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Sunday, September 26, 2010

`पहाड़´ टूट गया, पर नहीं टूटे तो `नेता जी´


 प्रभावितों की मदद को जहां हर कोई हरसम्भव मदद कर रहा था, वहीं `नेता जी´ सिर्फ आश्वासन भर दे लौटे
नवीन जोशी, नैनीताल। जी हां, इसमें बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं। कभी मात्र नैनीताल के लिऐ काला दिवस रहा 18 सितम्बर (1880 में 151 लोगों को ज़िन्दा दफन किया था) जब इस वर्ष पूरे प्रदेश के लिए काला दिवस साबित हो रहा था। समूचा `पहाड़´ और पहाड़ के लोग `टूट´ चुके थे। आसमानी बारिश से निकला सैलाब आंखों से बहते `नीर´ से छोटा लगने लगा था। हर कोई प्रभावितों के लिए अपनी ओर से हर सम्भव मदद करने में जुटा हुआ था, वहीं एक ऐसा वर्ग भी था, जो अपनी फितरत बदलने से बाज नहीं आया। चुनावों की तरह भीख मांगने की अपनी आदत न बदल सका, और उसने कुछ दिया जो `आश्वासन´। 
1880 की ही तरह एक बुरे संयोग के साथ इस वर्ष भी एक और `काले शनिवार´ ने नैनीताल जनपद के ओखलकाण्डा विकास खण्ड अन्तर्गत रमैला गांव के डुंगर सिंह रमौला से घर की तीन बेटियों के रूप में `लक्ष्मी´ छीन लीं। एक मां-पिता पर टूटे इस पहाड़ पर मानो पहाड़ भी बिलख उठा जिला प्रशासन, गांव वालों, जिससे जो हो पड़ा, डुंगर की मदद की। लेकिन ऐसे में भी एक व्यक्ति उसे केवल आश्वासन का झुनझुना थमा कर चला आया। स्वयं समझ लीजिऐ, जी हां, वह एक नेता था। और केवल एक नेता ही नहीं, क्षेत्र का केवल विधायक भी नहीं, अभी हाल ही में अपना कद बड़ा कर लौटा प्रदेश का काबीना मंत्री था।
बीती 18 सितम्बर की सुबह सवा नौ बजे केवल 20 सेकेण्ड के अन्तराल में ओखलकाण्डा ब्लाक में मोरनौला-मझौला मोटर मार्ग का मलवा बहता हुआ नाले के रूप में करीब डेढ़ किमी नीचे रमैला गांव के लिए जल प्रलय लेकर आया। गांव से बाहर गया डुंगर सिंह रमौला तो बच गया, पर उसकी पत्नी हंसी घर पर आते सैलाब को जब तक समझ पाती, उसकी तीन बेटियां पूनम (आठ), बबीता (पांच) व दुधमुंही आठ माह की दीपा व दो वर्षीय बेटा दीपक सैलाब की चपेट में आ गईं। चीख सुनकर पड़ोस का नारायण सिंह बच्चियों को बचाने अपनी जान की परवाह किऐ बिना नाले में कूद पड़ा। हाथ में आ सके दीपक को उसने झाड़ियों की ओर फेंककर बमुश्किल बचाया, लेकिन बच्चियां बहती चली गईं। नारायण सिंह करीब 30 मीटर और हंसी भी दूर तलक बही। तीनों बच्चियों के शरीरों को आज तक नहीं खोजा जा सका है, जबकि उसी दिन बहे गांव के ही पूर्व प्रधान 83 वर्षीय बुजुर्ग देव सिंह का शव दो दिन पूर्व बरामद हो सका। इस दुर्घटना के दूसरे दिन डीएम शैलेश बगौली के निर्देशों पर एसडीएम के नेतृत्व में प्रशासनिक दल मौके पर पहुंचा, और शासकीय प्राविधानों पर मानवीय संवेदनाओं को ऊपर रखते हुऐ बच्चियों की मृत्यु मानते हुऐ परिजनों को राहत राशि दे दी। नियमों से बाहर जाकर दो कुंटल चावल व एक कुंटल आटा सहित