिवारी बदल सकते हैं नैनीताल के चुनावी समीकरण !

-मोदी के लिए बनारस छो़ड़ नैनीताल आने का है मुरली मनोहर जोशी पर दबाव
-रोहित को पुत्र स्वीकारने के बाद राजनीतिक विरासत भी सोंप सकते हैं एनडी तिवारी
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां, अब तक कांग्रेस के राजकुमार केसी सिंह ‘बाबा’ के कब्जे वाली नैनीताल-ऊधमसिंहनगर संसदीय सीट एक बार फिर प्रदेश की सबसे बड़ी वीवीआईपी व हॉट सीट हो सकती है। अभी भले यहां कांग्रेस से बाबा या राहुल गांधी के खास प्रकाश जोशी तथा भाजपा से पूर्व सीएम भगत सिंह कोश्यारी, बची सिंह रावत और बलराज पासी में से किसी के लोक सभा चुनाव लड़ने के भी चर्चे हों, लेकिन बेहद ताजा राजनीतिक घटनाक्रमों को देखा जाए तो इस सीट से भाजपा अपने त्रिमूर्तियों में शुमार मुरली मनोहर जोशी को चुनाव मैदान में उतार सकती है। जोशी को इस हेतु मनाया जा रहा है। वहीं पूर्व सीएम एनडी तिवारी अपने जैविक पुत्र रोहित शेखर को स्वीकारने के बाद यहां से अपनी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं। उनके जल्द ही संसदीय क्षेत्र का तीन दिवसीय कार्यक्रम भी तय बताया जा रहा है।
देश के बदले राजनीतिक हालातों में यूपी भाजपा के मिशन-272 प्लस की मुख्य धुरी माना जा रहा है। भाजपा मान रही है कि ‘मुजफ्फरनगर’ के हालिया हालातों और कल्याण सिंह व उनकी पार्टी के औपचारिक तौर पर पार्टी में आने के बाद पश्चिमी यूपी में भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण होना तय हो गया है। मध्य यूपी में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व उपाध्यक्ष राहुल गांधी का प्रभाव क्षेत्र मानते हुए भाजपा जबरन बहुत जोर लगाने के पक्ष में नहीं है, ऐसे में पूवी यूपी को साधने के लिए भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के लिए मुरली मनोहर जोशी की बनारस सीट खाली कराने का न केवल पार्टी वरन संघ की ओर से भी भारी दबाव अब खुलकर सामने आ गया है। दूसरी ओर जोशी लोस चुनाव लड़ने पर अढ़े हुए हैं। ऐसे में उन्हें काफी समय से नैनीताल सीट के लिए मनाये जाने की चर्चाएं अब सतह पर आने लगी हैं। गौरतलब है कि जोशी मूलतः उत्तराखंड के ही अल्मोड़ा के निवासी हैं, और 1977 में भारतीय लोकदल से अल्मोड़ा के सांसद रह चुके हैं। उनके नैनीताल आने की सूरत में माना जा रहा है कि पार्टी के यहां से तीन प्रबल दावेदार भगत सिंह कोश्यारी, बची सिंह रावत व बलराज पासी के होने की वजह से उठ रही भितरघात की संभावनाएं क्षींण हो जाएंगी। वह नैनीताल से भली प्रकार वाकिफ भी हैं, और संसदीय क्षेत्र में ब्राह्मण मतों का ध्रुवीकरण भी कर सकते हैं, लिहाजा वह नैनीताल के लिए मान भी सकते हैं। भाजपा के लिए नैनीताल का संसदीय इतिहास भी बेहतर नहीं रहा है। यहां भाजपा के केवल बलराज पासी 1991 की रामलहर ओर  इला पंत 1998 में जीते भी तो जीत का अंतर करीब महज नौ और 12 हजार मतों का ही रहा, और आगे बाबा इस अंतर को कांग्रेस के पक्ष में बढ़ाते हुए 2004 में 40 हजार और 2009 में 88 हजार कर चुके हैं। ऐसे में यह सीट भाजपा के लिए कठिन है और इसे पार्टी का कोई हैवीवेट प्रत्याशी ही पाट सकता है।
दूसरी ओर एनडी तिवारी के लिए यह सीट 1980 से अपनी सी रही है। तिवारी ने यहां से 1980 में जीत हासिल की, 84 में उनके खास सत्येंद्र चंद्र गु़िड़या जीते और आगे 1996 में तिवारी ने अपनी तिवारी कांग्रेस के टिकट पर तथा 99 में पुनः कांग्रेस से जीत हासिल की। उल्लेखनीय है कि तिवारी हाल में कांग्रेस पार्टी में रहते हुए भी सपा से नजदीकी बढ़ा चुके हैं, और ताजा घटनाक्रम में उन्होंने रोहित शेखर को एक दशक लंबी चली कानूनी लड़ाई के बाद अपना पुत्र मान लिया है। उनका तीन दिवसीय नैनीताल दौरा तीन जनवरी से तय भी हो गया था। ऐसे में आने वाले कुछ दिन इस संसदीय सीट पर नए गुल भी खिला सकते हैं।

रावत, तिवारी, जोशी का भी अलग राजनीतिक त्रिकोण

नैनीताल। हालांकि यह अभी राजनीतिक भविष्य के गर्भ में है, लेकिन अटकलें सही साबित हुईं तो उत्तराखंड में हरीश रावत, एनडी तिवारी और मुरली मनोहर जोशी का अलग राजनीतिक त्रिकोण भी चर्चाओं में रहना तय है। रावत और तिवारी का संघर्ष हमेशा से प्रदेश की राजनीति में दिखता रहा है। 2002 में तिवारी के नेतृत्व वाली तिवारी सरकार के पूरे कार्यकाल में यह संघर्ष खुलकर नजर आया। रावत जिस तरह तिवारी को परेशान किए रहे, ऐसे में रावत की ताजपोशी तिवारी को कितना रास आ रही होगी, समझना आसान है। वहीं रावत एवं जोशी के बीच उनके मूल स्थान अल्मोड़ा में 1980 से जंग शुरू हुई थी, जब युवा रावत ने तब के सिटिंग सांसद जोशी को 80 और 84 के लगातार दो चुनावों में हराकर अल्मोड़ा छोड़ने पर ही मजबूर कर दिया था।
यह भी पढ़ें: तिवारी के बहाने 

Sunday, February 16, 2014

देश को भी दिल्ली की तरह मध्यावधि चुनावों में धकेलेंगे केजरीवाल !

Digital Painting Of Arvind Kejariwalरविंद केजरीवाल बकौल उनके विरोधियों प्रधानमंत्री बनने और बकौल समर्थकों-देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने और आम आदमी के हाथों में सत्ता दिलाने की निर्विवाद तौर पर जल्दबाजी या हड़बड़ी में दिखते हैं। दिल्ली में 50 दिन का कार्यकाल पूरा किए बिना ही वह देश में (पांच वर्ष) सरकार चलाने के दिवास्वप्न को पूरा करने के लिए दौड़ पड़े हैं। निःसंदेह लोक सभा चुनाव ही उनका अभीष्ट थे। इसके बिना उनका कथित भ्रष्टाचार मुक्ति का मिशन पूरा होना नहीं था। इस मिशन के लिए उन्होंने दिल्ली विधान सभा से अपनी राजनीतिक शुरुआत की। अपने राजनीतिक गुरु अन्ना हजारे की भी नहीं सुनी और इंडिया अगेन्स्ट करप्शन को भी पीछे छोडकऱ आम आदमी पार्टी बना ली। दिल्ली के विधान सभा चुनावों से पहले अपनी स्थापना के करीब एक वर्ष में जनता के बिजली और पानी के बिलों के मुद्दे पर राजनीतिक जमीन तैयार की। जनता को भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन का भरोसा दिलाया। जनता ने भरोसा किया, उनके नां-नां कहते भी ऐसे हालात खड़े कर दिए कि दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कमोबेश जबरन ही बिठा दिया। लेकिन केजरीवाल अपनी अति महत्वकांक्षा में ‘मेरो मन अनंत, अनंत कहां सुख पावे’ की तर्ज पर 49 दिन में ही यह छोटी कुर्सी छोड़कर देश के प्रधानमंत्री पद की बड़ी कुर्सी के लिए दौड़ पड़े हैं। 
दिल्ली की गद्दी छोड़ने, सरकार न चला पाने की असफलता का ठीकरा ‘नाच न जाने आंगन टेढ़ा’ की तर्ज पर कांग्रेस-भाजपा पर फोड़ा जा रहा है। जैसे यह भी ना जानते हों कि कांग्रेस-भाजपा विपक्षी पार्टी हैं। वह स्वयं के राजनीतिक लाभ के बिना कभी भी आप का समर्थन नहीं करेंगे। वह क्यों चाहेंगे कि आप मनमानी करें। वह भी तब, जबकि आप केवल अपने समर्थकों के बिजली बिल आधे करने जैसे एकतरफा निर्णय ले रहे हों, जिनकी मिसाल कथित धर्म निरपेक्ष पार्टियों के एक धर्म विशेष के आपदा प्रभावितों को अधिक मुआवजा देने जैसे निर्णयों से इतर अन्यत्र कम ही मिलती है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की गद्दी आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल का अभीष्ट कभी नहीं रही। वह तो दिल्ली के चुनावों को महज लोक सभा चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनने के स्वप्न को पूरा करने की पहली सीढ़ी मानते हुए भाग्य आजमाने के लिए ही लड़े थे। लेकिन उनका कांग्रेस से ‘आम आदमी’, भाजपा से ‘राष्ट्रवाद’, अन्ना हजारे से भ्रष्टाचार मुक्ति और अपने दिमाग से झाड़ू को चुनाव चिन्ह बनाने से इससे जुड़े एक वर्ग विशेष के खुलकर समर्थन में आ जाने, पार्टी का नाम आम आदमी के नाम से और छोटा नाम ‘आप’ रखने, वामपंथी विचारधारा वाले मतदाताओं की स्वाभाविक पसंद बनने आदि अनेक कारणों के समन्वय से सत्ता के करीब पहुंच गए और जबर्दस्ती उस कुर्सी पर बैठा दिए गए थे। अब कुर्सी में बैठे हुए तो वह देश भर में लोक सभा चुनावों के प्रचार के लिए जा नहीं सकते थे, इसलिए यहां सत्ता छोड़ी और अगले दिन ही अपने 20 लोक सभा प्रत्याशियों की पहली सूची की घोषणा कर चुनाव की तैयारियों में जुट गए। सत्ता न छोड़ते तो दिल्ली की समस्याओं में ही उलझे रहते। जितने दिन सत्ता में रहते, जनता उतने दिनों का हिसाब मांगती।
केजरीवाल को अपने 49 दिन के कार्यकाल के बाद इस हकीकत को स्वीकार करना होगा कि बाहर से किसी पर भी आरोप लगाना आसान है, खुद अंदर जाकर, बिना स्थितियों और दूसरों पर ठीकरा फोड़े वहां टिककर स्थितियों को ठीक करना बेहद कठिन काम है। परिस्थितियां चाहे जो भी रही हों, सच्चाई यह है कि आप 50 दिन भी दिल्ली की सीएम की कुर्सी को नहीं संभाल या झेल पाए, और अब जनता को नया ख्वाब दिखा रहे हैं कि पांच साल के लिए देश के पीएम की कुर्सी को संभाल लेंगे। चलिए मान लेते हैं कि आप दिल्ली के पीएम बन जाते हैं, अब आपको केवल भाजपा-कांग्रेस को ही नहीं, देश की सैकड़ों पार्टियों को किसी ना किसी रूप में झेलना पड़ेगा। आपके सत्ता में आते ही उनके, और जिस मशीनरी के भरोसे आप व्यवस्थाएं सुधारना चाहते हैं, उनके अपने राजनीतिक हित, भ्रष्टाचार की आदतें रातों-रात सुधर नहीं जाने वाली हैं। वैसे आप किसी भी के साथ समझौता ना करने का भी वादा कर चुके हैं, और ‘एकोऽहम् द्वितियो नास्ति’ के सिद्धांत पर चलते हैं। फिर कैसे आप देश को पांच दिन भी चला लेंगे। 
अब ‘आप’ सोचें कि आपने स्वयं का और आप से उम्मीदें लगाये बैठी जनता का कितना नुकसान कर डाला है। बेहतर होता कि आप दिल्ली से ही औरअधिक राजनीतिक अनुभव लेते, तभी आप का भ्रष्टाचार मुक्ति और कथित तौर पर आम आदमी के हाथ में सरकार देने का ख्वाब पूरा होता। आपकी सरकार ने अपने चुनावी वादे निभाते हुए दिल्ली में पानी व बिजली के बिलों में जो कटौती की है, उसे अगली सरकार भी क्रियान्वयित करेगी, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। ऐसे में क्या अच्छा ना होता कि दिल्ली की बिन मांगे ही मिली गद्दी पर आप स्वयं को साबित करते। स्वयं को और राजनीतिक रूप से परिपक्व बनाते और फिर अपनी ऊर्जा और शक्तियों का लाभ देश को पहुंचाते। यह जल्दबाजी में कुमाउनी की उक्ति ‘तात्तै खाऊं, जल मरूं’ (गर्मा-गर्म खाकर जल मरूं) की तर्ज पर आत्महत्या करने की क्या जरूरत थी। ऐसे में आप तो ‘आधी छोड़ सारी को धाये, सारी मिले ना आधी पाये’ की तर्ज पर कहीं के न रहे। हाँ, यह जरूर कर लेंगे कि दिल्ली की तरह देश में भी 'वोट कटुवा' पार्टी साबित होकर खंडित जनादेश दिलाएंगे, देश को भी दिल्ली की तरह मध्यावधि चुनावों में धकेलेंगे। 

