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Sunday, January 12, 2014

शिक्षा व्यवस्था पर मेरा एक ‘खतरनाक और पुराना विचार’


शैक्षिक दखल’ पत्रिका के पहले अंक के आखिर में लिखे संपादक श्री दिनेश कर्नाटक जी के आलेख-‘और अंत में’ को पढ़ते हुए मन में आए प्रश्नों को यहां उकेरने की कोशिश कर रहा हूं। पत्रिका के अंतिम संपादकीय लेख ‘और अंत में’ के अंत में लेखक लिखते हैं-‘बच्चे परीक्षा पढ़ने के लिए पढ़ने के बजाय जीवन को जानने और समझने के लिए पढ़ेंगे, तभी जाकर शिक्षा सही मायने में लोकतांत्रिक होगी। तभी शिक्षा भयमुक्त हो पाएगी और विद्यालय आनंदालय बन सकेंगे।’ मुझे इस कल्पना के यहां तक साकार होने की उम्मीद तो है कि विद्यालय आनंदालय बन सकेंगे, लेकिन इसके आगे क्या होगा, इस पर संदेह है। इस लेख की प्रेरक हिंदी फिल्म ‘थ्री इडियट’ लगती है, पर क्या ‘थ्री इडियट’ के नायक ‘रड़छोड़ दास चांचड़’ फिल्मी परदे से बाहर कहीं नजर आते हैं। ऐसी कल्पना के लिए मौजूदा व्यवस्था और विद्यालयों के स्वरूप के साथ ही शिक्षकों में पठन-पाठन के प्रति वैसी प्रतिबद्धता भी नजर नहीं आती। वरन, मौजूदा व्यवस्था लोकतांत्रिक ही नहीं अति लोकतांत्रिक या अति प्रजातांत्रिक जैसी स्थिति तक पहुंच गई लगती है, जहां खासकर सरकारी विद्यालयों में सब कुछ होता है, बस पढ़ाई नहीं होती या तमाम गणनाओं और ‘डाक’ तैयार करने व आंकड़ों को इस से उस प्रारूप में परिवर्तित करने के बाद पढ़ाई के लिए समय ही नहीं होता। पाठशालाऐं, पाकशालाऐं बन गई हैं, सो शिक्षकों पर दाल, चावल के साथ ही महंगी हो चली गैस के कारण लकड़ियां बीनने तक का दायित्व-बोझ भी है। 
लेख में ‘जॉन होल्ट’ को उद्धृत कर कहा गया है, ‘(शायद पुराने/हमारे दौर की शिक्षा व्यवस्था से बाहर निकलने के बाद) बच्चे जब बंधनों से छूटते हैं, बार-बार बात काटते हैं....’ यह बात मुझे लेख पढ़ते हुऐ बार-बार प्रश्न उठाने को मजबूर करती हुई स्वयं पर सही साबित होती हुई महसूस हुई। शायद यह मेरा बार-बार बात काटना ही हो, खोजी/सच का अन्वेषण करने की प्रवृत्ति न हो। जॉन होल्ट से कम परिचित हूं, इसलिए जानना भी चाहता हूं कि वह कहां (क्या भारत) की शिक्षा व्यवस्था पर यह टिप्पणी कर रहे हैं ? वहीं लेख में विजय, सुशील व धौनी आदि के नाम गिनाए गए हैं, मुझे लगता है वह नई नहीं, पुरानी व्यवस्था से ही निकली हुई शख्शियतें हैं।
लेख में बच्चे को फेल कर देने की प्रणाली को ‘पुराना और खतरनाक विचार’ कहा गया है। यहां सवाल उठता है कि पिछली आधी शताब्दी में हमने जो चर्तुदिक प्रगति की है, क्या वह इसी ‘खतरनाक विचार’ की वजह से नहीं है ? क्या इसी ‘खतरनाक विचार’ से हम पूर्व में अपनी गुरुकुलों की पुरातन शिक्षा व्यवस्था से ‘विश्व गुरु’ नहीं थे, और हालिया (मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षा) व्यवस्था से भी हमने विश्व और खासकर आज के विश्व नायक देश ‘अमेरिका’ में अपनी प्रतिभा का डंका नहीं बजाया है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा यूं दूसरों की मांद में घुसकर ‘उन’ की छाती पर चढ़कर मूंग दलना ‘उन्हें’ रास नहीं आ रहा और उन्होंने विश्व बैंक की थैलियां दिखाकर विश्व बैंक के ही पुराने कारिंदे-हमारे प्रधानमंत्री जी के जरिए इसे ‘पुराना और खतरनाक विचार’ करार दे दिया। सीबीएसई बोर्ड के वरिष्ठतम अधिकारी ने स्वयं मुझसे अनौपचारिक वार्ता में कहा था कि वह स्वयं नई व्यवस्था और खासकर पास-फेल के बजाय ग्रेडिंग प्रणाली लागू करने से असहमत हैं। उन्होंने इसे तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल की ‘सनक’ कहने से भी गुरेज नहीं किया था। बहरहाल, इस नई व्यवस्था से क्या होगा, इस पर अभी कयास ही लगाए जा सकते हैं, इसका असर देखने में अभी समय लगेगा। 
बहरहाल, मैं दुआ करूंगा कि मैं गलत होऊं। हमारे बच्चे, हमारी आने वाली पीढ़ियां इस नई प्रणाली से भी भारत का अपना पुराना ‘विश्व गुरु’ का सम्मान बरकरार रखें, आपकी बात सही साबित हो। विद्यालय में जैसे शैक्षिक माहौल की बात (कल्पना)  लेख में की गई है, वह सफल हो, विद्यार्थियों के मन से फेल होने के डर या दर्द के साथ प्रतिस्पर्धा की भावना ही दम न तोड़ दे। लेकिन मैं ‘नए’ विचारवान लोगों से स्वयं के लिए ‘पुराने व खतरनाक’ तथा यहां तक कि ‘जंगल के कानून’ की वकालत करने वाले की ‘गाली’ खाना भी पसंद करूंगा कि भविष्य के लिए मजबूत से मजबूत पीढ़ियां तैयार करने के लिए कमजोर कड़ियों का फेल हो जाना ही नहीं टूट जाना, यहां तक कि ‘शहीद हो जाना’ भी जरूरी है। बाल्यकाल से ही हमारे बच्चे कठिन चुनौतियों के अभ्यस्त होंगे तो आगे जीवन की कठिनतर होती जा रही विभीषिकाओं को ही सहज तरीके से सामना कर पाएंगे। 
वरना दुनिया जिस तरह चल रही है, वैसे में विद्यालयों को ‘आनंदालय’ बनाना तो संभव है (विद्यालयों को तो वहां पढ़ाना-लिखाना बंद करके बेहद आसान तरीके से भी आनंदालय बनाया जा सकता है), पर बिल्कुल भी संदेह नहीं कि उनसे बाहर निकलकर दुनिया कतई आनंदालय नहीं होने वाली है। बस आखिर में एक बात और, इस लेख और इस नए विचार को पढ़कर यह सवाल भी उठता है कि क्या हमें हमारे शास्त्रों में लिखा ‘सुखार्थी वा त्यजेत विद्या, विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम्’ भी भूल जाना चाहिए ? या कि हम ‘पश्चिमी हवाओं’ के प्रभाव तथा बदलाव और विकास की अंधी दौड़ में अपने पुरातन व सनातन कहे जाने वाले विचारों को भी एक ‘पुराना व खतरनाक विचार’ ठहराने से गुरेज नहीं करेंगे ? 

Sunday, October 10, 2010

अमेरिका, विश्व बैंक, प्रधानमंत्री जी और ग्रेडिंग प्रणाली


हाल में आयी एक खबर में कहा गया है 'विश्व बैंक ने भारत को अधिक से अधिक बच्चों को शिक्षा सुविधाएं मुहैया कराने के लिए एक अरब पांच करोड़ डॉलर यानी 5,250 करोड़ रुपये से अधिक के ऋण की मंजूरी दे दी है। यह ऋण सरकार द्वारा चलाए जा रहे सर्व शिक्षा अभियान की सहायता के लिए दिया जाएगा।' यह शिक्षा के क्षेत्र में विश्व बैंक का अब तक का सबसे बड़ा निवेश तो है ही, साथ ही यह कार्यक्रम विश्व में अपनी तरह का सबसे बड़ा कार्यक्रम है। 


इसके इतर दूसरी ओर  इससे भी बड़ी परन्तु दब गयी खबर यह है कि भारत सरकार देश भर के स्कूलों में परंपरागत आंकिक परीक्षा प्रणाली को ख़त्म करना चाहती है, वरन देश के कई राज्यों की मनाही के बावजूद सी.बी.एस.ई. में इस की जगह 'ग्रेडिंग प्रणाली' लागू कर दी गयी है 

तीसरे कोण पर जाएँ तो अमेरिका भारतीय पेशेवरों से परेशान है. कुछ दशक पहले नौकरी करने अमेरिका गए भारतीय अब वहां नौकरियां देने लगे हैं अमेरिका की जनसँख्या के महज एक फीसद से कुछ अधिक भारतीयों ने अमेरिका की 'सिलिकोन सिटी' के 15 फीसद से अधिक हिस्सेदारी अपने नाम कर ली हैउसे भारतीय युवाओं की दुनिया की सर्वश्रेष्ठ ऊर्जा तो चाहिए, पर नौकरों के रूप में, नौकरी देने वाले बुद्धिमानों के रूप में नहीं

