You'll Also Like

Showing posts with label India. Show all posts
Showing posts with label India. Show all posts

Friday, March 7, 2014

यह युग परिवर्तन की भविष्यवाणी के सच होने का समय तो नहीं ?



(मूलतः 2011 में लिखी गई पोस्ट) 

बात कुछ पुराने संदर्भों से शुरू करते हैं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि १८३६ में उनके गुरु आचार्य रामकृष्ण परमहंस के जन्म के साथ ही युग परिवर्तन काल प्रारंभ हो गया है। यह वह दौर था जब देश ७०० वर्षों की मुगलों की गुलामी के बाद अंग्रेजों के अधीन था, और पहले स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल भी नहीं बजा था।
बाद में महर्षि अरविन्द ने प्रतिपादित किया कि युग परिवर्तन का काल, संधि काल कहलाता है और यह करीब १७५ वर्ष का होता है...
पुनः, स्वामी विवेकानंद ने कहा था ‘वह अपने दिव्य चक्षुओं से देख रहे हैं कि या तो संधि काल में भारत को मरना होगा, अन्यथा वह अपने पुराने गौरव् को प्राप्त करेगा.... ’
उन्होंने साफ किया था ‘भारत के मरने का अर्थ होगा, सम्पूर्ण दुनिया से आध्यात्मिकता का सर्वनाश ! लेकिन यह ईश्वर को भी मंजूर नहीं होगा... ऐसे में एक ही संभावना बचती है कि देश अपने पुराने गौरव को प्राप्त करेगा....और यह अवश्यम्भावी है।’
वह आगे बोले थे ‘देश का पुराना गौरव विज्ञान, राज्य सत्ता अथवा धन बल से नहीं वरन आध्यात्मिक सत्ता के बल पर लौटेगा....’
अब १८३६ में युग परिवर्तन के संधि काल की अवधि १७५ वर्ष को जोड़िए. उत्तर आता है २०११. यानी हम 2011 में युग परिवर्तन की दहलीज पर खड़े थे, और इसी दौर से देश में परिवर्तनों के कई सुर मुखर होने लगे थे....
अब आज के दौर में देश में आध्यात्मिकता की बात करें, और बीते कुछ समय से बन रहे हालातों के अतिरेक तक जाकर देखें तो क्या कोई व्यक्ति इस दिशा में आध्यात्मिकता की ध्वजा को आगे बढाते हुआ दिखते हैं, क्या वह बाबा रामदेव या अन्ना हजारे हो सकते हैं.....?
कोई आश्चर्य नहीं, ईश्वर बाबा अथवा अन्ना को युग परिवर्तन का माध्यम बना रहे हों, और युगदृष्टा महर्षि अरविन्द और स्वामी विवेकानंद की बात सही साबित होने जा रही हो....
यह भी जान लें कि आचार्य श्री राम शर्मा सहित फ्रांस के विश्वप्रसिद्ध भविष्यवेत्ता नास्त्रेदमस सहित कई अन्य विद्वानों ने भी इस दौर में ही युग परिवर्तन होने की भविष्यवाणी की हुई है। उन्होंने तो यहाँ तक कहा था कि "दुनिया में तीसरे महायुद्ध की स्थिति सन् 2012 से 2025 के मध्य उत्पन्न हो सकती है। तृतीय विश्वयुद्ध में भारत शांति स्थापक की भूमिका निबाहेगा। सभी देश उसकी सहायता की आतुरता से प्रतीक्षा करेंगे। नास्त्रेदमस ने तीसरे विश्वयुद्ध की जो भविष्यवाणी की है उसी के साथ उसने ऐसे समय एक ऐसे महान राजनेता के जन्म की भविष्यवाणी भी की है, जो दुनिया का मुखिया होगा और विश्व में शांति लाएगा।"
अब 2014 में, जबकि लोक सभा चुनावों की दुंदुभि बज चुकी है। ऐसे में क्या यह मौका युग परिवर्तन की भविष्यवाणी के सच साबित होने का तो नहीं है। देश का बदला मिजाज भी इसका इशारा करता है, पर क्या यह सच होकर रहेगा ? कौन होगा युग परिवर्तक ? क्या मोदी ?

एक रिपोर्ट के अनुसार केंद्र की कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार अब तक चीनी, आईपीएल, राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श सोसाइटी, २-जी स्पेक्ट्रम आदि सहित २,५०,००० करोड़ मतलब २,५०,००, ००,००,००,००० रुपये का घोटाला कर चुकी है. मतलब दो नील ५० खरब रुपये का घोटाला, 

यह अलग बात है कि हमारे (कभी विश्व गुरु रहे हिंदुस्तान के) प्रधानमंत्री मनमोहन जी और देश की सत्ता के ध्रुव सोनिया जी को यह नील..खरब जैसे हिन्दी के शब्द समझ में ही नहीं आते हैं.... 
अतिरेक नहीं कि एक विदेशी है और दूसरा विश्व बैंक का पुराना कारिन्दा.... यानी दोनों ही देश की आत्मा से बहुत दूर …
शायद वह अपनी करनी से देश में क्रांति को रास्ता दे रहे है….
संभव है बाबा रामदेव जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं, और अन्ना हजारे जो जन लोकपाल के मुद्दे पर आन्दोलन का बिगुल बजाये हुए हैं, इस क्रांति के अग्रदूत हों. बाबा रामदेव के आरोप अब सही लगने लगे हैं की गरीब देश कहे जाने वाले (?) हिन्दुस्तानियों के ( जिनमें निस्संदेह नेताओं का हिस्सा ही अधिक है) १०० लाख करोड़ (यानी १०,००,००,००,००,००,००,०००) यानी १० पद्म रुपये (बाबा रामदेव के अनुसार) और एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार ७० लाख करोड़ यानी सात पद्म रुपये भारत से बाहर स्विस और दुनिया ने देश के अन्य देशों के अन्य बैंको में छुपाये है. इस अकूत धन सम्पदा को यदि वापस लाकर देश की एक अरब  से अधिक जनसँख्या में यूँही बाँट दिया जाए तो हर बच्चे-बूढ़े, अमीर-गरीब को ७० लाख से एक करोड़ रुपये तक बंट सकते हैं....  
जान लीजिये की देश की केंद्र सरकार, सभी राज्य सरकारों और सभी निकायों का वर्ष का कुल बजट इस मुकाबले कहीं कम केवल २० लाख करोड़ यानी दो पद्म रुपये यानी विदेशों में जमा धन का पांचवा हिस्सा  है. यानी इस धनराशी से देश का पांच वर्ष का बजट चल सकता है..
लेकिन अपने सत्तासीन नेताओं से यह उम्मीद करनी ही बेमानी है की देश की इस अकूत संपत्ति को वापस लाने के लिए वह इस ओर पहल भी करेंगे…
मालूम हो की संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्विट्जरलैंड के बैंकों में जमा धन वापस लाने के लिए भारत सहित १४० देशों के बीच एक संधि की है. इस संधि पर १२६ देश पुनः सहमति पत्र पर हस्ताक्षर कर चुके हैं, लेकिन भारत इस पर हस्ताक्षर नहीं कर रहा है. 

यह भी पढ़ें: 

Sunday, February 16, 2014

देश को भी दिल्ली की तरह मध्यावधि चुनावों में धकेलेंगे केजरीवाल !

Digital Painting Of Arvind Kejariwalरविंद केजरीवाल बकौल उनके विरोधियों प्रधानमंत्री बनने और बकौल समर्थकों-देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने और आम आदमी के हाथों में सत्ता दिलाने की निर्विवाद तौर पर जल्दबाजी या हड़बड़ी में दिखते हैं। दिल्ली में 50 दिन का कार्यकाल पूरा किए बिना ही वह देश में (पांच वर्ष) सरकार चलाने के दिवास्वप्न को पूरा करने के लिए दौड़ पड़े हैं। निःसंदेह लोक सभा चुनाव ही उनका अभीष्ट थे। इसके बिना उनका कथित भ्रष्टाचार मुक्ति का मिशन पूरा होना नहीं था। इस मिशन के लिए उन्होंने दिल्ली विधान सभा से अपनी राजनीतिक शुरुआत की। अपने राजनीतिक गुरु अन्ना हजारे की भी नहीं सुनी और इंडिया अगेन्स्ट करप्शन को भी पीछे छोडकऱ आम आदमी पार्टी बना ली। दिल्ली के विधान सभा चुनावों से पहले अपनी स्थापना के करीब एक वर्ष में जनता के बिजली और पानी के बिलों के मुद्दे पर राजनीतिक जमीन तैयार की। जनता को भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन का भरोसा दिलाया। जनता ने भरोसा किया, उनके नां-नां कहते भी ऐसे हालात खड़े कर दिए कि दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कमोबेश जबरन ही बिठा दिया। लेकिन केजरीवाल अपनी अति महत्वकांक्षा में ‘मेरो मन अनंत, अनंत कहां सुख पावे’ की तर्ज पर 49 दिन में ही यह छोटी कुर्सी छोड़कर देश के प्रधानमंत्री पद की बड़ी कुर्सी के लिए दौड़ पड़े हैं। 
दिल्ली की गद्दी छोड़ने, सरकार न चला पाने की असफलता का ठीकरा ‘नाच न जाने आंगन टेढ़ा’ की तर्ज पर कांग्रेस-भाजपा पर फोड़ा जा रहा है। जैसे यह भी ना जानते हों कि कांग्रेस-भाजपा विपक्षी पार्टी हैं। वह स्वयं के राजनीतिक लाभ के बिना कभी भी आप का समर्थन नहीं करेंगे। वह क्यों चाहेंगे कि आप मनमानी करें। वह भी तब, जबकि आप केवल अपने समर्थकों के बिजली बिल आधे करने जैसे एकतरफा निर्णय ले रहे हों, जिनकी मिसाल कथित धर्म निरपेक्ष पार्टियों के एक धर्म विशेष के आपदा प्रभावितों को अधिक मुआवजा देने जैसे निर्णयों से इतर अन्यत्र कम ही मिलती है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की गद्दी आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल का अभीष्ट कभी नहीं रही। वह तो दिल्ली के चुनावों को महज लोक सभा चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनने के स्वप्न को पूरा करने की पहली सीढ़ी मानते हुए भाग्य आजमाने के लिए ही लड़े थे। लेकिन उनका कांग्रेस से ‘आम आदमी’, भाजपा से ‘राष्ट्रवाद’, अन्ना हजारे से भ्रष्टाचार मुक्ति और अपने दिमाग से झाड़ू को चुनाव चिन्ह बनाने से इससे जुड़े एक वर्ग विशेष के खुलकर समर्थन में आ जाने, पार्टी का नाम आम आदमी के नाम से और छोटा नाम ‘आप’ रखने, वामपंथी विचारधारा वाले मतदाताओं की स्वाभाविक पसंद बनने आदि अनेक कारणों के समन्वय से सत्ता के करीब पहुंच गए और जबर्दस्ती उस कुर्सी पर बैठा दिए गए थे। अब कुर्सी में बैठे हुए तो वह देश भर में लोक सभा चुनावों के प्रचार के लिए जा नहीं सकते थे, इसलिए यहां सत्ता छोड़ी और अगले दिन ही अपने 20 लोक सभा प्रत्याशियों की पहली सूची की घोषणा कर चुनाव की तैयारियों में जुट गए। सत्ता न छोड़ते तो दिल्ली की समस्याओं में ही उलझे रहते। जितने दिन सत्ता में रहते, जनता उतने दिनों का हिसाब मांगती।
केजरीवाल को अपने 49 दिन के कार्यकाल के बाद इस हकीकत को स्वीकार करना होगा कि बाहर से किसी पर भी आरोप लगाना आसान है, खुद अंदर जाकर, बिना स्थितियों और दूसरों पर ठीकरा फोड़े वहां टिककर स्थितियों को ठीक करना बेहद कठिन काम है। परिस्थितियां चाहे जो भी रही हों, सच्चाई यह है कि आप 50 दिन भी दिल्ली की सीएम की कुर्सी को नहीं संभाल या झेल पाए, और अब जनता को नया ख्वाब दिखा रहे हैं कि पांच साल के लिए देश के पीएम की कुर्सी को संभाल लेंगे। चलिए मान लेते हैं कि आप दिल्ली के पीएम बन जाते हैं, अब आपको केवल भाजपा-कांग्रेस को ही नहीं, देश की सैकड़ों पार्टियों को किसी ना किसी रूप में झेलना पड़ेगा। आपके सत्ता में आते ही उनके, और जिस मशीनरी के भरोसे आप व्यवस्थाएं सुधारना चाहते हैं, उनके अपने राजनीतिक हित, भ्रष्टाचार की आदतें रातों-रात सुधर नहीं जाने वाली हैं। वैसे आप किसी भी के साथ समझौता ना करने का भी वादा कर चुके हैं, और ‘एकोऽहम् द्वितियो नास्ति’ के सिद्धांत पर चलते हैं। फिर कैसे आप देश को पांच दिन भी चला लेंगे। 
अब ‘आप’ सोचें कि आपने स्वयं का और आप से उम्मीदें लगाये बैठी जनता का कितना नुकसान कर डाला है। बेहतर होता कि आप दिल्ली से ही औरअधिक राजनीतिक अनुभव लेते, तभी आप का भ्रष्टाचार मुक्ति और कथित तौर पर आम आदमी के हाथ में सरकार देने का ख्वाब पूरा होता। आपकी सरकार ने अपने चुनावी वादे निभाते हुए दिल्ली में पानी व बिजली के बिलों में जो कटौती की है, उसे अगली सरकार भी क्रियान्वयित करेगी, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। ऐसे में क्या अच्छा ना होता कि दिल्ली की बिन मांगे ही मिली गद्दी पर आप स्वयं को साबित करते। स्वयं को और राजनीतिक रूप से परिपक्व बनाते और फिर अपनी ऊर्जा और शक्तियों का लाभ देश को पहुंचाते। यह जल्दबाजी में कुमाउनी की उक्ति ‘तात्तै खाऊं, जल मरूं’ (गर्मा-गर्म खाकर जल मरूं) की तर्ज पर आत्महत्या करने की क्या जरूरत थी। ऐसे में आप तो ‘आधी छोड़ सारी को धाये, सारी मिले ना आधी पाये’ की तर्ज पर कहीं के न रहे। हाँ, यह जरूर कर लेंगे कि दिल्ली की तरह देश में भी 'वोट कटुवा' पार्टी साबित होकर खंडित जनादेश दिलाएंगे, देश को भी दिल्ली की तरह मध्यावधि चुनावों में धकेलेंगे। 

Friday, February 14, 2014

इस झाड़ू ने तो गंदगी ही अधिक फैला दी....