Friday, February 14, 2014

इस झाड़ू ने तो गंदगी ही अधिक फैला दी....

AAP
खिर वही हुआ, जिसका डर था। केजरीवाल दिल्ली विधानसभा में सरकार बनाना ही नहीं चाहते थे। बहुत मजबूरी-जनदबाव में बनानी पड़ी तो बना ली। और आगे हर कदम, एक कदम सत्ता सुख (बंगला-गाड़ी) बटोरते और फिर मानो याद आते ही ठुकराते चले। क्योंकि नजरें तो दिल्ली की बड़ी कुरसी पर लगी थीं। जन लोकपाल बिल शर्तिया गिर जाएगा, पता था। बिल पास ना होगा तो इस्तीफा दे देंगे, की घोषणा कर चुके थे। बिल विधानसभा के पटल पर रख भी दिया। फिर ठिठके, बिल रखे जाने पर सहमति-असहमति की वोटिंग करवाने को राजी हो गए। इस्तीफा दिया, और चलते बने। किसी ने कहा-पहले ही कहा था, झाड़ू दो-तीन महीने से अधिक नहीं चलती। सफाई भी तब करती है, जब सफाई करने वाले हाथ अनुभवी हों, उन हाथों में सफाई करने की दृढ़ इच्छा शक्ति हो, नीयत हो। और ना हो, तो यही होता है, सफाई कम होती है-गंदगी अधिक फैल जाती है। केजरीवाल सरकार ने 49 दिनों में क्या खोया-क्या पाया, इस पर बिना दिमाग खपाए भी विश्लेषण किया जाए तो हर कोई यही कहेगा-इस झाड़ू ने तो गंदगी ही अधिक फैला दी। 
पहले नां का वादा किया था, लेकिन पहले बड़े डुप्लेक्स, फिर गाड़ियों पर ललचाए। बच्चे की क्रिकेट बॉल से हमला बता दिया। कानून मंत्री खुद ही पुलिस बन कानून तोड़ने लगे। दो पुलिस वालों को हटवाने के लिए धरना दिया, फिर भी उन्हें नहीं हटा पाए। पानी-बिजली के बिल घटाए भी तो सब्सिडी से और आधे किए तो सिर्फ ‘अपनों’ के (वह भी सरकार जाने के बाद पता नहीं होंगे भी या नहीं)। वादे के अनुरूप शीला के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। यानी कुल मिलाकर अपनी साख ही गिराई। जनता को उम्मीद बंधाकर उम्मीदों पर पानी फेर दिया। सरकार बनाते समय तो जनता की राय ली थी, गिराते वक्त राय नहीं ली। मौका था, लेकिन जरूरत ही नहीं समझी। इसका अंदाजा राजनीति के जानने वालों को पहले से ही था।
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि जो सीएम पद की कुर्सी पर 50 दिन पूरे नहीं कर पाये, क्या पीएम पद की कुर्सी पर 5 साल बैठने का ख्वाब देखने योग्य भी हें। उल्टे कहीं 'आधी छोड़ सारी को धाये, आधी मिले न पूरी पावे' कि उक्ति चरितार्थ हो जाये। 

शुरू से ही अंदेशा था, इससे आगे की पोस्ट केजरीवाल के सरकार बनाने से पूर्व लिखी गयी थी : 

आम आदमी की नहीं अकेले (‘अ’ से अरविंद, ‘के’ से केजरीवा‘ले’ के दिमाग की उपज) की है आप 

सबसे पहले क्या अरविन्द ही इकलौते ‘आम आदमी’ हैं... ?
दिल्ली को मध्यावधि चुनावों की और धकेलने का फैसला अरविन्द केजरीवाल का है या कि ‘कथित आम आदमी’ का ? क्या दिल्ली का ‘आम आदमी’ वाकई यही चाहता है ? या केवल ‘आम आदमी’ के नाम पर ‘आम आदमी’ को ही ‘बेवकूफ’ बना रहे ‘आम आदमी पार्टी’ के सर्वेसर्वा-अरविन्द अपने दम्भ में यह चाहते हैं ? 
नहीं तो ‘आप’ भाजपा को जन लोकपाल व अन्य मुद्दों पर सशर्त समर्थन देने की बात कर रहे प्रशांत और पूर्व सहयोगी रही किरण बेदी की तो सुनते..., क्या वह ‘आम आदमी’ नहीं हैं, या कि अरविन्द ही इकलौते ‘आम आदमी’ हैं ? कांग्रेस ने चुनाव के तत्काल बाद उन्हें बिना शर्त समर्थन देने का ऐलान कर दिया था, उसे भी आप ने नहीं माना। या कि अरविन्द चुनाव पूर्व किसी भी अन्य राजनीतिक दल की तरह, अपने ही किये असम्भव से ‘चुनावी वादों’ को पूरा करने से डर गए हैं ? वैसे भी अपने राजनीतिक गुरु अन्ना हजारे से लेकर किरन बेदी व स्वामी अग्निवेश आदि को एक-एक कर खो चुके अति ऊर्जावान अरविंद केजरीवाल की शख्सियत और उनका इतिहास आश्वस्त नहीं करता कि वह सबको साथ लेकर चल सकते हैं।

आम आदमी ने नहीं अरविंद के दिमाग ने जिताया है ‘आप’ को 
जी हां, भले विश्वास न हो, पर यही सही है। केवल एक सवाल का जवाब इस बात को स्वतः साबित कर सकता है। आम आदमी के प्रतीक-जरूरतें क्या होती हैं, जी हां, रोटी, कपड़ा और मकान। यह प्रतीक व जरूरतें भले आज के दौर में गाड़ी, बंगला भी हो गए हों तो भी झाड़ू तो कभी भी ना होंगे। केजरीवाल ने दिल्ली वालों के बिजली के कटे कनेक्शन जोड़कर और पानी के बड़े बिलों की बात से अपनी राजनीतिक पारी शुरू की थी, सो बिजली के कोई उपकरण यानी पानी के नल जैसे चुनाव चिन्ह भी उनके हो सकते थे, लेकिन ऐसा भी न हुआ। जितने लोग बीते दिनों दिल्ली की गलियों में झाड़ू हाथों में लहराते दिखे, उनमें से महिलाओं को छोड़कर कोई मुश्किल से ही अपने घर में भी झाड़ू लगाकर सफाई करते होंगे। 

लेकिन यही झाड़ू है, जिसने एक खास जाति वर्ग के लोगों को इस चुनाव चिन्ह की बदौलत ही ‘आप’ से जोड़ दिया। क्या यह सही नहीं है। और यह इत्तफाक है या कि सोची समझी रणनीति ? खुद सोच लें। यानी ‘आप’ की राजनीति जातिगत राजनीति से बाहर नहीं निकली है।

अब धर्म-पंथ की राजनीति की बात....
मौजूदा कांग्रेस-भाजपा की राजनीति से बात शुरू करते हैं। हिंदुओं और धारा 370 की बात करने वाली तथा बाबरी विध्वंस व गोधरा की आरोपी भाजपा दूसरे धर्म विशेष की घोषित रूप से दुश्मन नंबर एक है। सो इस धर्म विशेष के लोग उस पार्टी को वोट देते हैं, जिसमें भाजपा को हराने की क्षमता दिखती है, और इस कसौटी पर आम तौर पर लोक सभा चुनावों में कांग्रेस तो यूपी जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों में सपा और बसपा जैसी पार्टियों पर उनकी नेमत बरस पड़ती है। इधर दिल्ली के विस चुनावों में कांग्रेस की डूबती नैया को देखते हुए इस धर्म के मतदाताओं के पास एक ही विकल्प बचा-आप। यह है आप की जीत का दूसरा कारण। और साफ हो गया कि आप ने राजनीति को जाति व धर्म की राजनीति से बाहर नहीं निकाला।