आश्चर्य नहीं इस स्थिति के उपचार को अमेरिका ने अपने यहाँ आने भारतीयों के लिए H 1 B व L1 बीजा के शुल्क में इतनी बढ़ोत्तरी कर ली है अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की गत दिनों हुई भारत यात्रा में भी यह मुख्य मुद्दा रहा 

अब एक और कोण, 1991 में भारत के रिजर्व बैंक में विदेशी मुद्रा भण्डार इस हद तक कम हो जाने दिया गया कि सरकार दो सप्ताह के आयात के बिल चुकाने में भी सक्षम नहीं थी। यही मौका था जब अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान संकट मोचक का छद्म वेश धारण करके सामने आये । देश आर्थिक संकट से तो जूझ रहा था पर विश्व बैंक और अन्तराष्ट्रीय मुद्राकोष को पता था कि भारत कंगाल नहीं हुआ है, और वह इस स्थिति का फायदा उठा सकते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के सुझाव पर भारतीय रिजर्व बैंक ने अपने भण्डार में रखा हुआ 48 टन सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा एकत्र की।  उदारवाद के मोहपाश में बंधे तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी सरकार और अन्तराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे। यही वह समय था जब सरकार हर सलाह के लिये विश्व बैंक - आईएमएफ की ओर ताक रही थी। हर नीति और भविष्य के विकास की रूपरेखा वाशिंगटन में तैयार होने लगी थी। याद कर लें, वाशिंगटन केवल अमेरिका की राजधानी नहीं है बल्कि यह विश्व बैंक का मुख्यालय भी है।  

अब वापस इस तथ्य को साथ लेकर लौटते हैं कि आज "1991 के तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह" भारत के प्रधानमंत्री हैं उन्होंने देश भर में ग्रेडिंग प्रणाली लागू करने का खाका खींच लिया है, वरन सी.बी.एस.ई. में (निदेशक विनीत जोशी की काफी हद तक अनिच्छा के बावजूद) इसे लागू भी कर दिया है इसके पीछे कारण प्रचारित किया जा रहा है कि आंकिक परीक्षा प्रणाली में बच्चों पर काफी मानसिक दबाव व तनाव रहता है, जिस कारण हर वर्ष कई बच्चे आत्महत्या तक कर बैठते हैं (यह नजर अंदाज करते हुए कि "survival of the fittest" का अंग्रेज़ी सिद्धांत भी कहता है कि पीढ़ियों को बेहतर बनाने के लिए कमजोर अंगों का टूटकर गिर जाना ही बेहतर होता है जो खुद को युवा कहने वाले जीवन की प्रारम्भिक छोटी-मोटी परीक्षाओं से घबराकर श्रृष्टि के सबसे बड़े उपहार "जीवन की डोर" को तोड़ने से गुरेज नहीं करते, उन्हें बचाने के लिए क्या आने वाली मजबूत पीढ़ियों की कुर्बानी दी जानी चाहिए

यह भी कहा जाता है कि फ़्रांस के एक अखबार ने चुनाव से पहले ही वर्ष २००० में सिंह के देश का अगला वित्त मंत्री बनाने की भविष्यवाणी कर दी थी....(यानी जिस दल की भी सरकार बनती, 'मनमोहन' नाम के मोहरे को अमेरिका और विश्व बैंक भारत का वित्त मंत्री बना देते)

कोई आश्चर्य नहीं, यहाँ "दो और लो (Give and Take)" के बहुत सामान्य से नियम का ही पालन किया जा रहा है  अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान कर्ज एवं अनुदान दे रहे हैं, इसलिये स्वाभाविक है कि शर्ते भी उन्हीं की चलेंगी। लिहाजा हमारे प्रधानमंत्री जी पर अमेरिका का भारी दबाव है, "तुम्हारी (दुनियां की सबसे बड़ी बौद्धिक शक्ति वाली) युवा ब्रिगेड ने हमारे लोगों के लिए बेरोजगारी की  समस्या खड़ी कर दी है, विश्व बेंक के 1.05 अरब डॉलर पकड़ो, और इन्हें यहाँ आने से रोको, भेजो भी तो हमारे इशारों पर काम करने वाले कामगार....हमारी छाती पर मूंग दलने वाले होशियार नहीं...समझे....", और प्रधानमंत्री जी ठीक सोनिया जी के सामने शिर झुकाने की अभ्यस्त मुद्रा में 'यस सर' कहते है, और विश्व बैंक के दबाव में ग्रेडिंग प्रणाली लागू कर रहे हैं

उनके इस कदम से देश के युवाओं में बचपन से एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिद्वंद्विता की भावना और "self motivation" की प्रेरणा दम तोड़ने जा रही है देश की आने वाली पीढियां पंगु होने जा रही हैं अब उन्हें कक्षा में प्रथम आने, अधिक प्रतिशतता के अंक लाने और यहाँ तक कि पास होने की भी कोई चिंता नहीं रही शिक्षकों के हाथ से छड़ी पहले ही छीन चुकी सरकार ने अब अभिभावकों के लिए भी गुंजाइस नहीं छोडी कि वह बच्चों को न पढ़ने, पास न होने या अच्छी परसेंटेज न आने पर डपटें भी

Wednesday, July 21, 2010

नैनीताल क्या नहीं...क्या-क्या नहीं, यह भी...वह भी, यानी "सचमुच स्वर्ग"

'छोटी बिलायत´ हो या `नैनीताल´, हमेशा रही वैश्विक पहचान 
नवीन जोशी, नैनीताल। सरोवर नगरी नैनीताल को कभी विश्व भर में अंग्रेजों के घर `छोटी बिलायत´ के रूप में जाना जाता था, और अब नैनीताल के रूप में भी इस नगर की वैश्विक पहचान है। इसका श्रेय केवल नगर की अतुलनीय, नयनाभिराम, अद्भुत, अलौकिक जैसे शब्दों से भी परे यहां की प्राकृतिक सुन्दरता को दिया जाऐ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 
नैनीताल नगर का पहला उल्लेख "त्रि-ऋषि सरोवर" के नाम से स्कंद पुराण के मानस खंड में मिलता है, कहा जाता है कि अत्रि, पुलस्त्य व पुलह नाम के तीन ऋषि कैलास मानसरोवर झील की यात्रा के मार्ग में इस स्थान से गुजर रहे थे कि उन्हें जोरों की प्यास लग गयी। इस पर उन्होंने अपने तपोबल से यहीं मानसरोवर का स्मरण करते हुए एक गड्ढा खोदा और उसमें मानसरोवर झील का पवित्र जल भर दिया। इस प्रकार नैनी झील का धार्मिक महात्म्य मानसरोवर झील के तुल्य ही माना जाता है वहीँ एक अन्य मान्यता के अनुसार नैनी झील को देश के 64 शक्ति पीठों में से एक माना जाता है। कहा जाता है कि भगवान शिव जब माता सती के दग्ध शरीर को आकाश मार्ग से कैलाश पर्वत की ओर ले जा रहे थे, इस दौरान भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से उनके शरीर को विभक्त कर दिया था। तभी माता सती की बांयी आँख (नैन या नयन) यहाँ (तथा दांयी आँख हिमांचल प्रदेश के नैना देवी नाम के स्थान पर) गिरी थी, जिस कारण इसे नयनताल, नयनीताल व कालान्तर में नैनीताल कहा गया. यहाँ नयना देवी का पवित्र मंदिर स्थित है। 
समुद्र स्तर से 1938 मीटर (6358 फीट) की ऊंचाई पर स्थित नैनीताल करीब दो किमी की परिधि की 1434 मीटर लंबी, 463 मीटर चौड़ाई व अधिकतम 28 मीटर गहराई व 464 हेक्टेयर में फैली की नाशपाती के आकार का झील के गिर्द नैना (2,615 मीटर (8,579 फुट), देवपाटा (2,438 मीटर (7,999 फुट)) तथा अल्मा, हांड़ी-बांडी, लड़िया-कांटा और अयारपाटा (2,278 मीटर (7,474 फुट) की सात पहाड़ियों से घिरा हुआ बेहद खूबसूरत पहाडी शहर है जिला गजट के अनुसार नैनीताल 29 डिग्री 38' उत्तरी अक्षांश और 79 डिग्री 45' पूर्वी देशांतर पर स्थित है ।
आंकड़ों में नैनीताल 