AAP
खिर वही हुआ, जिसका डर था। केजरीवाल दिल्ली विधानसभा में सरकार बनाना ही नहीं चाहते थे। बहुत मजबूरी-जनदबाव में बनानी पड़ी तो बना ली। और आगे हर कदम, एक कदम सत्ता सुख (बंगला-गाड़ी) बटोरते और फिर मानो याद आते ही ठुकराते चले। क्योंकि नजरें तो दिल्ली की बड़ी कुरसी पर लगी थीं। जन लोकपाल बिल शर्तिया गिर जाएगा, पता था। बिल पास ना होगा तो इस्तीफा दे देंगे, की घोषणा कर चुके थे। बिल विधानसभा के पटल पर रख भी दिया। फिर ठिठके, बिल रखे जाने पर सहमति-असहमति की वोटिंग करवाने को राजी हो गए। इस्तीफा दिया, और चलते बने। किसी ने कहा-पहले ही कहा था, झाड़ू दो-तीन महीने से अधिक नहीं चलती। सफाई भी तब करती है, जब सफाई करने वाले हाथ अनुभवी हों, उन हाथों में सफाई करने की दृढ़ इच्छा शक्ति हो, नीयत हो। और ना हो, तो यही होता है, सफाई कम होती है-गंदगी अधिक फैल जाती है। केजरीवाल सरकार ने 49 दिनों में क्या खोया-क्या पाया, इस पर बिना दिमाग खपाए भी विश्लेषण किया जाए तो हर कोई यही कहेगा-इस झाड़ू ने तो गंदगी ही अधिक फैला दी। 
पहले नां का वादा किया था, लेकिन पहले बड़े डुप्लेक्स, फिर गाड़ियों पर ललचाए। बच्चे की क्रिकेट बॉल से हमला बता दिया। कानून मंत्री खुद ही पुलिस बन कानून तोड़ने लगे। दो पुलिस वालों को हटवाने के लिए धरना दिया, फिर भी उन्हें नहीं हटा पाए। पानी-बिजली के बिल घटाए भी तो सब्सिडी से और आधे किए तो सिर्फ ‘अपनों’ के (वह भी सरकार जाने के बाद पता नहीं होंगे भी या नहीं)। वादे के अनुरूप शीला के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। यानी कुल मिलाकर अपनी साख ही गिराई। जनता को उम्मीद बंधाकर उम्मीदों पर पानी फेर दिया। सरकार बनाते समय तो जनता की राय ली थी, गिराते वक्त राय नहीं ली। मौका था, लेकिन जरूरत ही नहीं समझी। इसका अंदाजा राजनीति के जानने वालों को पहले से ही था।
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि जो सीएम पद की कुर्सी पर 50 दिन पूरे नहीं कर पाये, क्या पीएम पद की कुर्सी पर 5 साल बैठने का ख्वाब देखने योग्य भी हें। उल्टे कहीं 'आधी छोड़ सारी को धाये, आधी मिले न पूरी पावे' कि उक्ति चरितार्थ हो जाये। 

शुरू से ही अंदेशा था, इससे आगे की पोस्ट केजरीवाल के सरकार बनाने से पूर्व लिखी गयी थी : 

आम आदमी की नहीं अकेले (‘अ’ से अरविंद, ‘के’ से केजरीवा‘ले’ के दिमाग की उपज) की है आप 

सबसे पहले क्या अरविन्द ही इकलौते ‘आम आदमी’ हैं... ?
दिल्ली को मध्यावधि चुनावों की और धकेलने का फैसला अरविन्द केजरीवाल का है या कि ‘कथित आम आदमी’ का ? क्या दिल्ली का ‘आम आदमी’ वाकई यही चाहता है ? या केवल ‘आम आदमी’ के नाम पर ‘आम आदमी’ को ही ‘बेवकूफ’ बना रहे ‘आम आदमी पार्टी’ के सर्वेसर्वा-अरविन्द अपने दम्भ में यह चाहते हैं ? 
नहीं तो ‘आप’ भाजपा को जन लोकपाल व अन्य मुद्दों पर सशर्त समर्थन देने की बात कर रहे प्रशांत और पूर्व सहयोगी रही किरण बेदी की तो सुनते..., क्या वह ‘आम आदमी’ नहीं हैं, या कि अरविन्द ही इकलौते ‘आम आदमी’ हैं ? कांग्रेस ने चुनाव के तत्काल बाद उन्हें बिना शर्त समर्थन देने का ऐलान कर दिया था, उसे भी आप ने नहीं माना। या कि अरविन्द चुनाव पूर्व किसी भी अन्य राजनीतिक दल की तरह, अपने ही किये असम्भव से ‘चुनावी वादों’ को पूरा करने से डर गए हैं ? वैसे भी अपने राजनीतिक गुरु अन्ना हजारे से लेकर किरन बेदी व स्वामी अग्निवेश आदि को एक-एक कर खो चुके अति ऊर्जावान अरविंद केजरीवाल की शख्सियत और उनका इतिहास आश्वस्त नहीं करता कि वह सबको साथ लेकर चल सकते हैं।

आम आदमी ने नहीं अरविंद के दिमाग ने जिताया है ‘आप’ को 
जी हां, भले विश्वास न हो, पर यही सही है। केवल एक सवाल का जवाब इस बात को स्वतः साबित कर सकता है। आम आदमी के प्रतीक-जरूरतें क्या होती हैं, जी हां, रोटी, कपड़ा और मकान। यह प्रतीक व जरूरतें भले आज के दौर में गाड़ी, बंगला भी हो गए हों तो भी झाड़ू तो कभी भी ना होंगे। केजरीवाल ने दिल्ली वालों के बिजली के कटे कनेक्शन जोड़कर और पानी के बड़े बिलों की बात से अपनी राजनीतिक पारी शुरू की थी, सो बिजली के कोई उपकरण यानी पानी के नल जैसे चुनाव चिन्ह भी उनके हो सकते थे, लेकिन ऐसा भी न हुआ। जितने लोग बीते दिनों दिल्ली की गलियों में झाड़ू हाथों में लहराते दिखे, उनमें से महिलाओं को छोड़कर कोई मुश्किल से ही अपने घर में भी झाड़ू लगाकर सफाई करते होंगे। 

लेकिन यही झाड़ू है, जिसने एक खास जाति वर्ग के लोगों को इस चुनाव चिन्ह की बदौलत ही ‘आप’ से जोड़ दिया। क्या यह सही नहीं है। और यह इत्तफाक है या कि सोची समझी रणनीति ? खुद सोच लें। यानी ‘आप’ की राजनीति जातिगत राजनीति से बाहर नहीं निकली है।

अब धर्म-पंथ की राजनीति की बात....
मौजूदा कांग्रेस-भाजपा की राजनीति से बात शुरू करते हैं। हिंदुओं और धारा 370 की बात करने वाली तथा बाबरी विध्वंस व गोधरा की आरोपी भाजपा दूसरे धर्म विशेष की घोषित रूप से दुश्मन नंबर एक है। सो इस धर्म विशेष के लोग उस पार्टी को वोट देते हैं, जिसमें भाजपा को हराने की क्षमता दिखती है, और इस कसौटी पर आम तौर पर लोक सभा चुनावों में कांग्रेस तो यूपी जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों में सपा और बसपा जैसी पार्टियों पर उनकी नेमत बरस पड़ती है। इधर दिल्ली के विस चुनावों में कांग्रेस की डूबती नैया को देखते हुए इस धर्म के मतदाताओं के पास एक ही विकल्प बचा-आप। यह है आप की जीत का दूसरा कारण। और साफ हो गया कि आप ने राजनीति को जाति व धर्म की राजनीति से बाहर नहीं निकाला।

लेकिन इसके साथ ही अब तक देश में कांग्रेस के कुशासन के विकल्प के रूप में मोदी को देख रहे नवमतदाताओं के मन में दिल्ली विस चुनावों के दौरान आप निःसंदेह एक विकल्प के उभरी। अन्ना के आंदोलन और निर्भया मामले में दिल्ली की सड़कों पर उतरे दक्षिणपंथी व राष्ट्रवादी विचारों की राजनीति के इन नवांकुरों को भी लगा कि विस चुनावों में आप को आजमा लिया जाए, और यह फैक्टर भी आप की जीत का एक कारण बना। 

एक अन्य कोण पर दिल्ली में उपभोक्तावाद, पश्चिमीकरण आदि प्रतिमानों के साथ बामपंथी विचारधारा के लोगों के समक्ष अब तक किसी अन्य विकल्प के अभाव में कांग्रेस को ही वोट डालने की मजबूरी रहती थी। इस वर्ग को इस बार के चुनावों में आप अपने अधिक करीब नजर आई। उनके समक्ष अपने प्रभाव क्षेत्रों में खिसकती जमीन को उर्वर और उन्नत बताने की मजबूरी भी थी, सो उन्होंने  भी आप को वोट दिए, और हो गया इस राजनीतिक कॉकटेल से आप का पहले चुनावों में करिश्माई प्रदर्शन।

भविष्य की चिंताएं...
अब यह भी देख लें कि दिल्ली की जनता से प्रति परिवार प्रतिदिन 700 लीटर पीने का पानी और मौजूदा से आधी दर पर बिजली देने का वादा करने के बाद किसी तरह उसे पूरा करने का जोखिम लेने से बच रही आप का भविष्य क्या हो सकता है। 

देश के लोकतांत्रिक राजनीतिक इतिहास में यह 70 के दशक से ही देखा जा रहा है कि जिस दल या उसके नेता ने देश या किसी राज्य को अपनी हठधर्मिता के कारण मध्यावधि चुनाव की आग में धकेला उसका हश्र क्या हुआ। फरवरी-2005 के बिहार विधानसभा के चुनाव में आप की ही तरह राजद से अलग होकर बंगला चुनाव चिन्ह के साथ रामविलास पासवान अपनी लोक जन शक्ति पार्टी-लोजपा को 29 विधायक जिता लाए थे, लेकिन उन्होंने नितीश कुमार को समर्थन नहीं दिया, फलस्वरूप बिहार में राष्ट्रपति शासन लग गया, जिसके बाद अक्टूबर-2005 में हुए मध्यावधि चुनाव में लोजपा 10 सीटों पर और आगे 2010 के चुनाव में महज 4 सीटों पर सिमट गई, बाद में उनमें से भी तीन विधायक जदयू में शामिल हो गए। देश को मध्यावधि चुनावों की ओर धकेलने वाली मोरारजी देसाई सरकार के साथ भी यही कुछ हुआ था।

आप की तरह आंध्र में 1983 में ‘तेलुगु देशम’ और 1985 में असम में तब महज छात्र संघ रहे प्रफुल्ल कुमार महंत की अगुवाई वाले ‘असम गंण परिषद’ ने अनुपात की दृष्टि से आप से भी अधिक सीटें हासिल की थीं, लेकिन बाद में वह भी मुख्य धारा की राजनीति में ही बिला गईं। 

आप वर्तमान दौर में एक-दूसरे के कार्बन कॉपी कहे जाने वाले कांग्रेस-भाजपा जैसे मौजूदा राजनीतिक दलों के बीच जनता में उपजी राजनीतिक थकान के बीच नई ऊर्जा का संचार करती हुई उम्मीद तो जगाती है, लेकिन अपने मुखिया और ना कहते हुए भी ‘एकोऽहम् द्वितियो नास्ति’ के पुरोधा नजर आ रहे अरविंद केजरीवाल के दंभ से डरा भी रही है, कि वह अपने पहले कदम से ही मौजूदा अन्य राजनीतिक दलों जैसा ही व्यवहार कर रही है। चुनाव परिणामों के बाद भाजपा की ही तरह उसने भी आम जनता की भावनाओं नहीं वरन राजनीतिक नफा-नुकसान देखकर सरकार बनाने से तौबा कर ली है। चुनाव के दौरान उसने कांग्रेस को निसाने पर लिया, और भाजपा के खिलाफ मुंह नहीं खोला, क्योंकि यहां उसे कांग्रेस को सत्ता से च्युत करना था और इस लड़ाई में उसके साथ मोदी को प्रधानमंत्री देखने वाले युवा भी थे। और परिणाम आने से हौंसले बुलंद होने के बाद भाजपा को नंबर वन दुश्मन करार दे दिया है, क्योंकि यहां से उन्हें लगता है कि आज के दौर के बड़े दुश्मन को वह हरा चुके हैं, और इस ताकत से वह अपने बड़े दुश्मन से भी पार पा लेंगे, नहीं भी तो इस लोक सभा चुनाव में अपनी राष्ट्रीय पहचान तो बना ही लेंगे। 

और आखिर में केवला इतना कि एक राजनीतिक दल के रूप में 'आप' जो कर रही है, उससे किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि उसे एक राजनीतिक दल के रूप में राजनीतिक नफे-नुकसान का हिसाब लगाकर हर निर्णय लेने की स्वतंत्रता और पूर्ण अधिकार है। बस अगर वह ‘आम आदमी’ का नाम लेकर ढोंग करेगी तो शायद जनता उसे दूसरा मौका नहीं देगी। 

कैसे बना अरविंद केजरीवाल , जानिए पूरी कहानी!