लेकिन इसके साथ ही अब तक देश में कांग्रेस के कुशासन के विकल्प के रूप में मोदी को देख रहे नवमतदाताओं के मन में दिल्ली विस चुनावों के दौरान आप निःसंदेह एक विकल्प के उभरी। अन्ना के आंदोलन और निर्भया मामले में दिल्ली की सड़कों पर उतरे दक्षिणपंथी व राष्ट्रवादी विचारों की राजनीति के इन नवांकुरों को भी लगा कि विस चुनावों में आप को आजमा लिया जाए, और यह फैक्टर भी आप की जीत का एक कारण बना। 

एक अन्य कोण पर दिल्ली में उपभोक्तावाद, पश्चिमीकरण आदि प्रतिमानों के साथ बामपंथी विचारधारा के लोगों के समक्ष अब तक किसी अन्य विकल्प के अभाव में कांग्रेस को ही वोट डालने की मजबूरी रहती थी। इस वर्ग को इस बार के चुनावों में आप अपने अधिक करीब नजर आई। उनके समक्ष अपने प्रभाव क्षेत्रों में खिसकती जमीन को उर्वर और उन्नत बताने की मजबूरी भी थी, सो उन्होंने  भी आप को वोट दिए, और हो गया इस राजनीतिक कॉकटेल से आप का पहले चुनावों में करिश्माई प्रदर्शन।

भविष्य की चिंताएं...
अब यह भी देख लें कि दिल्ली की जनता से प्रति परिवार प्रतिदिन 700 लीटर पीने का पानी और मौजूदा से आधी दर पर बिजली देने का वादा करने के बाद किसी तरह उसे पूरा करने का जोखिम लेने से बच रही आप का भविष्य क्या हो सकता है। 

देश के लोकतांत्रिक राजनीतिक इतिहास में यह 70 के दशक से ही देखा जा रहा है कि जिस दल या उसके नेता ने देश या किसी राज्य को अपनी हठधर्मिता के कारण मध्यावधि चुनाव की आग में धकेला उसका हश्र क्या हुआ। फरवरी-2005 के बिहार विधानसभा के चुनाव में आप की ही तरह राजद से अलग होकर बंगला चुनाव चिन्ह के साथ रामविलास पासवान अपनी लोक जन शक्ति पार्टी-लोजपा को 29 विधायक जिता लाए थे, लेकिन उन्होंने नितीश कुमार को समर्थन नहीं दिया, फलस्वरूप बिहार में राष्ट्रपति शासन लग गया, जिसके बाद अक्टूबर-2005 में हुए मध्यावधि चुनाव में लोजपा 10 सीटों पर और आगे 2010 के चुनाव में महज 4 सीटों पर सिमट गई, बाद में उनमें से भी तीन विधायक जदयू में शामिल हो गए। देश को मध्यावधि चुनावों की ओर धकेलने वाली मोरारजी देसाई सरकार के साथ भी यही कुछ हुआ था।

आप की तरह आंध्र में 1983 में ‘तेलुगु देशम’ और 1985 में असम में तब महज छात्र संघ रहे प्रफुल्ल कुमार महंत की अगुवाई वाले ‘असम गंण परिषद’ ने अनुपात की दृष्टि से आप से भी अधिक सीटें हासिल की थीं, लेकिन बाद में वह भी मुख्य धारा की राजनीति में ही बिला गईं। 

आप वर्तमान दौर में एक-दूसरे के कार्बन कॉपी कहे जाने वाले कांग्रेस-भाजपा जैसे मौजूदा राजनीतिक दलों के बीच जनता में उपजी राजनीतिक थकान के बीच नई ऊर्जा का संचार करती हुई उम्मीद तो जगाती है, लेकिन अपने मुखिया और ना कहते हुए भी ‘एकोऽहम् द्वितियो नास्ति’ के पुरोधा नजर आ रहे अरविंद केजरीवाल के दंभ से डरा भी रही है, कि वह अपने पहले कदम से ही मौजूदा अन्य राजनीतिक दलों जैसा ही व्यवहार कर रही है। चुनाव परिणामों के बाद भाजपा की ही तरह उसने भी आम जनता की भावनाओं नहीं वरन राजनीतिक नफा-नुकसान देखकर सरकार बनाने से तौबा कर ली है। चुनाव के दौरान उसने कांग्रेस को निसाने पर लिया, और भाजपा के खिलाफ मुंह नहीं खोला, क्योंकि यहां उसे कांग्रेस को सत्ता से च्युत करना था और इस लड़ाई में उसके साथ मोदी को प्रधानमंत्री देखने वाले युवा भी थे। और परिणाम आने से हौंसले बुलंद होने के बाद भाजपा को नंबर वन दुश्मन करार दे दिया है, क्योंकि यहां से उन्हें लगता है कि आज के दौर के बड़े दुश्मन को वह हरा चुके हैं, और इस ताकत से वह अपने बड़े दुश्मन से भी पार पा लेंगे, नहीं भी तो इस लोक सभा चुनाव में अपनी राष्ट्रीय पहचान तो बना ही लेंगे। 

और आखिर में केवला इतना कि एक राजनीतिक दल के रूप में 'आप' जो कर रही है, उससे किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि उसे एक राजनीतिक दल के रूप में राजनीतिक नफे-नुकसान का हिसाब लगाकर हर निर्णय लेने की स्वतंत्रता और पूर्ण अधिकार है। बस अगर वह ‘आम आदमी’ का नाम लेकर ढोंग करेगी तो शायद जनता उसे दूसरा मौका नहीं देगी। 

कैसे बना अरविंद केजरीवाल , जानिए पूरी कहानी!