नैनीताल की वर्तमान रूप में खोज करने का श्रेय पीटर बैरन को जाता है, कहा जाता है कि उन्होंने 18 नवम्बर 1841 को नगर की खोज की थी। नैनीताल की खोज यूं ही नहीं, वरन तत्कालीन विश्व राजनीति की रणनीति के तहत सोची-समझी रणनीति एवं तत्कालीन विश्व राजनीति के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण थी। 1842 में सर्वप्रथम आगरा अखबार में बैरन के हवाले से इस नगर के बारे में समाचार छपा, जिसके बाद 1850 तक यह नगर "छोटी बिलायत" के रूप में देश-दुनियां में प्रसिद्ध हो गया। 1843 में ही  नैनीताल जिमखाना की स्थापना के साथ यहाँ खेलों की शुरुआत हो गयी थी, जिससे पर्यटन को भी बढ़ावा मिलने लगा।  1844 में नगर में पहले "सेंट जोन्स इन विल्डरनेस" चर्च की स्थापना और 1847 में यहाँ पुलिस व्यस्था शुरू हुई। 1854 में कुमाऊँ मंडल का मुख्यालय बना और 1862 में यह नगर गर्मियों की छुट्टियां बिताने के लिए प्रसिद्ध पर्यटन स्थल बन गया था, और तत्कालीन (उत्तर प्रान्त) नोर्थ प्रोविंस की ग्रीष्मकालीन राजधानी के  साथ ही लार्ड साहब का मुख्यालय भी बना दिया गया। साथ ही 1896 में सेना की उत्तरी कमांड का एवं 1906 से 1926 तक पश्चिमी कमांड का मुख्यालय रहा। 1881 में यहाँ ग्रामीणों को बेहतर शिक्षा के लिए डिस्ट्रिक्ट बोर्ड व 1892 में रेगुलर इलेक्टेड बोर्ड बनाए गए । 1872 में नैनीताल सेटलमेंट किया गया। 1880 में ड्रेनेज सिस्टम बनाया गया।  1892 में ही विद्युत् चालित स्वचालित पम्पों की मदद से यहाँ पेयजल आपूर्ति होने लगी. 1889 में 300 रुपये प्रतिमाह के डोनेशन से नगर में पहला भारतीय कॉल्विन क्लब राजा बलरामपुर ने शुरू किया। कुमाऊँ में कुली बेगार आन्दोलनों के दिनों में 1921 में इसे पुलिस मुख्यालय भी बनाया गया। वर्तमान में यह  कुमाऊँ मंडल का मुख्यालय है, साथ ही यहीं उत्तराखंड राज्य का उच्च न्यायालय भी है। एक खोजकर्ता Lynne Williams के अनुसार 1823 में सर्वप्रथम नैनीताल पहुंचे पहले अंग्रेज कुमाऊं के दूसरे कमिशनर जॉर्ज विलियम ट्रेल ने 1828  में इस स्थान के लिए बेहद पवित्र नागनी ताल (Nagni Tal) शब्द का प्रयोग किया था। यह भी एक रोचक तथ्य है कि अपनी स्थापना के समय सरकारी दस्तावेजों में 1841 से यह नगर नायनीटाल (Nynee Tal)आगे Nynee और Nainee दोनों तथा 1881 से NAINI TAL (नैनीताल) लिखा गया। 2001 की भारतीय जनगणना के अनुसार नैनीताल की जनसँख्या 39,639 थी. (इससे पूर्व 1901 में यहाँ की जनसँख्या 6,903, 1951 में 12,350, 1981 में 24,835 व 1991 में 26,831 थी। ) जिसमें पुरुषों और महिलाओं की जनसंख्या क्रमशः 46% से 54% और औसत साक्षरता दर 81%  थी, जो राष्ट्रीय औसत  59.5% से अधिक है इसमें भी पुरुष साक्षरता दर 86% और महिला साक्षरता 76% थी
Population 2011 Census Persons Males Females
Total 41,377 21,648 19,729
In the age group 0-6 years 3,946 2,079 1,867
Scheduled Castes (SC) 11,583 6,018 5,565
Scheduled Tribes (ST) 280 139 141
Literates 34,786 18,804 15,982
Illiterate 6,591 2,844 3,747
Total Worker 13,385 10,753 2,632
Main Worker 12,129 9,800 2,329
Main Worker - Cultivator 42 35 7
Main Worker - Agricultural Labourers 23 19 4
Main Worker - Household Industries 173 146 27
Main Worker - Other 11,891 9,600 2,291
Marginal Worker 1,256 953 303
Marginal Worker - Cultivator 22 13 9
Marginal Worker - Agriculture Labourers 3 1 2
Marginal Worker - Household Industries 53 33 20
Marginal Workers - Other 1,178 906 272
Marginal Worker (3-6 Months) 1,168 889 279
Marginal Worker - Cultivator (3-6 Months) 22 13 9
Marginal Worker - Agriculture Labourers (3-6 Months) 3 1 2
Marginal Worker - Household Industries (3-6 Months) 49 30 19
Marginal Worker - Other (3-6 Months) 1,094 845 249
Marginal Worker (0-3 Months) 88 64 24
Marginal Worker - Cultivator (0-3 Months) 0 0 0
Marginal Worker - Agriculture Labourers (0-3 Months) 0 0 0
Marginal Worker - Household Industries (0-3 Months) 4 3 1
Marginal Worker - Other Workers (0-3 Months) 84 61 23
Non Worker 27,992 10,895 17,097
इधर 2011 की ताजा जनगणना के अनुसार नैनीताल नगर में 9329 परिवारों की कुल जनसंख्या 21648 पुरुष व 19729 महिला मिलाकर 41,377 हो गई है। इनमें 2079 बालक व 1867 बालिकाएं मिलाकर कुल 3946 छह वर्ष तक के बच्चे हैं। जनसंख्या में 11583 अनुसूचित जाति के तथा 280 अनुसूचित जनजाति के हैं। 34786 लोग शिक्षित एवं शेष 6591 अशिक्षित हैं। दिलचस्प तथ्य है कि शहर की कुल जनसंख्या में से 13385 लोग कोई रोजगार करते हैं, जबकि शेष 27992 बेरोजगार हैं।
पाल नौकायन के बारे में 
1890 में नैनीताल में विश्व के सर्वाधिक ऊँचे याट (पाल नौका, सेलिंग-राकटा) क्लब (वर्तमान बोट हाउस क्लब) की स्थापना हुई। एक अंग्रेज लिंकन होप ने यहाँ की परिस्थितियों के हिसाब से विशिष्ट पाल नौकाएं बनाईं, जिन्हें "हौपमैन हाफ राफ्टर" कहा जाता है, इन नावों के साथ इसी वर्ष सेलिंग क्लब ने नैनी सरोवर में सर्प्रथान पाल नौकायन की शुरुआत भी की यही नावें आज भी यहाँ चलती हैं। 1891 में नैनीताल याट क्लब (N.T.Y.C.) की स्थापना हुई ।  बोट हाउस क्लब वर्तमान स्वरुप में 1897 में  स्थापित हुआ 
शरदोत्सव के बारे में 
1890 में "मीट्स एंड स्पेशल वीक" के रूप में वर्तमान "नैनीताल महोत्सव" व शरदोत्सव जैसे आयोजन की शुरुआत हो गई थी, जिसमें तब इंग्लॅण्ड, फ़्रांस, जर्मनी व इटली के लोक-नृत्य होते थे, तथा केवल अंग्रेज और आर्मी व आईसीएस अधिकारी ही भाग लेते थे । इसी वर्ष तत्कालीन म्युनिसिपल कमिश्नर (तब पालिका सभाषदों के लिए प्रयुक्त पदनाम) जिम कार्बेट (अंतरराष्ट्रीय शिकारी) ने झील किनारे वर्तमान बेंड स्टैंड की स्थापना की।1895 में हाल में बंद हुए कैपिटोल सिनेमा की कैपिटोल नांच घर के रूप में तथा फ्लैट मैदान में पोलो खेलने की शुरुआत हुई। 6 सितम्बर 1900 में शरदोत्सव जैसे आयोजनों को "वीक्स" और "मीट्स" नाम दिया गया, ताकि इन तय तिथियों पर अन्य आयोजन न हों, 1925 में इसे नया नाम "रानीखेत वीक" और "सितम्बर वीक" नाम दिए गए. 1937 तक यह आयोजन वर्ष में दो बार जून माह (रानीखेत वीक) व सितम्बर-अक्टूबर (आईसीएस वीक) के रूप में होने लगे, इस दौरान थ्री-ए-साइड पोलो प्रतियोगिता भी होती थी। इन्हीं 'वीक्स' में हवा के बड़े गुब्बारे भी उडाये जाते थे। इस दौरान डांडी रेस, घोडा रेस व रिक्शा दौड़ तथा इंग्लॅण्ड, फ़्रांस व होलैंड आदि देशों के लोक नृत्य व लोक गायन के कार्यक्रम वेलेजली गर्ल्स, रैमनी व सेंट मेरी कोलेजों की छात्राओं व अंग्रेजों द्वारा होते थे, इनमें भारतीयों की भूमिका केवल दर्शकों के रूप में तालियाँ बजाने तक ही सीमित होती थी. स्वतंत्रता के बाद नैनीताल पालिका के प्रथम पालिकाध्यक्ष राय बहादुर जसौद सिंह बिष्ट ने 3 सितम्बर 1952 को पालिका में प्रस्ताव पारित कर 'सितम्बर वीक' की जगह "शरदोत्सव" मनाने का निर्णय लिया, जो वर्तमान तक जारी है. अलबत्ता 1999 के बाद आयोजन में पालिका के साथ जिला प्रशाशन व पर्यटन विभाग भी सहयोग देने लगा है  
नैना देवी मंदिर के बारे में 
स्व. मोती राम शाह
पूर्व में मां नयना देवी का मन्दिर वर्तमान बोट हाउस क्लब व फव्वारे के बीच के स्थान पर कहीं था, जो 18 सितम्बर 1880 को आऐ विनाशकारी भूस्खलन में ध्वस्त हो गया, कहा जाता है कि इसके अवशेष वर्तमान मन्दिर के करीब मिले। इस पर अंग्रेजों ने मन्दिर के पूर्व के स्थान बदले वर्तमान स्थान पर मन्दिर के लिए लगभग सवा एकड़ भूमि हस्तान्तरित की, जिस पर नगर के संस्थापक मोती राम शाह (वह मूल रूप से नेपाल के निवासी तथा उस दौर में अल्मोड़ा के प्रमुख व्यवसायी, अग्रेज सरकार बहादुर के बैंकर और तत्कालीन बड़े ठेकेदार थे। वे ही नैनीताल में शुरूआती वर्षों में बने सभी बंगलों व अनेक सार्वजनिक उपयोग के भवनों के शिल्पी और ठेकेदार और नैनीताल में बसने वाले पहले हिंदुस्तानी भी थे । उन्होंने ही पीटर बैरन के लिए नगर का पहला घर पिलग्रिम हाउस का निर्माण भी उन्होंने ही कराया था। ) ने मौजूदा बोट हाउस क्लब के पास प्रसिद्ध माँ नयना देवी के मंदिर का निर्माण कराया था, जो 1880 के विनाशकारी भू-स्खलन में दब गया था । 1883 में स्व. श्री मोती राम शाह जी के ज्येष्ठ पुत्र स्व अमर नाथ शाह  ने माँ नयना देवी का मौजूदा मंदिर बनवाया था ।
बताते हैं कि मां की मूर्ति काले पत्थर से नेपाली मूर्तिकारों से बनवाई, और उसकी स्थापना 1883 में मां आदि शक्ति के जन्म दिन मानी जाने वाली ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को की। तभी से इसी तिथि को मां नयना देवी का मंदिर का स्थापना दिवस मनाया जाता है, और इसे मां का जन्मोत्सव भी कहा जाता है। मंदिर की व्यस्था वर्तमान में मां नयना देवी अमर-उदय ट्रस्ट द्वारा की जाती है, और ट्रस्ट की `डीड´ की शर्तों के अनुसार इस परिवार के वंशजों को वर्ष में केवल इसी  दिन मन्दिर के गर्भगृह में जाने की अनुमति होती है। बताते हैं कि शुरू में मंदिर परिसर में केवल तीन मन्दिर ही थे, इनमें से मां नयना देवी व भैरव मन्दिर में नेपाली एवं पैगोडा मूर्तिकला की छाप बताई जाती है, वहीं इसके झरोखों में अंग्रेजों की गौथिक शैली का प्रभाव भी नज़र आता है। तीसरा नवग्रह मन्दिर ग्वालियर शैली में बना है। इसका निर्माण विशेष तरीके से पत्थरों को आपस में फंसाकर किया गया और इसमें गारे व मिट्टी का प्रयोग नहीं हुआ। 
अंग्रेजों ने नैनीताल को बसाया, संवारा और बचाया भी 