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली एनजीओ गिरोह ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी)’ ने घोर सांप्रदायिक ‘सांप्रदायिक और लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण अधिनियम’ का ड्राफ्ट तैयार किया है। एनएसी की एक प्रमुख सदस्य अरुणा राय के साथ मिलकर अरविंद केजरीवाल ने सरकारी नौकरी में रहते हुए एनजीओ की कार्यप्रणाली समझी और फिर ‘परिवर्तन’ नामक एनजीओ से जुड़ गए। अरविंद लंबे अरसे तक राजस्व विभाग से छुटटी लेकर भी सरकारी तनख्वाह ले रहे थे और एनजीओ से भी वेतन उठा रहे थे, जो ‘श्रीमान ईमानदार’ को कानूनन भ्रष्टा चारी की श्रेणी में रखता है। वर्ष 2006 में ‘परिवर्तन’ में काम करने के दौरान ही उन्हें अमेरिकी ‘फोर्ड फाउंडेशन’ व ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ ने ‘उभरते नेतृत्व’ के लिए ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार दिया, जबकि उस वक्त तक अरविंद ने ऐसा कोई काम नहीं किया था, जिसे उभरते हुए नेतृत्व का प्रतीक माना जा सके। इसके बाद अरविंद अपने पुराने सहयोगी मनीष सिसोदिया के एनजीओ ‘कबीर’ से जुड़ गए, जिसका गठन इन दोनों ने मिलकर वर्ष 2005 में किया था।
अरविंद को समझने से पहले ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ को समझ लीजिए!
अमेरिकी नीतियों को पूरी दुनिया में लागू कराने के लिए अमेरिकी खुफिया ब्यूरो ‘सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए)’ अमेरिका की मशहूर कार निर्माता कंपनी ‘फोर्ड’ द्वारा संचालित ‘फोर्ड फाउंडेशन’ एवं कई अन्य फंडिंग एजेंसी के साथ मिलकर काम करती रही है। 1953 में फिलिपिंस की पूरी राजनीति व चुनाव को सीआईए ने अपने कब्जे में ले लिया था। भारतीय अरविंद केजरीवाल की ही तरह सीआईए ने उस वक्त फिलिपिंस में ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ को खड़ा किया था और उन्हें फिलिपिंस का राष्ट्रपति बनवा दिया था। अरविंद केजरीवाल की ही तरह ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ का भी पूर्व का कोई राजनैतिक इतिहास नहीं था। ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ के जरिए फिलिपिंस की राजनीति को पूरी तरह से अपने कब्जे में करने के लिए अमेरिका ने उस जमाने में प्रचार के जरिए उनका राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ‘छवि निर्माण’ से लेकर उन्हें ‘नॉसियोनालिस्टा पार्टी’ का उम्मीदवार बनाने और चुनाव जिताने के लिए करीब 5 मिलियन डॉलर खर्च किया था। तत्कालीन सीआईए प्रमुख एलन डॉउल्स की निगरानी में इस पूरी योजना को उस समय के सीआईए अधिकारी ‘एडवर्ड लैंडस्ले’ ने अंजाम दिया था। इसकी पुष्टि 1972 में एडवर्ड लैंडस्ले द्वारा दिए गए एक साक्षात्कार में हुई।
ठीक अरविंद केजरीवाल की ही तरह रेमॉन मेग्सेसाय की ईमानदार छवि को गढ़ा गया और ‘डर्टी ट्रिक्स’ के जरिए विरोधी नेता और फिलिपिंस के तत्कालीन राष्ट्रपति ‘क्वायरिनो’ की छवि धूमिल की गई। यह प्रचारित किया गया कि क्वायरिनो भाषण देने से पहले अपना आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ड्रग का उपयोग करते हैं। रेमॉन मेग्सेसाय की ‘गढ़ी गई ईमानदार छवि’ और क्वायरिनो की ‘कुप्रचारित पतित छवि’ ने रेमॉन मेग्सेसाय को दो तिहाई बहुमत से जीत दिला दी और अमेरिका अपने मकसद में कामयाब रहा था। भारत में इस समय अरविंद केजरीवाल बनाम अन्य राजनीतिज्ञों की बीच अंतर दर्शाने के लिए छवि गढ़ने का जो प्रचारित खेल चल रहा है वह अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए द्वारा अपनाए गए तरीके और प्रचार से बहुत कुछ मेल खाता है।
उन्हीं ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ के नाम पर एशिया में अमेरिकी नीतियों के पक्ष में माहौल बनाने वालों, वॉलेंटियर तैयार करने वालों, अपने देश की नीतियों को अमेरिकी हित में प्रभावित करने वालों, भ्रष्टायचार के नाम पर देश की चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करने वालों को ‘फोर्ड फाउंडेशन’ व ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ मिलकर अप्रैल 1957 से ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ अवार्ड प्रदान कर रही है। ‘आम आदमी पार्टी’ के संयोजक अरविंद केजरीवाल और उनके साथी व ‘आम आदमी पार्टी’ के विधायक मनीष सिसोदिया को भी वही ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार मिला है और सीआईए के लिए फंडिंग करने वाली उसी ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के फंड से उनका एनजीओ ‘कबीर’ और ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ मूवमेंट खड़ा हुआ है।
भारत में राजनैतिक अस्थिरता के लिए एनजीओ और मीडिया में विदेशी फंडिंग! 
‘फोर्ड फाउंडेशन’ के एक अधिकारी स्टीवन सॉलनिक के मुताबिक ‘‘कबीर को फोर्ड फाउंडेशन की ओर से वर्ष 2005 में 1 लाख 72 हजार डॉलर एवं वर्ष 2008 में 1 लाख 97 हजार अमेरिकी डॉलर का फंड दिया गया।’’ यही नहीं, ‘कबीर’ को ‘डच दूतावास’ से भी मोटी रकम फंड के रूप में मिली। अमेरिका के साथ मिलकर नीदरलैंड भी अपने दूतावासों के जरिए दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में अमेरिकी-यूरोपीय हस्तक्षेप बढ़ाने के लिए वहां की गैर सरकारी संस्थाओं यानी एनजीओ को जबरदस्त फंडिंग करती है।
अंग्रेजी अखबार ‘पॉयनियर’ में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक डच यानी नीदरलैंड दूतावास अपनी ही एक एनजीओ ‘हिवोस’ के जरिए नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार को अस्थिर करने में लगे विभिन्‍न भारतीय एनजीओ को अप्रैल 2008 से 2012 के बीच लगभग 13 लाख यूरो, मतलब करीब सवा नौ करोड़ रुपए की फंडिंग कर चुकी है। इसमें एक अरविंद केजरीवाल का एनजीओ भी शामिल है। ‘हिवोस’ को फोर्ड फाउंडेशन भी फंडिंग करती है।
डच एनजीओ ‘हिवोस’ दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में केवल उन्हीं एनजीओ को फंडिंग करती है,जो अपने देश व वहां के राज्यों में अमेरिका व यूरोप के हित में राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने की क्षमता को साबित करते हैं। इसके लिए मीडिया हाउस को भी जबरदस्त फंडिंग की जाती है। एशियाई देशों की मीडिया को फंडिंग करने के लिए अमेरिका व यूरोपीय देशों ने ‘पनोस’ नामक संस्था का गठन कर रखा है। दक्षिण एशिया में इस समय ‘पनोस’ के करीब आधा दर्जन कार्यालय काम कर रहे हैं। ‘पनोस’ में भी फोर्ड फाउंडेशन का पैसा आता है। माना जा रहा है कि अरविंद केजरीवाल के मीडिया उभार के पीछे इसी ‘पनोस’ के जरिए ‘फोर्ड फाउंडेशन’ की फंडिंग काम कर रही है। ‘सीएनएन-आईबीएन’ व ‘आईबीएन-7’ चैनल के प्रधान संपादक राजदीप सरदेसाई ‘पॉपुलेशन काउंसिल’ नामक संस्था के सदस्य हैं, जिसकी फंडिंग अमेरिका की वही ‘रॉकफेलर ब्रदर्स’ करती है जो ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार के लिए ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के साथ मिलकर फंडिंग करती है।
माना जा रहा है कि ‘पनोस’ और ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ की फंडिंग का ही यह कमाल है कि राजदीप सरदेसाई का अंग्रेजी चैनल ‘सीएनएन-आईबीएन’ व हिंदी चैनल ‘आईबीएन-7’ न केवल अरविंद केजरीवाल को ‘गढ़ने’ में सबसे आगे रहे हैं, बल्कि 21 दिसंबर 2013 को ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ का पुरस्कार भी उसे प्रदान किया है। ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ के पुरस्कार की प्रयोजक कंपनी ‘जीएमआर’ भ्रष्टािचार में में घिरी है।
‘जीएमआर’ के स्वामित्व वाली ‘डायल’ कंपनी ने देश की राजधानी दिल्ली में इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा विकसित करने के लिए यूपीए सरकार से महज 100 रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से जमीन हासिल किया है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ‘सीएजी’ ने 17 अगस्त 2012 को संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जीएमआर को सस्ते दर पर दी गई जमीन के कारण सरकारी खजाने को 1 लाख 63 हजार करोड़ रुपए का चूना लगा है। इतना ही नहीं, रिश्वत देकर अवैध तरीके से ठेका हासिल करने के कारण ही मालदीव सरकार ने अपने देश में निर्मित हो रहे माले हवाई अड्डा का ठेका जीएमआर से छीन लिया था। सिंगापुर की अदालत ने जीएमआर कंपनी को भ्रष्टााचार में शामिल होने का दोषी करार दिया था। तात्पर्य यह है कि अमेरिकी-यूरोपीय फंड, भारतीय मीडिया और यहां यूपीए सरकार के साथ घोटाले में साझीदार कारपोरेट कंपनियों ने मिलकर अरविंद केजरीवाल को ‘गढ़ा’ है, जिसका मकसद आगे पढ़ने पर आपको पता चलेगा।
‘जनलोकपाल आंदोलन’ से ‘आम आदमी पार्टी’ तक का शातिर सफर!
आरोप है कि विदेशी पुरस्कार और फंडिंग हासिल करने के बाद अमेरिकी हित में अरविंद केजरीवाल व मनीष सिसोदिया ने इस देश को अस्थिर करने के लिए ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ का नारा देते हुए वर्ष 2011 में ‘जनलोकपाल आंदोलन’ की रूप रेखा खिंची। इसके लिए सबसे पहले बाबा रामदेव का उपयोग किया गया, लेकिन रामदेव इन सभी की मंशाओं को थोड़ा-थोड़ा समझ गए थे। स्वामी रामदेव के मना करने पर उनके मंच का उपयोग करते हुए महाराष्ट्र के सीधे-साधे, लेकिन भ्रष्टानचार के विरुद्ध कई मुहीम में सफलता हासिल करने वाले अन्ना हजारे को अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली से उत्तर भारत में ‘लॉंच’ कर दिया। अन्ना हजारे को अरिवंद केजरीवाल की मंशा समझने में काफी वक्त लगा, लेकिन तब तक जनलोकपाल आंदोलन के बहाने अरविंद ‘कांग्रेस पार्टी व विदेशी फंडेड मीडिया’ के जरिए देश में प्रमुख चेहरा बन चुके थे। जनलोकपाल आंदोलन के दौरान जो मीडिया अन्ना-अन्ना की गाथा गा रही थी, ‘आम आदमी पार्टी’ के गठन के बाद वही मीडिया अन्ना को असफल साबित करने और अरविंद केजरीवाल के महिमा मंडन में जुट गई।
विदेशी फंडिंग तो अंदरूनी जानकारी है, लेकिन उस दौर से लेकर आज तक अरविंद केजरीवाल को प्रमोट करने वाली हर मीडिया संस्थान और पत्रकारों के चेहरे को गौर से देखिए। इनमें से अधिकांश वो हैं, जो कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के द्वारा अंजाम दिए गए 1 लाख 76 हजार करोड़ के 2जी स्पेक्ट्रम, 1 लाख 86 हजार करोड़ के कोल ब्लॉक आवंटन, 70 हजार करोड़ के कॉमनवेल्थ गेम्स और ‘कैश फॉर वोट’ घोटाले में समान रूप से भागीदार हैं।
आगे बढ़ते हैं…! अन्ना जब अरविंद और मनीष सिसोदिया के पीछे की विदेशी फंडिंग और उनकी छुपी हुई मंशा से परिचित हुए तो वह अलग हो गए, लेकिन इसी अन्ना के कंधे पर पैर रखकर अरविंद अपनी ‘आम आदमी पार्टी’ खड़ा करने में सफल रहे। जनलोकपाल आंदोलन के पीछे ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के फंड को लेकर जब सवाल उठने लगा तो अरविंद-मनीष के आग्रह व न्यूयॉर्क स्थित अपने मुख्यालय के आदेश पर फोर्ड फाउंडेशन ने अपनी वेबसाइट से ‘कबीर’ व उसकी फंडिंग का पूरा ब्यौरा ही हटा दिया। लेकिन उससे पहले अन्ना आंदोलन के दौरान 31 अगस्त 2011 में ही फोर्ड के प्रतिनिधि स्टीवेन सॉलनिक ने ‘बिजनस स्टैंडर’ अखबार में एक साक्षात्कार दिया था, जिसमें यह कबूल किया था कि फोर्ड फाउंडेशन ने ‘कबीर’ को दो बार में 3 लाख 69 हजार डॉलर की फंडिंग की है। स्टीवेन सॉलनिक के इस साक्षात्कार के कारण यह मामला पूरी तरह से दबने से बच गया और अरविंद का चेहरा कम संख्या में ही सही, लेकिन लोगों के सामने आ गया।
सूचना के मुताबिक अमेरिका की एक अन्य संस्था ‘आवाज’ की ओर से भी अरविंद केजरीवाल को जनलोकपाल आंदोलन के लिए फंड उपलब्ध कराया गया था और इसी ‘आवाज’ ने दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भी अरविंद केजरीवाल की ‘आम आदमी पार्टी’ को फंड उपलब्ध कराया। सीरिया, इजिप्ट, लीबिया आदि देश में सरकार को अस्थिर करने के लिए अमेरिका की इसी ‘आवाज’ संस्था ने वहां के एनजीओ, ट्रस्ट व बुद्धिजीवियों को जमकर फंडिंग की थी। इससे इस विवाद को बल मिलता है कि अमेरिका के हित में हर देश की पॉलिसी को प्रभावित करने के लिए अमेरिकी संस्था जिस ‘फंडिंग का खेल’ खेल खेलती आई हैं, भारत में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और ‘आम आदमी पार्टी’ उसी की देन हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वकील एम.एल.शर्मा ने अरविंद केजरीवाल व मनीष सिसोदिया के एनजीओ व उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ में चुनावी चंदे के रूप में आए विदेशी फंडिंग की पूरी जांच के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल कर रखी है। अदालत ने इसकी जांच का निर्देश दे रखा है, लेकिन केंद्रीय गृहमंत्रालय इसकी जांच कराने के प्रति उदासीनता बरत रही है, जो केंद्र सरकार को संदेह के दायरे में खड़ा करता है। वकील एम.एल.शर्मा कहते हैं कि ‘फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट-2010’ के मुताबिक विदेशी धन पाने के लिए भारत सरकार की अनुमति लेना आवश्यक है। यही नहीं, उस राशि को खर्च करने के लिए निर्धारित मानकों का पालन करना भी जरूरी है। कोई भी विदेशी देश चुनावी चंदे या फंड के जरिए भारत की संप्रभुता व राजनैतिक गतिविधियों को प्रभावित नहीं कर सके, इसलिए यह कानूनी प्रावधान किया गया था, लेकिन अरविंद केजरीवाल व उनकी टीम ने इसका पूरी तरह से उल्लंघन किया है। बाबा रामदेव के खिलाफ एक ही दिन में 80 से अधिक मुकदमे दर्ज करने वाली कांग्रेस सरकार की उदासीनता दर्शाती है कि अरविंद केजरीवाल को वह अपने राजनैतिक फायदे के लिए प्रोत्साहित कर रही है।