अन्य खाद्य सामग्री भी बेघर हुऐ डुंगर को दी गई। गांव के अन्य प्रभावितों लाल सिंह व दीवान सिंह रमैला को भी राहत राशि दी गई, लेकिन उन्होंने स्वयं को समर्थ बताते हुऐ अपने हिस्से की राहत राशि भी डुंगर सिंह को दे दी। हल्द्वानी के नायब तहसीलदार भुवन कफिल्टया ने भी तीन-तीन बोरे आटा व चावल अपनी ओर से देकर प्रभावित परिवारों की मदद की। और लोगों ने भी आसरे और जीवन को वापस पटरी पर लाने में मदद की। 
यह तो हुई प्रशासनिक व व्यक्तिगत मदद की बात, अब बात नेताओं की। घटना के करीब एक सप्ताह बाद पूर्व विधायक व उत्तराखंड क्रांति दल के पूर्व केन्द्रीय अध्यक्ष डा. नारायण सिंह जन्तवाल मौके पर पहुंचे और प्रभावित परिवार को संवेदना व्यक्त कर और कुछ फोटो लेकर मदद का आश्वासन देते हुऐ लौट आऐ। वहीं आज घटना के नौ दिन बाद काबीना मंत्री गोविन्द सिंह बिष्ट मौके पर पहुंचे तो रमौला निवासी व शिक्षा विभाग कर्मी दीवान सिंह रमौला के अनुसार केवल आश्वासन भर देकर लौट आऐ। वहीं दौरे में साथ चल रहे भाजपा नेता प्रदीप बिष्ट ने भी यह स्वीकारते हुऐ बताया कि आज ही उन्होंने अक्सौड़ा पदमपुरी में अपनी पत्नी व माता को खोने वाले हरेन्द्र सिंह को घर व जमीन की सुरक्षा के लिए विधायक निधि से मदद का आश्वासन दिया। ऐसे में मंत्री जी का दो समान दुर्घटनाओं में विभेद समझ से परे है। (बताया जा रहा है कि हरेन्द्र सिंह उनकी पार्टी के कार्यकर्ता हैं, जबकि डुंगर सिंह नहीं हैं.) 
ऐसा हो भी क्यों नहीं। मंत्री जी के नेतृत्व और प्रदेश के अन्य नेताओं की फितरत भी देख लिऐ। राज्य का सत्तारूढ व विपक्षी दल दोनों इस दैवीय आपदा में अपने-अपने `मिशन 2012´ देख रहे हैं। 5,574 करोड़ की वर्षीक योजना वाले राज्य के मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल `निशंक´ केन्द्र से आपदा की क्षति का आंकड़ा 21 हजार करोड़ तक खींच चुके हैं। कांग्रेस के स्वयं को `भावी मुख्यमंत्री' मान रहे केन्द्रीय मंत्री हरीश रावत केन्द्र से मिले `500 करोड़´ को ही `केन्द्र की बहुत बड़ी कृपा´ साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानो केन्द्र `जनता की जेब से भरे खजाने´ से इतर अपनी 'गाँठ' से कुछ दे रहा हो, और राज्य सरकार मानो जनता के दु:ख दर्दों के प्रति इतनी ही सजग हो गई हो। बहरहाल, इन दावों की असलियत तब सामने आती है, जब आपदा के तुरन्त बाद अपने क्षेत्रों में जनता के दु:ख-दर्दों में हाथ बंटाने के बजाय हैलीकॉप्टर से राजधानी उड़े राज्य के अन्य विधायकों के साथ नैनीताल विधायक खड़क सिंह बोहरा हफ्ते भर बाद लौटकर विभिन्न सामाजिक संगठनों, व्यापारिक संगठनों और यहां तक कि छात्र संघ के आगे मदद के लिए हाथ पसारते दिखाई दिऐ।
आपदा की कुछ और फोटो देखें: http://www.facebook.com/album.php?aid=36832&id=100000067377967

Friday, September 3, 2010

उत्तराखंड का प्राचीन इतिहास: ताकि सनद रहे........