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली एनजीओ गिरोह ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी)’ ने घोर सांप्रदायिक ‘सांप्रदायिक और लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण अधिनियम’ का ड्राफ्ट तैयार किया है। एनएसी की एक प्रमुख सदस्य अरुणा राय के साथ मिलकर अरविंद केजरीवाल ने सरकारी नौकरी में रहते हुए एनजीओ की कार्यप्रणाली समझी और फिर ‘परिवर्तन’ नामक एनजीओ से जुड़ गए। अरविंद लंबे अरसे तक राजस्व विभाग से छुटटी लेकर भी सरकारी तनख्वाह ले रहे थे और एनजीओ से भी वेतन उठा रहे थे, जो ‘श्रीमान ईमानदार’ को कानूनन भ्रष्टा चारी की श्रेणी में रखता है। वर्ष 2006 में ‘परिवर्तन’ में काम करने के दौरान ही उन्हें अमेरिकी ‘फोर्ड फाउंडेशन’ व ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ ने ‘उभरते नेतृत्व’ के लिए ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार दिया, जबकि उस वक्त तक अरविंद ने ऐसा कोई काम नहीं किया था, जिसे उभरते हुए नेतृत्व का प्रतीक माना जा सके। इसके बाद अरविंद अपने पुराने सहयोगी मनीष सिसोदिया के एनजीओ ‘कबीर’ से जुड़ गए, जिसका गठन इन दोनों ने मिलकर वर्ष 2005 में किया था।
अरविंद को समझने से पहले ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ को समझ लीजिए!
अमेरिकी नीतियों को पूरी दुनिया में लागू कराने के लिए अमेरिकी खुफिया ब्यूरो ‘सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए)’ अमेरिका की मशहूर कार निर्माता कंपनी ‘फोर्ड’ द्वारा संचालित ‘फोर्ड फाउंडेशन’ एवं कई अन्य फंडिंग एजेंसी के साथ मिलकर काम करती रही है। 1953 में फिलिपिंस की पूरी राजनीति व चुनाव को सीआईए ने अपने कब्जे में ले लिया था। भारतीय अरविंद केजरीवाल की ही तरह सीआईए ने उस वक्त फिलिपिंस में ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ को खड़ा किया था और उन्हें फिलिपिंस का राष्ट्रपति बनवा दिया था। अरविंद केजरीवाल की ही तरह ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ का भी पूर्व का कोई राजनैतिक इतिहास नहीं था। ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ के जरिए फिलिपिंस की राजनीति को पूरी तरह से अपने कब्जे में करने के लिए अमेरिका ने उस जमाने में प्रचार के जरिए उनका राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ‘छवि निर्माण’ से लेकर उन्हें ‘नॉसियोनालिस्टा पार्टी’ का उम्मीदवार बनाने और चुनाव जिताने के लिए करीब 5 मिलियन डॉलर खर्च किया था। तत्कालीन सीआईए प्रमुख एलन डॉउल्स की निगरानी में इस पूरी योजना को उस समय के सीआईए अधिकारी ‘एडवर्ड लैंडस्ले’ ने अंजाम दिया था। इसकी पुष्टि 1972 में एडवर्ड लैंडस्ले द्वारा दिए गए एक साक्षात्कार में हुई।
ठीक अरविंद केजरीवाल की ही तरह रेमॉन मेग्सेसाय की ईमानदार छवि को गढ़ा गया और ‘डर्टी ट्रिक्स’ के जरिए विरोधी नेता और फिलिपिंस के तत्कालीन राष्ट्रपति ‘क्वायरिनो’ की छवि धूमिल की गई। यह प्रचारित किया गया कि क्वायरिनो भाषण देने से पहले अपना आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ड्रग का उपयोग करते हैं। रेमॉन मेग्सेसाय की ‘गढ़ी गई ईमानदार छवि’ और क्वायरिनो की ‘कुप्रचारित पतित छवि’ ने रेमॉन मेग्सेसाय को दो तिहाई बहुमत से जीत दिला दी और अमेरिका अपने मकसद में कामयाब रहा था। भारत में इस समय अरविंद केजरीवाल बनाम अन्य राजनीतिज्ञों की बीच अंतर दर्शाने के लिए छवि गढ़ने का जो प्रचारित खेल चल रहा है वह अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए द्वारा अपनाए गए तरीके और प्रचार से बहुत कुछ मेल खाता है।
उन्हीं ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ के नाम पर एशिया में अमेरिकी नीतियों के पक्ष में माहौल बनाने वालों, वॉलेंटियर तैयार करने वालों, अपने देश की नीतियों को अमेरिकी हित में प्रभावित करने वालों, भ्रष्टायचार के नाम पर देश की चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करने वालों को ‘फोर्ड फाउंडेशन’ व ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ मिलकर अप्रैल 1957 से ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ अवार्ड प्रदान कर रही है। ‘आम आदमी पार्टी’ के संयोजक अरविंद केजरीवाल और उनके साथी व ‘आम आदमी पार्टी’ के विधायक मनीष सिसोदिया को भी वही ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार मिला है और सीआईए के लिए फंडिंग करने वाली उसी ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के फंड से उनका एनजीओ ‘कबीर’ और ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ मूवमेंट खड़ा हुआ है।
भारत में राजनैतिक अस्थिरता के लिए एनजीओ और मीडिया में विदेशी फंडिंग! 
‘फोर्ड फाउंडेशन’ के एक अधिकारी स्टीवन सॉलनिक के मुताबिक ‘‘कबीर को फोर्ड फाउंडेशन की ओर से वर्ष 2005 में 1 लाख 72 हजार डॉलर एवं वर्ष 2008 में 1 लाख 97 हजार अमेरिकी डॉलर का फंड दिया गया।’’ यही नहीं, ‘कबीर’ को ‘डच दूतावास’ से भी मोटी रकम फंड के रूप में मिली। अमेरिका के साथ मिलकर नीदरलैंड भी अपने दूतावासों के जरिए दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में अमेरिकी-यूरोपीय हस्तक्षेप बढ़ाने के लिए वहां की गैर सरकारी संस्थाओं यानी एनजीओ को जबरदस्त फंडिंग करती है।
अंग्रेजी अखबार ‘पॉयनियर’ में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक डच यानी नीदरलैंड दूतावास अपनी ही एक एनजीओ ‘हिवोस’ के जरिए नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार को अस्थिर करने में लगे विभिन्‍न भारतीय एनजीओ को अप्रैल 2008 से 2012 के बीच लगभग 13 लाख यूरो, मतलब करीब सवा नौ करोड़ रुपए की फंडिंग कर चुकी है। इसमें एक अरविंद केजरीवाल का एनजीओ भी शामिल है। ‘हिवोस’ को फोर्ड फाउंडेशन भी फंडिंग करती है।
डच एनजीओ ‘हिवोस’ दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में केवल उन्हीं एनजीओ को फंडिंग करती है,जो अपने देश व वहां के राज्यों में अमेरिका व यूरोप के हित में राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने की क्षमता को साबित करते हैं। इसके लिए मीडिया हाउस को भी जबरदस्त फंडिंग की जाती है। एशियाई देशों की मीडिया को फंडिंग करने के लिए अमेरिका व यूरोपीय देशों ने ‘पनोस’ नामक संस्था का गठन कर रखा है। दक्षिण एशिया में इस समय ‘पनोस’ के करीब आधा दर्जन कार्यालय काम कर रहे हैं। ‘पनोस’ में भी फोर्ड फाउंडेशन का पैसा आता है। माना जा रहा है कि अरविंद केजरीवाल के मीडिया उभार के पीछे इसी ‘पनोस’ के जरिए ‘फोर्ड फाउंडेशन’ की फंडिंग काम कर रही है। ‘सीएनएन-आईबीएन’ व ‘आईबीएन-7’ चैनल के प्रधान संपादक राजदीप सरदेसाई ‘पॉपुलेशन काउंसिल’ नामक संस्था के सदस्य हैं, जिसकी फंडिंग अमेरिका की वही ‘रॉकफेलर ब्रदर्स’ करती है जो ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार के लिए ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के साथ मिलकर फंडिंग करती है।
माना जा रहा है कि ‘पनोस’ और ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ की फंडिंग का ही यह कमाल है कि राजदीप सरदेसाई का अंग्रेजी चैनल ‘सीएनएन-आईबीएन’ व हिंदी चैनल ‘आईबीएन-7’ न केवल अरविंद केजरीवाल को ‘गढ़ने’ में सबसे आगे रहे हैं, बल्कि 21 दिसंबर 2013 को ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ का पुरस्कार भी उसे प्रदान किया है। ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ के पुरस्कार की प्रयोजक कंपनी ‘जीएमआर’ भ्रष्टािचार में में घिरी है।
‘जीएमआर’ के स्वामित्व वाली ‘डायल’ कंपनी ने देश की राजधानी दिल्ली में इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा विकसित करने के लिए यूपीए सरकार से महज 100 रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से जमीन हासिल किया है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ‘सीएजी’ ने 17 अगस्त 2012 को संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जीएमआर को सस्ते दर पर दी गई जमीन के कारण सरकारी खजाने को 1 लाख 63 हजार करोड़ रुपए का चूना लगा है। इतना ही नहीं, रिश्वत देकर अवैध तरीके से ठेका हासिल करने के कारण ही मालदीव सरकार ने अपने देश में निर्मित हो रहे माले हवाई अड्डा का ठेका जीएमआर से छीन लिया था। सिंगापुर की अदालत ने जीएमआर कंपनी को भ्रष्टााचार में शामिल होने का दोषी करार दिया था। तात्पर्य यह है कि अमेरिकी-यूरोपीय फंड, भारतीय मीडिया और यहां यूपीए सरकार के साथ घोटाले में साझीदार कारपोरेट कंपनियों ने मिलकर अरविंद केजरीवाल को ‘गढ़ा’ है, जिसका मकसद आगे पढ़ने पर आपको पता चलेगा।
‘जनलोकपाल आंदोलन’ से ‘आम आदमी पार्टी’ तक का शातिर सफर!
आरोप है कि विदेशी पुरस्कार और फंडिंग हासिल करने के बाद अमेरिकी हित में अरविंद केजरीवाल व मनीष सिसोदिया ने इस देश को अस्थिर करने के लिए ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ का नारा देते हुए वर्ष 2011 में ‘जनलोकपाल आंदोलन’ की रूप रेखा खिंची। इसके लिए सबसे पहले बाबा रामदेव का उपयोग किया गया, लेकिन रामदेव इन सभी की मंशाओं को थोड़ा-थोड़ा समझ गए थे। स्वामी रामदेव के मना करने पर उनके मंच का उपयोग करते हुए महाराष्ट्र के सीधे-साधे, लेकिन भ्रष्टानचार के विरुद्ध कई मुहीम में सफलता हासिल करने वाले अन्ना हजारे को अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली से उत्तर भारत में ‘लॉंच’ कर दिया। अन्ना हजारे को अरिवंद केजरीवाल की मंशा समझने में काफी वक्त लगा, लेकिन तब तक जनलोकपाल आंदोलन के बहाने अरविंद ‘कांग्रेस पार्टी व विदेशी फंडेड मीडिया’ के जरिए देश में प्रमुख चेहरा बन चुके थे। जनलोकपाल आंदोलन के दौरान जो मीडिया अन्ना-अन्ना की गाथा गा रही थी, ‘आम आदमी पार्टी’ के गठन के बाद वही मीडिया अन्ना को असफल साबित करने और अरविंद केजरीवाल के महिमा मंडन में जुट गई।
विदेशी फंडिंग तो अंदरूनी जानकारी है, लेकिन उस दौर से लेकर आज तक अरविंद केजरीवाल को प्रमोट करने वाली हर मीडिया संस्थान और पत्रकारों के चेहरे को गौर से देखिए। इनमें से अधिकांश वो हैं, जो कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के द्वारा अंजाम दिए गए 1 लाख 76 हजार करोड़ के 2जी स्पेक्ट्रम, 1 लाख 86 हजार करोड़ के कोल ब्लॉक आवंटन, 70 हजार करोड़ के कॉमनवेल्थ गेम्स और ‘कैश फॉर वोट’ घोटाले में समान रूप से भागीदार हैं।
आगे बढ़ते हैं…! अन्ना जब अरविंद और मनीष सिसोदिया के पीछे की विदेशी फंडिंग और उनकी छुपी हुई मंशा से परिचित हुए तो वह अलग हो गए, लेकिन इसी अन्ना के कंधे पर पैर रखकर अरविंद अपनी ‘आम आदमी पार्टी’ खड़ा करने में सफल रहे। जनलोकपाल आंदोलन के पीछे ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के फंड को लेकर जब सवाल उठने लगा तो अरविंद-मनीष के आग्रह व न्यूयॉर्क स्थित अपने मुख्यालय के आदेश पर फोर्ड फाउंडेशन ने अपनी वेबसाइट से ‘कबीर’ व उसकी फंडिंग का पूरा ब्यौरा ही हटा दिया। लेकिन उससे पहले अन्ना आंदोलन के दौरान 31 अगस्त 2011 में ही फोर्ड के प्रतिनिधि स्टीवेन सॉलनिक ने ‘बिजनस स्टैंडर’ अखबार में एक साक्षात्कार दिया था, जिसमें यह कबूल किया था कि फोर्ड फाउंडेशन ने ‘कबीर’ को दो बार में 3 लाख 69 हजार डॉलर की फंडिंग की है। स्टीवेन सॉलनिक के इस साक्षात्कार के कारण यह मामला पूरी तरह से दबने से बच गया और अरविंद का चेहरा कम संख्या में ही सही, लेकिन लोगों के सामने आ गया।
सूचना के मुताबिक अमेरिका की एक अन्य संस्था ‘आवाज’ की ओर से भी अरविंद केजरीवाल को जनलोकपाल आंदोलन के लिए फंड उपलब्ध कराया गया था और इसी ‘आवाज’ ने दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भी अरविंद केजरीवाल की ‘आम आदमी पार्टी’ को फंड उपलब्ध कराया। सीरिया, इजिप्ट, लीबिया आदि देश में सरकार को अस्थिर करने के लिए अमेरिका की इसी ‘आवाज’ संस्था ने वहां के एनजीओ, ट्रस्ट व बुद्धिजीवियों को जमकर फंडिंग की थी। इससे इस विवाद को बल मिलता है कि अमेरिका के हित में हर देश की पॉलिसी को प्रभावित करने के लिए अमेरिकी संस्था जिस ‘फंडिंग का खेल’ खेल खेलती आई हैं, भारत में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और ‘आम आदमी पार्टी’ उसी की देन हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वकील एम.एल.शर्मा ने अरविंद केजरीवाल व मनीष सिसोदिया के एनजीओ व उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ में चुनावी चंदे के रूप में आए विदेशी फंडिंग की पूरी जांच के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल कर रखी है। अदालत ने इसकी जांच का निर्देश दे रखा है, लेकिन केंद्रीय गृहमंत्रालय इसकी जांच कराने के प्रति उदासीनता बरत रही है, जो केंद्र सरकार को संदेह के दायरे में खड़ा करता है। वकील एम.एल.शर्मा कहते हैं कि ‘फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट-2010’ के मुताबिक विदेशी धन पाने के लिए भारत सरकार की अनुमति लेना आवश्यक है। यही नहीं, उस राशि को खर्च करने के लिए निर्धारित मानकों का पालन करना भी जरूरी है। कोई भी विदेशी देश चुनावी चंदे या फंड के जरिए भारत की संप्रभुता व राजनैतिक गतिविधियों को प्रभावित नहीं कर सके, इसलिए यह कानूनी प्रावधान किया गया था, लेकिन अरविंद केजरीवाल व उनकी टीम ने इसका पूरी तरह से उल्लंघन किया है। बाबा रामदेव के खिलाफ एक ही दिन में 80 से अधिक मुकदमे दर्ज करने वाली कांग्रेस सरकार की उदासीनता दर्शाती है कि अरविंद केजरीवाल को वह अपने राजनैतिक फायदे के लिए प्रोत्साहित कर रही है।