नैनीताल ही शायद दुनिया का ऐसा इकलौता नगर हो, जिसे इसके अंग्रेज निर्माताओं ने न केवल खोजा और बसाया ही वरन इसकी सुरक्षा के प्रबंध भी किऐ। कहा जाता है कि 1823में कुमाऊं के दूसरे कमिश्नर ट्रेल'स पास (5212मीटर) के 1830 में खोजकर्ता  जॉर्ज विलियम  ट्रेल यहां पहुंचे और इसकी प्राकृतिक सुन्दरता देखकर अभिभूत हो गए। (उन्होंने रानीखेत की कुमाउनी युवती से विवाह किया था, और वह अच्छी कुमाउनी जानते थे। उन्हें उन्हें 1834 में हल्द्वानी को बसाने का श्रेय भी दिया जाता है।) उन्होंने इस स्थान से जुड़ी स्थानीय लोगों की गहरी धार्मिक आस्था को देखते हुऐ इसे स्वयं अंग्रेज होते हुए भी कंपनी बहादुर की नज़रों से छुपाकर रखा। शायद उन्हें डर था कि मनुष्य की यहाँ आवक बड़ी तो यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता पर दाग लग जायेंगे. लेकिन आज जब प्रतिवर्ष लाखों पर्यटक यहाँ आते हैं, हरे वनों में कमोबेश कंक्रीट के पहाड़ उग गए हैं, बावजूद यहाँ की खूबसूरती का अब भी कोई सानी नहीं है। कहा जाता है कि मि. ट्रेल ने स्थानीय लोगों से भी इस स्थान के बारे में किसी अंग्रेज को न बताने की ताकीद की थी। यही कारण था कि 18 नवंबर 1841 में जब शहर के खोजकर्ता के रूप में पहचाने जाने वाले रोजा-शाहजहांपुर के अंग्रेज शराब व्यवसायी पीटर बैरन कहीं से इस बात की भनक लगने पर जब इस स्थान की ओर आ रहे थे तो किसी ने उन्हें इस स्थान की जानकारी नहीं दी। इस पर बैरन को नैंन सिंह नाम के व्यक्ति (उसके दो पुत्र राम सिंह व जय सिंह थे। ) के सिर में भारी पत्थर रखवाना पड़ा। उसे आदेश दिया गया, "इस पत्थर को नैनीताल नाम की जगह पर ही सिर से उतारने की इजाजत दी जाऐगी"। इस पर मजबूरन वह नैन सिंह बैरन को सैंट लू गोर्ज (वर्तमान बिडला चुंगी) के रास्ते नैनीताल लेकर आया। उनके साथ तत्कालीन आर्मी विंग केसीवी के कैप्टन सी व कुमाऊँ वर्क्स डिपार्टमेंट के एग्जीक्यूटिव इंजीनियर कप्तान वीलर भी थे. बैरन ने  1842 में आगरा अखबार में नैनीताल के बारे में पहला लेख लिखा "अल्मोड़ा के पास एक सुन्दर झील व वनों से आच्छादित स्थान है जो विलायत के स्थानों से भी अधिक सुन्दर है"। यह भी उल्लेख मिलता है कि उसने यहाँ के तत्कालीन स्वामी थोकदार नर सिंह को डरा-धमका कर, यहाँ तक कि उन्हें  पहली बार नैनी झील में लाई गयी नाव से झील के बीच में ले जाकर डुबोने की धमकी देकर इस स्थान का स्वामित्व कंपनी बहादुर के नाम जबरन कराया हालांकि अंतरराष्ट्रीय शिकारी जिम कार्बेट व 'कुमाऊं का इतिहास' के लेखक बद्री दत्त पांडे के अनुसार बैरन दिसंबर 1839 में भी नैनीताल को देख कर लौट गया था और 1841 में पूरी तैयारी के साथ वापस लौटा. बाद में नगर की स्थापना के प्रारंभिक दौर में 1842-43 में कप्तान एमोर्ड, असिस्टेंट कमिश्नर बैरन, कप्तान बी यंग, टोंकी तथा पीटर बैरन को लीज पर जमीनों का आवंटन हुआ बैरन ने पिलग्रिम लोज के रूप में नगर में पहला भवन बनाया। जेएम किले की पुस्तक में 1928 में नगर के तत्कालीन व पहले पदेन पालिकाध्यक्ष व कुमाऊं के चौथे कमिश्नर लूसिंग्टन के द्वारा भी नगर में एक भवन के निर्माण की बात लिखी गयी है, किन्तु अन्य दस्तावेज इसकी पुष्टि नहीं करते। 1845 में लूसिंग्टन ने इस नगर में स्कूल, कालेज जैसे सार्वजनिक हित के कार्यों के अतिरिक्त भूमि लीज पर दिऐ जाने की व्यवस्था समाप्त कर दी थी। लूसिंग्टन की मृत्यु केवल 42 वर्ष की आयु में यहीं हुई, उनकी कब्र अब भी नैनीताल में धूल-धूसरित अवस्था में मौजूद है। उन्होंने नगर में पेड़ों के काटने पर भी प्रतिबंध लगा दिया था। यही कारण है कि नैनीताल में कई बार लोग पूछने लगते हैं कि अंग्रेज इतने ही बेहतर थे तो उन्हें देश से भगाया ही क्यों जा रहा था। इस प्रश्न का उत्तर है नैनीताल उन्हें अपने घर जैसा लगा था, और इसी लिऐ वह इसे अपने घर की तरह ही सहेज कर रखते थे। इसीलिऐ इसे `छोटी बिलायत' भी कहा जाता था, पर अफसोस कि यह नगर इस शहर के निवासियों का भी है, और वह इस नगर के लिए शायद उतना नहीं कर पा रहे हैं। 