अमेरिकी ‘कल्चरल कोल्ड वार’ के हथियार हैं अरविंद केजरीवाल!
फंडिंग के जरिए पूरी दुनिया में राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने की अमेरिका व उसकी खुफिया एजेंसी ‘सीआईए’ की नीति को ‘कल्चरल कोल्ड वार’ का नाम दिया गया है। इसमें किसी देश की राजनीति, संस्कृति व उसके लोकतंत्र को अपने वित्त व पुरस्कार पोषित समूह, एनजीओ, ट्रस्ट, सरकार में बैठे जनप्रतिनिधि, मीडिया और वामपंथी बुद्धिजीवियों के जरिए पूरी तरह से प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है। अरविंद केजरीवाल ने ‘सेक्यूलरिज्म’ के नाम पर इसकी पहली झलक अन्ना के मंच से ‘भारत माता’ की तस्वीर को हटाकर दे दिया था। चूंकि इस देश में भारत माता के अपमान को ‘सेक्यूलरिज्म का फैशनेबल बुर्का’ समझा जाता है, इसलिए वामपंथी बुद्धिजीवी व मीडिया बिरादरी इसे अरविंद केजरीवाल की धर्मनिरपेक्षता साबित करने में सफल रही।
एक बार जो धर्मनिरपेक्षता का गंदा खेल शुरू हुआ तो फिर चल निकला और ‘आम आदमी पार्टी’ के नेता प्रशांत भूषण ने तत्काल कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का सुझाव दे दिया। प्रशांत भूषण यहीं नहीं रुके, उन्होंने संसद हमले के मुख्य दोषी अफजल गुरु की फांसी का विरोध करते हुए यह तक कह दिया कि इससे भारत का असली चेहरा उजागर हो गया है। जैसे वह खुद भारत नहीं, बल्कि किसी दूसरे देश के नागरिक हों?
प्रशांत भूषण लगातार भारत विरोधी बयान देते चले गए और मीडिया व वामपंथी बुद्धिजीवी उनकी आम आदमी पार्टी को ‘क्रांतिकारी सेक्यूलर दल’ के रूप में प्रचारित करने लगी। प्रशांत भूषण को हौसला मिला और उन्होंने केंद्र सरकार से कश्मीर में लागू एएफएसपीए कानून को हटाने की मांग करते हुए कह दिया कि सेना ने कश्मीरियों को इस कानून के जरिए दबा रखा है। इसके उलट हमारी सेना यह कह चुकी है कि यदि इस कानून को हटाया जाता है तो अलगाववादी कश्मीर में हावी हो जाएंगे।
अमेरिका का हित इसमें है कि कश्मीर अस्थिर रहे या पूरी तरह से पाकिस्तान के पाले में चला जाए ताकि अमेरिका यहां अपना सैन्य व निगरानी केंद्र स्थापित कर सके। यहां से दक्षिण-पश्चिम व दक्षिण-पूर्वी एशिया व चीन पर नजर रखने में उसे आसानी होगी। आम आदमी पार्टी के नेता प्रशांत भूषण अपनी झूठी मानवाधिकारवादी छवि व वकालत के जरिए इसकी कोशिश पहले से ही करते रहे हैं और अब जब उनकी ‘अपनी राजनैतिक पार्टी’ हो गई है तो वह इसे राजनैतिक रूप से अंजाम देने में जुटे हैं। यह एक तरह से ‘लिटमस टेस्ट’ था, जिसके जरिए आम आदमी पार्टी ‘ईमानदारी’ और ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ का ‘कॉकटेल’ तैयार कर रही थी।
8 दिसंबर 2013 को दिल्ली की 70 सदस्यीय विधानसभा चुनाव में 28 सीटें जीतने के बाद अपनी सरकार बनाने के लिए अरविंद केजरीवाल व उनकी पार्टी द्वारा आम जनता को अधिकार देने के नाम पर जनमत संग्रह का जो नाटक खेला गया, वह काफी हद तक इस ‘कॉकटेल’ का ही परीक्षण है। सवाल उठने लगा है कि यदि देश में आम आदमी पार्टी की सरकार बन जाए और वह कश्मीर में जनमत संग्रह कराते हुए उसे पाकिस्तान के पक्ष में बता दे तो फिर क्या होगा?
आखिर जनमत संग्रह के नाम पर उनके ‘एसएमएस कैंपेन’ की पारदर्शिता ही कितनी है? अन्ना हजारे भी एसएमएस कार्ड के नाम पर अरविंद केजरीवाल व उनकी पार्टी द्वारा की गई धोखाधड़ी का मामला उठा चुके हैं। दिल्ली के पटियाला हाउस अदालत में अन्ना व अरविंद को पक्षकार बनाते हुए एसएमएस कार्ड के नाम पर 100 करोड़ के घोटाले का एक मुकदमा दर्ज है। इस पर अन्ना ने कहा, ‘‘मैं इससे दुखी हूं, क्योंकि मेरे नाम पर अरविंद के द्वारा किए गए इस कार्य का कुछ भी पता नहीं है और मुझे अदालत में घसीट दिया गया है, जो मेरे लिए बेहद शर्म की बात है।’’
प्रशांत भूषण, अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और उनके ‘पंजीकृत आम आदमी’ ने जब देखा कि ‘भारत माता’ के अपमान व कश्मीर को भारत से अलग करने जैसे वक्तव्य पर ‘मीडिया-बुद्धिजीवी समर्थन का खेल’ शुरू हो चुका है तो उन्होंने अपनी ईमानदारी की चासनी में कांग्रेस के छद्म सेक्यूलरवाद को मिला लिया। उनके बयान देखिए, प्रशांत भूषण ने कहा, ‘इस देश में हिंदू आतंकवाद चरम पर है’, तो प्रशांत के सुर में सुर मिलाते हुए अरविंद ने कहा कि ‘बाटला हाउस एनकाउंटर फर्जी था और उसमें मारे गए मुस्लिम युवा निर्दोष थे।’ इससे दो कदम आगे बढ़ते हुए अरविंद केजरीवाल उत्तरप्रदेश के बरेली में दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार हो चुके तौकीर रजा और जामा मस्जिद के मौलाना इमाम बुखारी से मिलकर समर्थन देने की मांग की।
याद रखिए, यही इमाम बुखरी हैं, जो खुले आम दिल्ली पुलिस को चुनौती देते हुए कह चुके हैं कि ‘हां, मैं पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का एजेंट हूं, यदि हिम्मत है तो मुझे गिरफ्तार करके दिखाओ।’ उन पर कई आपराधिक मामले दर्ज हैं, अदालत ने उन्हें भगोड़ा घोषित कर रखा है लेकिन दिल्ली पुलिस की इतनी हिम्मत नहीं है कि वह जामा मस्जिद जाकर उन्हें गिरफ्तार कर सके। वहीं तौकीर रजा का पुराना सांप्रदायिक इतिहास है। वह समय-समय पर कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के पक्ष में मुसलमानों के लिए फतवा जारी करते रहे हैं। इतना ही नहीं, वह मशहूर बंग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन की हत्या करने वालों को ईनाम देने जैसा घोर अमानवीय फतवा भी जारी कर चुके हैं।
नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए फेंका गया ‘आखिरी पत्ता’ हैं अरविंद! 
दरअसल विदेश में अमेरिका, सउदी अरब व पाकिस्तान और भारत में कांग्रेस व क्षेत्रीय पाटियों की पूरी कोशिश नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव को रोकने की है। मोदी न अमेरिका के हित में हैं, न सउदी अरब व पाकिस्तान के हित में और न ही कांग्रेस पार्टी व धर्मनिरेपक्षता का ढोंग करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के हित में। मोदी के आते ही अमेरिका की एशिया केंद्रित पूरी विदेश, आर्थिक व रक्षा नीति तो प्रभावित होगी ही, देश के अंदर लूट मचाने में दशकों से जुटी हुई पार्टियों व नेताओं के लिए भी जेल यात्रा का माहौल बन जाएगा। इसलिए उसी भ्रष्टामचार को रोकने के नाम पर जनता का भावनात्मक दोहन करते हुए ईमानदारी की स्वनिर्मित धरातल पर ‘आम आदमी पार्टी’ का निर्माण कराया गया है।
दिल्ली में भ्रष्टाीचार और कुशासन में फंसी कांग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की 15 वर्षीय सत्ता के विरोध में उत्पन्न लहर को भाजपा के पास सीधे जाने से रोककर और फिर उसी कांग्रेस पार्टी के सहयोग से ‘आम आदमी पार्टी’ की सरकार बनाने का ड्रामा रचकर अरविंद केजरीवाल ने भाजपा को रोकने की अपनी क्षमता को दर्शा दिया है। अरविंद केजरीवाल द्वारा सरकार बनाने की हामी भरते ही केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा, ‘‘भाजपा के पास 32 सीटें थी, लेकिन वो बहुमत के लिए 4 सीटों का जुगाड़ नहीं कर पाई। हमारे पास केवल 8 सीटें थीं, लेकिन हमने 28 सीटों का जुगाड़ कर लिया और सरकार भी बना ली।’’
कपिल सिब्बल का यह बयान भाजपा को रोकने के लिए अरविंद केजरीवाल और उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ को खड़ा करने में कांग्रेस की छुपी हुई भूमिका को उजागर कर देता है। वैसे भी अरविंद केजरीवाल और शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित एनजीओ के लिए साथ काम कर चुके हैं। तभी तो दिसंबर-2011 में अन्ना आंदोलन को समाप्त कराने की जिम्मेवारी यूपीए सरकार ने संदीप दीक्षित को सौंपी थी। ‘फोर्ड फाउंडेशन’ ने अरविंद व मनीष सिसोदिया के एनजीओ को 3 लाख 69 हजार डॉलर तो संदीप दीक्षित के एनजीओ को 6 लाख 50 हजार डॉलर का फंड उपलब्ध कराया है। शुरू-शुरू में अरविंद केजरीवाल को कुछ मीडिया हाउस ने शीला-संदीप का ‘ब्रेन चाइल्ड’ बताया भी था, लेकिन यूपीए सरकार का इशारा पाते ही इस पूरे मामले पर खामोशी अख्तियार कर ली गई।
‘आम आदमी पार्टी’ व उसके नेता अरविंद केजरीवाल की पूरी मंशा को इस पार्टी के संस्थापक सदस्य व प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण ने ‘मेल टुडे’ अखबार में लिखे अपने एक लेख में जाहिर भी कर दिया था, लेकिन बाद में प्रशांत-अरविंद के दबाव के कारण उन्होंने अपने ही लेख से पल्ला झाड़ लिया और ‘मेल टुडे’ अखबार के खिलाफ मुकदमा कर दिया। ‘मेल टुडे’ से जुड़े सूत्र बताते हैं कि यूपीए सरकार के एक मंत्री के फोन पर ‘टुडे ग्रुप’ ने भी इसे झूठ कहने में समय नहीं लगाया, लेकिन तब तक इस लेख के जरिए नरेंद्र मोदी को रोकने लिए ‘कांग्रेस-केजरी’ गठबंधन की समूची साजिश का पर्दाफाश हो गया। यह अलग बात है कि कम प्रसार संख्या और अंग्रेजी में होने के कारण ‘मेल टुडे’ के लेख से बड़ी संख्या में देश की जनता अवगत नहीं हो सकी, इसलिए उस लेख के प्रमुख हिस्से को मैं यहां जस का तस रख रहा हूं, जिसमें नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए गठित ‘आम आदमी पार्टी’ की असलियत का पूरा ब्यौरा है।
शांति भूषण ने इंडिया टुडे समूह के अंग्रेजी अखबार ‘मेल टुडे’ में लिखा था, ‘‘अरविंद केजरीवाल ने बड़ी ही चतुराई से भ्रष्टामचार के मुद्दे पर भाजपा को भी निशाने पर ले लिया और उसे कांग्रेस के समान बता डाला। वहीं खुद वह सेक्यूलरिज्म के नाम पर मुस्लिम नेताओं से मिले ताकि उन मुसलमानों को अपने पक्ष में कर सकें जो बीजेपी का विरोध तो करते हैं, लेकिन कांग्रेस से उकता गए हैं। केजरीवाल और आम आदमी पार्टी उस अन्ना हजारे के आंदोलन की देन हैं जो कांग्रेस के करप्शन और मनमोहन सरकार की कारगुजारियों के खिलाफ शुरू हुआ था। लेकिन बाद में अरविंद केजरीवाल की मदद से इस पूरे आंदोलन ने अपना रुख मोड़कर बीजेपी की तरफ कर दिया, जिससे जनता कंफ्यूज हो गई और आंदोलन की धार कुंद पड़ गई।’’
‘‘आंदोलन के फ्लॉप होने के बाद भी केजरीवाल ने हार नहीं मानी। जिस राजनीति का वह कड़ा विरोध करते रहे थे, उन्होंने उसी राजनीति में आने का फैसला लिया। अन्ना इससे सहमत नहीं हुए । अन्ना की असहमति केजरीवाल की महत्वाकांक्षाओं की राह में रोड़ा बन गई थी। इसलिए केजरीवाल ने अन्ना को दरकिनार करते हुए ‘आम आदमी पार्टी’ के नाम से पार्टी बना ली और इसे दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों के खिलाफ खड़ा कर दिया। केजरीवाल ने जानबूझ कर शरारतपूर्ण ढंग से नितिन गडकरी के भ्रष्टािचार की बात उठाई और उन्हें कांग्रेस के भ्रष्टा नेताओं की कतार में खड़ा कर दिया ताकि खुद को ईमानदार व सेक्यूलर दिखा सकें। एक खास वर्ग को तुष्ट करने के लिए बीजेपी का नाम खराब किया गया। वर्ना बीजेपी तो सत्ता के आसपास भी नहीं थी, ऐसे में उसके भ्रष्टा चार का सवाल कहां पैदा होता है?’’
‘‘बीजेपी ‘आम आदमी पार्टी’ को नजरअंदाज करती रही और इसका केजरीवाल ने खूब फायदा उठाया। भले ही बाहर से वह कांग्रेस के खिलाफ थे, लेकिन अंदर से चुपचाप भाजपा के खिलाफ जुटे हुए थे। केजरीवाल ने लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल करते हुए इसका पूरा फायदा दिल्ली की चुनाव में उठाया और भ्रष्टावचार का आरोप बड़ी ही चालाकी से कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा पर भी मढ़ दिया। ऐसा उन्होंने अल्पसंख्यक वोट बटोरने के लिए किया।’’
‘‘दिल्ली की कामयाबी के बाद अब अरविंद केजरीवाल राष्ट्रीय राजनीति में आने जा रहे हैं। वह सिर्फ भ्रष्टाीचार की बात कर रहे हैं, लेकिन गवर्नेंस का मतलब सिर्फ भ्रष्टाेचार का खात्मा करना ही नहीं होता। कांग्रेस की कारगुजारियों की वजह से भ्रष्टालचार के अलावा भी कई सारी समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। खराब अर्थव्यवस्था, बढ़ती कीमतें, पड़ोसी देशों से रिश्ते और अंदरूनी लॉ एंड ऑर्डर समेत कई चुनौतियां हैं। इन सभी चुनौतियों को बिना वक्त गंवाए निबटाना होगा।’’