विश्व की तत्कालीन परिस्थितियों के आलोक में उत्तराखण्ड का इतिहास 
उत्तराखण्ड में अंग्रेजों का आगमन बिहार के सिघौली में 1815 में अंग्रेजों एवं गोर्खाओं के बीच हुई संधि के बाद हुआ। इससे पूर्व चन्द राजाओं के पतन के बाद गोर्खाओं के राज (कुमाऊं में 1790 से 1815 और गढ़वाल में 1804 से 1815 तक) में यहां के लोग खासे परेशान थे। गोर्खाली राज शासकीय जुल्मों का बेहद ही काला अध्याय रहा। इस दौर में कढ़ाई दीप व पाथर दान के मूर्खतापूर्ण तरीकों से दण्ड देने के प्राविधान थे। किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का शक भी होता, तो उसका `पाथर दान´ के तहत पत्थरों से वजन लिया जाता और एक माह तक उसे बिना भोजन, केवल पानी देकर गुफा में रखा जाता। एक माह बाद उसका पुन: वजन लिया जाता, जो निश्चित ही भोजन न मिलने से पहले से कम होता, और इस आधार पर उसे दोषी मान लिया जाता व कड़ी सजा दी जाती। इसी प्रकार `कढ़ाई दीप´ के तहत शक होने पर व्यक्ति के हाथ खौलते घी में डाले जाते और जलने पर उसे दोषी मान लिया जाता। इस कारण हर्ष देव जोशी, जो कि पूर्व में चन्द वंशीय राजाओं के अन्तिम दीवान थे, अंग्रेजों को यहां लेकर आऐ। अंग्रेजों के इस पर्वतीय भूभाग में आने के कारण यहां की प्राकृतिक सुन्दरता से अभिभूत होने के साथ ही व्यापारिक भी थे। उन दिनों भारत का तिब्बत व नेपाल से बड़ा व्यापारिक लेन-देन होता था। यहां जौलजीवी, बागेश्वर, गोपेश्वर व हल्द्वानी आदि में बड़े व्यापारिक मेले होते थे। 19वीं शताब्दी का वह समय औपनिवेशिक वैश्विकवाद व साम्राज्यवाद का दौर था। नऐ उपनिवेशों की तलाश व वहां साम्राज्य फैलाने के लिए फ्रांस, इंग्लैण्ड व पुर्तगाल जैसे यूरोपीय देश समुद्री मार्ग से भारत आ चुके थे, जबकि रूस स्वयं को इस दौड़ में पीछे रहता महसूस कर रहा था। कारण, उसकी उत्तरी समुद्री सीमा में स्थित वाल्टिक सागर व उत्तरी महासागर सर्दियों में जम जाते थे। तब स्वेज नहर भी नहीं थी। ऐसे में उसने काला सागर या भूमध्य सागर के रास्ते भारत आने के प्रयास किऐ, जिसका फ्रांस व तुर्की ने विरोध किया। इस कारण 1854 से 1856 तक दोनों खेमों के बीच क्रोमिया का विश्व प्रसिद्ध युद्ध हुआ। इस युद्ध में रूस पराजित हुआ, जिसके फलस्वरूप 1856 में हुई पेरिस की संधि में यूरोपीय देशों ने रूस पर काला सागर व भूमध्य सागर की ओर से सामरिक विस्तार न करने का प्रतिबंध लगा दिया। ऐसे में भारत आने के लिए उत्सुक रूस के भारत आने के अन्य मार्ग बन्द हो गऐ थे, और वह केवल तिब्बत की ओर के मार्गों से ही भारत आ सकता था। तिब्बत से उत्तराखण्ड के लिपुलेख, नीति, माणा व जौहार घाटी के पहाड़ी दर्रों से आने के मार्ग बहुत पहले से प्रचलित थे। यूरोपीय देशों को इन रास्तों की जानकारी कमोबेश 1624 से थी। 1624 में आण्ड्रा डे नाम के यूरोपीय ने श्रीनगर गढ़वाल के रास्ते ही शापरांग तिब्बत जाकर वहां चर्च बनाया था। इसलिए कंपनी सरकार ने रूस की उत्तराखण्ड के रास्ते भारत आने की संभावना को भांप लिया, लिहाजा उसके लिए `जियो पालिटिकल´ यानी भौगोलिक व राजनीतिक कारणों से उत्तराखण्ड बेहद महत्वपूर्ण हो गया था।