और वह मनहूस दिन.....
लेकिन कम-कम करके भी 1880 तक नगर में उस दौर के लिहाज से काफी निर्माण हो चुके थे और नगर की जनसंख्या लगभग ढाई हजार के आसपास पहुँच गयी थी, ऐसे में 18 सितम्बर का वह मनहूस दिन आ गया जब केवल 40 घंटे में हुयी 35 इंच यानी 889 मिमी बारिश के बाद आठ सेकेण्ड के भीतर नगर में वर्तमान रोप-वे के पास ऐसा विनाशकारी भूस्खलन हुआ कि 151 लोग (108 भारतीय और 43 ब्रितानी नागरिक), उस जमाने का नगर का सबसे विशाल `विक्टोरिया होटल´ और मि. बेल के बिसातखाने की दुकान व तत्कालीन बोट हाउस क्लब के पास स्थित वास्तविक नैनादेवी मन्दिर जमींदोज हो गऐ। यह अलग बात है कि इस विनाश ने नगर को वर्तमान फ्लैट मैदान के रूप में अनोखा तोहफा दिया। वैसे इससे पूर्व भी वर्तमान स्थान पर घास के हरा मैदान होने और 1843 में ही यहाँ नैनीताल जिमखाना की स्थापना होने को जिक्र मिलता है  इससे पूर्व 1866 व 1879  में भी नगर की आल्मा पहाड़ी पर बड़े भूस्खलन हुये थे, जिनके कारण तत्कालीन सेंट लू गोर्ज स्थित राजभवन की दीवारों में दरारें आ गयी थीं। 
समस्या के निदान को बने नाले 
बहरहाल, अंग्रेज इस घटना से बेहद डर गऐ थे और उन्होंने तुरन्त पूर्व में आ चुके विचार को कार्य रूप में परिणत करते हुए नगर की कमजोर भौगौलिक संरचना के दृष्टिगत समस्या के निदान व भूगर्भीय सर्वेक्षण को बेरजफोर्ड कमेटी का गठन किया। अंग्रेज सरकार ने पहले चरण में सबसे खतरनाक शेर-का-डंडा, चीना (वर्तमान नैना), अयारपाटा, लेक बेसिन व बड़ा नाला (बलिया नाला) का निर्माण दो लाख रुपये में किया। बाद में 80 के अंतिम व 90 के शुरुआती दशक में नगर पालिका ने तीन लाख रुपये से अन्य नाले बनाए। 1898 में आयी तेज बारिश ने लोंग्डेल व इंडक्लिफ क्षेत्र में ताजा बने नालों को नुक्सान पहुंचाया, जिसके बाद यह कार्य पालिका से हटाकर पीडब्लूडी को दे दिए गए। 23 सितम्बर 1898 को इंजीनियर वाइल्ड ब्लड्स द्वारा बनाए नक्शों से 35 से अधिक नाले बनाए गए। 1901 तक कैचपिट  युक्त 50 नालों (लम्बाई 77,292 फिट) व 100 शाखाओं का निर्माण (कुल लम्बाई 1,06499 फिट) कर लिया गया। बारिश में भरते ही कैचपिट में भरा मलवा हटा लिया जाता था। अंग्रेजों ने ही नगर के आधार बलियानाले में भी सुरक्षा कार्य करवाऐ, जो आज भी बिना एक इंच हिले नगर को थामे हुऐ हैं, जबकि कुछ वर्ष पूर्व ही हमारे द्वारा बलियानाला में किये गए कार्य लगातार दरकते जा रहे हैं। 
कोशिश थी रेल लाने की 
अंग्रेजों ने नैनीताल में `माउंटेन ट्रेन´ लाने की योजना तभी बना ली थी। 1883-84 में बरेली से हल्द्वानी को रेल लाइन से जोड़ा गया था और 1885 में  काठगोदाम तक रेल लाइन बिछाई गई। 24 अप्रैल 1884 को पहली ट्रेन हल्द्वानी पहुंची थी। 1889 में काठगोदाम से नैनीताल के लिए शिमला व दार्जिलिंग की तर्ज पर मेजर जनरल सीएम थॉमसन द्वारा काठगोदाम से रानीबाग, दोगांव, गजरीकोट, ज्योलीकोट व बेलुवाखान होते हुऐ रेल लाइन बिछाकर यहां `माउंटेन ट्रेन´ लाने की योजना बनाई गई। अंग्रेजों ने नगर के पास ही स्थित खुर्पाताल में रेल की पटरियां बनाने के लिए लोहा गलाने का कारखाना भी स्थापित कर दिया था, लेकिन नगर की कमजोर भौगौलिक स्थिति इसमें आड़े आ गयी। इसके बाद 1887 में ब्रेवरी से रोप-वे बनाने की योजना बनायी गई। 1890 में इस हेतु ब्रेवरी में जमीन खरीदी गयी और पालिका से 1.8 लाख रुपये मांगे गए, तब पालिका की वार्षिक आय महज 25 हजार रुपये सालाना थी 1891 में नगर को यातायात के लिए सड़क के अंतिम विकल्प पर कार्य हुआ, बेलुवाखान, बल्दियाखान व नैना गाँव होते हुए बैलगाड़ी की सड़क (कार्ट रोड) बनायी गयी, जो हनुमानगड़ी के पास वर्तमान में पैदल पगडंडी के रूप में दिखाई देती है. इसके पश्चात 1899 में भवाली को नैनीताल से पहले सड़क से जोड़ा गया, और फिर 1915 में (गर्भगृह में नैनीताल के अनुसार)  ज्योलीकोट से नैनीताल की वर्तमान सड़क बनी। हाँ, इससे पूर्व 1848 में माल रोड बन चुकी थी।
जब माल रोड पर गवर्नर का चालन हुआ था....
 कहते हैं कि धन की कमी से नैनीताल आने के लिए रोप वे की योजना भी परवान न चढ़ सकी तब आंखिरी विकल्प के रूप में सड़क बनायी गयी 14 फरवरी 1917 को नगर पालिका ने पहली बार नगर में वाहनों के परिचालन के लिए उपनियम (बाई-लाज) जारी कर दिए गए, जिनके अनुसार देश व राज्य के विशिष्ट जनों के अलावा किसी को भी माल रोड पर बिना पालिका अध्यक्ष की अनुमति के पशुओं या मोटर से खींचे जाने वाले भवन नहीं चलाये जा सकते थे। माल रोड पर वाहनों का प्रवेश प्रतिबंधित करने के लिए जीप-कार को 10 व बसों-ट्रकों को 20 रुपये चुंगी पड़ती थी, 1 अप्रेल से 15 नवम्बर तक सीजन होता था, जिस दौरान शाम 4 से 9 बजे तक चुंगी दोगुनी हो जाती थी। नियमों के उल्लंघन पर तब 500 रुपये के दंड का प्राविधान था। नियम तोड़ने की किसी  को इजातात न थी, और पालिका अध्यक्षों का बड़ा प्रभाव होता था  बताते हैं कि एक बार गवर्नर के वाहन में लेडी गवर्नर बिना इजाजत के (टैक्स दिए बिना) मॉल रोड से गुजर गईं, इस पर तत्कालीन पालिकाध्यक्ष जसौत सिंह बिष्ट  ने लेडी गवर्नर का 10 रुपये का चालान कर दिया था 1925 में प्रकाशित नगर के डिस्ट्रिक्ट गजट आफ आगरा एंड अवध के अनुसार तब तक तल्लीताल डांठ पर 88 गाड़ियों की नैनीताल मोटर ट्रांसपोर्ट कंपनी स्थापित हो गयी थी, जिसकी लारियों में काठगोदाम से ब्रवेरी का किराया 1 .8 व नैनीताल का 3 रूपया था। किराए की टैक्सियाँ भी चलने लगीं थीं।
1922 में मुफ्त में मनाई थी दिवाली 
1919 में रोप-वे के लिए ब्रेवरी के निकट कृष्णापुर में बिजलीघर स्थापित कर लिया गया था, किन्तु रोप-वे का कार्य शुरू न हो सका, अलबत्ता 1 सितम्बर 1922 को बिजली के बल्बों से जगमगाकर नैनीताल प्रदेश का बिजली से जगमगाने वाला पहला शहर जरूर बन गया। यहाँ नैनी झील से ही लेजाये गए पानी से 303 केवीए की बिजली बनती थी 1916 में इसका निर्माण पूर्ण हुआ। लेकिन नगरवासी बिजली के संयोजन नहीं ले रहे थे, कहते हैं कि इस पर '22 में दिवाली पर मुफ्त में नगर को रोशन किया गया, जिसके बाद लोग स्वयं संयोजन लेने को प्रेरित हुएयहाँ भी पढ़ें
राजभवन और गोल्फ कोर्स  
अंग्रेजों ने यहाँ 1897-99 में बकिंघम पैलेस की प्रतिकृति के रूप में गौथिक शैली में राजभवन, और इसी के पार्श्व में 200 एकड़ में 18 होल्स का गोल्फ कोर्स बनाया, ऐसी नगर में और भी कई इमारतें आज भी नगर में यथावत हैं जो अपने पूर्व हुक्मरानों से कुछ सीखने की प्रेरणा देती हैं। इधर इस  इमारत के करोड़ से  जीर्णोद्धार का कार्य चल रहा है इसीके दौरान दो अप्रैल 2013 को  इसके सूट नंबर चार में  अग्निकांड हो गया, गनीमत रही की इसमें मामूली नुक्सान हुआ इससे पूर्व यहाँ पांच जनवरी 1970 को भी (डायनिंग हॉल में) अग्निकांड हुआ था 
1892 में शुरू होने लगा इलाज़ 
नगर में चिकित्सा व्यवस्था की शुरुआत 1892 में रैमजे हॉस्पिटल की स्थापना के साथ हुयी दो वर्ष बाद बी. डी. पाण्डे जिला चिकित्सालय की आधारशिला नोर्थ-वेस्ट प्रोविंस के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर चार्ल्स एच. टी. क्रोस्थ्वेट ने 17 अक्टूबर 1894 को रखी थी 
कार्बेट की मां ने की थी पर्यटन की शुरुआत 
नगर में पर्यटन की शुरुआत का श्रेय एक अंग्रेज महिला मेरी जेन कार्बेट को जाता है, जिन्होंने सबसे पहले अपना घर किराए पर दिया था वह प्रख्यात अंतरराष्ट्रीय शिकारी जिम कार्बेट की मां थीं उनके बाद ही 1870-72 में मेयो होटल के नाम से टॉम मुरे ने नगर के पहले होटल (वर्तमान ग्रांड होटल) का निर्माण कराया। जेन की मृत्यु 16 मई 1924 को हुयी, उन्हें सैंट जोर्ज कब्रस्तान में लूसिंग्टन के करीब ही दफनाया गया था। आज इन कब्रों में नाम इत्यादि लिखने में प्रयुक्त धातु भी उखाड़ कर चुरा ली गयी है। उनका 1881 में बना घर गर्नी हाउस आज भी आल्मा पहाड़ी पर मौजूद है। 