‘‘मनमोहन सरकार की नाकामी देश के लिए मुश्किल बन गई है। नरेंद्र मोदी इसलिए लोगों की आवाज बन रहे हैं, क्योंकि उन्होंने इन समस्याओं से जूझने और देश का सम्मान वापस लाने का विश्वास लोगों में जगाया है। मगर केजरीवाल गवर्नेंस के व्यापक अर्थ से अनभिज्ञ हैं। केजरीवाल की प्राथमिकता देश की राजनीति को अस्थिर करना और नरेंद्र मोदी को सत्ता में आने से रोकना है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अगर मोदी एक बार सत्ता में आ गए तो कांग्रेस की दुकान हमेशा के लिए बंद हो जाएगी।’’
साभार: Shashi Kant Kansal 

Tuesday, September 3, 2013

दो टूक : आजादी के 66 वर्ष बाद आजादी से पूर्व जैसे हालात

आजादी के बाद गांधी-नेहरू जाति नाम व आजाद भारत के पहले युगदृष्टा कहे जाने वाले स्वनामधन्य प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के 17 वर्ष लंबे निरंकुश शासन के बाद 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को देश वासियों से सप्ताह में एक दिन उपवास रखने का आह्वान करना पड़ा था। हालांकि इसके साथ ही उन्होंने देश में अन्न उत्पादन को बढ़ाने के लिए 'जय जवान' के साथ “जय किसान” का नारा भी दिया था। यह अलग बात है कि इस नारे से अधिक आज देश की तीसरी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को “हरित क्रांति” के जरिए देश के अन्न उत्पादन को निर्यात की क्षमता तक विकसित करने का श्रेय दिया जाता है। बहरहाल आज 48 वर्ष बाद देश श्रीमती गांधी के ”गरीबी हटाओ” और जनसंख्या नियंत्रण के लिए “हम दो-हमारे दो” जैसे नारों के बावजूद कथित तौर पर 80 करोड़ गरीबों को कुपोषण से बचाने और भरपेट भोजन देने की ऐतिहासिक कही जा रही राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना लाने को मजबूर हुआ है। 

आज सरकार की ओर से कमोबेश उसी तर्ज पर “सोने का मोह त्यागने” का आह्वान किया गया है और पेट्रोल पंपों को रात्रि में बंद करने जैसे बचकाने बयान आए हैं। आजादी के दौर में एक रुपए का मिलने वाला डॉलर 70 के भाव जाने पर आमादा है। भूख और कुपोषण पर नजर रखने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था-अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) द्वारा ताज़ा जारी वैश्विक भूखमरी सूचकांक-2010 में भारत को 67वां स्थान दिया गया है जो सूची में चीन और पाकिस्तान से भी नीचे है। ऐसे में उत्साहित दुश्मन राष्ट्र चीन व पाकिस्तान भारत पर कमोबेश एक साथ गुर्रा रहे हैं, और हमारे देश के सबसे बड़े अर्थशास्त्री कहे जाने वाले प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह देश की सुरक्षा और रुपए की घटती कीमत, घटती विकास दर और बढ़ते मूल्य सूचकांक के साथ मुद्रा स्फीति व आपातकाल जैसे हालात स्वयं लाकर मिमियाने की मुद्रा में नजर आ रहे हैं। साथ ही परोक्ष तौर पर यह चुनौती देते भी दिखते हैं कि जब वह नहीं कर पा रहे तो औरों की क्या बिसात !

ऐसे में अच्छा हो कि प्रधानमंत्री थोड़ी और हिम्मत जुटा लें और सरकार और सरकारी मशीनरी के “खाने” व भ्रष्टाचार पर लगाम न कस पाने की अपनी विफलता को स्वीकार कर देश वासियों से बिना घबराए, सोने और पेट्रोल के साथ कम दाल-रोटी “खाने” करने की अपील भी कर दें, शायद देश की समस्त समस्याओं का हल अब इसी कदम में निहित है। 

यह भी पढ़ें: 

1.कांग्रेस के नाम खुला पत्र: कांग्रेसी आन्दोलन क्या जानें....
2. नैनीताल हाईकोर्ट ने सीबीआई की यूं की बोलती बंद
3. अमेरिका, विश्व बैंक, प्रधानमंत्री जी और ग्रेडिंग प्रणाली
4. जनकवि 'गिर्दा' की दो एक्सक्लूसिव कवितायें
5. कौन हैं अन्ना हजारे ? क्या है जन लोकपाल विधेयक ?
6. नीरो सरकार जाये, जनता जनार्दन आती है
7. यह युग परिवर्तन की भविष्यवाणी के सच होने का समय तो नहीं ?
  

Monday, August 19, 2013

सत्याग्रह की जिद पर गांधी जी को भी झुका दिया था डुंगर ने

पहले मना करने पर दुबारा की गई अनुनय पर दी थी अनुमति 
पांच वर्ष रहे जेल में, जेलरों की नाक में भी कर दिया था दम, बदलनी पड़ीं 11 जेलें
नवीन जोशी, नैनीताल। जिद यदि नेक उद्देश्य के लिए हो और दृ़ढ़ इच्छा शक्ति के साथ की जाए तो फिर पहाड़ों का भी झुकना पड़ता है। जिस अहिंसा और सत्याग्रह के मार्ग से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कभी अपने राज्य में सूर्य के न छुपने के घमंड वाले अंग्रेजों को झुका कर देश से बाहर खदेड़ दिया था, उसी अहिंसा  और सत्याग्रह की जिद से पहाड़ के एक बेटे ने महात्मा गांधी को भी झुका दिया था। जी हां, राष्ट्रपिता के समक्ष भी ऐसे विरले अनुभव ही आए होंगे, जहां उन्हें किसी ने अपना निर्णय बदलने को मजबूर किया होगा। देश को आजाद कराने के लिए गांधी जी के ऐसे ही एक जिद्दी सिपाही और स्वतंत्रता सेनानी का नाम डुंगर सिंह बिष्ट है।
यह 1940 की बात है। 1919 में जिले के सुंदरखाल गांव में सबल सिंह के घर जन्मे डुंगर तब कोई 20 वर्ष के रहे होंगे। इस उम्र में भी वह आईवीआरआई मुक्तेश्वर के सरकारी स्कूल में प्रधानाध्यापक के पद पर कार्यरत थे। तभी गांधी जी के सत्यागह्र आंदोलन से वह ऐसे प्रेरित हुए कि पांच नवंबर 1940 को आजादी के आंदोलन में पूरी तर रमने के लिए लगी-लगाई नौकरी छोड़ दी, और देश की सक्रिय सेवा के लिए फौज में शामिल होने का मन बनाया। 14 नवंबर 1940 को भर्ती अफसर कर्नल एटकिंशन ने उन्हें देखते ही अस्थाई सेकेंड लेफ्टिनेंट के पद पर चयनित कर लिया। लेकिन इसी बीच हल्द्वानी में पं. गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व में चल रहे सत्याग्रह आंदोलन को देखकर उन्होंने फौज का रास्ता छोड़ सीधे सत्याग्रह आंदोलन में कूदने का मन बना डाला, और पहले तत्कालीन कांग्रेस जिलाध्यक्ष मोतीराम पाण्डे को और फिर सीधे महात्मा गांधी को पत्र लिखकर सत्याग्रह आंदोलन की अनुमति देने का आग्रह किया। 26 दिसंबर 1940 को बापू के पीए प्यारे लाल नैयर ने उन्हें बापू का संदेश देते हुए पत्र लिखा कि उनके पिता 84 वर्ष के हैं, माता तथा भाभी की मृत्यु हो चुकी है, और पिता की देखभाल को कोई नहीं हैं, लिहाजा उन्हें सत्याग्रह की इजाजत नहीं दी जा सकती। वह पिता की सेवा करते हुए बाहर से ही देश सेवा करते रहें। डुंगर अनुमति न मिलने से बेहद दुःखी हुए, और पुनः एक जनवरी 1941 को बापू को पत्र लिखकर अनुमति देने की जिद की। आखिर उनकी जिद पर बापू को झुकना पड़ा और बापू ने 18 मार्च 41 को उन्हें, ‘स्वयं को उनके देश-प्रेम से बेहद हर्षित और उत्साहित’ बताते हुए इजाजत दे दी। इस पर डुंगर ने आठ अप्रेल को कड़ी सुरक्षा को धता बताते हुए आठ दिनों तक घर व जंगल में छुपते-छुपाते सरगाखेत में अपने साथी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व पुरोहित भवानी दत्त जोशी के साथ सत्यागह्र कर ही दिया। हजारों लोगों के बीच वह अचानक मंच पर प्रकट हुए, और ‘गांधी जी की जै-जैकार, अंग्रेजो भारत को स्वतंत्र करो’ तथा बापू द्वारा सत्याग्रह हेतु दिया गया संदेश ‘इस अंग्रेजी लड़ाई में रुपया या आदमी से मदद देना हराम है, हमारे लिए यही है कि अहिंसात्मक सत्याग्रह के जरिए हर हथियारबंद लड़ाई का मुकाबिला करें’ पढ़ा।  इसके तुरंत बाद उन्हें पुलिस ने पकड़कर पांच वर्ष के लिए जेल भेज दिया। वर्तमान में 96 वर्षीय श्री बिष्ट बताते हैं कि जेल में भी वह जेलर व जेल अधीक्षकों की नाक में दम किए रहे, इस कारण उन्हें पांच वर्षों में अल्मोड़ा, नैनीताल, हल्द्वानी, आगरा, खीरी-लखीमपुर, लखनऊ कैंप व वनारस सहित 11 जेलों में रखना पड़ा। इस दौरान देश में 87 हजार लोगों ने सत्याग्रह किया था, पर डुंगर का दावा है कि 1945 में वनारस जल से रिहा होने वाले वह आखिरी सत्याग्रही थे। आगे देश को दी गई सेवाओं का सिला उन्हें अपने गांव का पहला प्रधान, सरपंच तथा आगे यूपी के मंत्री बनने के रूप में मिला। 

Sunday, March 17, 2013

इस साल समय पर खिला राज्य वृक्ष बुरांश, क्या ख़त्म हुआ 'ग्लोबलवार्मिंग' का असर ?