अंग्रेजों ने इन्हीं `जियो पालिटिकल´ कारणों के कारण यहां स्काटलेण्ड के अधिकारियों को कमिश्नर जैसे बड़े पदों पर रखा। स्काटलेण्ड इंग्लेण्ड का उत्तराखण्ड की तरह का ही पर्वतीय इलाका है, लिहाजा वहां के मूल निवासी अधिकारी यहां के पहाड़ों के हालातों को भी बेहतर समझ सकते थे। कुमाऊं कमिश्नर हैनरी रैमजे, जीडब्ल्यू ट्रेल, लूसिंग्टन आदि सभी स्काटलेण्ड के थे। इनमें से रैमजे कुमाउनीं में बातें करते थे, उन्होंने यहां कई सुधार कार्य किऐ, बल्कि उन्हें यदा-कदा लोग `राम जी´ भी कह दिया करते थे। ट्रेल ने एक अन्य यात्रा मार्ग ट्रेलपास की खोज की, नैनीताल की खोज का भी उन्हें श्रेय दिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने इस क्षेत्र से लोगों की धार्मिक भावनाओं का जुड़ाव व अप्रतिम सुन्दरता को अंग्रेजों की नज़रों से भी बचाने का प्रयास किया, और क्षेत्रीय लोगों से भी इस स्थान पर अंग्रेजों को न लाने को प्रेरित किया। लूसिंग्टन नैनीताल की बसासत के दौरान कमिश्नर थे। उन्होंने यहां सार्वजनिक हित के अलावा व्यक्तिगत कार्यों के लिए भूमि के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था, और यहां स्वयं का घर भी नहीं बनाया। उनकी कब्र आज भी नैनीताल में मौजूद है। इसका अर्थ यह हुआ कि उस दौर की कंपनी सरकार पहाड़ों के प्रति बेहद संवेदनशील थी।
शायद यही कारण रहा कि 1857 में जब देश कंपनी सरकार के खिलाफ उबल रहा था, पहाड़ में एकमात्र काली कुमाऊं में कालू महर व उनके साथियों ने ही रूहेलों से मिलकर आन्दोलन किऐ, हल्द्वानी से रुहेलों के पहाड़ की ओर बढ़ने के दौरान हुआ युद्ध व अल्मोड़ा जेल आदि में अंग्रेजों के खिलाफ छिटपुट आन्दोलन ही हो पाऐ। और जो आन्दोलन हुऐ उन्हें जनता का समर्थन हासिल नहीं हुआ। हल्द्वानी में 100 से अधिक रुहेले मारे गऐ। कालू महर व उनके साथियों को फांसी पर लटका दिया गया। 
शायद इसीलिए 1857 में जब देश में कंपनी सरकार की जगह `महारानी का राज´ कायम हुआ, अंग्रेज पहाड़ों के प्रति और अधिक उदार हो गऐ। उन्होंने यहां कई सुधार कार्य प्रारंभ किऐ, जिन्हें पूरे देश से इतर पहाड़ों पर अंग्रेजों द्वारा किऐ गऐ निर्माणों के रूप में भी देखा जा सकता है।
लेकिन इस कवायद में उनसे कुछ बड़ी गलतियां हो गईं। मसलन, उन्होंने पीने के पानी के अतिरिक्त शेष जल, जंगल, जमीन को अपने नियन्त्रण में ले लिया। इस वजह से यहां भी अंग्रेजों के खिलाफ नाराजगी शुरू होने लगी, जिसकी अभिव्यक्ति देश के अन्य हिस्सों से कहीं देर में पहली बार 1920 में देश में चल रहे `असहयोग आन्दोलन´ के दौरान देखने को मिली। इस दौरान गांधी जी की अगुवाई में आजादी की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस पार्टी यहां के लोगों को यह समझाने में पहली बार सफल रही कि अंग्रेजों ने उनके प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार जमा लिया है। कांग्रेस का कहना था कि वन संपदा से जुड़े जनजातीय व ऐसे क्षेत्रों के अधिकार क्षेत्रवासियों को मिलने चाहिऐ। इसकी परिणति यह हुई कि स्थानीय लोगों ने जंगलों को अंग्रेजों की संपत्ति मानते हुऐ 1920 में 84,000 हैक्टेयर भूभाग के जंगल जला दिऐ। इसमें नैनीताल के आस पास के 112 हैक्टेयर जंगल भी शामिल थे। इस दौरान गठित कुमाऊं परिशद के हर अधिवेशन में भी जंगलों की ही बात होती थी, लिहाजा जंगल जलते रहे। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान 1930-31 के दौरान और 1942 तक भी यही स्थिति चलती रही, तब भी यहां बड़े पैमाने पर जंगल जलाऐ गऐ। कुली बेगार जो कि वास्तव में गोर्खाली शासनकाल की ही देन थी, यह कुप्रथा हालांकि अंग्रेजों के दौरान कुछ शिथिल भी पड़ी थी। इतिहासकार पद्मश्री शेखर पाठक के अनुसार इसे समाप्त करने के लिए अंग्रेजों ने खच्चर सेना का गठन भी किया था। इस कुप्रथा के खिलाफ जरूर पहाड़ पर बड़ा आन्दोलन हुआ, जिससे पहाड़वासियों ने कुमाऊं परिषद के संस्थापक बद्री दत्त पाण्डे, हरिगोविन्द पन्त तथा चिरंजीवी लाल आदि के नेतृत्व में 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी के पर्व पर बागेश्वर में पीछा छुड़ाकर ही दम लिया। गढ़वाल में बैरिस्टर मुकुन्दी लाल के नेतृत्व में 30 जनवरी 21 को इसी तरह आगे से `कुली बेगार´ न देने की शपथ ली गई। सातवीं शताब्दी में कत्यूरी शासनकाल में भी बेगार का प्रसंग मिलता है। कहते हैं कि अत्याचारी कत्यूरी राजा वीर देव ने अपनी डोली पहाड़ी पगडण्डियों पर हिंचकोले न खाऐ, इसलिए कहारों के कंधों में हुकनुमा कीलें फंसा दी थी। कहते हैं कि इसी दौरान कुमाऊं का प्रसिद्ध गीत `तीलै धारो बोला...´ सृजित हुआ था। गोरखों के शासनकाल में खजाने का भार ढोने से लोगों के सिरों से बाल गायब हो गऐ थे। कुमाउनीं के आदि कवि गुमानी पन्त की कविता `दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब-शिब चूली में न बाल एकै कैका...´ कविता लिखी गई। 
                                                       (इतिहासविद् प्रो. अजय रावत से बातचीत के आधार पर)
उत्तराखंड में मिले हड़प्पा कालीन संस्कृति के भग्नावशेष
हड़प्पा कालीन है उत्तराखंड का इतिहास  
 महा पाषाण शवागारों से उत्तराखंड में आर्यों के आने की पुष्टि 
´ब्रिटिश कुमाऊं´ में भी गूंजे थे जंगे आजादी के `गदर में विद्रोह के स्वर
नवीन जोशी, नैनीताल। उत्तराखंड के पहाड़ों की भौगोलिक परिस्थितियां 1857 में देश के प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों से विद्रोह के अधिक अनुकूल नहीं थीं। सच्चाई यह भी थी कि अंग्रेजों के 1815 में आगमन से पूर्व यहां के लोग गोरखों का बेहद दमनात्मक राज झेल रहे थे, वरन उन्हें ब्रिटिश राज में कष्टों से कुछ राहत ही मिली थी। इसके बावजूद यहां भी जंगे आजादी के पहले 'गदर' के दौरान विद्रोह के स्वर काफी मुखरता से गूंजे थे। 








  • नैनीताल व अल्मोड़ा में फांसी पर लटकाए गए कई साधु वेशधारी क्रांतिकारी 
  • इनमें तात्या टोपे के होने की भी संभावना 
  • हल्द्वानी में शहीद हुए थे 114  क्रांतिकारी रुहेले 
  • काली कुमाऊं में बिश्ना कठायत व कालू महर ने थामी थी क्रान्ति की मशाल
इतिहासकारों के अनुसार ´ब्रिटिश कुमाऊं´ कहे जाने वाले बृहद कुमाऊं में वर्तमान कुमाऊं मण्डल के छ: जिलों के अलावा गढ़वाल मण्डल के चमोली व पौड़ी जिले तथा रुद्रप्रयाग जिले का मन्दाकिनी नदी से पूर्व के भाग भी शामिल थे। 1856 में जब ब्रितानी ईस्ट इण्डिया कंपनी के विरुद्ध देश भर में विद्रोह होने प्रारंभ हो रहे थे, यह भाग कुछ हद तक अपनी भौगोलिक दुर्गमताओं के कारण इससे अलग थलग भी रहा। 