कार्बेट ने बनाया था बेंड स्टेंड, राम सिंह ने की बेंड की शुरुवात 

सरोवरनगरी के ऐतिहासिक बैंड हाउस के निर्माण का श्रेय नगर के तत्कालीन म्युनिसिपल कमिश्नर अंतरराष्ट्रीय पर्यावरणविद  व सुप्रसिद्ध शिकारी जिम कार्बेट  को जाता है। कहते हैं कि उन्होंने स्वयं के चार हजार रुपये से यहां पर लकड़ी का बैंड स्टैंड बनाया था। 1960 के दशक से तत्कालीन पालिका अध्यक्ष मनोहर लाल साह ने इसका जीर्णोद्धार कर इसे वर्तमान स्वरूप दिलाया, और तभी से आजाद हिंद फौज में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के करीबी रहे कैप्टन राम सिंह ने यहां सीजन के दिनों में बैंडवादन की शुरूआत की। करीब ढाई दशक पूर्व तक वह यहां हर वर्ष नियमित रूप से सीजन के दौरान बैंडवादन करते रहे। इसके बाद से बीच-बीच में कई बार बैंड वादन होता और छूटता रहा। अब नगर निवासी डीजीपी विजय राघव पंत इस परंपरा को पुनर्जीवित व हमेशा जारी रखने का विश्वास जता रहे हैं।
आसान पहुंच में है नैनीताल
नैनीताल पहुँचाने के लिए पन्तनगर (72 किमी) तक हवाई सेवा से भी आ सकते हैं। काठगोदाम (34 किमी) देश के विभिन्न शहरों से रेलगाड़ी से जुड़ा है, यहां से बस या टैक्सी से आया जा सकता है। नैनीताल देश की राजधानी दिल्ली से 304 और लखनऊ से 388 किमी दूर है
बहुत कुछ है देखने को
नैनी सरोवर में नौकायन व माल रोड पर सैर का आनन्द जीवन भर याद रखने योग्य है। इसके अलावा नैना पीक (2610 मी.), स्नो भ्यू (2270 मी.), टिफिन टॉप (2292 मी.) से नगर एवं तराई क्षेत्रों के ´बर्ड आई व्यू´ लिए जा सकते हैं तो हिमालय दर्शन (9 किमी) से मौसम साफ होने पर  उम्मीद से कहीं अधिक 365 किमी की हिमालय की अटूट पर्वत श्रृंखलाओं का नयनाभिराम दृश्य एक नज़र में देखा जा सकता है। नगर से करीब तीन किमी की पैदल ट्रेकिंग कर नैना पीक पहुँच कर हिमालय के दर्शन करना अनूठा अनुभव देता है। जहां से पर्वतराज हिमालय की अटूट श्वेत-धवल क्षृंखलाओं में प्रदेश के कुमाऊं व गढ़वाल अंचलों के साथ पड़ोसी राष्ट्र नेपाल की सीमाओं को एकाकार होते हुऐ देखना एक शानदार अनुभव होता है। यहां से पोरबंदी, केदारनाथ, कर्छकुंड,   चौखम्भा, नीलकंठ, कामेत, गौरी पर्वत, हाथी पर्वत, नन्दाघुंटी, त्रिशूल, मैकतोली (त्रिशूल ईस्ट), पिण्डारी, सुन्दरढुंगा ग्लेशियर, नन्दादेवी, नन्दाकोट, राजरम्भा, लास्पाधूरा, रालाम्पा, नौल्पू व पंचाचूली होते हुऐ नेपाल के एपी नेम्फा की एक, दो व तीन सहित अन्य चोटियों की 365 किमी से अधिक लंबी पर्वत श्रृंखला को एक साथ इतने करीब से देखने का जो मौका मिलता है, वह हिमालय पर जाकर भी सम्भव नहीं। इसके अलावा सैकड़ों किमी दूर के हल्द्वानी, नानकमत्ता, बहेड़ी, रामनगर, काशीपुर तक के मैदानी स्थलों को यहां से देखा जा सकता है। इसके अलावा सरोवरनगरी का यहां से `बर्ड आई व्यू´ भी लिया जा सकता है। किलबरी व पंगोठ (20 किमी) में प्रकृति का उसके वास्तविक रूप् में दर्शन, मां नयना देवी मन्दिर, गुरुद्वारा श्री गुरुसिंघ सभा, जामा मस्जिद व उत्तरी एशिया के पहली मैथोडिस्ट गिरिजाघर के बीच सर्वधर्म संभाव स्थल के रूप् में ऐतिहासिक फ्लैट क्षेत्र, एशिया के सर्वाधिक ऊंचाई वाले चिड़ियाघरों में शुमार नैनीताल जू (2100 मी.), 120 एकड़ भूमि में फैला ब्रिटेन के बकिंघम पैलेस की गौथिक शैली में बनी प्रतिमूर्ति राजभवन, 18 होल वाला गोल्फ ग्राउण्ड, झण्डीधार जहां आजादी के दौर में स्थानीय दीवानों ने तिरंगा फहराया था, रोप-वे की सवारी, रोमांच पैदा करने वाला केव गार्डन, प्रेमियों के स्थल ´लवर्स प्वाइंट´ व डौर्थी सीट, कई फिल्मों में दिखाए गए लेक व्यू प्वाइंट, हनुमानगढ़ी मन्दिर आदि स्थानों पर घूमा जा सकता है। निकटवर्ती एरीज से अनन्त ब्रह्माण्ड में असंख्य तारों व आकाशगंगाओं को खुली आंखों से निहारा जा सकता है, जो सामान्यतया बड़े शहरों से `प्रकाश प्रदूषण´ के कारण नहीं देखे जा सकते हैं।  
नजदीकी स्थल भी जैसे हार में नगीना 
नैनीताल जितना खूबसूरत है, उसके नजदीकी स्थल भी जैसे हार में नगीना हैं. हिमालय दर्शन  से छोड़ा आगे निकलें तो किलवरी ('वरी' यानी चिन्ताओं को 'किल' करने का स्थान) नामक स्थान से हिमालय को और अधिक करीब से निहारा जा सकता है। यहां से कुमाऊँ की अन्य पर्वतीय स्थलों द्वाराहाट, रानीखेत, अल्मोड़ा व कौसानी आदि की पहाड़ियां भी दिखाई देती हैं। वातावरण की स्वच्छता में लगभग 4 किमी दूर स्थित 'लेक व्यू प्वाइंट' से सरोवरनगरी को `बर्ड आई व्यू´ से देखने का अनुभव भी अलौकिक होता है। खगोल विज्ञान एवं अन्तरिक्ष में रुचि रखने वाले लोगों के लिए भी नैनीताल उत्कृष्ट है। निकटवर्ती स्थल पंगोठ, भूमियाधार, ज्योलीकोट व गेठिया में ´विलेज टूरिज्म´ के साथ दुनिया भर के अबूझे पंछियों से मुलाकात, रामगढ़ व मुक्तेश्वर की फल घाटी में ताजे फलों का स्वाद, सातताल, भीमताल, नौकुचियाताल, सरिताताल व खुर्प़ाताल में जल प्रकृति के अनूठे दर्शन मानव मन में नई हिलोरें भर देते हैं। कुमाऊं के अन्य रमणीक पर्यटक स्थलों अल्मोड़ा, रानीखेत, कौसानी, बैजनाथ, कटारमल, बागेश्वर, पिण्डारी, सुन्दरढूंगा, काफनी व मिलम ग्लेशियरों, जागेश्वर, पिथौरागढ़ व हिमनगरी मुनस्यारी के लिए भी नैनीताल प्रवेश द्वार है।
शिक्षा नगरी के रूप में भी जाना जाता है नैनीताल
नैनीताल को शिक्षा नगरी के रूप में भी जाना जाता है। दरअसल, इसके अंग्रेज निर्माताओं ने यहां की शीतल व शांत जलवायु को देखते हुऐ इसे विकसित ही इसी प्रकार किया। नैनीताल अंग्रेजों को अपने घर जैसा लगा था, और उन्होंने इसे `छोटी बिलायत´ के रूप में बसाया। सर्वप्रथम 1857 में अमेरिकी मिशनरियों के आने से यहां शिक्षा का सूत्रपात हुआ। उन्होंने मल्लीताल में ऐशिया का अमेरिकन मिशनरियों का पहला मैथोडिस्ट चर्च बनाया, तथा इसके पीछे ही नगर के पहले हम्फ्री हाईस्कूल की आधारशिला रखी, जो वर्तमान में सीआरएसटी इंटर कॉलेज  के रूप में नऐ गौरव के साथ मौजूद है। 1869 में यूरोपियन डायसन बॉइज स्कूल के रूप में वर्तमान के शेरवुड कालेज और लड़कियों के लिए यूरोपियन डायसन गर्ल्स स्कूल खोले गए, जो वर्तमान में ऑल सेंट्स कालेज के रूप में विद्यमान है। पूर्व मिस इण्डिया निहारिका सिंह सहित न जाने कितनी हस्तियां इस स्कूल से निकली हैं। इसके अलावा 1877 में ओक ओपनिंग हाइस्कूल के रूप में वर्तमान बिड़ला विद्या मन्दिर, 1878 में वेलेजली गर्ल्स हाइस्कूल के रूप में वर्तमान कुमाऊं विश्व विद्यालय का डीएसबी परिसर व सेंट मेरी'ज कान्वेंट हाई स्कूल, 1886 में सेंट एन्थनी कान्वेंट ज्योलीकोट तथा 1888 में सेंट जोजफ सेमीनरी के रूप में वर्तमान सेंट जोजफ कालेज की स्थापना हुई। इस दौर में यहां रहने वाले अंग्रेजों के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ते थे, और उन्हें अपने देश से बाहर होने या कमतर शिक्षा लेने का अहसास नहीं होता था। इस प्रकार आजादी के बाद 20वीं सदी के आने से पहले ही यह नगर शिक्षा नगरी के रूप में अपनी पहचान बना चुका था। खास बात यह भी रही कि यहां के स्कूलों ने आजादी के बाद भी अपना स्तर न केवल बनाऐ रखा, वरन `गुरु गोविन्द दोउं खड़े, काके लागूं पांय, बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द बताय´ की विवशता यहां से निकले छात्र-छात्राओं में कभी भी नहीं दिखाई दी। आज भी दशकों पूर्व यहां से निकले बच्चे वृद्धों के रूप में जब यहां घूमने भी आते हैं तो नऐ शिक्षकों में अपने शिक्षकों की छवि देखते हुऐ उनके पैर छू लेते हैं।