अमेरिकी ‘कल्चरल कोल्ड वार’ के हथियार हैं अरविंद केजरीवाल!
फंडिंग के जरिए पूरी दुनिया में राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने की अमेरिका व उसकी खुफिया एजेंसी ‘सीआईए’ की नीति को ‘कल्चरल कोल्ड वार’ का नाम दिया गया है। इसमें किसी देश की राजनीति, संस्कृति व उसके लोकतंत्र को अपने वित्त व पुरस्कार पोषित समूह, एनजीओ, ट्रस्ट, सरकार में बैठे जनप्रतिनिधि, मीडिया और वामपंथी बुद्धिजीवियों के जरिए पूरी तरह से प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है। अरविंद केजरीवाल ने ‘सेक्यूलरिज्म’ के नाम पर इसकी पहली झलक अन्ना के मंच से ‘भारत माता’ की तस्वीर को हटाकर दे दिया था। चूंकि इस देश में भारत माता के अपमान को ‘सेक्यूलरिज्म का फैशनेबल बुर्का’ समझा जाता है, इसलिए वामपंथी बुद्धिजीवी व मीडिया बिरादरी इसे अरविंद केजरीवाल की धर्मनिरपेक्षता साबित करने में सफल रही।
एक बार जो धर्मनिरपेक्षता का गंदा खेल शुरू हुआ तो फिर चल निकला और ‘आम आदमी पार्टी’ के नेता प्रशांत भूषण ने तत्काल कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का सुझाव दे दिया। प्रशांत भूषण यहीं नहीं रुके, उन्होंने संसद हमले के मुख्य दोषी अफजल गुरु की फांसी का विरोध करते हुए यह तक कह दिया कि इससे भारत का असली चेहरा उजागर हो गया है। जैसे वह खुद भारत नहीं, बल्कि किसी दूसरे देश के नागरिक हों?
प्रशांत भूषण लगातार भारत विरोधी बयान देते चले गए और मीडिया व वामपंथी बुद्धिजीवी उनकी आम आदमी पार्टी को ‘क्रांतिकारी सेक्यूलर दल’ के रूप में प्रचारित करने लगी। प्रशांत भूषण को हौसला मिला और उन्होंने केंद्र सरकार से कश्मीर में लागू एएफएसपीए कानून को हटाने की मांग करते हुए कह दिया कि सेना ने कश्मीरियों को इस कानून के जरिए दबा रखा है। इसके उलट हमारी सेना यह कह चुकी है कि यदि इस कानून को हटाया जाता है तो अलगाववादी कश्मीर में हावी हो जाएंगे।
अमेरिका का हित इसमें है कि कश्मीर अस्थिर रहे या पूरी तरह से पाकिस्तान के पाले में चला जाए ताकि अमेरिका यहां अपना सैन्य व निगरानी केंद्र स्थापित कर सके। यहां से दक्षिण-पश्चिम व दक्षिण-पूर्वी एशिया व चीन पर नजर रखने में उसे आसानी होगी। आम आदमी पार्टी के नेता प्रशांत भूषण अपनी झूठी मानवाधिकारवादी छवि व वकालत के जरिए इसकी कोशिश पहले से ही करते रहे हैं और अब जब उनकी ‘अपनी राजनैतिक पार्टी’ हो गई है तो वह इसे राजनैतिक रूप से अंजाम देने में जुटे हैं। यह एक तरह से ‘लिटमस टेस्ट’ था, जिसके जरिए आम आदमी पार्टी ‘ईमानदारी’ और ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ का ‘कॉकटेल’ तैयार कर रही थी।
8 दिसंबर 2013 को दिल्ली की 70 सदस्यीय विधानसभा चुनाव में 28 सीटें जीतने के बाद अपनी सरकार बनाने के लिए अरविंद केजरीवाल व उनकी पार्टी द्वारा आम जनता को अधिकार देने के नाम पर जनमत संग्रह का जो नाटक खेला गया, वह काफी हद तक इस ‘कॉकटेल’ का ही परीक्षण है। सवाल उठने लगा है कि यदि देश में आम आदमी पार्टी की सरकार बन जाए और वह कश्मीर में जनमत संग्रह कराते हुए उसे पाकिस्तान के पक्ष में बता दे तो फिर क्या होगा?
आखिर जनमत संग्रह के नाम पर उनके ‘एसएमएस कैंपेन’ की पारदर्शिता ही कितनी है? अन्ना हजारे भी एसएमएस कार्ड के नाम पर अरविंद केजरीवाल व उनकी पार्टी द्वारा की गई धोखाधड़ी का मामला उठा चुके हैं। दिल्ली के पटियाला हाउस अदालत में अन्ना व अरविंद को पक्षकार बनाते हुए एसएमएस कार्ड के नाम पर 100 करोड़ के घोटाले का एक मुकदमा दर्ज है। इस पर अन्ना ने कहा, ‘‘मैं इससे दुखी हूं, क्योंकि मेरे नाम पर अरविंद के द्वारा किए गए इस कार्य का कुछ भी पता नहीं है और मुझे अदालत में घसीट दिया गया है, जो मेरे लिए बेहद शर्म की बात है।’’
प्रशांत भूषण, अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और उनके ‘पंजीकृत आम आदमी’ ने जब देखा कि ‘भारत माता’ के अपमान व कश्मीर को भारत से अलग करने जैसे वक्तव्य पर ‘मीडिया-बुद्धिजीवी समर्थन का खेल’ शुरू हो चुका है तो उन्होंने अपनी ईमानदारी की चासनी में कांग्रेस के छद्म सेक्यूलरवाद को मिला लिया। उनके बयान देखिए, प्रशांत भूषण ने कहा, ‘इस देश में हिंदू आतंकवाद चरम पर है’, तो प्रशांत के सुर में सुर मिलाते हुए अरविंद ने कहा कि ‘बाटला हाउस एनकाउंटर फर्जी था और उसमें मारे गए मुस्लिम युवा निर्दोष थे।’ इससे दो कदम आगे बढ़ते हुए अरविंद केजरीवाल उत्तरप्रदेश के बरेली में दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार हो चुके तौकीर रजा और जामा मस्जिद के मौलाना इमाम बुखारी से मिलकर समर्थन देने की मांग की।
याद रखिए, यही इमाम बुखरी हैं, जो खुले आम दिल्ली पुलिस को चुनौती देते हुए कह चुके हैं कि ‘हां, मैं पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का एजेंट हूं, यदि हिम्मत है तो मुझे गिरफ्तार करके दिखाओ।’ उन पर कई आपराधिक मामले दर्ज हैं, अदालत ने उन्हें भगोड़ा घोषित कर रखा है लेकिन दिल्ली पुलिस की इतनी हिम्मत नहीं है कि वह जामा मस्जिद जाकर उन्हें गिरफ्तार कर सके। वहीं तौकीर रजा का पुराना सांप्रदायिक इतिहास है। वह समय-समय पर कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के पक्ष में मुसलमानों के लिए फतवा जारी करते रहे हैं। इतना ही नहीं, वह मशहूर बंग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन की हत्या करने वालों को ईनाम देने जैसा घोर अमानवीय फतवा भी जारी कर चुके हैं।
नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए फेंका गया ‘आखिरी पत्ता’ हैं अरविंद! 
दरअसल विदेश में अमेरिका, सउदी अरब व पाकिस्तान और भारत में कांग्रेस व क्षेत्रीय पाटियों की पूरी कोशिश नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव को रोकने की है। मोदी न अमेरिका के हित में हैं, न सउदी अरब व पाकिस्तान के हित में और न ही कांग्रेस पार्टी व धर्मनिरेपक्षता का ढोंग करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के हित में। मोदी के आते ही अमेरिका की एशिया केंद्रित पूरी विदेश, आर्थिक व रक्षा नीति तो प्रभावित होगी ही, देश के अंदर लूट मचाने में दशकों से जुटी हुई पार्टियों व नेताओं के लिए भी जेल यात्रा का माहौल बन जाएगा। इसलिए उसी भ्रष्टामचार को रोकने के नाम पर जनता का भावनात्मक दोहन करते हुए ईमानदारी की स्वनिर्मित धरातल पर ‘आम आदमी पार्टी’ का निर्माण कराया गया है।
दिल्ली में भ्रष्टाीचार और कुशासन में फंसी कांग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की 15 वर्षीय सत्ता के विरोध में उत्पन्न लहर को भाजपा के पास सीधे जाने से रोककर और फिर उसी कांग्रेस पार्टी के सहयोग से ‘आम आदमी पार्टी’ की सरकार बनाने का ड्रामा रचकर अरविंद केजरीवाल ने भाजपा को रोकने की अपनी क्षमता को दर्शा दिया है। अरविंद केजरीवाल द्वारा सरकार बनाने की हामी भरते ही केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा, ‘‘भाजपा के पास 32 सीटें थी, लेकिन वो बहुमत के लिए 4 सीटों का जुगाड़ नहीं कर पाई। हमारे पास केवल 8 सीटें थीं, लेकिन हमने 28 सीटों का जुगाड़ कर लिया और सरकार भी बना ली।’’
कपिल सिब्बल का यह बयान भाजपा को रोकने के लिए अरविंद केजरीवाल और उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ को खड़ा करने में कांग्रेस की छुपी हुई भूमिका को उजागर कर देता है। वैसे भी अरविंद केजरीवाल और शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित एनजीओ के लिए साथ काम कर चुके हैं। तभी तो दिसंबर-2011 में अन्ना आंदोलन को समाप्त कराने की जिम्मेवारी यूपीए सरकार ने संदीप दीक्षित को सौंपी थी। ‘फोर्ड फाउंडेशन’ ने अरविंद व मनीष सिसोदिया के एनजीओ को 3 लाख 69 हजार डॉलर तो संदीप दीक्षित के एनजीओ को 6 लाख 50 हजार डॉलर का फंड उपलब्ध कराया है। शुरू-शुरू में अरविंद केजरीवाल को कुछ मीडिया हाउस ने शीला-संदीप का ‘ब्रेन चाइल्ड’ बताया भी था, लेकिन यूपीए सरकार का इशारा पाते ही इस पूरे मामले पर खामोशी अख्तियार कर ली गई।
‘आम आदमी पार्टी’ व उसके नेता अरविंद केजरीवाल की पूरी मंशा को इस पार्टी के संस्थापक सदस्य व प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण ने ‘मेल टुडे’ अखबार में लिखे अपने एक लेख में जाहिर भी कर दिया था, लेकिन बाद में प्रशांत-अरविंद के दबाव के कारण उन्होंने अपने ही लेख से पल्ला झाड़ लिया और ‘मेल टुडे’ अखबार के खिलाफ मुकदमा कर दिया। ‘मेल टुडे’ से जुड़े सूत्र बताते हैं कि यूपीए सरकार के एक मंत्री के फोन पर ‘टुडे ग्रुप’ ने भी इसे झूठ कहने में समय नहीं लगाया, लेकिन तब तक इस लेख के जरिए नरेंद्र मोदी को रोकने लिए ‘कांग्रेस-केजरी’ गठबंधन की समूची साजिश का पर्दाफाश हो गया। यह अलग बात है कि कम प्रसार संख्या और अंग्रेजी में होने के कारण ‘मेल टुडे’ के लेख से बड़ी संख्या में देश की जनता अवगत नहीं हो सकी, इसलिए उस लेख के प्रमुख हिस्से को मैं यहां जस का तस रख रहा हूं, जिसमें नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए गठित ‘आम आदमी पार्टी’ की असलियत का पूरा ब्यौरा है।
शांति भूषण ने इंडिया टुडे समूह के अंग्रेजी अखबार ‘मेल टुडे’ में लिखा था, ‘‘अरविंद केजरीवाल ने बड़ी ही चतुराई से भ्रष्टामचार के मुद्दे पर भाजपा को भी निशाने पर ले लिया और उसे कांग्रेस के समान बता डाला। वहीं खुद वह सेक्यूलरिज्म के नाम पर मुस्लिम नेताओं से मिले ताकि उन मुसलमानों को अपने पक्ष में कर सकें जो बीजेपी का विरोध तो करते हैं, लेकिन कांग्रेस से उकता गए हैं। केजरीवाल और आम आदमी पार्टी उस अन्ना हजारे के आंदोलन की देन हैं जो कांग्रेस के करप्शन और मनमोहन सरकार की कारगुजारियों के खिलाफ शुरू हुआ था। लेकिन बाद में अरविंद केजरीवाल की मदद से इस पूरे आंदोलन ने अपना रुख मोड़कर बीजेपी की तरफ कर दिया, जिससे जनता कंफ्यूज हो गई और आंदोलन की धार कुंद पड़ गई।’’
‘‘आंदोलन के फ्लॉप होने के बाद भी केजरीवाल ने हार नहीं मानी। जिस राजनीति का वह कड़ा विरोध करते रहे थे, उन्होंने उसी राजनीति में आने का फैसला लिया। अन्ना इससे सहमत नहीं हुए । अन्ना की असहमति केजरीवाल की महत्वाकांक्षाओं की राह में रोड़ा बन गई थी। इसलिए केजरीवाल ने अन्ना को दरकिनार करते हुए ‘आम आदमी पार्टी’ के नाम से पार्टी बना ली और इसे दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों के खिलाफ खड़ा कर दिया। केजरीवाल ने जानबूझ कर शरारतपूर्ण ढंग से नितिन गडकरी के भ्रष्टािचार की बात उठाई और उन्हें कांग्रेस के भ्रष्टा नेताओं की कतार में खड़ा कर दिया ताकि खुद को ईमानदार व सेक्यूलर दिखा सकें। एक खास वर्ग को तुष्ट करने के लिए बीजेपी का नाम खराब किया गया। वर्ना बीजेपी तो सत्ता के आसपास भी नहीं थी, ऐसे में उसके भ्रष्टा चार का सवाल कहां पैदा होता है?’’
‘‘बीजेपी ‘आम आदमी पार्टी’ को नजरअंदाज करती रही और इसका केजरीवाल ने खूब फायदा उठाया। भले ही बाहर से वह कांग्रेस के खिलाफ थे, लेकिन अंदर से चुपचाप भाजपा के खिलाफ जुटे हुए थे। केजरीवाल ने लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल करते हुए इसका पूरा फायदा दिल्ली की चुनाव में उठाया और भ्रष्टावचार का आरोप बड़ी ही चालाकी से कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा पर भी मढ़ दिया। ऐसा उन्होंने अल्पसंख्यक वोट बटोरने के लिए किया।’’
‘‘दिल्ली की कामयाबी के बाद अब अरविंद केजरीवाल राष्ट्रीय राजनीति में आने जा रहे हैं। वह सिर्फ भ्रष्टाीचार की बात कर रहे हैं, लेकिन गवर्नेंस का मतलब सिर्फ भ्रष्टाेचार का खात्मा करना ही नहीं होता। कांग्रेस की कारगुजारियों की वजह से भ्रष्टालचार के अलावा भी कई सारी समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। खराब अर्थव्यवस्था, बढ़ती कीमतें, पड़ोसी देशों से रिश्ते और अंदरूनी लॉ एंड ऑर्डर समेत कई चुनौतियां हैं। इन सभी चुनौतियों को बिना वक्त गंवाए निबटाना होगा।’’