1815 में कंपनी सरकार यहां आई, जिससे पूर्व पूर्व तक पहाड़वासी बेहद दमनकारी गोरखों को शासन झेल रहे थे, जिनके बारे में कुमाऊं के आदि कवि ´गुमानी´ ने लिखा था ´दिन दिन खजाना का भार बोकना लै, शिब शिब चूली में का बाल न एकै कैका´ यानि गोरखे इतना शासकीय भार जनता के सिर पर थोपते थे, कि किसी के सिर में बाल ही नहीं उग पाते थे। लेकिन कंपनी सरकार को उर्वरता के लिहाज से कमजोर इस क्षेत्रा से विशेश राजस्व वसूली की उम्मीद नहीं थी, और वह इंग्लेण्ड के समान जलवायु व सुन्दरता के कारण यहां जुल्म ढाने की बजाय अपनी बस्तियां बसाकर घर जैसा माहौल बनाना चाहते थे। इतिहासकार पद्मश्री डा. शेखर पाठक बताते हैं कि इसी कड़ी में अंग्रेजों ने जनता को पहले से चल रही कुली बेगार प्रथा से निजात दिलाने की भी कुछ हद तक पहल की। इसके लिए 1822 में ग्लिन नाम के अंग्रेज अधिकारी ने लोगों के विस्तृत आर्थिक सर्वेक्षण भी कराए। उसने इसके विकल्प के रूप में खच्चर सेना गठित करने का प्रस्ताव भी दिया था। इससे लोग कहीं न कहीं अंग्रेजों को गोरखों से बेहतर मानने लगे थे, लेकिन कई बार स्वाभिमान को चोट पहुंचने पर उन्होंने खुलकर इसका विरोध भी किया। कुमाउंनी कवि गुमानी व मौला राम की कविताओं में भी यह विरोध व्यापकता के साथ रहा। इधर 1857 में रुहेलखण्ड के रूहेले सरदार अंग्रेजों की बस्ती के रूप में विकसित हो चुकी `छोटी बिलायत´ कहे जाने वाले नैनीताल को अंग्रेजों से मुक्त कराना चाहते थे, पर 17 सितम्बर 1857 को तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नर हेनरी रैमजे ने अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें हल्द्वानी के बमौरी दर्रे व कालाढुंगी से आगे नहीं बढ़ने दिया। इस कवायद में 114 स्वतंत्रता सेनानी क्रान्तिकारी रुहेले हल्द्वानी में शहीद हुए। इसके अलावा 1857 में ही रैमजे ने नैनीताल में तीन से अधिक व अल्मोड़ा में भी कुछ साधु वेशधारी क्रान्तिकारियों को फांसी पर लटका दिया गया। नैनीताल का फांसी गधेरा (तत्कालीन हैंग मैन्स वे) आज भी इसका गवाह है। प्रो. पाठक इन साधुवेश धारियों में मशहूर क्रांतिकारी तात्या टोपे के भी शामिल होने की संभावना जताते हैं, पर दस्तावेज न होने के कारण इसकी पुष्टि नहीं हो पाती।
इसी दौरान पैदा हुआ उत्तराखंड का पहला नोबल पुरस्कार विजेता
एक ओर जहां देश की आजादी के लिए पहले स्वतन्त्रता संग्राम चल रहा था, ऐसे में रत्नगर्भा कुमाऊं की धरती एक महान अंग्रेज वैज्ञानिक को जन्म दे रही थी। 1857 में मैदानी क्षेत्रों में फैले गदर के दौरान कई अंग्रेज अफसर जान बचाने के लिए कुमाऊं के पहाड़ों की ओर भागे थे। इनमें एक गर्भवती ब्रिटिश महिला भी शामिल थी, जिसने अल्मोड़ा में एक बच्चे को जन्म दिया। रोनाल्ड रॉस नाम के इस बच्चे ने ही बड़ा होकर   मलेरिया के परजीवी प्लास्मोडियम के जीवन चक्र  की खोज की, जिसके लिए उसे चिकित्सा का नोबल भी पुरस्कार प्राप्त हुआ।







उधर `काली कुमाऊं´ में बिश्ना कठायत व आनन्द सिंह फर्त्याल को अंग्रेजों ने विरोध करने पर फांसी पर चढ़ा दिया, जबकि प्रसिद्ध  क्रांतिकारी कालू महर को जेल में डाल दिया गया। ब्रिटिश कुमाऊं के ही हिस्सा रहे श्रीनगर में अलकनन्दा नदी के बीच पत्थर पर खड़ा कर कई क्रान्तिकारियों को गोली मार दी गई। 1858 में देश में ईस्ट इण्डिया कंपनी की जगह ब्रिटिश महारानी की सरकार बन जाने से पूर्व अल्मोड़ा कैंट स्थित आर्टिलरी सेना में भी विद्रोह के लक्षण देखे गए, जिसे समय से जानकारी मिलने के कारण दबा दिया गया। कई सैनिकों को सजा भी दी गईं। अंग्रेजों के शासकीय दस्तावेजों में यह घटनाएं दर्ज मिलती हैं, पर खास बात यह रही कि अंग्रेजों ने दस्तावेजों में कहीं उन क्रान्तिकारियों का नाम दर्ज करना तक उचित नहीं समझा, जिससे वह अनाम ही रह गऐ।