हर मौसम में सैलानियों का स्वर्ग
पहाड़ों का रुख यूँ सैलानी आम तौर पर गर्मियों में करते हैं। लेकिन इसके बाद भी, जब देश मानसून का इंतजार कर रहा होता है, यहां लोकल मानसून झूम के बरसने लगता है। इस दौरान यहां एक नया आकर्षण नजर आता है, जिसे नगर के अंग्रेज निर्माताओं ने अपने घर इंग्लैंड को याद कर ‘लंदन फॉग’ और ‘ब्राउन फॉग ऑफ इंग्लैंड’ नाम दिये थे। नगर की विश्व प्रसिद्ध नैनी सरोवर के ऊपर उठता और सरोवर को छूने के लिए नीचे उतरते खूबसूरत बादलों को ‘लंदन फॉग’ कहा जाता है। इन्हें देखकर हर दिल अनायास ही गा उठता है-‘आसमां जमीं पर झुक रहा है जमीं पर’, और ‘लो झुक गया आसमां भी…’। सरोवरनगरी नैनीताल सर्दियों के दिनों यानी `ऑफ सीजन´ में भी सैलानियों का स्वर्ग बनी रहती है। यहां इन दिनों मौसम उम्मीद से कहीं अधिक खुशगवार, खुला व गुनगुनी धूप युक्त होता है, नैनीताल (समुद्र सतह से ऊंचाई 1938 मी.) हर मौसम में आया जा सकता है। यहां की हर चीज लाजबाब है, जिसके आकर्षण में देश विदेश के लाखों  पर्यटक पूरे वर्ष यहां खिंचे चले आते हैं। सर्दियों में यहां होने वाली बर्फवारी के साथ गुनगुनी धूप भी पर्यटकों को आकर्षित करती है,इस दौरान यहां राज्य वृक्ष लाल बुरांश को खिले देखने का नजारा भी बेहद आकर्षित होता है। यहां की सर्वाधिक ऊंची चोटी नैना पीक ( 2611 मीटर) पर तो इन दिनों `दुनिया की छत´ पर खड़े होने का अनुभव अद्वितीय होता है। फिजाएं एकदम साफ खुली हुई, वातावरण में दूर दूर तक धुंध का नाम नहीं, ऐसे में सैकड़ों किमी दूर तक बिना किसी उपकरण, लेंस आदि के देख पाने का अनूठा अनुभव लिया जा सकता है। तब यहां न तो बेहद भीड़भाड़ व होटल न मिलने जैसी तमाम दिक्कतें ही होती हैं, सो ऐसे में यहां के प्राकृतिक सौन्दर्य का पूरा आनन्द लेना सम्भव होता है। इन दिनों यहाँ एक साथ कई आकर्षण सैलानियों को अपनी पूरी नैसर्गिक सुन्दरता का दीदार कराने के लिए जैसे तैयार होकर बैठे रहते हैं। कई दिनों तक आसमान में बादलों का एक कतरा तक मौजूद नहीं रहता। 
A very rare &  beautiful Winter Line in Nainital (My contest Feb.10)
नैनीताल से नजर आ रही ‘विंटर लाइन’ 
इस दौरान यहाँ कुदरत का अजूबा कही जाने वाली 'विंटर लाइन' भी नजर आती है, जिसके बारे में कहा जाता है कि  दुनियां में  स्विट्जरलेंड की बॉन वैली और उत्तराखंड में मसूरी से ही नजर आती है। बरसातों में कोहरे की चादर में शहर का लिपटना और उसके बीच स्वयं भी छुप जाने, बादलों को छूने व बरसात में भीगने का अनुभव अलौकिक होता है। गर्मियों की तो बात ही निराली होती है, मैदानी की झुलसाती गर्मी के बीच यहां प्रकृति ´एयरकण्डीशण्ड´ अनुभव दिलाती है। नैनी सरोवर में नौकायन के बीच पानी को छूना तो जैसे स्वर्गिक आनन्द देता है तो मालरोड पर सैर का मजा तो पर्यटकों के लिए अविस्मरणीय होता है। 
मसूरी व नैनीताल हैं देश की प्राचीनतम नगर पालिकाऐं
मसूरी व नैनीताल देश की प्राचीनतम नगर पालिकाऐं हैं। मसूरी में 1842 और नैनीताल में 1845 में पालिका बनाने की कवायद शुरू हुयी। बसने के चार वर्ष के भीतर ही  नैनीताल देश की दूसरी पालिका बन गया था। 3 अक्टूबर 1850 को यहाँ औपचारिक रूप से तत्कालीन कमिश्नर लूसिंग्टन की अध्यक्षता तथा मेजर जनरल सर डब्ल्यू रिचर्ड, मेजर एचएच आर्नोल्ड, कप्तान डब्ल्यूपी वा व पीटर बैरन की सदस्यता में पहली पालिका बोर्ड का गठन हुआ। लिहाजा मसूरी को तत्कालीन नोर्थ प्रोविंस की प्रथम एवं नैनीताल को दूसरी नगरपालिका होने का गौरव हासिल है। इससे पूर्व 1688 में प्रेसीडेंसी एक्ट के तहत मद्रास, कलकत्ता व मुम्बई जैसे नगर प्रेसीडेंसी के अन्तर्गत आते थे। तत्कालीन ईस्ट इण्डिया कंपनी उस दौर में 1857 के गदर एवं अन्य कई युद्धों के कारण आर्थिक रूप से कमजोर हो गई थी, लिहाजा उसका उद्देश्य स्थानीय सरकारों के माध्यम से जनता से अधिक कर वसूलना था। 
गांधीजी की यादें भी संग्रहीत हैं यहाँ 
नैनीताल एवं कुमाऊं के लोग इस बात पर फख्र कर सकते हैं कि महात्मा गांधी जी ने यहां अपने जीवन के 21 खास दिन बिताऐ थे। वह अपने इस खास प्रवास के दौरान 13 जून 1929 से तीन जुलाई तक 21 दिन के कुमाऊं प्रवास पर रहे थे। इस दौरान वह 14 जून को नैनीताल, 15 को भवाली, 16 को ताड़ीखेत तथा इसके बाद 18 को अल्मोड़ा, बागेश्वर व कौसानी होते हुए हरिद्वार, दून व मसूरी गए थे, और इस दौरान उन्होंने यहां 26 जनसभाएं की थीं। कुमाऊं के लोगों ने भी अपने प्यारे बापू को उनके 'हरिजन उद्धार' के मिशन के लिए 24 हजार रुपए दान एकत्र कर दिये थे। तब इतनी धनराशि आज के करोड़ों रुपऐ से भी अधिक थी। इस पर गदगद् गांधीजी ने कहा था विपन्न आर्थिक स्थिति के बावजूद कुमाऊं के लोगों ने उन्हें जो मान और सम्मान दिया है, यह उनके जीवन की अमूल्य पूंजी होगी। 14 जून का नैनीताल में सभा के दौरान उन्होंने निकटवर्ती ताकुला गांव में  स्व. गोबिन्द लाल साह के मोती भवन में रात्रि विश्राम किया था। इस स्थान पर उन्होंने गांधी आश्रम की स्थापना की, यहाँ आज भी उनकी कई यादें संग्रहीत हैं। इसी दिन शाम और 15 को पुनः उन्होंने नैनीताल में सभा की। यहाँ उन्होंने कहा, "मैंने आप लोगों के कष्टों की गाथा यहां आने से पहले से सुन रखी थी। किंतु उसका उपाय तो आप लोगों के हाथ में है। यह उपाय है आत्म शुद्घि। यह भाषण उन्होंने ताड़ीखेत में भी दिया था। 15  को ही उन्होंने भवाली में भी सभा कर खादी अपनाने पर जोर दिया। 16 को वह ताड़ीखेत के प्रेम विद्यालय पहुंचे और वहां भी एक बड़ी सभा में आत्म शुद्घि व खादी का संदेश दिया। 18 को वह अल्मोड़ा पहुंचे, जहां नगरपालिका की ओर से उन्हें सम्मान पत्र दिया गया। इसके बाद उन्होंने 15 दिन कौसानी में बिताए। कौसानी की खूबसूरती से मुग्ध होकर उसे भारत का स्विट्जरलैंड नाम दिया। 22 जून को कुली उतार आन्दोलन में अग्रणी रहे बागेश्वर का भ्रमण किया। यहां स्वतन्त्रता सेनानी शांति लाल त्रिवेद्वी, बद्रीदत्त पांडे, देवदास गांधी, देवकीनदंन पांडे व मोहन जोशी से मंत्रणा की। 15 दिन प्रवास के दौरान उन्होंने कौसानी में गीता का अनुवाद भी किया। गांधी जी दूसरी बार 18 जून 1931 को नैनीताल पहुंचे और पांच दिन के प्रवास के दौरान उन्होंने कई सभाएं की। इस दौरान उन्होंने संयुक्त प्रांत के गवर्नर सर मेलकम हैली से राजभवन में मुलाकात कर जनता की समस्याओं का निराकरण कराया। उनसे प्रांत के जमीदार व ताल्लुकेदारों ने भी मुलाकात की और गांधी के समक्ष अपना पक्ष रखा। इस यात्रा के बाद उत्तर प्रदेश व कुमाऊं में आन्दोलन तेज हो गया। 