‘‘मनमोहन सरकार की नाकामी देश के लिए मुश्किल बन गई है। नरेंद्र मोदी इसलिए लोगों की आवाज बन रहे हैं, क्योंकि उन्होंने इन समस्याओं से जूझने और देश का सम्मान वापस लाने का विश्वास लोगों में जगाया है। मगर केजरीवाल गवर्नेंस के व्यापक अर्थ से अनभिज्ञ हैं। केजरीवाल की प्राथमिकता देश की राजनीति को अस्थिर करना और नरेंद्र मोदी को सत्ता में आने से रोकना है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अगर मोदी एक बार सत्ता में आ गए तो कांग्रेस की दुकान हमेशा के लिए बंद हो जाएगी।’’
साभार: Shashi Kant Kansal 

Tuesday, September 3, 2013

दो टूक : आजादी के 66 वर्ष बाद आजादी से पूर्व जैसे हालात

आजादी के बाद गांधी-नेहरू जाति नाम व आजाद भारत के पहले युगदृष्टा कहे जाने वाले स्वनामधन्य प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के 17 वर्ष लंबे निरंकुश शासन के बाद 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को देश वासियों से सप्ताह में एक दिन उपवास रखने का आह्वान करना पड़ा था। हालांकि इसके साथ ही उन्होंने देश में अन्न उत्पादन को बढ़ाने के लिए 'जय जवान' के साथ “जय किसान” का नारा भी दिया था। यह अलग बात है कि इस नारे से अधिक आज देश की तीसरी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को “हरित क्रांति” के जरिए देश के अन्न उत्पादन को निर्यात की क्षमता तक विकसित करने का श्रेय दिया जाता है। बहरहाल आज 48 वर्ष बाद देश श्रीमती गांधी के ”गरीबी हटाओ” और जनसंख्या नियंत्रण के लिए “हम दो-हमारे दो” जैसे नारों के बावजूद कथित तौर पर 80 करोड़ गरीबों को कुपोषण से बचाने और भरपेट भोजन देने की ऐतिहासिक कही जा रही राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना लाने को मजबूर हुआ है। 

आज सरकार की ओर से कमोबेश उसी तर्ज पर “सोने का मोह त्यागने” का आह्वान किया गया है और पेट्रोल पंपों को रात्रि में बंद करने जैसे बचकाने बयान आए हैं। आजादी के दौर में एक रुपए का मिलने वाला डॉलर 70 के भाव जाने पर आमादा है। भूख और कुपोषण पर नजर रखने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था-अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) द्वारा ताज़ा जारी वैश्विक भूखमरी सूचकांक-2010 में भारत को 67वां स्थान दिया गया है जो सूची में चीन और पाकिस्तान से भी नीचे है। ऐसे में उत्साहित दुश्मन राष्ट्र चीन व पाकिस्तान भारत पर कमोबेश एक साथ गुर्रा रहे हैं, और हमारे देश के सबसे बड़े अर्थशास्त्री कहे जाने वाले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह देश की सुरक्षा और रुपए की घटती कीमत, घटती विकास दर और बढ़ते मूल्य सूचकांक के साथ मुद्रा स्फीति व आपातकाल जैसे हालात स्वयं लाकर मिमियाने की मुद्रा में नजर आ रहे हैं। साथ ही परोक्ष तौर पर यह चुनौती देते भी दिखते हैं कि जब वह नहीं कर पा रहे तो औरों की क्या बिसात !

ऐसे में अच्छा हो कि प्रधानमंत्री थोड़ी और हिम्मत जुटा लें और सरकार और सरकारी मशीनरी के “खाने” व भ्रष्टाचार पर लगाम न कस पाने की अपनी विफलता को स्वीकार कर देश वासियों से बिना घबराए, सोने और पेट्रोल के साथ कम दाल-रोटी “खाने” करने की अपील भी कर दें, शायद देश की समस्त समस्याओं का हल अब इसी कदम में निहित है। 

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4. जनकवि 'गिर्दा' की दो एक्सक्लूसिव कवितायें
5. कौन हैं अन्ना हजारे ? क्या है जन लोकपाल विधेयक ?
6. नीरो सरकार जाये, जनता जनार्दन आती है
7. यह युग परिवर्तन की भविष्यवाणी के सच होने का समय तो नहीं ?
  