नवीन जोशी, नैनीताल। राज्य वृक्ष बुरांश का छायावाद के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत ने अपनी मातृभाषा कुमाऊंनी में लिखी एकमात्र कविता में कुछ इस तरह वर्णन किया है 
‘सार जंगल में त्वि ज क्वे नहां रे क्वे नहां
फुलन छे के बुरूंश जंगल जस जलि जां।
सल्ल छ, दयार छ, पईं छ अयांर छ, 
पै त्वि में दिलैकि आग, 
त्वि में छ ज्वानिक फाग।
(बुरांश तुझ सा सारे जंगल में कोई नहीं है। जब तू फूलता है, सारा जंगल मानो जल उठता है। जंगल में और भी कई तरह के वृक्ष हैं पर एकमात्र तुझमें ही दिल की आग और यौवन का फाग भी मौजूद है।) 
कवि की कल्पना से बाहर निकलें, तो भी बुरांश में राज्य की आर्थिकी, स्वास्थ्य और पर्यावरण सहित अनेक आयाम समाहित हैं। अच्छी बात है कि इस वर्ष बुरांश अपने निश्चित समय यानी चैत्र माह के करीब खिला है, इससे इस वृक्ष पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव पड़ने की चिंताओं पर भी कुछ हद तक विराम लगा है। प्रदेश में 1,200 से 4,800 मीटर तक की ऊंचाई वाले करीब एक लाख हैक्टेयर से अधिक क्षेत्रफल में सामान्यतया लाल के साथ ही गुलाबी, बैंगनी और सफेद रंगों में मिलने वाला और चैत्र (मार्च-अप्रैल) में खिलने वाला बुरांश बीते वर्षों में पौष-माघ (जनवरी-फरवरी) में भी खिलने लगा था। इस आधार पर इस पर ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का सर्वाधिक असर पड़ने को लेकर चिंता जताई जाने लगी थी। हालांकि कोई वृहद एवं विषय केंद्रित शोध न होने के कारण इस पर दावे के साथ कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती, लेकिन डीएफओ डा. पराग मधुकर धकाते कहते हैं कि हर फूल को खिलने के लिए एक विशेष ‘फोटो पीरियड’ यानी एक खास रोशनी और तापमान की जरूरत पड़ती है। यदि किसी पुष्प वृक्ष को कृत्रिम रूप से भी यह जरूरी रोशनी व तापमान दिया जाए तो वह समय से पूर्व खिल सकता है। 

बहुगुणी है बुरांश: बुरांश राज्य के मध्य एवं उच्च मिालयी क्षेत्रों में ग्रामीणों के लिए जलौनी लकड़ी व पालतू पशुओं को सर्दी से बचाने के लिए बिछौने व चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है, वहीं मानव स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इसके फूलों का रस शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी को दूर करने वाला, लौह तत्व की वृद्धि करने वाला तथा हृदय रोगों एवं उच्च रक्तचाप में लाभदायक होता है। इस प्रकार इसके जूस का भी अच्छा-खासा कारोबार होता है। अकेले नैनीताल के फल प्रसंस्कण केंद्र में प्रति वर्ष करीब 1,500 लीटर जबकि प्रदेश में करीब 2 हजार लीटर तक जूस निकाला जाता है। हालिया वर्षों में सड़कों के विस्तार व गैस के मूल्यों में वृद्धि के साथ ग्रामीणों की जलौनी लकड़ी पर बड़ी निर्भरता के साथ इसके बहुमूल्य वृक्षों के अवैध कटान की खबरें भी आम हैं।

यह भी पढ़ें : `जंगल की ज्वाला´ संग मुस्काया पहाड़..
कफुवा , प्योंली संग मुस्काया शरद, बसंत शंशय में

Tuesday, February 5, 2013

प्रयागराज में आस्था का महासमागम


भारत को आस्था, आध्यात्म और पवित्रता की भूमि कहा जाता है। सर्वधर्म सम्भाव की इस पावन भूमि के कण-कण में देवों का वास बताया जाता है। दुनिया के सबसे प्राचीन हिंदू सनातन धर्म के इस देश में ऐसी अनेकों परंपराएं हैं जो सदियों पूर्व से अनवरत चली आ रही हैं, और दुनिया के साथ भारत के भी विकास पथ पर कहीं आगे निकल जाने के बावजूद इनका कोई जवाब नहीं है। प्रयागराज में इन दिनों चल रहा आस्था का महासमागम यानी कुम्भ मेला आज भी देश हीं नहीं दुनिया के 10 करोड़ से अधिक लोगों को आकर्षित कर रहा है तो इसमें कु्म्भ मेले से जुड़ी अनेकों विशिष्टताएं हैं। इतनी भारी संख्या में एक धार्मिक भावना ‘आस्था’ के साथ लोगों का एक स्थान पर समागम दुनिया में कहीं और देखने को नहीं मिलता। कुम्भ भारतीयों के मस्तिष्क और आत्मा में रचा-बसा हुआ पर्व है, जिसमें पुरुष, महिलाएं, अमीर, गरीब सभी लोग भाग लेते हैं। अपने विशाल स्वरूप में यह पर्व भारतीय जनमानस की पर्व चेतना की विराटता का द्योतक भी है। इससे भारत की सांस्कृतिक चेतना और एकता को जाग्रत व सुदृढ़ करने की दृष्टि मिलती है, साथ ही आस्थावान देश वासियों का संत समागम के साथ आपस में जुड़ाव भी मजबूत होता है। आर्थिक दृष्टिकोण से भी प्रयागराज में इस वर्ष आयोजित 55 दिन का कुंभ अत्यधिक लाभप्रद होने जा रहा है। इस महाआयोजन में 10 से 15 करोड़ श्रद्धालुओं के पहुंचने की संभावना जताई जा रही है, जिसके साथ ही इस दौरान 12,000 करोड़ रुपए का आर्थिक कारोबार होने और करीब छह लाख लोगों को सीमित समय के लिए ही सही रोजगार मिलने की बात भी कही जा रही है। 
कुम्भ पर्व हिंदू धर्म का तो यह सबसे बड़ा और पवित्र आयोजन है ही जिसमें अमृत स्नान और अमृत पान तक की कल्पना की गई है, साथ ही यह निर्विवाद तौर पर विश्व का सबसे विशालतम मेला और महाआयोजन भी कहा जाता है, जिसमें अनेकों जाति, धर्म, क्षेत्र के करोड़ों लोग भाग लेते हैं, और पवित्र गंगा नदी में डुबकी लगाते हैं। दुनिया भर के वैज्ञानिक भी गंगा के सर्वाधिक लंबे समय तक खराब न होने एवं त्वचा व अन्य रोगों में लाभकारी होना स्वीकार कर चुके हैं। गंगा वैसे भी पापनाशनी, पतित पावनी कही जाती है। इसे एक नदी से कहीं अधिक देवी और माता का दर्जा दिया गया है। यह हिंदुओं के जीवन और मृत्यु दोनों से जुड़ी हुई है और इसके बिना हिंदू संस्कार अधूरे हैं, वहीं यह देश के विशालतम भूभाग को सींचते हुए उर्वरा शक्ति भी बढ़ाती है। गंगाजल का अमृत समान माना जाता है। कहा जाता है कुम्भ पर्व के दौरान गंगा नदी में ऐसे अनूठे संयोग बनते हैं कि इसकी पावन धारा में अमृत का सतत प्रवाह होने लगता है, जिसमें स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप दूर हो जाते हैं और मनुष्य जीवन मरण के बंधनों से मुक्त हो मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। इसलिए इलाहाबाद के कुम्भ में गंगा स्नान, पूजन का अलग ही महत्व है। अनेक पर्वों और उत्सवों का गंगा से सीधा संबंध है मकर संक्राति, कुम्भ और गंगा दशहरा के समय गंगा में स्नान, पूजन, दान एवं दर्शन करना महत्वपूर्ण माना जाता है। मान्यता है कि गंगा पूजन से मांगलिक दोष से ग्रसित जातकों को विशेष लाभ प्राप्त होता है, और गंगा स्नान करने से अशुभ ग्रहों का प्रभाव समाप्त हो जाता है, साथ ही सात्विकता और पुण्य लाभ भी प्राप्त होता है। अमावस्या के दिन गंगा स्नान और पितरों के निमित तर्पण व पिंडदान करने से सद्गति प्राप्त होती है। 
कुम्भ पर्व की महिमा का वर्णन पुराणों से शुरू होता है। साथ ही कई धार्मिक, ज्योतिषीय और पौराणिक आधार इस महापर्व को विशिष्ट बनाते हैं। पुराणों में वर्णित संदर्भों के अनुसार यह पर्व समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत घट के लिए हुए देवासुर संग्राम से जुड़ा है। इसी दौरान भगवान विष्णु का कूर्म अवतार भी हुआ था। मान्यता है कि समुद्र मंथन से 14 रत्नों की प्राप्ति हुई, जिनमें प्रथम विष था तो अन्त में अमृत घट लेकर धन्वन्तरि प्रकट हुए। कहते हैं अमृत पाने की होड़ ने एक युद्ध का रूप ले लिया। ऐसे समय असुरों से अमृत की रक्षा के उद्देश्य से विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अमृत देवताओं को सोंप दिया। एक मान्यता के अनुसार देवताओं के राजा इन्द्र के पुत्र जयंत और दूसरी मान्यता के अनुसार विष्णु के वाहन गरुड़ उस अमृत कलश (कुम्भ) को लेकर वहाँ से पलायन कर गये। इस दौरान सूर्य, चंद्रमा, गुरु एवं शनि ने अमृत कलश की रक्षा में सहयोग दिया। अमृत कलश को स्वर्ग लोक तक ले जाने में 12 दिन लगे। देवों का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है, लिहाजा इन बारह वर्षों में बारह स्थानों पर अमृत कलश रखने से वहाँ अमृत की कुछ बूंदे छलक गईं। इनमें आठ स्थान देवलोक स्वर्ग में तथा चार स्थान पृथ्वी पर बताए जाते हैं। कहते हैं