                     पृथक उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में सक्रिय भूमिका रही नैनीताल की 

(पृथक उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौरान नैनीताल में शहीद हुए प्रताप सिंह का परिवार)
पृथक उत्तराखण्ड राज्य का आन्दोलन पहली बार एक सितम्बर 1994 को तब हिंसक हो उठा था, जब खटीमा में स्थानीय लोग राज्य की मांग पर शांतिपूर्वक जुलूस निकाल रहे थे। जलियांवाला बाग की घटना से भी अधिक वीभत्स कृत्य करते हुए तत्कालीन यूपी की अपनी सरकार ने केवल घंटे भर के जुलूस के दौरान जल्दबाजी और गैरजिम्मेदाराना तरीके से जुलूस पर गोलियां चला दीं, जिसमें सर्वधर्म के प्रतीक प्रताप सिंह, भुवन सिंह, सलीम और परमजीत सिंह शहीद हो गए। यहीं नहीं उनकी लाशें भी सम्भवतया इतिहास में पहली बार परिजनों को सौंपने की बजाय पुलिस ने `बुक´ कर दीं। यह राज्य आन्दोलन का पहला शहीदी दिवस था। इसके ठीक एक दिन बाद मसूरी में यही कहानी दोहराई गई, जिसमें महिला आन्दोलनकारियों हंसा धनाई व बेलमती चौहान के अलावा अन्य चार लोग राम सिंह बंगारी, धनपत सिंह, मदन मोहन ममंगई तथा बलबीर सिंह शहीद हुए। एक पुलिस अधिकारी उमा शंकर त्रिपाठी को भी जान गंवानी पड़ी। इससे यहां नैनीताल में भी आन्दोलन उग्र हो उठा। यहां प्रतिदिन शाम को आन्दोलनात्मक गतिविधियों को `नैनीताल बुलेटिन´ जारी होने लगा। रैपिड एक्शन फोर्स बुला ली गई और कर्फ्यू लगा दिया गया। इसी दौरान यहां एक होटल कर्मी प्रताप सिंह आरपीएफ की गोली से शहीद हो गया। इसकी अगली कड़ी में दो अक्टूबर को दिल्ली कूच रहे राज्य आन्दोलनकारियों के साथ मुरादाबाद और मुजफ्फरनगर में ज्यादतियां की गईं, जिसमें कई लोगों को जान और महिलाओं को अस्मत गंवानी पड़ी। 
नैनीताल से पढ़ा था बांग्लादेश के नायक ने अनुशासन का पाठ
1971 में पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश को अलग राज्य की मान्यता दिलाने के लिए लड़ी गई लड़ाई के नायक फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने नैनीताल से अनुशासन का पाठ पढ़ा था। यह वह जगह है, जहां के शेरवुड कालेज से सैम नाम का यह बालक पांचवी से सीनियर कैंब्रिज (11वीं) तक पढ़ा। अपने मृत्यु से पूर्व शायद वही सबसे बुजुर्ग शेरवुडियन भी थे। उनका नैनीताल से हमेशा गहरा रिश्ता रहा। नैनीताल भी हमेशा उनके लिए शुभ रहा। सैम नैनीताल के शेरवुड कालेज में वर्ष 1921 में पांचवी कक्षा में भर्ती हुए थे। शुरू से पढ़ाई में मेधावी होने के साथ खेल कूद एवं अन्य शिक्षणेत्तर गतिविधियों में भी वह अव्वल रहते थे, जिसकी तारीफ स्कूल के तत्कालीन प्रधानाचार्य सीएच डिक्कन द्वारा हर मौके पर खूब की जाती थी। वर्ष 1928 में सीनियर कैंब्रिज कर वह लौट गए थे, लेकिन इस नगर और स्कूल को नहीं भूले। बताते हैं कि यहां से जाने के तुरन्त बाद उनका आईएमए में चयन हो गया था। स्कूल से जाने के बाद मानेकशॉ 1969 में एक बार पुन: शेरवुड के ऐतिहासिक स्थापना की स्वर्ण जयन्ती पर मनाए गए विशेष वार्षिकोत्सव में बतौर मुख्य अतिथि वापस लौटे। इस दौरान वह यहां के बच्चों से खुलकर मिले, और उन्हें अनुशासन व मेहनत के बल पर जीवन में सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। इसे संयोग कहें या कुछ और लेकिन नैनीताल ने इसी दौरान उन्हें एक बार फिर उनके साथ सुखद समाचार दिलाया। वह समाचार था उनके देश का थल सेनाध्यक्ष बनने का। इसके बाद ही पाकिस्तान से हुए 1971 के युद्ध में वह भारत की जीत के नायक बने और विश्व मानचित्र पर बाग्लादेश के नाम से एक नए देश का प्रादुर्भाव हुआ। उनके जीवन में आए चरमोत्कर्ष में नैनीताल और यहां के शेरवुड कालेज की महत्ता को भी निसन्देह स्वीकार किया जाता है। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन भी इसी स्कूल के छात्र रहे। इधर अपने ब्लॉग में  अमिताभ ने स्वीकार किया कि नैनीताल के शेरवुड में प्राचार्य की 'स्टिक' से पडी मार से ही अनुशासन  सीख वह इस मुकाम पर पहुंचे। बॉलीवुड व हॉलीवुड सहित  तीन महाद्वीपों में अपने अभिनय का जलवा बिखेत चुके अभिनेता कबीर बेदी और अमिताभ के भाई अजिताभ भी यहीं (शेरवुड) के छात्र रहे 
यहीं का था `एजे कार्बेट फ्रॉम नैनीताल´
जिम कार्बेट का जन्म 25 जुलाई 1875 को नैनीताल में हुआ था। उन्होंने अपना पूरा जीवन नैनीताल के अयारपाटा स्थित गर्नी हाउस और कालाढुंगी स्थित `छोटी हल्द्वानी´ में बिताया। कहते हैं कि नैनीताल एवं उत्तराखण्ड से गहरा रिश्ता रखने वाले जिम ने 1947 में देश विभाजन की पीड़ा से आहत होकर एवं अपनी अविवाहित बहन मैगी की चिन्ता के कारण देश छोड़ा, और कीनिया के तत्कालीन गांव और वर्तमान में बड़े शहर नियरी में अपने भतीजे टॉम कार्बेट के माध्यम से इसलिए बसे कि वहां का माहौल व परंपराएं भी भारत और विशेशकर इस भूभाग से मिलती जुलती थी। जिम वहां विश्व स्काउट के जन्मदाता लार्ड बेडेन पावेल के घर के पास `पैक्सटू´ नाम के घर में अपनी बहन के साथ रहे, और वहीं 19 अप्रैल 1975 को उन्होंने आखरी सांस ली। घर के पास में ही स्थित कब्र में उन्हें पावेल की आलीशान कब्र के पास ही दफनाया गया, खास बात यह थी कि उनकी कब्र पर परंपरा से हटकर उनके मातृभूमि भारत व नैनीताल प्रेम को देखते हुए कब्र पर नैनीताल का नाम भी खोदा गया। उनके नैनीताल प्रेम को इस तरह और बेहतर तरीके से समझा जा सकता है कि नियरी के पास ही स्थित वन्य जीवन दर्शन के लिहाज से विश्व के सर्वश्रेष्ठ  व अद्भुत `ट्री टॉप होटल´ में उन्होंने सात पुस्तकें पूर्णागिरि मन्दिर पर `टेम्पल टाइगर एण्ड मोर मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं´, `माई इण्डिया´, `जंगल लोर´, `मैन ईटिंग लैपर्ड आफ रुद्रप्रयाग´ तथा `ट्री टॉप´ पुस्तकें लिखीं। इस होटल में जिम जब भी जाते थे, आवश्यक रूप से होटल के रिसेप्सन पर अपना परिचय `एजे कार्बेट फ्रॉम नैनीताल´ लिखा करते थे, जिसे आज भी वहां देखा जा सकता है। 
(नैनीताल में अपने परिवार के साथ जिम कार्बेट बीच में खड़े)
गत वर्ष कीनिया में जिम कार्बेट के आखिरी दिनों की पड़ताल कर लौटे नैनीताल निवासी भारतीय सांस्कृतिक निधि `इंटेक´ की राज्य शाखा के सहालकार परिषद अध्यक्ष पद्मश्री रंजीत भार्गव इसकी पुष्टि करते हैं। वह बताते हैं जिस प्रकार नैनीताल में जिम का पैतृक घर गर्नी हाउस और छोटी हल्द्वानी सरकार की ओर से उपेक्षित हैं, उसी तरह नियरी में उनकी कब्र भी धूल धूसरित स्थिति में है। 
(अभी यह पोस्ट निर्माणाधीन है, कोशिश है कि इसमें नैनीताल के अधिकाधिक पहलुओं को शामिल किया जाए. आप भी इसमें सहयोग अथवा संसोधन करना चाहते हैं तो  नीचे कमेंट्स से दे सकते हैं) 
फोटो सौजन्य: ब्रिटिश लाइब्रेरी
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