Monday, January 28, 2013

राहुल की 'साफगोई' के मायने


Rs 3/kg: Rahul Gandhi Lands in a Potatoe Soup

यपुर में कांग्रेस पार्टी की चिंतन बैठक में चाहे जो और जितना नाटकीय तरीके से हुआ हो, लेकिन काफी कुछ हुआ वही, जिसकी उम्मीद कमोबेश हर कांग्रेसी कर रहा था, और बाकी देशवासियों को भी उसका अंदाजा था। यानी राहुल गांधी को पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी मिलना, और उन्हें उपाध्यक्ष बना भी दिया गया। चिंतन शिविर से यही सबसे बड़ी खबर आई, यानी चिंतिन शिविर आयोजित ही इस लिए किया गया था कि इसके बाद राहुल को पार्टी का नंबर दो यानी सोनिया गांधी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया जाए। 
राहुल को उपाध्यक्ष घोषित कर दिया गया, किंतु यह भी बहुत बड़ी घटना नहीं क्योंकि वह पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रहते हुए भी गांधी-नेहरू परिवार से होने और सोनिया गांधी के पुत्र होने के नाते पार्टी के नंबर दो तथा सोनिया के निर्विवाद तौर पर उत्तराधिकारी ही थे। लेकिन इससे बड़ी बात यह है कि नई जिम्मेदारी देने के साथ यह संदेश साफ कर देने की कोशिश की गई है कि वह आगामी लोक सभा चुनावों में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे। 
गौर कीजिए, राहुल और सोनिया गांधी दोनों इस बात को मानते हैं, इसलिए ‘पार्टी’ की एक बड़ी जिम्मेदारी मिलने पर दोनों के मन में पार्टी से पहले ‘सत्ता’ का खयाल आता है। यह खयाल आते ही सोनिया बेहद डर जाती हैं। वह रात्रि में ही राहुल के कक्ष में जाती हैं, और पुत्र को गले लगाकर रोते हुए याद दिलाती है, सत्ता जहर है। इस जहर ने उनकी ‘आइरन लेडी’ कही जाने वाली दादी और मजबूत पिता को उनसे छीन लिया। पुत्र को भी डर सताता है, उनके साथ बैडमिंटन खेलने वाले दो पुलिस कर्मी कैसे गोलियों से भूनकर उनकी दादी की हत्या कर देते हैं। यहां किस पर विश्वास किया जाए, किस पर नहीं ! कहीं सत्ता उन्हें भी.....! भगवान करे ऐसा कभी ना हो।
बहरहाल, टीवी पर आने वाले एक विज्ञापन की तर्ज पर डर सभी को लगता है, गला सभी का सूखता है। मां-पुत्र भी इसके अपवाद नहीं हो सकते। दोनों बेहद डरे हुए हैं। लेकिन उनके समक्ष क्या मजबूरी है सत्ता रूपी जहर को पीने की। यह जहर उनके परिवार को इतने बड़े घाव पहले ही दे चुका है, तो उसे जानते-बूझते फिर से क्यों गटका जाए। किसी और के लिए हो सकता है, पर गांधी-नेहरू परिवार के लिए तो सत्ता कभी ‘शादी के लड्डू’ की तरह अनजानी वस्तु भी नहीं हो सकती कि उसे बिना खाए पछताने से बेहतर एक बार खा ही लिया जाए। उनके लिए यह स्वाद कोई नया नही। 
फिर क्या मजबूरी है कि राहुल अपने इस डर को पार्टी की भरी चिंतन सभा में उजागर कर देते हैं। क्या केवल ‘साफगोई’ का तमगा हासिल करने के लिए। और यह भी ‘साफ’ किए बगैर कि आखिर उनके समक्ष इतने बड़े डर के बावजूद विषपान करने की इतनी बड़ी मजबूरी क्या है। क्या वह पार्टी की चिंतन बैठक में देशवासियों के दुःखों पर चिंता कर रहे हैं, और देशवासियों के दुःख उनसे देखे नहीं जा रहे और वह उनके दुःखों को दूर करने के लिए उनके हिस्से के ‘विष’ को पीकर ‘शिव’ बनना चाहते हैं। ऐसा ही मौका सोनिया के पास भी तो आया था, और उन्होंने यह विष क्या पी न लिया होता, यदि उन पर ‘विदेशी’ होने का दाग न लग गया होता। 
राहुल जानते हैं, वह नेहरू-गांधी परिवार के चश्मो-चिराग हैं, जिसका नाम अपने नाम से जोड़ देने भर से उन्हें बिना किसी अन्य विशेषता के मां से उत्तराधिकार में कांग्रेस के नंबर दो की कुर्सी के साथ ही आगे पार्टी को सत्ता मिलने पर देश की नंबर एक की कुर्सी भी कमोबेस बिना प्रयास के मिलनी तय है। वह देश की सत्ता के इतने बड़े नाम हैं कि चाहें तो विपक्षी पार्टियों की सत्ता रहते भी लोकहित के जो मर्जी कार्य करवा सकते हैं। फिर क्या मजबूरी है कि वह सत्ता को जहर होने के बावजूद भी पीना ही चाहते हैं।
यहां राहुल के एक वक्तव्य से दो चीजें हो जाती हैं। एक, देश का भावी प्रधानमंत्री होने के बावजूद वह इस कथित ‘साफगोई’ के फेर में स्वयं के डर के साथ अपनी कमजोरी भी प्रकट कर देते हैं। दूसरे, ‘पालने’ से ही सत्ता शीर्ष पर होने के बावजूद स्वयं का जहर जैसी सत्ता से न छूट पा रहा मोह भी उनकी इस ‘साफगोई’ से उजागर हो जाता है।
राहुल की यह ‘साफगोई’ अनायास नहीं है, वरन सोची समझी रणनीति के तहत हैं। वह अभी भी अपना ‘चेहरा’ विकसित करने के दौर में ही हैं। कभी दाड़ी वाले बेफुरसत युवा, कभी यूपी की चुनावी सभा में पर्चा फाड़ते एंग्री यंग मैन तो कभी गरीब की झोपड़ी में रात बिताते गरीब-गुरबा के मसीहा, और अब साफगोई दिखाते, देश के दिलों को छूते नेता। उनकी पार्टी यूपी, गुजरात जैसे राज्य हारते जा रही है। उत्तर पूर्व के तीन राज्यों में भी उनकी पार्टी के लिए जीत की कम ही संभावनाएं हैं। 2014 भागा हुआ आ रहा है। जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, सब्सिडी वापस लिए जाने, डीजल-पेट्रोल को तेल कंपनियों के हाथ में दे दिए जाने, जन लोकपाल, बलात्कार पर कड़े कानून बनाने का शोर मचाए हुए है। वह क्या करें, कौन सा रूप धरें। कौन सा चमत्कार करें कि इस सबके बावजूद सत्ता वापस कदमों में आ जाए। यह बड़ी चिंता है। उनकी भी, कांग्रेस के नेताओं की भी, जिन्हें पता है कि यही नेहरू-गांधी का नाम है जिसके बल पर वह जनता को तमाम अन्य मुद्दे भुलाकर सत्ता हासिल कर सकते हैं। और मां सोनिया की भी, बेटे के लिए दुल्हन भी तलाशें तो पूछते हैं, लड़का करता क्या है। सचमुच बड़ी मजबूरी है। 
लेकिन राहुल को घबराने या जल्दबाजी की जरूरत नहीं, उन्हें समझना होगा, वह अकेले दौड़ने के बाद भी पार्टी के ‘नंबर दो’ बने हैं। इस पद के लिए उनके अलावा कोई और दूसरा प्रत्याशी नहीं है। वह कभी देश के प्रधानमंत्री भी बनेंगे तो ऐसी ही स्थिति में, जहां कोई दूसरा उनका प्रतिद्वंद्वी नहीं होगा या ऐसी स्थितियां बना दी जाएंगी कि कोई दूसरा उनके बराबर मंे खड़ा ही नहीं हो सकता। उन्हें यह प्रमोशन तब मिला है, जबकि उनके नेतृत्व में लड़े राज्यों में भी कांग्रेस लगातार हारती रही है। उनका ‘नेता बनो या नेता चुनो’ का मॉडल युवा कांग्रेस में भी फेल हो चुका है। वह न पार्टी की युवा ब्रिगेड को सुधार पाए हैं, और न ही अपनी पार्टी को अपने दम पर किसी राज्य में ही जीत दिला पाए हैं। 
बावजूद वह जानते हैं, कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के बाद एक वे ही हैं, जिनकी छांव तले कांग्रेसी एक छत के तले खड़े हो सकते हैं। राहुल भले कहें कि उन्हें नहीं पता कि कांग्रेस में आज के कारपोरेट प्रबंधन के दौर में भी (कमोबेस देश की तरह ही) कोई सिस्टम ही नहीं हैं, बावजूद (देश की तरह भगवान भरोसे नहीं) विपक्षी दलों की राजनीतिक अपरिपक्वता और राजनीतिक दांवपेंच में कहीं न ठहरने जैसे अनेक कारणों से वह चुनाव जीत ही जाते हैं। 
तो क्या, यह जल्दबाजी, यह विषपान की मजबूरी इसलिए है कि उन्हें लगने लगा है, गांधी-नेहरू जाति नाम भले कांग्रेस पार्टी में अब भी चलता हो पर देश में यह तिलिस्म लगातार टूटता जा रहा है। युवा कांग्रेस के साथ ही यूपी में ‘बदलाव’ की कोशिश कर वह थक हार चुके हैं। उनके हाथों में युवा कांग्रेस की कमान थी। उन्होंने वहां जमीनी स्तर से ‘नेता बनो या नेता चुनो’ का नारा दिया, लेकिन वह नारा भी नहीं चल पाया। कमोबेश सभी जगह वही युवा आगे आ पाए, जिनके पिता या गुट के नेता मुख्य पार्टी में बड़े ओहदे पर थे। जो भी जीता, उसने नीचे से लेकर ऊपर तक कार्यकर्ताओं को मैनेज किया। अपने सदस्य बनाए, फिर अपने लोगों को जितवाया और आखिर में अपने पक्ष में लॉबिंग की। लेकिन राहुल की सोच के मुताबिक ऐसा कुछ नहीं हुआ कि अनजान चेहरे युकां के प्रदेश अध्यक्ष बन गए।
तो क्या राहुल अपनी इस साफगोई से मात्र पार्टी जनों को भावनात्मक रूप से जोड़े रखने का ही प्रयास नहीं कर रहे हैं। इसके साथ ही कहीं वह कार्यकर्ताओं को स्वयं शीर्ष पर जगह बनाने के बाद परोक्ष तौर पर चेतावनी तो नहीं दे रहे कि यह बहुत खतरनाक जगह है। यहां आने की भी न सोचें। हम बहुत बड़ी कुरबानी देने वाले लोग हैं, इसलिए यहां हैं। 
इससे बेहतर क्या यह न होता कि वह अपना डर दिखाने के बजाए देश की बड़ी समस्याओं, भ्रष्टाचार, महंगाई, सब्सिडी को खत्म करने, जन लोकपाल, पदोन्नति में आरक्षण जैसे विषयों पर बोलने का साहस दिखाते। देश की जनता की नब्ज, उसकी समस्याओं को समझते, और अपनी युवा ऊर्जा का इस्तेमाल पर उनका स्थाई समाधान तलाशते। 
राहुल को जानना होगा उन्हें प्रधानमंत्री बनना है तो उन्हें केवल कांग्रेस पार्टी का नहीं पूरे देश का नेता बनना होगा। और ऐसा केवल भावनात्मक तरीके के बजाए कुछ करके बेहतर किया सकता है। उन्हें इस पद पर आरूढ़ होने से पूर्व कुछ और समय लेना होगा। प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने की जल्दबाजी उनके कॅरियर पर भी भारी पड़ सकती है। इस पद के लिए स्वयं को तैयार भी करना होगा। उन्हें स्वयं में गंभीरता लानी होगी। केवल कांग्रेस के गैर गांधी प्रधानमंत्रियों की तरह ‘मौनी बाबा’ बनने अथवा अपने पिता के ‘हमने देखा है, हम देखेंगे’ की तरह ही ऐसा या वैसा होना चाहिए के बजाय कुछ करके दिखाने का साहस और होंसला स्वयं में विकसित करना होगा। अभी वह युवा हैं, उनकी उम्र भागी नहीं जा रही। निस्संदेह उन्हें एक न एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनना है। 