उन्हीं स्थानों पर, ग्रहों के उन्हीं संयोगों पर कुम्भ पर्व मनाया जाता है। माना जाता है कि कुम्भ और महाकुम्भ में वही अमृत की बूंदे वापस इन नदियों के पानी में छलक उठती हैं। जो भी इस दौरान इन पवित्र नदियों में स्नान करता है वह जीवन-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाता है। पृथ्वी के इन चारों स्थानों पर तीन वर्षों के अन्तराल पर प्रत्येक बारह वर्ष में कुम्भ का आयोजन होता है। कुम्भ पर्वों को तारों के क्रम के अनुसार हर 12वें वर्ष विभिन्न तीर्थ स्थानों पर आयोजित करने की बात भी कही जाती है। नारदीय पुराण (2/66/44), शिव पुराण (1/12/22/23), वराह पुराण (1/71/47/48) और ब्रह्मा पुराण आदि पौराणिक ग्रंथों में भी कुम्भ एवं अर्द्ध कुम्भ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण मिलते हैं, इनके अनुसार कुम्भ पर्व हर तीन साल के अंतराल पर देवभूमि उत्तराखंड की धरती पर स्थित तीर्थ नगरी हरिद्वार से शुरू होता है। यहां गंगा नदी के तट पर आयोजित होने वाला कुम्भ को महाकुम्भ कहा जाता है, जिसकी अपार महिमा है। यहां के बाद तीन-तीन वर्ष के अंतराल में कुम्भ का आयोजन होता है। प्रयाग में गंगा, यमुना व अदृश्य मानी जाने वाली सरस्वती के संगम-त्रिवेणी पर आयोजित होने वाली कुंभ की ऐसी धार्मिक महत्ता है कि इस स्थान को "तीर्थराज" प्रयागराज कहा जाता है। कहते हैं कि यहां इस दौरान त्रिवेणी में स्नान करना सहस्रों अश्वमेध यज्ञों, सैकड़ों वाजपेय यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से भी अधिक पुण्य प्रदान करता है। मनुष्य जन्म-जन्मांतरों के फेर से बाहर निकलकर मोक्ष को प्राप्त करता है। इस अवसर पर तीर्थ यात्रियों को गंगा स्नान के साथ ही सन्त समागम का लाभ भी मिलता है। इसके अलावा नासिक-पंचवटी में गोदावरी और अवन्तिका-उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर भी तीन-तीन वर्षों के अंतराल में कुंभ का आयोजन किया जाता है। 
हजारों वर्षों से चली आ रही यह परम्परा केवल रूढ़िवाद या अंधश्रद्धा नहीं है, वरन यह महापर्व सौर मंडल के धार्मिक मान्यता के अनुसार कुम्भ की रक्षा करने के प्रसंग से जुड़े चार ग्रहों सूर्य, चंद्रमा, बृहस्पति एवं शनि के विशिष्ट स्थितियों में आने से बने खगोलीय संयोग पर आयोजित होते हैं, इस तरह इस पर्व का वैज्ञानिक आधार भी है। यही विशिष्ट बात इस सनातन लोकपर्व के प्रति भारतीय जनमानस की आस्था का दृढ़तम आधार है। तभी तो सदियों से चला आ रहा यह पर्व आज संसार के विशालतम धार्मिक मेले का रूप ले चुका है। अंतरराष्ट्रीय ख्याति के इस आयोजन का जिक्र प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन सांग की डायरी में भी मिलता है। उनकी डायरी में हिन्दू महीने माघ (जनवरी - फरवरी) में 75 दिनों के उत्सव का उल्लेख है, जिसमें लाखों साधु, आम आदमी, अमीर और राजा शामिल होते थे। 
कुम्भ के दौरान शाही स्नान कर अमृत पान करने के लिए निकलने वाले भव्य जुलूस में अखाड़ों के प्रमुख महंतों की सवारी सजे-धजे हाथी, पालकी और भव्य रथों पर निकलती हैं। उनके आगे पीछे सुसज्जित ऊँट, घोड़े, हाथी और बैंड़ भी होते हैं। इनके बीच विशेषकर शरीर पर वस्त्रों के बजाय राख मलकर निकलने वाले नागा साधुओं का समूह श्रद्धालुओं के लिए कौतूहल का विषय रहता है। विभिन्न अखाड़ों के लिए शाही स्नान का क्रम निश्चित होता है। उसी क्रम में साधु समाज स्नान करते हैं। साधुओं की बड़ी-बड़ी जटाएं और अनोखी मुद्राएं भी आकर्षण का केंद्र रहती हैं। सामान्यतया घने वनों, जंगलों, गुफाओं में शीत, गर्मी व बरसात जैसी हर तरह की मौसमी विभीषिकाओं की परवाह किए बिना नग्न शरीर पर केवल भस्म रमा कर रहने वाले साधुओं के कुम्भ में सहज दर्शन हो पाते हैं। कुम्भ मेले का एक और बड़ा वैशिष्ट्य यह भी है कि यहाँ शैव, वैष्णव और उदासीन सम्प्रदायों के साधु अनेक अखाड़ों और मठों व विभिन्न साधु सम्प्रदायों के अखाड़ों की उपस्थिति रहती है। प्रत्येक अखाड़े के अपने प्रतीक चिह्न और ध्वज-पताका होती है, जिसके साथ ही अखाड़े मेले में उपस्थित होते हैं, वहाँ उनकी अपनी छावनी होती है, जिसके बीचों-बीच बहुत ऊँचे स्तम्भ पर उनका ध्वज फहराता है। इन अखाड़ों के साधु शस्त्रधारी होते हैं। उनकी रचना एकदम सैनिक पद्धति पर होती है। उनमें शस्त्र और शास्त्र का अद्भुत संगम होता है। ये साधु सांसारिक जीवन से विरक्त और अविवाहित होते हैं। उनकी दिनचर्या बहुत कठोर होती है। शस्त्रधारी होते हुए भी, और विश्व का सबसे बड़ा ऐश्वर्य प्रदर्शन करने के बावजूद वह फक्कड़ तपस्वी होते हैं। 
कहा जाता है कि मुगल बादशाह बाबर के पूर्वज तैमूर की आत्मकथा के अनुसार तैमूर ने सन 1394 में हरिद्वार के कुम्भ में कई सहस्र तीर्थयात्रियों की अकारण ही निर्मम हत्या कर दी थी। उन दिनों हिन्दुओं की तीर्थ यात्रा भी सुरक्षित नहीं बची थी। ऐसे में निहत्थे हिन्दू समाज की रक्षा के लिए साधु-संतों को मोक्ष-साधना के साथ-साथ शस्त्र धारण भी करना पड़ा। विदेशी शासकों के अत्याचारों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करने और हिन्दू समाज को अपनी धार्मिक आस्थाओं का निर्विघ्न पालन करने हेतु संरक्षण देने का बीड़ा साधु समाज ने उठाया। शस्त्र धारण करने की दिशा में पहले नागा साधु आगे बढ़े। कुम्भ मेलों की सुरक्षा का दायित्व वे ही संभालते थे। बहुत बाद में रामानंदी सम्प्रदाय के वैष्णव वैरागियों ने भी सन् 1713 में जयपुर के समीप ‘गाल्ता’ नामक स्थान पर महन्त रामानन्द के मठ में शस्त्र धारण करने का निर्णय लिया। जयपुर नरेश सवाई जयसिंह का नाम भी इस घटना के साथ जोड़ा जाता है। उन्हें मुगल शासनकाल में हिन्दू तीर्थ स्थानों पर ‘जयसिंहपुरा’ नामक केन्द्र स्थापित करने और उनमें रामानंदी सम्प्रदाय के निर्मोही अखाड़ो को प्रवेश देने, मराठे, बुन्देले और बंदा बैरागी जैसी अनेक हिन्दू शक्तियों को यथाशक्ति सहायता देने और पेशवा बाजीराव प्रथम को मालवा पर विजय और अधिकार दिलाने में निर्णायक भूमिका निभाने का श्रेय भी दिया जाता है।
कुम्भ की तरह ही प्रयाग भी हजारों वर्षों तक देश को ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, कला, धर्म और संस्कृति की अमूल्य शिक्षा देने के बावजूद वर्तमान में मुगल शासक अकबर द्वारा 1583 में दिए गए इलाहाबाद नाम से जाना जाता है। इलाहाबाद एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ होता है अल्लाह द्वारा बसाया गया शहर। यानी अकबर भी इस पुरातन हिंदू शहर के स्वरूप से भलीभांति परिचित था। बताते हैं कि मुगल काल में इस स्थान के अनेकों ऐतिहासिक मंदिरों को तोड़कर उनका अस्तित्व मिटा दिया गया। बावजूद, प्रयाग में हिंदुओं के बहुत सारे प्राचीन मंदिर और तीर्थ है। संगम तट पर जहां कुम्भ मेले का आयोजन होता है, वहीं भारद्वाज ऋषि का प्राचीन आश्रम है। प्रयाग को विष्णु की नगरी भी कहा जाता है और यहीं पर भगवान ब्रह्मा के द्वारा प्रथम बार यज्ञ करने का वृतांत भी मिलता है। माना जाता है पवित्र गंगा और यमुना के मिलन स्थल के पास आर्यों ने प्रयाग तीर्थ की स्थापना की थी। 
वहीं कुम्भ मेले के इतिहास के शोधार्थियों का प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के अध्ययन के आधार पर मानना है कि प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में कुम्भ मेलों का सूत्रपात किसी एक केन्द्रीय निर्णय के अन्तर्गत, किसी एक समय पर, एक साथ नहीं किया गया होगा, वरन एक के बाद एक अपने-अपने कारणों से पवित्र तीर्थस्थलों पर आयोजित किए गए होंगे, और आगे चलकर एक पौराणिक कथा के माध्यम से इन्हें एक श्रृंखला में पिरो दिया गया होगा। आदि गुरु शंकराचार्य को कुंभ पर्व को वर्तमान मेले का स्वरूप देने का श्रेय दिया जाता है, जिन्होंने ही भारत के चार कोनों पर चार धामों की स्थापना की थी, जिसके कारण चार धाम की तीर्थयात्रा का प्रचलन हुआ। बारहवीं शताब्दी से कुम्भ मनाए जाने के लिखित प्रमाण मिलते हैं। 