Sunday, September 9, 2012

हिमालय सा व्यक्तित्व और दिल में बसता था पहाड़

लखनऊ, दिल्ली की रसोई में भी कुमाऊंनी भोजन बनता था 

पर्वतीय लोगों से अपनी बोली- भाषा में करते थे बात 
नवीन जोशी नैनीताल। देश की आजादी के संग्राम और आजादी के बाद देश को संवारने में अपना अप्रतिम योगदान देने वाले उत्तराखंड के लाल भारतरत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत का व्यक्तित्व हिमालय जैसा विशाल था। वह राष्ट्रीय फलक पर सोचते थे, लेकिन दिल में पहाड़ ही बसता था। उन्हें पहाड़ और पहाड़वासियों से अपार स्नेह था। पंत आज के नेताओं के लिए भी मिसाल हैं। वे महान ऊंचाइयों तक पहुंचने के बावजूद अपनी जड़ों से हमेशा जुड़े रहे और स्वार्थ की भावना से कहीं ऊपर उठकर अपने घर से विकास की शुरूआत की। उनके घर में आम कुमाऊंनी रसोई की तरह ही भोजन बनता था और आम पर्वतीय ब्राह्मणों की तरह वे जमीन पर बैठकर ही भोजन करते थे। पं. पंत के करीबी रहे नगर के वयोवृद्ध किशन लाल साह ‘कोनी’ ने 125वीं जयंती की पूर्व संध्या पर पं. पंत के नैनीताल नगर से जुड़ी यादों को से साझा किया। 
श्री साह 1952 में युवा कांग्रेस का गठन होते ही नैनीताल संयुक्त जनपद के पहले जिला अध्यक्ष बने। श्री साह बताते हैं कि 1945 से पूर्व संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री (प्रीमियर) रहने के दौरान तक पं. पंत तल्लीताल नया बाजार क्षेत्र में रहते थे। यहां वर्तमान क्लार्क होटल उस समय उनकी संपत्ति था। यहीं रहकर उनके पुत्र केसी पंत ने नगर के सेंट जोसफ कालेज से पढ़ाई की। वह अक्सर यहां तत्कालीन विधायक श्याम लाल वर्मा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल, दलीप सिंह कप्तान आदि के साथ बी. दास, श्याम लाल एंड सन्स, इंद्रा फाम्रेसी, मल्लीताल तुला राम आदि दुकानों में बैठते और आजादी के आंदोलन और देश के हालातों व विकास पर लोगों की राय सुनते, सुझाव लेते, र्चचा करते और सुझावों का पालन भी करते थे।
बाद में वह फांसी गधेरा स्थित जनरल वाली कोठी में रहने लगे। यहीं से केसी पंत का विवाह बेहद सादगी से नगर के बिड़ला विद्या मंदिर में बर्शर के पद पर कार्यरत गोंविद बल्लभ पांडे ‘गोविंदा’ की पुत्री इला से हुआ। केसी पूरी तरह कुमाऊंनी तरीके से सिर पर मुकुट लगाकर और डोली में बैठकर दुल्हन के द्वार पहुंचे थे। इस मौके पर आजाद हिंद फौज के सेनानी रहे कैप्टन राम सिंह ने बैंड वादन किया था। आजादी के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए वे पंत सदन (वर्तमान उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का आवास) में रहे, जोकि मूलत: रामपुर के नवाब की संपत्ति था और इसे अंग्रेजों ने अधिग्रहीत किया था। साह बताते हैं कि वह जब भी उनके घर जाते, उनकी माताजी पर्वतीय दालों भट, गहत आदि लाने के बारे में पूछतीं और हर बार रस- भात बनाकर खिलाती थीं।
उनके लखनऊ के बदेरियाबाग स्थित आवास पर पहाड़ से जो लोग भी पहुंचते, पंत उनके भोजन व आवास की स्वयं व्यवस्था कराते थे और उनसे कुमाऊंनी में ही बात करते थे। उनका मानना था कि पहाड़ी बोली हमारी पहचान है। वह अन्य लोगों से भी अपनी बोली-भाषा में बात करने को कहते थे। साह पं. पंत की वर्तमान राजनेताओं से तुलना करते हुए कहते हैं कि पं. पंत के दिल में जनता के प्रति दर्द था, जबकि आज के नेता नितांत स्वार्थी हो गये हैं। पंत में सादगी थी, वह लोगों के दुख-दर्द सुनते और उनका निदान करते थे। वह राष्ट्रीय स्तर के नेता होने के बावजूद अपनी जड़ों से जुड़े हुए थे। उन्होंने नैनीताल जनपद में ही पंतनगर कृषि विवि की स्थापना और तराई में पाकिस्तान से आये पंजाबी विस्थापितों को बसाकर पहाड़ के आँगन को हरित क्रांति से लहलहाने सहित अनेक दूरगामी महत्व के कार्य किये। 

पन्त के जीवन के कुछ अनछुवे पहलू 

राष्ट्रीय नेता होने के बावजूद पं. पंत अपने क्षेत्र-कुमाऊं, नैनीताल से जुड़े रहे। केंद्रीय गृह मंत्री और संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री रहते हुई भी वह स्थानीय इकाइयों से जुड़े रहे। उनकी पहचान बचपन से लेकर ताउम्र कैसी भी विपरीत परिस्थितियों में सबको समझा-बुझाकर साथ लेकर चलने की रही। कहते हैं कि बचपन में वह मोटे बालक थे, वह कोई खेल भी नहीं खेलते थे, एक स्थान पर ही बैठे रहते थे, इसलिए बचपन में वह 'थपुवा" कहे जाते थे। लेकिन वे पढ़ाई में होशियार थे। कहते हैं कि गणित के एक शिक्षक ने कक्षा में प्रश्न पूछा था कि 30 गज कपड़े को यदि हर रोज एक मीटर काटा जाए तो यह कितने दिन में कट जाएगा, जिस पर केवल उन्होंने ही सही जवाब दिया था-29 दिन, जबकि अन्य बच्चे 30 दिन बता रहे थे। अलबत्ता, इस दौरान उनका काम खेल में लड़ने वाले बालकों का झगड़ा निपटाने का रहता था। उनकी यह पहचान बाद में गोपाल कृष्ण गोखले की तरह तमाम विवादों को निपटाने की रही। संयुक्त प्रांत का प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते वह रफी अहमद किदवई सरीखे अपने आलोचकों और अनेक जाति-धर्मों में बंटे इस बड़े प्रांत को संभाले रहे और यहां तक कि केंद्रीय गृह मंत्री रहते 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौर में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने चीनी समकक्ष चाऊ तिल लाई से बात नहीं कर पा रहे थे, तब पं पंत ही थे, जिन्होंने चाऊलाई को काबू में किया था। इस पर चाऊलाई ने उनके लिए कहा था-भारत के इस सपूत को समझ पाना बड़ा मुश्किल है। अलबत्ता, वह कुछ गलत होने पर विरोध करने से भी नहीं हिचकते थे। कहते हैं कि उन्होंने न्यायाधीश से विवाद हो जाने की वजह से अल्मोड़ा में वकालत छोड़ी और पहले रानीखेत व फिर काशीपुर चले गए। इस दौरान एक मामले में निचली अदालत में जीतने के बावजूद उन्होंने सेशन कोर्ट में अपने मुवक्किल का मुकदमा लड़ने से इसलिए इंकार कर दिया था कि उसने उन्हें गलत सूचना दी थी, जबकि वह दोषी था।
राजनीति और संपन्नता उन्हें विरासत में मिली थी। उनके नाना बद्री दत्त जोशी तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर सर हेनरी रैमजे के अत्यधिक निकटस्थ सदर अमीन के पद पर कार्यरत थे, और उनके दादा घनानंद पंत टी-स्टेट नौकुचियाताल में मैनेजर थे। कुमाऊं परिषद की स्थापना 1916 में उनके नैनीताल के घर में ही हुई थी। प्रदेश के नया वाद, वनांदोलन, असहयोग व व्यक्तिगत सत्याग्रह सहित तत्कालीन समस्त आंदोलनों में वह शामिल रहे थे। अलबत्ता कुली बेगार आंदोलन में उनका शामिल न होना अनेक सवाल खड़ा करता है। इसी तरह उन्होंने गृह मंत्री रहते देश की आजादी के बाद के पहले राज्य पुर्नगठन संबंधी पानीकर आयोग की रिपोर्ट के खिलाफ जाते हुए हिमांचल प्रदेश को संस्कृति व बोली-भाषा का हवाला देते हुए अलग राज्य बनवा दिया, लेकिन वर्तमान में कुमाऊं आयुक्त अवनेंद्र सिंह नयाल के पिता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल के इसी तर्ज पर उत्तराखंड को भी अलग राज्य बनाने के प्रस्ताव पर बुरी तरह से यह कहते हुए डपट दिया था कि ऐसा वह अपने जीवन काल में नहीं होने देंगे। आलोचक कहते हैं कि बाद में पंडित नारायण दत्त तिवारी (जिन्होंने भी उत्तराखंड मेरी लाश पर बनेगा कहा था) की तरह वह भी नहीं चाहते थे कि उन्हें एक अपेक्षाकृत बहुत छोटे राज्य के मुख्यमंत्री के बारे में इतिहास में याद किया जाए।  1927 में साइमन कमीशन के विरोध में उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को बचाकर लाठियां खाई थीं। इस पर भी आलोचकों का कहना है कि ऐसा उन्होंने नेहरू के करीब आने और ऊंचा पद प्राप्त करने के लिए किया। 1929 में वारदोली आंदोलन में शामिल होकर महात्मा गांधी के निकटस्थ बनने तथा 1925 में काकोरी कांड के भारतीय आरोपितों के मुकदमे कोर्ट में लड़ने जैसे बड़े कार्यों से भी उनका कद बढ़ा था।

वास्तव में 30 अगस्त है पं. पंत का जन्म दिवस 
नैनीताल। पं. पंत का जन्म दिन हालांकि हर वर्ष 10 सितम्बर को मनाया जाता है, लेकिन वास्तव में उनका जन्म 30 अगस्त 1887 को अल्मोड़ा जिले के खूंट गांव में हुआ था। वह अनंत चतुर्दशी का दिन था। प्रारंभ में वह अंग्रेजी माह के बजाय हर वर्ष अनंत चतुर्दशी को अपना जन्म दिन मनाते थे। 1946 में अनंत चतुर्दशी यानी जन्म दिन के मौके पर ही वह संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री बने थे, यह 10 सितम्बर का दिन था। इसके बाद उन्होंने हर वर्ष 10 सितम्बर को अपना जन्म दिन मनाना प्रारंभ किया।
भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत के बारे में और अधिक जानकारी यहाँ भी पढ़ सकते हैं।