कुम्भ पर्व (मेला)-2013 के मुख्य स्नान-पर्वों की तिथियांः 
1 मकर संक्रानित 14.1.2013 (शाही स्नान)
2 पौष पूर्णिमा 27.1.2013 
3 मौनी अमावस्या 10.2.2013 (शाही स्नान)
4 वसन्त पंचमी 15.2.2013 (शाही स्नान)
5 माघी पूर्णिमा 25.2.2013 
6 महाशिवरात्रि 10.3.2013

Monday, January 28, 2013

राहुल की 'साफगोई' के मायने


Rs 3/kg: Rahul Gandhi Lands in a Potatoe Soup

यपुर में कांग्रेस पार्टी की चिंतन बैठक में चाहे जो और जितना नाटकीय तरीके से हुआ हो, लेकिन काफी कुछ हुआ वही, जिसकी उम्मीद कमोबेश हर कांग्रेसी कर रहा था, और बाकी देशवासियों को भी उसका अंदाजा था। यानी राहुल गांधी को पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी मिलना, और उन्हें उपाध्यक्ष बना भी दिया गया। चिंतन शिविर से यही सबसे बड़ी खबर आई, यानी चिंतिन शिविर आयोजित ही इस लिए किया गया था कि इसके बाद राहुल को पार्टी का नंबर दो यानी सोनिया गांधी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया जाए। 
राहुल को उपाध्यक्ष घोषित कर दिया गया, किंतु यह भी बहुत बड़ी घटना नहीं क्योंकि वह पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रहते हुए भी गांधी-नेहरू परिवार से होने और सोनिया गांधी के पुत्र होने के नाते पार्टी के नंबर दो तथा सोनिया के निर्विवाद तौर पर उत्तराधिकारी ही थे। लेकिन इससे बड़ी बात यह है कि नई जिम्मेदारी देने के साथ यह संदेश साफ कर देने की कोशिश की गई है कि वह आगामी लोक सभा चुनावों में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे। 
गौर कीजिए, राहुल और सोनिया गांधी दोनों इस बात को मानते हैं, इसलिए ‘पार्टी’ की एक बड़ी जिम्मेदारी मिलने पर दोनों के मन में पार्टी से पहले ‘सत्ता’ का खयाल आता है। यह खयाल आते ही सोनिया बेहद डर जाती हैं। वह रात्रि में ही राहुल के कक्ष में जाती हैं, और पुत्र को गले लगाकर रोते हुए याद दिलाती है, सत्ता जहर है। इस जहर ने उनकी ‘आइरन लेडी’ कही जाने वाली दादी और मजबूत पिता को उनसे छीन लिया। पुत्र को भी डर सताता है, उनके साथ बैडमिंटन खेलने वाले दो पुलिस कर्मी कैसे गोलियों से भूनकर उनकी दादी की हत्या कर देते हैं। यहां किस पर विश्वास किया जाए, किस पर नहीं ! कहीं सत्ता उन्हें भी.....! भगवान करे ऐसा कभी ना हो।
बहरहाल, टीवी पर आने वाले एक विज्ञापन की तर्ज पर डर सभी को लगता है, गला सभी का सूखता है। मां-पुत्र भी इसके अपवाद नहीं हो सकते। दोनों बेहद डरे हुए हैं। लेकिन उनके समक्ष क्या मजबूरी है सत्ता रूपी जहर को पीने की। यह जहर उनके परिवार को इतने बड़े घाव पहले ही दे चुका है, तो उसे जानते-बूझते फिर से क्यों गटका जाए। किसी और के लिए हो सकता है, पर गांधी-नेहरू परिवार के लिए तो सत्ता कभी ‘शादी के लड्डू’ की तरह अनजानी वस्तु भी नहीं हो सकती कि उसे बिना खाए पछताने से बेहतर एक बार खा ही लिया जाए। उनके लिए यह स्वाद कोई नया नही। 
फिर क्या मजबूरी है कि राहुल अपने इस डर को पार्टी की भरी चिंतन सभा में उजागर कर देते हैं। क्या केवल ‘साफगोई’ का तमगा हासिल करने के लिए। और यह भी ‘साफ’ किए बगैर कि आखिर उनके समक्ष इतने बड़े डर के बावजूद विषपान करने की इतनी बड़ी मजबूरी क्या है। क्या वह पार्टी की चिंतन बैठक में देशवासियों के दुःखों पर चिंता कर रहे हैं, और देशवासियों के दुःख उनसे देखे नहीं जा रहे और वह उनके दुःखों को दूर करने के लिए उनके हिस्से के ‘विष’ को पीकर ‘शिव’ बनना चाहते हैं। ऐसा ही मौका सोनिया के पास भी तो आया था, और उन्होंने यह विष क्या पी न लिया होता, यदि उन पर ‘विदेशी’ होने का दाग न लग गया होता। 
राहुल जानते हैं, वह नेहरू-गांधी परिवार के चश्मो-चिराग हैं, जिसका नाम अपने नाम से जोड़ देने भर से उन्हें बिना किसी अन्य विशेषता के मां से उत्तराधिकार में कांग्रेस के नंबर दो की कुर्सी के साथ ही आगे पार्टी को सत्ता मिलने पर देश की नंबर एक की कुर्सी भी कमोबेस बिना प्रयास के मिलनी तय है। वह देश की सत्ता के इतने बड़े नाम हैं कि चाहें तो विपक्षी पार्टियों की सत्ता रहते भी लोकहित के जो मर्जी कार्य करवा सकते हैं। फिर क्या मजबूरी है कि वह सत्ता को जहर होने के बावजूद भी पीना ही चाहते हैं।
यहां राहुल के एक वक्तव्य से दो चीजें हो जाती हैं। एक, देश का भावी प्रधानमंत्री होने के बावजूद वह इस कथित ‘साफगोई’ के फेर में स्वयं के डर के साथ अपनी कमजोरी भी प्रकट कर देते हैं। दूसरे, ‘पालने’ से ही सत्ता शीर्ष पर होने के बावजूद स्वयं का जहर जैसी सत्ता से न छूट पा रहा मोह भी उनकी इस ‘साफगोई’ से उजागर हो जाता है।
राहुल की यह ‘साफगोई’ अनायास नहीं है, वरन सोची समझी रणनीति के तहत हैं। वह अभी भी अपना ‘चेहरा’ विकसित करने के दौर में ही हैं। कभी दाड़ी वाले बेफुरसत युवा, कभी यूपी की चुनावी सभा में पर्चा फाड़ते एंग्री यंग मैन तो कभी गरीब की झोपड़ी में रात बिताते गरीब-गुरबा के मसीहा, और अब साफगोई दिखाते, देश के दिलों को छूते नेता। उनकी पार्टी यूपी, गुजरात जैसे राज्य हारते जा रही है। उत्तर पूर्व के तीन राज्यों में भी उनकी पार्टी के लिए जीत की कम ही संभावनाएं हैं। 2014 भागा हुआ आ रहा है। जनता भ्रष्टाचार, महंगाई, सब्सिडी वापस लिए जाने, डीजल-पेट्रोल को तेल कंपनियों के हाथ में दे दिए जाने, जन लोकपाल, बलात्कार पर कड़े कानून बनाने का शोर मचाए हुए है। वह क्या करें, कौन सा रूप धरें। कौन सा चमत्कार करें कि इस सबके बावजूद सत्ता वापस कदमों में आ जाए। यह बड़ी चिंता है। उनकी भी, कांग्रेस के नेताओं की भी, जिन्हें पता है कि यही नेहरू-गांधी का नाम है जिसके बल पर वह जनता को तमाम अन्य मुद्दे भुलाकर सत्ता हासिल कर सकते हैं। और मां सोनिया की भी, बेटे के लिए दुल्हन भी तलाशें तो पूछते हैं, लड़का करता क्या है। सचमुच बड़ी मजबूरी है। 
लेकिन राहुल को घबराने या जल्दबाजी की जरूरत नहीं, उन्हें समझना होगा, वह अकेले दौड़ने के बाद भी पार्टी के ‘नंबर दो’ बने हैं। इस पद के लिए उनके अलावा कोई और दूसरा प्रत्याशी नहीं है। वह कभी देश के प्रधानमंत्री भी बनेंगे तो ऐसी ही स्थिति में, जहां कोई दूसरा उनका प्रतिद्वंद्वी नहीं होगा या ऐसी स्थितियां बना दी जाएंगी कि कोई दूसरा उनके बराबर मंे खड़ा ही नहीं हो सकता। उन्हें यह प्रमोशन तब मिला है, जबकि उनके नेतृत्व में लड़े राज्यों में भी कांग्रेस लगातार हारती रही है। उनका ‘नेता बनो या नेता चुनो’ का मॉडल युवा कांग्रेस में भी फेल हो चुका है। वह न पार्टी की युवा ब्रिगेड को सुधार पाए हैं, और न ही अपनी पार्टी को अपने दम पर किसी राज्य में ही जीत दिला पाए हैं। 
बावजूद वह जानते हैं, कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के बाद एक वे ही हैं, जिनकी छांव तले कांग्रेसी एक छत के तले खड़े हो सकते हैं। राहुल भले कहें कि उन्हें नहीं पता कि कांग्रेस में आज के कारपोरेट प्रबंधन के दौर में भी (कमोबेस देश की तरह ही) कोई सिस्टम ही नहीं हैं, बावजूद (देश की तरह भगवान भरोसे नहीं) विपक्षी दलों की राजनीतिक अपरिपक्वता और राजनीतिक दांवपेंच में कहीं न ठहरने जैसे अनेक कारणों से वह चुनाव जीत ही जाते हैं। 
तो क्या, यह जल्दबाजी, यह विषपान की मजबूरी इसलिए है कि उन्हें लगने लगा है, गांधी-नेहरू जाति नाम भले कांग्रेस पार्टी में अब भी चलता हो पर देश में यह तिलिस्म लगातार टूटता जा रहा है। युवा कांग्रेस के साथ ही यूपी में ‘बदलाव’ की कोशिश कर वह थक हार चुके हैं। उनके हाथों में युवा कांग्रेस की कमान थी। उन्होंने वहां जमीनी स्तर से ‘नेता बनो या नेता चुनो’ का नारा दिया, लेकिन वह नारा भी नहीं चल पाया। कमोबेश सभी जगह वही युवा आगे आ पाए, जिनके पिता या गुट के नेता मुख्य पार्टी में बड़े ओहदे पर थे। जो भी जीता, उसने नीचे से लेकर ऊपर तक कार्यकर्ताओं को मैनेज किया। अपने सदस्य बनाए, फिर अपने लोगों को जितवाया और आखिर में अपने पक्ष में लॉबिंग की। लेकिन राहुल की सोच के मुताबिक ऐसा कुछ नहीं हुआ कि अनजान चेहरे युकां के प्रदेश अध्यक्ष बन गए।
तो क्या राहुल अपनी इस साफगोई से मात्र पार्टी जनों को भावनात्मक रूप से जोड़े रखने का ही प्रयास नहीं कर रहे हैं। इसके साथ ही कहीं वह कार्यकर्ताओं को स्वयं शीर्ष पर जगह बनाने के बाद परोक्ष तौर पर चेतावनी तो नहीं दे रहे कि यह बहुत खतरनाक जगह है। यहां आने की भी न सोचें। हम बहुत बड़ी कुरबानी देने वाले लोग हैं, इसलिए यहां हैं। 
इससे बेहतर क्या यह न होता कि वह अपना डर दिखाने के बजाए देश की बड़ी समस्याओं, भ्रष्टाचार, महंगाई, सब्सिडी को खत्म करने, जन लोकपाल, पदोन्नति में आरक्षण जैसे विषयों पर बोलने का साहस दिखाते। देश की जनता की नब्ज, उसकी समस्याओं को समझते, और अपनी युवा ऊर्जा का इस्तेमाल पर उनका स्थाई समाधान तलाशते। 
राहुल को जानना होगा उन्हें प्रधानमंत्री बनना है तो उन्हें केवल कांग्रेस पार्टी का नहीं पूरे देश का नेता बनना होगा। और ऐसा केवल भावनात्मक तरीके के बजाए कुछ करके बेहतर किया सकता है। उन्हें इस पद पर आरूढ़ होने से पूर्व कुछ और समय लेना होगा। प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने की जल्दबाजी उनके कॅरियर पर भी भारी पड़ सकती है। इस पद के लिए स्वयं को तैयार भी करना होगा। उन्हें स्वयं में गंभीरता लानी होगी। केवल कांग्रेस के गैर गांधी प्रधानमंत्रियों की तरह ‘मौनी बाबा’ बनने अथवा अपने पिता के ‘हमने देखा है, हम देखेंगे’ की तरह ही ऐसा या वैसा होना चाहिए के बजाय कुछ करके दिखाने का साहस और होंसला स्वयं में विकसित करना होगा। अभी वह युवा हैं, उनकी उम्र भागी नहीं जा रही। निस्संदेह उन्हें एक न एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनना है। 

Wednesday, August 15, 2012

नैनीताल में ऐसे मनाया गया था 15 अगस्त 1947 को पहला स्वतंत्रता दिवस


अब वतन आजाद है....
रिमझिम वर्षा के बीच हजारों लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था माल रोड पर
पेड़ों पर भी चढ़े थे लोग आजादी की नई-नवेली सांसें लेने
नवीन जोशी, नैनीताल। अंग्रेजों के द्वारा बसाये गये और अनुशासन के साथ सहेजे गये नैनीताल नगर में आजाद भारत के पहले दिन यानी 15 अगस्त 1947 को नगर वासियों के उत्साह का कोई सानी नहीं था। लोग नाच-गा  रहे थे। 14 अगस्त की पूरी रात्रि मशाल जुलूस निकालने के साथ ही जश्न होता रहा था, बावजूद 15 की सुबह तड़के से ही माल रोड पर जुलूस की शक्ल में निकल पड़े थे। कहीं तिल रखने तक को भी जगह नहीं थी। 100 वर्षों की गुलामी और हजारों लोगों के प्राणोत्सर्ग के फलस्वरूप उम्मीदों के नये सूरज की नई किरणों के साथ हवाऐं भी आज मानो बदली-बदली लग रही थीं, और प्रकृति मानो रिमझिम बारिश के साथ आजादी का स्वागत कते हुऐ देशवासियों के आनंद में स्वयं भी शामिल हो रही थी। लोगों में जश्न का जुनून शब्दों की सीमा से परे था। हर कहीं लोग कह रहे थे-अब वतन आजाद है...।
वर्तमान मंडल मुख्यालय सरोवरनगरी उस दौर में तत्कालीन उत्तर प्रांत की राजधानी था। अंग्रेजों के ग्रीष्मकालीन गवर्नमेंट हाउस व  सेकरेटरियेट यहीं थे. इस शहर को अंग्रेजों ने ही बसाया था, इसलिये इस शहर के वाशिंदों को उनके अनुशासन और ऊलजुलूल आदेशों के अनुपालन में ज्यादतियों से कुछ ज्यादा ही जलील होना पढ़ता था। अपर माल रोड पर भारतीय चल नहीं सकते थे। नगर के एकमात्र सार्वजनिक खेल के फ्लेट  मैदान में बच्चे खेल नहीं सकते थे। शरदोत्सव जैसे ‘मीट्स’ और ‘वीक्स’ जैसे कार्यक्रमों में भारतीयों की भूमिका बस ताली बजाने की होती थी। भारतीय अधिकारियों को तक खेलों व नाचघरों में होने वाले मनोरंजन कार्यक्रमों में अंग्रेजों के साथ शामिल होने की अनुमति नहीं  होती थी। 
15 अगस्त 1947 को मल्लीताल पन्त मूर्ति पर उमड़ा लोगों का हुजूम  
ऐसे में 14 अगस्त 1947 को दिल्ली से तत्कालीन वर्तमान पर्दाधारा के पास स्थित म्युनिसिपल कार्यालय में फोन पर आये आजादी मिलाने के संदेश से जैसे नगर वासियों में भारी जोश भर दिया था। सीआरएसटी इंटर कालेज के पूर्व अध्यापक व राष्ट्रीय धावक रहे केसी पंत ने बताया, "लोग कुछ दिन पूर्व तक नगर में हो रहे सांप्रदायिक तनावपूर्ण माहौल को भूलकर जोश में मदहोश हो रहे थे। एक समुदाय विशेस के लोग पाकिस्तान के अलग देश बनने, न बनने को लेकर आशंकित था, उन्होंने तल्लीताल से माल रोड होते हुए मौन जुलूस भी निकाला था। इन्हीं दिनों नगर में (शायद पहले व आखिरी) सांप्रदायिक दंगे भी हुऐ थे, जिसमें राजा आवागढ़ की कोठी (वर्तमान वेल्वेडियर होटल) भी फूंक डाला गया था। 
बावजूद 15 अगस्त को नगर में  हर जाति-मजहब के लोगों का उत्साह देखते भी बनता था। स्कूल के प्रधानाचार्य पीडी सनवाल ने पहले दिन ही बच्चों को कह दिया था, देश आजाद होने जा रहा है, कल सारे बच्चे साफ कपडे पहन कर आयेंगे"। 
दूसरे दिन बच्चों ने सुबह तल्लीताल गवर्नमेंट हाईस्कूल (वर्तमान जीआईसी) तक जुलूस निकाला, वहां के हेड मास्टर हरीश चंद्र पंत ने स्मृति स्वरूप सभी बच्चों को 15 अगस्त 1947 लिखा पीतल का राष्ट्रीय ध्वज तथा टेबल पर दो तरफ से देखने योग्य राष्ट्रीय ध्वज व उस दिन की महान तिथि अंकित फोल्डर प्रदान किया था। उन्होंने भाषण दिया, "अब वतन आजाद है। हम अंग्रेजों की दासता से आजाद हो गये हैं, पर अब देश को जाति-धर्म के बंधनों से ऊपर उठकर एक रखने व नव निर्माण की जिम्मेदारी और अधिक बढ़ गई है"। इस ध्वज को श्री पंत आज तक सहेजे हुऐ हैं। वहीँ वयोवृद्ध शिक्षाविद् प्यारे लाल साह के अनुसार 14 अगस्त की रात्रि ढाई-तीन बज तक जश्न चलता रहा था। लोगों ने रात्रि में ही मशाल जुलूस निकाला। देर रात्रि फ्लेट्स मैदान में आतिशबाजी भी की गई। सुबह म्युनिसिपालिटी में चेयरमैन रायबहादुर जसौंत सिंह बिष्ट की अध्यक्षता में बैठक हुई। तत्कालीन म्युनिसिपल कमिश्नर (सभासद) बांके लाल कंसल ने उपाध्यक्ष खान बहादुर अब्दुल कय्यूम को देश की गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल पेश करते हुए पीतल का तिरंगा बैच के रूप में लगाया। 
15 अगस्त 1947 को फ्लेट्स मैदान में परेड की सलामी लेते तत्कालीन एडीएम आरिफ अली शाह  
चेयरमैन ने यूनियन जैक तारकर तिरंगा फहरा दिया। इधर फ्लेट्स मैदान में तत्कालीन एडीएम आरिफ अली शाह ने परेड की सलामी ली। उनके साथ पूर्व चेयरमैन मनोर लाल साह, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्याम लाल वर्मा व सीतावर पंत सहित बढ़ी संख्या में गणमान्य लोग मौजूद थे। उधर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डुंगर सिंह बिष्ट के अनुसार उनके नेतृत्व में हजारों लोगों ने जनपद के दूरस्थ आगर हाईस्कूल टांडी से आईवीआरआई मुक्तेश्वर तक जुलूस निकाला था। बिष्ट कहते हैं, "उस दिन मानो पहाड़ के गाड़-गधेरों व जंगलों में भी जलसे हो रहे थे"।